कर्मयोगकी सुगमता
शंका—बहुत-से भाई कहते हैं कि ‘गीतामें श्रीभगवान् ने कर्मयोगकी प्रशंसा की है और ज्ञानयोगकी अपेक्षा कर्मयोगको सुगम बतलाया है। इतना ही नहीं, बल्कि यहाँतक कहा है कि कर्मयोगके बिना ज्ञानयोगका सफल होना कठिन है (गीता ५। ६)। किन्तु यह सुगमता समझमें नहीं आती। न वर्तमान कालमें ऐसे बहुत-से कर्मयोगी और उनके द्वारा किया हुआ कर्मयोगका आचरण ही देखनेमें आता है। क्योंकि कर्मोंमें फल और आसक्तिके त्यागका नाम कर्मयोग है; किन्तु फल और आसक्तिका त्याग करके कर्म किस प्रकारसे होते हैं, इस बातको समझानेवाला या करके दिखानेवाला ऐसा कोई नहीं दीखता जिसको आदर्श मानकर हमलोग कर्मयोगके पथपर चल सकें। अतएव हम यह जानना चाहते हैं कि वास्तवमें क्या बात है। गीतामें जो कर्मयोग बतलाया है और जिसे सुगम कहा है उसका सम्पादन तो बहुत ही कठिन प्रतीत होता है। यह कर्मयोग कथनमात्र है या सम्पादनयोग्य है? यदि सम्पादनके योग्य वास्तविक साधन हो तो उसके जाननेवाले और करनेवाले होने चाहिये; और यदि कोई भी जाननेवाला और करनेवाला नहीं, तो फिर यह सुगम साधन कैसे है?’
समाधान—ज्ञानयोगका प्रकरण अति गहन, दुर्विज्ञेय और अति सूक्ष्म है; इससे सबके लिये उसका करना तो दूर रहा, समझना भी कठिन है। इसलिये उसकी अपेक्षा कर्मयोगका साधन सुगम बतलाया गया है। क्योंकि जबतक अन्त:करण मलिन है तबतक देहाभिमान है और देहाभिमानीसे ज्ञानयोगका साधन बनना अत्यन्त दुष्कर है। इसलिये आसक्ति और स्वार्थ त्यागरूप कर्मयोगका सम्पादन करनेसे जब अन्त:करण पवित्र होता है तब उसमें ज्ञानयोगके सम्पादनकी योग्यता आती है; परन्तु कर्मयोगमें ऐसी बात नहीं है। कर्मयोगके साधनका आरम्भ तो देहाभिमानके रहते हुए ही अन्त:करणकी मलिन अवस्थामें भी हो सकता है और उसके द्वारा पवित्र हुई बुद्धिमें भगवत्कृपासे स्वाभाविक ही स्थिरता होकर और भगवद्भावका उदय होकर भगवान् की प्राप्ति हो सकती है। यही इसकी ज्ञानयोगकी अपेक्षा सुगमता और विशेषता है। इसलिये भगवान् ने गीतामें पाँचवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें कर्मयोगको श्रेष्ठ बतलाया है।
श्रीभगवान् ने आसक्ति और फल दोनोंके त्यागको कर्मयोग बतलाया है (गीता २।४८; १८।९), कहीं सम्पूर्ण कर्मों और पदार्थोंमें केवल आसक्तिके त्यागको कर्मयोग कहा है (६।४), और कहीं केवल सर्वकर्मफलके त्याग (१८।११), या कर्मफल न चाहने को (६।१) ही कर्मयोग कहा है। वास्तवमें इनमें सिद्धान्तत: कोई भेद नहीं है। फल और आसक्ति दोनोंके त्यागका नाम ही कर्मयोग है। इसलिये दोनोंके त्यागको कर्मयोग कहना तो ठीक है ही; जहाँ कर्मों और पदार्थोंमें केवल आसक्तिका त्याग कहा है वहाँ भी ऐसी ही बात है। कांचन, कामिनी, देह, मान-बड़ाई आदि पदार्थोंमें आसक्तिका त्याग होनेसे उन पदार्थोंके प्राप्त करनेकी इच्छाका यानी फलका त्याग स्वत: ही हो जाता है। क्योंकि फलकी इच्छाके उत्पन्न होनेमें आसक्ति ही प्रधान कारण है। कारणके त्यागमें कार्यका त्याग स्वत: ही हो जाता है। इसलिये पदार्थोंमें आसक्तिके त्यागसे फलका त्याग स्वत: हो जानेके कारण पदार्थोंमें आसक्ति न होनेको कर्मयोग कहना युक्तिसंगत ही है। अब रही केवल सर्वकर्मफलके त्यागकी या फल न चाहनेकी बात, सो कर्मफलके त्यागसे आसक्तिका त्याग हो जाता है और आसक्तिके त्यागसे कर्मफलका त्याग हो जाता है। अर्थात् एकके त्यागसे दूसरेका त्याग स्वाभाविक ही हो जाता है। इस लोक और परलोकके सम्पूर्ण पदार्थोंकी प्राप्तिकी इच्छाका त्याग ही फलकी इच्छाका त्याग है, इसीको स्वार्थत्याग कह सकते हैं। इस स्वार्थत्यागरूप धर्मके सेवनसे समस्त अनर्थोंकी मूल हेतु आसक्तिका शनै:-शनै: त्याग हो जाता है, इसलिये फलके त्यागसे स्वत: ही आसक्तिका त्याग हो जानेके कारण सर्वकर्मफलके त्यागसे या कर्मफल न चाहनेको कर्मयोग बतलाना भी युक्तिसंगत है।
यदि कोई कहे कि ‘जब सर्वकर्मफलके त्याग या फलके न चाहनेको ही कर्मयोग कहते हैं, तब फिर श्रीभगवान् ने जगह-जगह कर्मफलके त्यागके साथ ही जो आसक्तिके त्यागकी बात कही है उसकी क्या आवश्यकता है?’ इसका उत्तर यह है कि कर्मफलके त्यागसे आसक्तिका त्याग होकर भी कर्मयोगकी सिद्धि होती है और आसक्तिका त्याग हुए बिना सर्वथा स्वार्थत्यागपूर्वक कर्म हो नहीं सकते; अतएव आसक्तिका त्याग स्वार्थत्यागके अन्तर्गत ही समझ लेना चाहिये। असलमें दोनोंका त्याग ही कर्मयोग है। इस बातको स्पष्ट करनेके लिये ‘आसक्तिसहित कर्मफलका त्याग ही कर्मयोग है’ भगवान् का यह कथन युक्तियुक्त ही है।
प्राय: संसारके सभी मनुष्य मोहरूपी मदिराको पीकर उन्मत्त-से हो रहे हैं। उनमें कोई-सा ही समझदार पुरुष आत्माके कल्याणके लिये कोशिश करता है और कोशिश करनेवालोंमें भी कोई-सा ही पुरुष उस परमात्माको पाता है (गीता ७। ३)। ऐसी परमात्माकी प्राप्तिरूप अवस्थाको प्राप्त हुए पुरुषोंसे हमारी भेंट होनी भी दुर्लभ ही है। भेंट होनेपर भी श्रद्धाकी कमीसे हम उन्हें पहचान नहीं सकते, इसलिये वर्तमान कालमें ऐसे परमात्माको प्राप्त हुए योगी और ऐसे योगियोंद्वारा किये हुए आचरण यदि देखनेमें नहीं आते तो इसमें क्या आश्चर्य है?
भगवान् ने स्वयं भी (गीता ४।२ में) कहा है कि यह कर्मयोग बहुत कालसे नाशको प्राप्त हो गया है। इससे यह बात सिद्ध होती है कि उस कालमें भी इस योगको समझनेवाले बहुत लोग नहीं थे और इस समय भी बहुत नहीं हैं। क्योंकि सारे भूतप्राणी राग-द्वेषादि द्वन्द्वोंसे संसारमें मोहित हो रहे हैं। इसलिये परमात्माके बतलाये हुए इस कल्याणमय कर्मयोगके रहस्यको नहीं जानते। जिन पुरुषोंका स्वार्थ-त्यागरूप कर्मद्वारा पाप नाश हो गया है वही पुरुष इस कर्मयोगके रहस्यको जानते हैं।
वस्तुत: आजकल परमात्माको प्राप्त हुए महापुरुषोंका अभाव है; ऐसा नहीं कहा जा सकता; परन्तु हमें श्रद्धाकी कमीके कारण उनका दर्शन और परिचय नहीं प्राप्त होता। ऐसी अवस्थामें जब कर्मयोगका आचरण करके बतलानेवाला हमें कोई नहीं दीखता तो कल्याणकी इच्छा करनेवाले पुरुषको भगवान् के बतलाये हुए उपदेशोंको ही आदर्श मानकर तदनुसार आचरण करनेकी चेष्टा करनी चाहिये।
गीतामें बतलाया हुआ कर्मयोग कथनमात्र नहीं है, सम्पादन करनेयोग्य है; किन्तु उसके सम्पादनका तत्त्व न जानने तथा शरीर और संसारके पदार्थोंमें आसक्ति होने एवं श्रद्धाकी कमी होनेके कारण ही वह कठिन प्रतीत होता है। वास्तवमें कठिन नहीं है। भगवान् के कहे हुए वचनोंमें विश्वास करके उनके आज्ञानुसार स्वार्थके त्यागपूर्वक शास्त्रविहित कर्मोंका आचरण करते रहनेसे आसक्तिका नाश और कर्मयोगके तत्त्वका ज्ञान होता चला जाता है। इस प्रकार करते हुए जब आसक्तिका नाश और कर्मयोगके तत्त्वका ज्ञान हो जाता है, तब कर्मयोगका सम्पादन कठिन नहीं प्रतीत होता।
कर्मोंमें सब प्रकारके फलकी इच्छाके त्यागका नाम ही स्वार्थत्याग है। स्वार्थत्यागयुक्त कर्मोंसे राग-द्वेषादि दुर्गुणोंका एवं राग-द्वेषादिसे होनेवाले दुराचारोंका नाश हो जाता है। अतएव मनुष्यको उचित है कि भगवान् की शरण होकर स्वार्थत्यागयुक्त कर्मोंका सम्पादन करे। किन्तु इस बातपर विशेष ध्यान देना चाहिये कि कर्मोंमें स्वार्थत्याग किसका नाम है। हम मन, वाणी, शरीरद्वारा किसी भी शास्त्रविहित कर्मका आरम्भ करते हैं और उसका फल स्त्री, धन, पुत्र और शरीरका आराम आदि नहीं चाहते, इतने मात्रसे ही स्वार्थका त्याग नहीं समझा जाता। इन सबका त्याग तो मनुष्य मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाके लिये भी कर सकता है। अतएव इन सबके त्यागके साथ-साथ मान-बड़ाई-प्रतिष्ठाका एवं स्वर्गादिके भोगकी इच्छाका भी सर्वथा त्याग करके उस त्यागके अभिमानका भी त्याग होनेसे सर्वथा स्वार्थत्याग समझा जाता है।
हमलोग छोटे-छोटे स्वार्थोंके लिये परमात्माकी प्राप्तिरूप सच्चे स्वार्थको जो खो बैठते हैं, इसमें हमारी बेसमझी यानी मूर्खता ही कारण है। हमें इससे जो बड़ा भारी नुकसान होता है, इस बातपर मूर्खताके कारण हमारा विश्वास नहीं है। यत्किंचित् विश्वास है भी तो वह शंकायुक्त है; क्योंकि परमानन्द और परमशान्तिकी प्राप्तिकी बातें हम ग्रन्थोंमें पढ़ते हैं, इनकी प्राप्ति तो कभी हुई नहीं। शास्त्र और महात्मा पुरुष कहते हैं कि मान और बड़ाईकी इच्छाको विषके समान समझकर त्याग दो। ये मान और बड़ाई भगवत्प्राप्तिके मार्गमें बड़े भारी कण्टक हैं, साधकके लिये भगवान् के मार्गमें बाधा देनेवाले हैं एवं इनकी विशेष लालसा होनेसे तो ये दम्भ और पाखण्डको उत्पन्न करके साधकका पतन करनेवाले भी हो जाते हैं। बुद्धिद्वारा विचार करनेपर ऐसी प्रतीति भी होती है। परन्तु मान और बड़ाईकी प्राप्ति होनेपर प्रत्यक्षमें सुख प्रतीत होता है और उसमें आसक्ति उत्पन्न होकर मान-बड़ाईकी इच्छा हो ही जाती है। इन सभी बातोंमें हेतु हमारी बेसमझी यानी मूर्खता ही है। जैसे कोई रोगी मनुष्य आसक्तिके कारण स्वादके वशीभूत हो कुपथ्य सेवन करके अपना दु:ख बढ़ा लेता है, कोई-कोई तो मृत्युको प्राप्त हो जाता है। इस कुपथ्यके सेवनमें भी विचार करके देखा जाय तो जैसे रोगीकी मूर्खता ही हेतु है, इसी प्रकार स्त्री, पुत्र, धन, देह और मान-बड़ाई आदिमें जो हमारी आसक्ति है, उसमें भी मूर्खता ही हेतु है। जो रोगी वैद्य, औषध और पथ्यपर श्रद्धा करके कुपथ्यसे बचकर औषधका सेवन और पथ्यका पालन करता है, वह आरोग्य हो जाता है। ऐसे ही जो मनुष्य शास्त्र और महापुरुषोंद्वारा बतलाये हुए दुर्गुण और दुराचाररूप कुपथ्यको त्यागकर श्रद्धापूर्वक ईश्वर-भक्तिरूप औषधका सेवन और सदाचार सद्गुणरूपी पथ्यका पालन करता है वह जन्म-मरणरूप महान् भवरोगसे मुक्त हो जाता है। लौकिक औषधका सेवन करनेवाला तो अदृष्ट प्रतिकूल होनेसे शायद आरोग्य नहीं भी होता, परन्तु इस औषध तथा पथ्यका सेवन करनेवाला तो निश्चय ही जन्म-मरणरूप दु:खोंसे मुक्त हो जाता है; क्योंकि इसमें अदृष्ट बाधक नहीं हो सकता।
हमलोग जितने कर्म करते हैं, सबमें प्रथम यही भाव मनमें उत्पन्न होता है कि इससे हमको क्या लाभ होगा! स्वाभाविक ही इस प्रकार हमारी बुद्धि स्वार्थकी ओर चली जाती है। अतएव क्रियाके आरम्भके समय जब स्वार्थबुद्धि उत्पन्न हो तभी उसका बाध कर देना चाहिये। हम जिसको लाभ समझते हैं, वह सांसारिक लाभ वास्तवमें लाभ ही नहीं है। लाभ वही है जो वास्तविक हो और जिसका कभी अभाव न हो। ऐसा वास्तविक लाभ सांसारिक लाभोंके त्यागसे प्राप्त होता है। अतएव क्रियाके आरम्भके समय व्यक्तिगत भौतिक स्वार्थकी जो इच्छा उत्पन्न हो उसको अनर्थका मूल समझकर तुरंत उसका त्याग कर देना चाहिये।
हमलोगोंमें भौतिक स्वार्थकी मात्रा इतनी बढ़ गयी है कि हम अपने असली स्वार्थको तो समझ ही नहीं पाते। इसके लिये हमें पद-पदपर परमेश्वरका स्मरण करके उनसे प्रार्थना करनी चाहिये, जिससे हम सदा सावधान रह सकें और अपना असली स्वार्थ वस्तुत: किस बातमें है—उसको समझकर अनर्थकारी भौतिक स्वार्थोंसे बच सकें।
जिन पुरुषोंने भगवान् के गुण, प्रभाव और तत्त्वको समझकर भगवान् की शरण ग्रहण कर ली है, उनके लिये तो यह कर्मयोगका तत्त्व और भी सुगम है, यद्यपि पुत्र, स्त्री, गृह, धन और देहादिमें प्रीति होनेके कारण इनकी प्राप्तिरूप स्वार्थकी इच्छाका त्याग होना कठिन है तथा मान-बड़ाईका त्याग तो इनसे भी अत्यन्त ही कठिन है, तथापि जिन पुरुषोंने भगवान् के गुण, प्रभाव और तत्त्वको समझकर भगवान् की शरण ग्रहण कर ली है, उनके लिये तो यह कर्मयोगका तत्त्व और भी सुगम है। शरीर और संसारमें आसक्ति होनेके कारण संसारके पदार्थोंकी आवश्यकता प्रतीत होती है और आवश्यकताके कारण कामना होती है एवं कामनाकी पूर्तिके लिये मनुष्य कर्मोंका सम्पादन करता है। उनसे कामनापूर्ति न होनेपर वह याचनातक करनेको प्रवृत्त हो जाता है। अतएव इन सब अनर्थोंका मूल आसक्ति ही है, जिसे हम ‘राग’ कह सकते हैं। यह राग अनुकूलतामें होता है और सुखके देनेवाले पदार्थ ही मनुष्यको अनुकूल प्रतीत होते हैं। इससे प्रतिकूल दु:खदायी पदार्थोंमें द्वेष होता है और उस द्वेषसे वैर, ईर्ष्या, क्रोध, भय और सन्ताप आदि अनेकों दुर्भाव उत्पन्न होकर हिंसादि कर्मके द्वारा मनुष्यका पतन हो जाता है। अतएव सारे अनर्थोंके हेतु ये राग-द्वेष ही हैं। इन राग द्वेषका कारण मोह (अज्ञान) है। भगवान् की कृपासे जब इस बातका रहस्य पूर्णतया मनुष्यकी समझमें आ जाता है, तब उसके राग-द्वेष क्षीण हो जाते हैं और क्षीण हुए राग-द्वेष श्रीपरमेश्वरके नाम, रूप, गुण और प्रभावके स्मरण और मननसे नाशको प्राप्त हो जाते हैं। फिर मन और इन्द्रियाँ स्वाभाविक ही उसके अधीन हो जाती हैं। ऐसी अवस्थामें उसके द्वारा आसक्ति और स्वार्थ-त्यागरूप कर्मयोगका सम्पादन बड़ी सुगमतासे होता है, जिससे वह परम आनन्द और परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है।