कुछ धारण करनेयोग्य अमूल्य बातें
आज आपलोगोंको कुछ ऐसी बातें बतलायी जाती हैं, जिनको नियमकी भाँति काममें लाना चाहिये। ये बातें बहुत अनमोल, सबके हितकी, अधिक-से-अधिक लाभदायक और लोक-परलोकमें कल्याण करनेवाली हैं। इन्हें नित्य काममें लानेकी इच्छासे पढ़ना चाहिये। केवल पढ़नेसे काम नहीं बनता, इनको जीवनमें उतारनेकी पूरी चेष्टा करनी चाहिये। बातें ये हैं—
१-प्रत्येक भाई-बहिनको अपने कल्याणके लिये नित्य नियमपूर्वक अधिक-से-अधिक संख्यामें भगवन्नामका जप करना चाहिये। रोज जितना करते हैं उससे अधिक करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
२-चलते-फिरते, उठते-बैठते, काम-काज करते, सब समय भगवान् को याद रखनेका अभ्यास करना चाहिये। पहले आध घंटेपर, फिर पंद्रह मिनटके अन्तरसे, फिर दस मिनटपर, फिर पाँच मिनटपर, इस प्रकार करते-करते निरन्तर भगवत्स्मरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। इसके लिये सबसे बढ़कर चार उपाय हैं। आपलोग इन्हें काममें लावें तो इनसे बड़ी सहायता मिल सकती है। उपाय ये हैं—
(क)—एकान्तमें बैठकर करुणभाव और गद्गद वाणीसे भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये कि ‘हे परमेश्वर! मैं हृदयसे आपकी स्मृति चाहता हूँ। आपसे आपकी स्मृति बनी रहनेकी भीख माँगता हूँ।’ इस प्रकार नित्य अपने-अपने भावोंके अनुसार भगवान् से कातर प्रार्थना करे। एक मिनटकी सच्ची प्रार्थनासे भी बड़ा लाभ होता है।
(ख)—नित्य नियमपूर्वक सत्संग करे, यदि कहीं सत्संग न मिले तो सद्ग्रन्थोंका स्वाध्याय एवं भगवद्वाक्योंका संग करे।
(ग)—समय बड़ा मूल्यवान् है। मनुष्यका शरीर मिल गया, यह भगवान् की बड़ी दया है। अब भी यदि भगवत्-प्राप्तिसे वंचित रह गये तो हमारे समान मूर्ख कौन होगा। हमें अपने अमूल्य समयको अमूल्य कार्यमें ही लगाना चाहिये। भगवान् की स्मृति ही अमूल्य है। इस प्रकार नित्य विचार करना चाहिये।
(घ)—मृत्यु न मालूम कब आ जाय, वह प्रतिक्षण हमारे सामने मुँह बाये खड़ी है! अत: जबतक निरन्तर भजन न होने लगे तबतक बड़ा खतरा है। इस प्रकार बराबर मृत्युको याद रखनेसे भी विषयोंमें वैराग्य होकर भगवत्स्मृति बनी रह सकती है।
इन चार उपायोंको काममें लानेसे भगवान् की स्मृतिमें मदद मिल सकती है।
३-नित्य प्रात:-सायं बड़ोंको प्रणाम करना चाहिये। यदि इसका अभ्यास छूट गया हो तो फिरसे प्रारम्भ कर देना चाहिये। दिनमें कम-से-कम एक बार तो अवश्य ही गुरुजनोंको प्रणाम करना चाहिये। ऐसा करनेसे घरमें कलह नहीं होता, जो कि बहुत बड़ा लाभ है तथा तप, तेज, आयु, कीर्ति, विनय, बल और धर्मकी वृद्धि एवं मरनेपर उत्तम गति प्राप्त होती है।
४-चौथी बात बहुत ही कीमती है। इसे आजसे ही काममें लानेकी चेष्टा करनी चाहिये। इससे बहुत थोड़े समयमें आपलोगोंके भाव सुधर सकते हैं। भगवान् भी जल्दी ही मिल सकते हैं। बात कुछ कठिन भी नहीं है। सबसे प्रेम बढ़ाइये। मेरे द्वारा दूसरेका हित कैसे हो, निरन्तर यही बात सोचते रहना चाहिये। यथाशक्ति सबकी सेवा-सहायता करनी चाहिये। स्वयं भगवान् ने गीतामें डंकेकी चोट कहा है—
‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:।’
(१२। ४)
‘जो सब भूतोंके हितमें लगे रहते हैं वे मुझे ही प्राप्त होते हैं।’
अत: सबकी सेवा करनी चाहिये। अपनेसे जो बड़े हैं, पूज्य हैं, दु:खी हैं, लाचार हैं, उनकी सेवाका और भी अधिक महत्त्व है। कोई भी मिल जाय, उसे देखकर प्रसन्न होना चाहिये। सबसे मीठा वचन बोलना चाहिये। प्रेमका व्यवहार करना चाहिये। अपनी दृष्टिसे सबको भगवान् का स्वरूप समझना चाहिये। सेवा भी इसी भावसे करनी चाहिये। सेवाका इतना भारी प्रभाव है कि उससे भगवान् अपने-आप मिल सकते हैं। इसलिये तन-मन-धनसे दीन-दु:खियोंकी, माता-पिता आदि गुरुजनोंकी, सबकी सेवा करनी चाहिये।
सेवा करनेके दो साधन हैं—दाम (धन) और काम (कर्म)। हमें भगवान् ने रुपये, भोग-पदार्थ, ऐश्वर्य आदि जो कुछ भी दिया है, वह यदि किसी प्रकार भी दूसरोंकी सेवामें लगे तो अपना अहोभाग्य समझना चाहिये। उसे दूसरोंको देकर बहुत प्रसन्न होना चाहिये और यह मानना चाहिये कि इस प्रकार आज मैंने भगवान् की ही सेवा की है। इसी प्रकार शरीरसे करनेयोग्य सेवाका कोई कार्य सामने आ जाय तो उसे खूब परिश्रमके साथ प्रसन्नचित्तसे करना चाहिये।
सेवाके ये दो साधन—दाम और काम—बड़े महत्त्वके हैं। एकमें ऐश्वर्यका त्याग है, दूसरेमें शारीरिक परिश्रम है अथवा यों कहें कि एकमें ममताका त्याग है, दूसरेमें अहंताका त्याग है। अहंता और ममता—ये दो बड़ी व्याधियाँ हैं। इनका त्याग होना अत्यावश्यक है। अत: कहीं भी सेवाका अवसर मिल जाय तो समझना चाहिये कि असली धन मिल गया। सेवाका काम मिल गया तो ऐसी प्रसन्नता होनी चाहिये मानो राम मिल गये।
अच्छे पुरुष अपने समयका एक-एक मिनट काममें लेते हैं। आयु समाप्त हो जाती है, पर काम नहीं समाप्त होता। भगवान् ने गीता २। ४० में कर्मयोगकी बड़ी प्रशंसा की है। स्वार्थका त्याग ही कर्मयोग है। यही असली धर्म है। इसका उलटा फल कभी नहीं होता, न इसका कभी नाश ही होता है। इसका थोड़ा-सा भी पालन किया जाय तो वह जन्म-मरणके बन्धनसे छुड़ा सकता है। इसीलिये सेवाको साक्षात् राम समझकर उसका आदर करना चाहिये और उसे तत्परताके साथ करनेकी पूरी चेष्टा करनी चाहिये।
सेवाके कई स्वरूप हैं। दूसरोंको मान-बड़ाई देना भी सेवा ही है। सेवा रत्नोंकी ढेरी है। उसे लूटनेकी चीज समझकर खूब लूटना चाहिये। कोई भी नीचा काम—जैसे पैर धुलाना, हाथ धुलाना, पत्तल उठाना आदि—मिल जाय तो समझना चाहिये कि भगवान् की विशेष दया है। यदि किसी बीमारकी टट्टी-पेशाब उठानेका काम मिल जाय तब तो भगवान् की पूर्ण दया समझनी चाहिये। सेवाकार्यमें जितना उच्च-भाव रखा जा सके, रखना चाहिये। यदि सेवाकार्यको साक्षात् परमात्माकी सेवा समझा जाय तब तो कहना ही क्या है? उससे परमात्मा बहुत जल्दी मिल सकते हैं।
यदि कोई व्यक्ति हमसे सेवा करावे तो हमें अपने ऊपर उसकी बड़ी दया समझनी चाहिये। समझना चाहिये कि वही दाता है। हमें मुक्त करनेके लिये हमसे सेवा करवा रहा है। किसीने हमारी सेवा स्वीकार कर ली तो समझना चाहिये कि उसने हमारा उद्धार कर दिया और यदि सेव्यको ईश्वर मानकर उसकी सेवा की जाय तब तो खुला दरबार है। सेवकको साक्षात् नारायणकी सेवाका लाभ हो सकता है। यह बड़े ऊँचे दर्जेका भाव है। सेवाको नारायणकी सेवा बनाना सेवकके हाथकी बात है।
अपने धन और ऐश्वर्यको अपने पूज्यजनों एवं दीन-दु:खियोंकी सेवामें समर्पित कर देना चाहिये। इससे भी ऊँचा भाव यह समझकर देना है कि साक्षात् नारायण ही उनके रूपमें प्रकट होकर हमारे धन और ऐश्वर्यको सेवाके रूपमें स्वीकार कर रहे हैं। इससे दूसरा लाभ यह समझना चाहिये कि हमारी ममताका परित्याग हो रहा है। हमारा बोझा हलका हो रहा है। तीसरा लाभ यह है कि धन और ऐश्वर्यके त्यागसे उदारता बढ़ती है, दया बढ़ती है, ये सद्गुण धन और ऐश्वर्यसे कहीं अधिक मूल्यवान् हैं। आज यदि हमारी मृत्यु हो जाय तो धन-ऐश्वर्य सब यहीं छूट जायँगे, अत: इन्हें बटोरकर रखनेसे कोई लाभ नहीं। ये उलटे हमारे लिये बन्धनरूप हैं। परन्तु यदि हमने इनको दूसरोंके उपकारमें लगा दिया, इनसे दूसरोंका उपकार हो गया तो समझ लीजिये कि उससे हमारा बड़ा हित हो गया। भगवान् की चीजें भगवान् के काममें लग गयीं। हमारा भार उतर गया। जीवनकी जोखिम बिक गयी। यदि ऐसा समझकर निष्कामभावसे अपना सारा स्वत्व दूसरोंकी सेवामें अर्पित कर दिया जाय तो उससे बड़ा भारी लाभ है।
इतनी बातें तो सबके लिये कही गयीं। अब कुछ स्त्रियोंके कामकी बातें विशेषरूपसे कहनी हैं। स्त्रियोंमें कुछ अज्ञानता अधिक होती है। उनमें लड़ाई-झगड़ा प्राय: अधिक होता है, इसका कारण उनकी बेसमझी ही है। घरमें प्रेम बढ़ानेके लिये उन्हें सबसे हँसकर बोलना चाहिये, सबके साथ विनयपूर्वक व्यवहार करना चाहिये। यदि कोई उनपर क्रोध करे तब भी उन्हें प्रसन्नतासे हँसकर मीठा उत्तर देना चाहिये। मिष्टभाषिता स्त्रियोंका प्रधान गुण है। जो स्त्री दूसरोंको मान-बड़ाई देती है सबके साथ विनय और प्रेमका बर्ताव करती है उसपर भगवान् बहुत शीघ्र प्रसन्न होते हैं और साथ-साथ उसके अहंकार तथा कठोरताका नाश होता है। यदि किसी स्त्रीके कारणसे घरमें कलह हो गया तो उसे ऐसा मानना चाहिये मानो मुझपर कलंक लग गया। इस बातका बराबर ध्यान रखना चाहिये कि अपने तो भलाई ही लेकर जाना है और भलाई तभी मिल सकती है जब हमारा व्यवहार सबके अनुकूल होगा।
स्त्रियाँ प्राय: भोली होती हैं, उनमें मोह और आसक्तिकी मात्रा अधिक होती है। उनकी गहनोंमें, कपड़ोंमें, शरीरमें, बाल-बच्चोंमें आसक्ति अधिक होती है; यह आसक्ति बन्धन है, मुक्तिमें बाधा डालनेवाली वस्तु है। दूसरेके हितके लिये उदारतापूर्वक इन वस्तुओंका त्याग करना चाहिये।
स्त्रियोंमें उदारताकी भी कमी होती है। किसी लक्षाधीशके घरकी मालकिन भी सालभरमें शायद ही सौ-दो-सौ रुपये अच्छे काममें खर्च करती हो! उदारताकी बड़ी आवश्यकता है। खासकर मारवाड़ी समाजकी स्त्रियोंमें इसकी बड़ी कमी है।
स्त्रियोंमें पुरुषोंकी ओर देखनेकी भी स्वाभाविक प्रवृत्ति होती है, यद्यपि स्त्रियोंकी अपेक्षा भी पुरुषोंमें यह आदत अधिक पायी जाती है। स्त्री-पुरुष दोनोंहीके लिये परपुरुष अथवा परस्त्रीकी ओर देखना ब्रह्मचर्यमें कलंक समझना चाहिये। विधवा स्त्रीको तो यह समझना चाहिये कि यदि किसी पुरुषकी ओर उसकी दृष्टि चली गयी तो उसका धर्म नष्ट हो गया।
स्त्रियाँ झाड़-फूँक और टोना आदिपर अधिक विश्वास करती हैं, यह सब वहम है। इस वहमका एकदम त्याग कर देना चाहिये। इन सबमें विश्वास करना धूर्तोंके चंगुलमें फँसना है। यदि कोई बीमार हो जाय तो उसके लिये औषधोपचारका प्रयत्न करना चाहिये। कोई कामना करनी हो तो सीधे परमेश्वरसे करनी चाहिये। पतिव्रता स्त्री तो कभी कामना करती ही नहीं। यदि करती भी है तो अपने पतिसे ही करती है, किसी दूसरेसे नहीं। इसी प्रकार ईश्वरको छोड़कर किसी दूसरेसे कामना न करे! परमपतिके रहते किसी दूसरेसे याचना क्यों की जाय? और सर्वोत्तम बात तो यह है कि किसीसे याचना करे ही नहीं। स्त्रियोंको चाहिये कि वे किसी कल्पित देवी-देवताके मन्दिरमें भूलकर भी न जायँ। बनावटी देवी-देवताओंकी रचना धूर्तोंने की है। उनकी मान्यता छोड़कर शास्त्रीय देवी-देवताकी उपासना करनी चाहिये। पार्वती, लक्ष्मी, सावित्री आदि देवियों; ब्रह्मा, शिव, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, वायु आदि देवताओं; व्यास, वसिष्ठ, नारद आदि ऋषि-महात्माओं और ध्रुव-प्रह्लाद, हनुमान् आदि महान् भक्तोंकी ही पूजा-उपासना करनी चाहिये। इनके स्मरणमात्रसे आत्मा पवित्र हो जाती है। इनके अलावा किसीके बहकावेमें पड़कर अशास्त्रीय देवी-देवताओंकी पूजा कदापि नहीं करनी चाहिये। नहीं तो धूर्तोंकी बन आती है। पीर, पैगम्बर इत्यादिका पूजन तो बिलकुल ही उठा देना चाहिये। इनका पूजन-अर्चन करना और इनसे किसी कामनाकी सिद्धि चाहना पाप और मूर्खताके सिवा और कुछ भी नहीं है। इनका परित्याग करके प्रत्येक स्त्रीको अपना घर शुद्ध-पवित्र बनाना चाहिये। पूजा या तो भगवान् की करनी चाहिये या शास्त्रीय देवी-देवताओंकी। भगवान् के भक्त तो देवताओंसे भी बढ़कर होते हैं।
स्त्रियोंको खान-पानमें भी भेदभाव नहीं रखना चाहिये। जो स्त्री घरमें खान-पानके सम्बन्धमें भेद-बुद्धि रखती है, वह मरकर चमगादड़ होती है—ऐसी बात शास्त्रोंमें लिखी है। इसलिये स्त्रियोंको चाहिये कि वे घरमें छोटे-बड़े सबको एक-सा भोजन परोसें, किसीको अच्छा और किसीको हलका नहीं।
स्त्रियोंके साथ-साथ पुरुषोंको भी अपने कर्तव्योंका पालन भलीभाँति करना चाहिये। पुरुषोंको लोभके त्यागका विशेष ध्यान रखना चाहिये। साथ-ही-साथ सत्यके पालनपर भी पूर्ण ध्यान देना चाहिये। प्राण जायँ तो भले ही जायँ, परन्तु सत्य कभी न जाय—यह व्रत बना लेना चाहिये। यदि पुरुष झूठ-कपट, पराया हक मारनेकी चेष्टा तथा लोभका त्याग कर दें तो बहुत जल्दी सुधार हो सकता है। पुरुषोंके लिये आसक्तिका त्याग सर्वप्रधान कर्तव्य है। विशेषकर कंचन, कामिनी और देहकी आसक्तिका त्याग बड़ी दृढ़ताके साथ करना चाहिये, काम, क्रोध और लोभ—ये तीन प्रबल शत्रु हैं—साक्षात् नरकमें ले जानेवाले हैं। इसलिये इनसे विशेष सावधान रहना चाहिये।
मान-बड़ाई अथवा प्रतिष्ठाकी इच्छा करना मृत्युकी इच्छा करनेके समान है। अच्छे-अच्छे आदमी इसमें फँसकर साधनसे च्युत हो जाते हैं। यहाँतक कि कंचन-कामिनीका त्याग करनेवाले भी इसमें फँसकर रुक जाते हैं, साधन-मार्गमें आगे नहीं बढ़ पाते। इनके आघातसे न जाने कितने पुरुष गिरकर चकनाचूर हो गये। इसलिये बड़ी सावधानीके साथ इनसे बचना चाहिये। वैराग्यका अभ्यास करना चाहिये और जीवनको कठोर संयमके साथ बिताना चाहिये। संयम मनुष्यकी रक्षा करनेके लिये एक सुदृढ़ किला है। उसे हर एक शत्रु नहीं तोड़ सकता। मन, बुद्धि और इन्द्रियोंको विषयोंसे रोकना ही संयम है। सांसारिक भोग-पदार्थोंसे इन्द्रियों और मनकी वृत्तियोंको वैराग्य, विवेक या भय दिखलाकर हठसे रोकना चाहिये। इसीसे रक्षा होती है।
प्रत्येक मनुष्यको अधिकारानुसार स्वाध्याय करना चाहिये। गीता, रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत, वेद, उपनिषद् आदिका स्वाध्याय करना सबसे बढ़कर है। गीता, रामायण और महापुरुषोंके वचनोंमें तो सबका अधिकार है और वे सबके लिये लाभप्रद हैं। इसलिये प्रतिदिन नियमसे एवं प्रेमपूर्वक उनका स्वाध्याय करना चाहिये। प्यारे मनमोहनको कभी बिसारना नहीं चाहिये, हृदयसे सदा-सर्वदा उनका स्मरण करते रहना चाहिये। प्राण चाहे छूट जायँ पर प्राणप्यारेकी स्मृति एक क्षणके लिये भी हृदयसे न हटे। नेत्र उन्हींको देखें, कान उन्हींकी चर्चा सुनें, वाणीसे उन्हींके गुणोंका कीर्तन और नामका जप हो, शरीरके द्वारा उन्हींको प्रणाम किया जाय और हाथ उन्हींकी सेवा-पूजामें लगे रहें। अर्थात् शरीर एवं मनसहित सारी इन्द्रियाँ भगवान् में लग जायँ, ऐसी चेष्टा करनी चाहिये। यही सच्चा पौरुष है।
अब कुछ बालकोंके लाभकी बातें कही जाती हैं। ये बड़ोंके भी कामकी हैं—
१-प्रत्येक बालकको इस बातकी चेष्टा करनी चाहिये कि उसके बलकी वृद्धि हो। इसमें चार बातें सहायक हैं—
क-ब्रह्मचर्यका पालन; इससे शरीरके साथ-साथ आत्मबलकी भी वृद्धि होती है।
ख-नित्यप्रति नियमपूर्वक व्यायाम करना; इससे शरीरमें पौरुष एवं स्फूर्तिका उदय होता है।
ग-सायं-प्रात: उचित मात्रामें दुग्ध-पान करना। दूध साक्षात् अमृत है, बल एवं बुद्धिकी वृद्धि करनेवाला इससे बढ़कर और कोई पदार्थ नहीं है। व्यायाम करके दूध पीनेसे विशेष लाभ होता है। दूधसे मन सात्त्विक बनता है।
घ-स्वास्थ्यकी बातोंपर विशेष ध्यान रखना; नीरोग रहनेके लिये अपना घर और शरीरके वस्त्रोंको साफ रखना अत्यन्त आवश्यक है।
२-प्रत्येक बालकको अपनी बुद्धिका विकास करना चाहिये। विद्या और सत्-शास्त्रोंके अभ्याससे बुद्धि बढ़ती है, वृद्ध और अच्छे पुरुषोंका संग, सेवा और नमस्कार करनेसे विचार निर्मल होते हैं। उत्तम गुणोंका संग्रह, उत्तम आचरण एवं शौचाचारका पालन करनेसे भी बुद्धि पवित्र एवं तीक्ष्ण होती है।
३-सब बालकोंको भगवान् की भक्ति अपने हृदयमें धारण करनी चाहिये। भगवद्भक्तिसे सदाचार और सद्गुणोंकी वृद्धि अपने-आप होने लगती है। भगवद्भक्ति उत्तम आचरणोंकी जड़ है। भगवान् का भजन, ध्यान, पूजा, प्रार्थना, नमस्कार, स्तुति—ये सब भक्तिके अंग हैं। बालकोंको इनपर विशेष ध्यान देना चाहिये।