कर्मयोगका रहस्य
कर्मयोगका रहस्य बड़ा ही गहन है। इसका वास्तविक तत्त्व या तो श्रीपरमेश्वर जानते हैं या वे महापुरुष भी जानते हैं जिन्होंने कर्मयोगद्वारा परमेश्वर (परमात्मा)-को प्राप्त कर लिया है। मुझ-जैसे व्यक्तिके लिये तो इस रहस्यका व्यक्त करना अत्यन्त ही कठिन है, क्योंकि कर्मयोगके रहस्यको वास्तवमें मैं अच्छी प्रकार नहीं जानता। इसके अतिरिक्त यत्किंचित्—जितना कुछ जानता हूँ उतना कह नहीं सकता और जितना कहता हूँ उतना स्वयं काममें नहीं ला सकता, तथापि अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार कर्मयोगके रहस्यका कुछ अंश प्रश्नोत्तरके रूपमें व्यक्त करनेका प्रयत्न करता हूँ। श्रीभगवान् कहते हैं—
नेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवायो न विद्यते।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात्॥
(गीता २। ४०)
‘इस निष्काम कर्मयोगमें आरम्भका अर्थात् बीजका नाश नहीं है (और) उलटा फलरूप दोष (भी) नहीं होता है (इसलिये) इस (निष्कामकर्मयोगरूप) धर्मका थोड़ा भी (साधन) जन्म-मृत्युरूप महान् भयसे उद्धार कर देता है।’
प्रश्न—निष्काम कर्मयोगके आरम्भका नाश नहीं होता इसका क्या अभिप्राय है? क्या एक बार प्रारम्भ होनेपर यह चालू ही रहता है, या जितना बन गया, उसका नाश नहीं होता?
उत्तर—पूर्वसंचित पाप, अहंता-ममता और आसक्ति आदि अवगुणोंके कारण तथा विषय-भोगोंका एवं प्रमादी विषयी पुरुषोंका संग होनेसे मार्गमें रुकावट तो हो जाती है; किन्तु निष्कामकर्मयोगरूप धर्मका जितना पालन हो जाता है, उसका नाश नहीं होता। क्योंकि फल और आसक्तिको त्यागकर भगवदाज्ञानुसार समत्वभावसे किये हुए साधनके नाश होनेका कोई भी कारण नहीं है। फलकी इच्छासे किया हुआ कर्म ही फलको देकर समाप्त होता है।
प्रश्न—प्रत्यवाय यानी उलटे फलरूप दोषका भागी नहीं होता—इसका क्या अभिप्राय है?
उत्तर—मनुष्य जैसे अपना उपकार करनेवालेकी सेवा न करनेसे दोषका भागी होता है तथा जैसे देव, पितर, राजा, मनुष्यादिकी सेवामें किसी कारणवश त्रुटि हो जानेपर उनके रुष्ट होनेसे उसका अनिष्ट भी हो सकता है; किन्तु निष्काम कर्मयोगके पालनमें त्रुटि रहनेपर भी उसका उलटा फल यानी कर्ताका अनिष्ट नहीं होता तथा नहीं पालन करनेसे वह दोषका भागी भी नहीं होता।
प्रश्न—कोई-कोई प्रत्यवाय शब्दका विघ्न अर्थ करते हैं; क्या यह भी बन सकता है?
उत्तर—‘विघ्न’ अर्थ युक्तिसंगत नहीं है। निष्काम-कर्मयोगरूप धर्मके पालनमें विघ्न-बाधा तो आ सकती है, किन्तु उसका परिणाम बुरा नहीं होता। अच्छा ही होता है। (गीता ६। ४०—४२)
प्रश्न—यहाँ ‘अपि’ शब्द किस बातका द्योतक है?
उत्तर—जब कि इस निष्काम कर्मयोगका थोड़ा साधन भी महान् भयसे उद्धार करनेवाला है तब इसका पूर्ण साधन महान् भयसे मुक्त कर देता है, इसमें तो कहना ही क्या है।
प्रश्न—इस निष्काम कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा भी पालन महान् भयसे कैसे उद्धार करता है?
उत्तर—निष्काम कर्मयोगरूप धर्मका थोड़ा भी पालन संस्कारके बलसे क्रमश: वृद्धिको प्राप्त होकर अन्तमें साधकको मुक्त कर देता है।
प्रश्न—जब कि यह निष्काम कर्मयोगका थोड़ा साधन वृद्धिको प्राप्त होकर ही महान् भयसे उद्धार करता है तब फिर थोड़ेका क्या महत्त्व रहा?
उत्तर—निष्कामभावका परिणाम संसारसे उद्धार करना है। अत: वह अपने परिणामको सिद्ध किये बिना न तो नष्ट होता है और न उसका कोई दूसरा फल ही हो सकता है, अन्तमें साधकको पूर्ण निष्कामी बनाकर उसका उद्धार कर ही देता है यही इसका महत्त्व है।
प्रश्न—जो लोग धार्मिक संस्थाओंमें स्वार्थ त्यागकर बिना वेतन लिये या स्वल्प वेतन लेकर तन-मनसे काम करनेवाले हैं, उनका कर्म स्वार्थरहित होनेके कारण उसे तो निष्काम कर्मयोग ही मानना चाहिये, किंतु निष्काम कर्मयोगके पालन करनेसे जितना लाभ बतलाया जाता है उतना लाभ देखनेमें नहीं आता, इसका क्या कारण है?
उत्तर—निष्काम कर्मयोगसे जितना लाभ होना चाहिये, उतना लाभ अपने साधनसे होता नजर नहीं आता, इस प्रकार वे सेवा करनेवाले भाई भी कहते हैं; अत: सम्भव है कि निष्काम कर्मयोगके रहस्यको न जाननेके कारण उनमें वास्तविक त्यागकी कमी है, इसीलिये वे पूरा लाभ नहीं उठा सकते, नहीं तो उन लोगोंको निष्काम कर्मयोगके साधनका जितना लाभ गीतादि शास्त्रोंमें बतलाया है, उसके अनुसार लाभ उन्हें अवश्यमेव मिलता। केवल कंचन-कामिनीके बाहरी त्यागसे ही मनुष्य सर्व-त्यागी नहीं होता। वास्तवमें कंचन-कामिनीका बाहरी त्याग निष्काम कर्मयोगके साधनमें उतना आवश्यक भी नहीं है, उसमें तो भावकी ही प्रधानता है। अत: इसमें स्त्री, पुत्र और धनादिसे मिलनेवाले विषयभोगरूप सुखत्यागके साथ-साथ मान-बड़ाई, प्रतिष्ठा एवं राग, द्वेष, अहंता, ममता आदिके त्यागकी भी बड़ी आवश्यकता है, जबतक इन सबका त्याग नहीं होता तबतक साधकको पूरा लाभ नहीं मिल सकता।
प्रश्न—निष्काम कर्मयोगके अनुसार क्या इन लोगोंका थोड़ा भी साधन नहीं होता?
उत्तर—जो जितना त्याग करता है उतने अंशमें उसका साधन अवश्य होता है तथा लाभ भी उसके अनुसार उसे अवश्य ही मिलना चाहिये।
प्रश्न—जब कि कर्मयोगका थोड़ा भी साधन महान् भयसे तार देता है तो फिर अधिक न भी हो तो क्या आपत्ति है? क्योंकि उद्धार तो उसका हो ही जायगा।
उत्तर—उद्धार तो होगा किन्तु समयका नियम नहीं। न मालूम इस जन्ममें हो या जन्मान्तरमें; क्योंकि वह थोड़ा-सा साधन क्रमश: वृद्धिको प्राप्त होकर ही उद्धार करेगा। अतएव साधनकी कमीको मिटानेके लिये शीघ्र कल्याण चाहनेवाले मनुष्यको तो तत्पर होकर ही प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।
प्रश्न—कर्मयोगके थोड़े साधनसे यहाँ क्या अभिप्राय है?
उत्तर—प्रथम तो कर्मयोगका स्वरूप समझना चाहिये। शास्त्रविहित उत्तम क्रियाका नाम कर्म है, उसमें आसक्ति और स्वार्थके सर्वथा त्यागपूर्वक समत्वभावका यानी निष्कामभावका नाम योग है। यह निष्कामभाव ही इसका स्वरूप, प्राण और रहस्य है। इसलिये जिस कर्ममें निष्कामभाव है उसीकी ‘कर्मयोग’ संज्ञा है। जिन शास्त्रोक्त उत्तम क्रियाओंमें निष्कामभाव नहीं है उनकी ‘कर्म’ संज्ञा है किन्तु ‘कर्मयोग’ नहीं। इसलिये सकामभावसे आजीवन किये हुए यज्ञ, दान, तप आदि ऊँचे-से-ऊँचे अनेकों कर्म भी क्षणभंगुर फल देनेवाले होनेके कारण महत्त्वके नहीं हैं, परन्तु निष्कामभावसे अल्प मात्रामें किये हुए शास्त्रविहित कृषि, वाणिज्य, नौकरी और शिल्पक्रिया आदि साधारण कर्म भी परम कल्याणदायक होनेके कारण महान् हैं। अतएव जिसका नाम निष्काम कर्मयोग है उसका थोड़ा भी पालन यानी अल्प मात्रामें किया हुआ भी वह साधन क्रमसे वृद्धिको प्राप्त होकर महान् भयसे मुक्त कर देता है; किन्तु सकामभावसे किये हुए शास्त्रविहित बहुत-से कर्म भी जन्म-मरणरूप महान् भयसे मुक्त नहीं कर सकते।
प्रश्न—निष्काम कर्मयोगका स्वरूप विस्तारपूर्वक बतलाइये।
उत्तर—शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मोंमें फल और आसक्तिको त्यागकर भगवदाज्ञानुसार समत्वबुद्धिसे केवल भगवत् अर्थ या भगवत्-अर्पण कर्म करनेका नाम निष्काम कर्मयोग है। इसीको समत्वयोग, बुद्धियोग, कर्मयोग, तदर्थकर्म, मदर्थकर्म, मत्कर्म इत्यादि नामोंसे कहा है।
प्रश्न—कर्मोंमें फलके त्यागका क्या स्वरूप है?
उत्तर—स्त्री, पुत्र, धन, ऐश्वर्य, मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और स्वर्ग आदि सांसारिक सुखदायक सम्पूर्ण पदार्थों इच्छा या कामनाका सर्वथा त्याग ही कर्मोंके फलका त्याग है।
प्रश्न—आसक्तिका त्याग किसे कहते हैं?
उत्तर—मन और इन्द्रियोंके अनुकूल सांसारिक सुखदायक पदार्थों और कर्मोंमें चित्तको आकर्षण करनेवाली जो स्नेहरूपा वृत्ति है; ‘राग’, ‘रस’, ‘संग’ आदि जिसके नाम हैं उसके सर्वथा त्यागका नाम आसक्तिका त्याग है।
प्रश्न—भगवत्-आज्ञासे यहाँ क्या अभिप्राय है?
उत्तर—श्रुति, स्मृति, गीतादि सत्-शास्त्र तथा महापुरुषोंकी आज्ञा भगवत-आज्ञा है।
प्रश्न—समत्वबुद्धि किसे कहते हैं?
उत्तर—सुख-दु:ख, लाभ-हानि, जय-पराजय, यश-अपयश, जीवन-मरण आदि इष्ट-अनिष्टकी प्राप्तिसे सदा-सर्वदा सम रहना समत्वबुद्धि है।
प्रश्न—भगवत्-अर्थ और भगवत्-अर्पण कर्ममें क्या भेद है?
उत्तर—फलमें कोई भेद नहीं। फल तो सबका ही परम श्रेय है। यानी परमेश्वरकी प्राप्ति है, साधनकी प्रणालीमें कुछ भेद है।
(क) भगवत्-अर्थ कर्म
स्वयं भगवत्की पूजा-सेवारूप कर्मोंको या भगवत्-आज्ञानुसार शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मोंको भगवत्-प्रेम, प्रसन्नता या प्राप्तिके लिये कर्तव्य समझकर केवल भगवान् की आज्ञापालनके लिये करना यानी कर्म करनेके पूर्व ही इन सब उद्देश्योंको या इनमेंसे किसी भी उद्देश्यको रखकर कर्मोंका करना भगवत्-अर्थ कर्म है (गीता १२। १०)।
(ख) भगवत्-अर्पण कर्म
शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मोंको तथा मन, वाणी, शरीरसहित अपने-आपको प्रभुकी वस्तु समझकर प्रभुके समर्पण कर देना यानी कर्मोंके करनेमें अपने-आपको सर्वथा भगवान् के परतन्त्र समझकर कठपुतलीकी भाँति स्वामीके हाथोंमें सौंप देना। कठपुतलियोंका तो जड होनेके कारण स्वयं नटके अधीन होकर रहना नहीं है, नट ही उनको अपने अधीन रखता है, किन्तु इसका तो स्वयं स्वामीके अधीन होकर रहना है इसलिये इसमें यह और विशेषता है। इसके सिवा पद-पदपर स्वामीके स्वरूप और दयाका दर्शन करते हुए क्षण-क्षणमें मुग्ध होते रहना और सर्वस्व स्वामीका ही समझते हुए अभिमानसे रहित रहकर निमित्तमात्र बनकर प्रभुके आज्ञानुसार कर्मोंका करना सर्वोत्तम भगवत्-अर्पण कर्म है (गीता ९।२७-२८)।
प्रश्न—क्या निष्काम कर्मयोगका यह साधन कष्टसाध्य है?
उत्तर—वास्तवमें कष्टसाध्य नहीं है। हाँ, जो कष्टसाध्य मानते हैं उनके लिये कष्टसाध्य है और जो सुखसाध्य मानते हैं उनके लिये सुखसाध्य है।
प्रश्न—यदि ऐसा है तो साधकको सुखसाध्य ही मानना चाहिये। किंतु जो कंचन, कामिनी, कुटुम्ब और शरीरके आरामको छोड़कर साधन करते हैं, उनको भी यह कष्टसाध्य क्यों प्रतीत होता है?
उत्तर—मनकी चंचलता तथा मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदिकी इच्छा एवं राग, द्वेष, ममता, अहंकार और अज्ञान आदि दोषोंके कारण तथा श्रद्धा और प्रेमकी कमी एवं इसके रहस्य और प्रभाव न जाननेके कारण यह कष्टसाध्य प्रतीत हो सकता है।
प्रश्न—इस साधनमें रुकावट डालनेवाले दोषोंमें भी विशेष दोष कौन-कौन-से हैं?
उत्तर—श्रद्धा और प्रेमकी कमी, मान और बड़ाईकी इच्छा, मनकी चंचलता, प्रमाद, आलस्य, अज्ञान, आसक्ति और अहंकार प्रभृति विशेष दोष हैं।
प्रश्न—इन सबके नाशके लिये साधकको क्या करना चाहिये?
उत्तर—विवेक और वैराग्यद्वारा सारे विषय-भोगोंसे मनको हटाकर भगवान् की शरण रहते हुए श्रद्धा और प्रेम-पूर्वक निष्काम कर्मयोगके साधनके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये। इस प्रकार चेष्टा करनेसे सम्पूर्ण दु:ख और दोषोंका नाश होकर परम आनन्द और परम शान्तिकी प्राप्ति शीघ्र हो सकती है।
प्रश्न—‘प्राणपर्यन्त चेष्टा करना किसे कहते हैं?’
उत्तर—कंचन, कामिनी, भोग और आरामकी तो बात ही क्या है, निष्काम कर्मयोगरूप धर्मके थोड़े-से भी पालनके मुकाबलेमें मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और अपने प्राणोंको भी तुच्छ समझना एवं परम तत्पर होकर उसके पालनके लिये सदा-सर्वदा प्रयत्न करनेको प्राणपर्यन्त चेष्टा करना कहते हैं।
प्रश्न—इस प्रकारकी चेष्टा तत्परतासे न होनेमें क्या कारण है?
उत्तर—इसके प्रभाव और रहस्यको तत्त्वसे न समझना।
प्रश्न—प्रभाव और रहस्यको तत्त्वसे जाननेके लिये क्या करना चाहिये?
उत्तर—इसके प्रभाव और रहस्यको बतलानेवाले गीतादि शास्त्रोंका मनन एवं इसके तत्त्वको जाननेवाले महापुरुषोंका संग करके उनके बतलाये हुए मार्गके अनुसार कटिबद्ध होकर चेष्टा करनेसे इसके प्रभाव और रहस्यको मनुष्य तत्त्वसे जान सकता है। जो इस निष्काम कर्मयोगके रहस्य और प्रभावको तत्त्वसे जान जाता है वह फिर इसको छोड़ नहीं सकता। तथा साधन करते-करते अहंता, ममता और आसक्ति आदि सारे दोषोंसे मुक्त हो जाता है, और उसका सारे संसारमें भी सदा-सर्वदा समभाव हो जाता है। इस प्रकार जिसकी समतामें निश्चल-स्थिर स्थिति है उसकी परमात्मामें ही स्थिति है; क्योंकि परमात्मा सम है, इसलिये वह सारे दु:ख, पाप और क्लेशोंसे छूटकर परम आनन्द और परम शान्तिको प्राप्त हो जाता है। ऐसी स्थिति जिसकी अन्तकालमें भी हो जाती है, वह भी जन्म-मृत्युके महान् भयसे छूटकर विज्ञानानन्दघन परमात्माको प्राप्त हो जाता है। (गीता २।७२)