Seeker of Truth

कर्मका रहस्य

एक सज्जनका प्रश्न है ‘जब यह बात निश्चित है कि हम अपने ही कर्मोंका फल भोगते हैं, हमारे कर्मोंके अनुसार ही हमारी अच्छी या खराब बुद्धि होती है, तब हम यह किसलिये कहते हैं कि मनुष्य कुछ नहीं कर सकता, जो कुछ करता है वह ईश्वर ही करता है। ईश्वर तो हमारे कर्मोंके फलको न कम कर सकता है न ज्यादा, तब फिर हम ईश्वरका भजन ही क्यों करें?’

इसमें कोई सन्देह नहीं कि मनुष्य अपने कर्मोंका ही फल भोगता है और उसकी बुद्धि भी प्राय: कर्मानुसार होती है। यह भी ठीक है कि कर्मोंके अनुसार बने हुए स्वभावके अनुकूल ईश्वरीय प्रेरणासे ही मनुष्य किसी भी क्रियाके करनेमें समर्थ होता है। ईश्वरीय सत्ता, शक्ति, चेतना, स्फूर्ति और प्रेरणाके अभावमें क्रिया असम्भव है। इस न्यायसे सब कुछ ईश्वर ही कराता है। यह भी युक्तियुक्त सिद्धान्त है कि ईश्वर ‘कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुम्’ समर्थ होनेपर भी कर्मोंके फलको न्यूनाधिक नहीं करता। इतना सब होते हुए भी ईश्वरके भजनकी बड़ी आवश्यकता है। इस विषयका विवेचन करनेसे पहले ‘कर्म क्या है’, ‘उसका भोग किस तरह होता है’, ‘कर्मफलभोगमें मनुष्य स्वतन्त्र है या परतन्त्र’ आदि विषयोंपर कुछ विचार करना आवश्यक है।

शास्त्रकारोंने कर्म तीन प्रकारके बतलाये हैं—(१) संचित, (२) प्रारब्ध और (३) क्रियमाण। अब इनपर अलग-अलग विचार कीजिये—

संचित

संचित कहते हैं अनेक जन्मोंसे लेकर अबतकके संगृहीत कर्मोंको। मन, वाणी, शरीरसे मनुष्य जो कुछ कर्म करता है, वह जबतक क्रियारूपमें रहता है, तबतक वह क्रियमाण है और पूरा होते ही तत्काल संचित बन जाता है। जैसे एक किसान चिरकालसे खेती करता है, खेतीमें जो अनाज उत्पन्न होता है उसे वह एक कोठेमें जमा करता रहता है। इस प्रकार बहुत-से वर्षोंका विविध प्रकारका अनाज उसके कोठेमें भरा है, खेती पकते ही नया अनाज उस कोठेमें फिर आ जाता है। इसमें खेती करना कर्म है और अनाजसे भरा हुआ कोठा उसका संचित है। ऐसे ही कर्म करना क्रियमाण और उसके पूरा होते ही हृदयरूप बृहत् भण्डारमें जमा हो जाना संचित है। मनुष्यकी इस अपार संचित कर्मराशिमेंसे, पुण्य-पापके बड़े ढेरमेंसे कुछ-कुछ अंश लेकर जो शरीर बनता है, उसमें उन भोगसे ही नाश होनेवाले कर्मोंके अंशका नाम प्रारब्ध होता है। इसी प्रकार जबतक संचित अवशेष रहता है, तबतक प्रारब्ध बनता रहता है। जबतक इस अनेक जन्मार्जित कर्मसंचितका सर्वथा नाश नहीं होता, तबतक जीवकी मुक्ति नहीं हो सकती। संचितसे स्फुरणा, स्फुरणासे क्रियमाण, क्रियमाणसे पुन: संचित और संचितके अंशसे प्रारब्ध। इस प्रकार कर्मप्रवाहमें जीव निरन्तर बहता ही रहता है। संचितके अनुसार ही बुद्धिकी वृत्तियाँ होती हैं यानी संचितहीके कारण उसीके अनुकूल हृदयमें कर्मोंके लिये प्रेरणा होती है। सात्त्विक, राजस या तामस समस्त स्फुरणाओं या कर्मप्रेरणाओंका प्रधान कारण ‘संचित’ ही है। यह अवश्य जान रखनेकी बात है कि संचित केवल प्रेरणा करता है, तदनुसार कर्म करनेके लिये मनुष्यको बाध्य नहीं कर सकता। कर्म करनेमें वर्तमान समयके कर्म ही, जिन्हें पुरुषार्थ कहते हैं, प्रधान कारण हैं। यदि पुरुषार्थ, संचितके अनुकूल होता है तो वह संचित-द्वारा उत्पन्न हुई कर्मप्रेरणामें सहायक होकर वैसा ही कर्म करा देता है, प्रतिकूल होता है तो उस प्रेरणाको रोक देता है जैसे किसीके मनमें बुरे संचितसे चोरी करनेकी स्फुरणा हुई, दूसरेके धनपर मन चला परन्तु अच्छे सत्संग, विचार और शुभ वातावरणके प्रभावसे वह स्फुरणा वहीं दबकर नष्ट हो गयी। इसी प्रकार शुभ संचितसे दानकी इच्छा हुई, परन्तु वह भी वर्तमानके कुसंगियोंकी बुरी सलाहसे दबकर नष्ट हो गयी। मतलब यह कि कर्म होनेमें वर्तमान पुरुषार्थ ही प्रधान कारण है। इस समयके शुभ संग और शुभ विचारजनित कर्मोंके नवीन शुभ संचित बनकर, पुराने संचितको दबा देते हैं जिससे पुराने संचितके अनुसार स्फुरणा बहुत कम होने लगती है।

किसानके कोठेमें वर्षोंका अनाज भरा है, अबकी बार किसानने नयी खेतीका अनाज उसमें और भर दिया, अब यदि उसे अनाज निकालना होगा तो सबसे पहले वही निकलेगा जो नया होगा, क्योंकि वही सबसे आगे है। इसी प्रकार संचितके विशाल ढेरमेंसे सबसे पहले उसीके अनुसार मनमें स्फुरणा होगी, जो संचित नये-से-नये कर्मका होगा। मनमें मनुष्यके बहुत विचार भरे हैं परन्तु उसे अधिक स्मृति उन्हीं विचारोंकी होती है, जिनमें वह अपना समय वर्तमानमें विशेष लगा रहा है। एक आदमी साधुसेवी है, परन्तु कुसंगवश वह नाटक देखने लगा, इससे उसे नाटकोंके दृश्य ही याद आने लगे। जिस तरहकी स्फुरणा मनुष्यके मनमें होती है, यदि पुरुषार्थ उसके प्रतिकूल नहीं होता, तो प्राय: उसीके अनुसार वह कर्म करता है, कर्मका वैसा ही नया संचित होता है, उससे फिर वैसी ही स्फुरणा होती है, पुन: वैसे ही कर्म बनते हैं। नाटक देखनेसे उसीकी स्मृति हुई, फिर देखनेकी स्फुरणा हुई, संग अनुकूल था, अत: पुन: देखने गया, पुन: उसीकी स्मृति और स्फुरणा हुई, पुन: नाटक देखने गया। यों होते-होते तो वह मनुष्य साधुसेवारूपी सत्कर्मको छोड़ बैठा और धीरे-धीरे उसकी बात भी वह प्राय: भूल गया। इससे यह सिद्ध हुआ कि सत्संग, सदुपदेश, सद्विचार आदिसे उत्पन्न वर्तमान कर्मोंसे पूर्वसंचितकी स्फुरणाएँ दब जाती हैं, इसीसे यह कहा जाता है कि मनुष्य संचितके संग्रह, परिवर्तन और उसकी क्षय-वृद्धिमें प्राय: स्वतन्त्र है।

अन्त:करणमें कुछ स्फुरणाएँ प्रारब्धसे भी होती हैं। यद्यपि यह निर्णय करना बहुत कठिन है कि कौन-सी स्फुरणा संचितकी है और कौन-सी प्रारब्धकी है; परन्तु साधारणत: यों समझना चाहिये कि जो स्फुरणा या वासना नवीन पाप-पुण्यके करनेमें हेतुरूप होती हैं, उनका कारण संचित है और जो केवल सुख-दु:ख भुगतानेवाली होती हैं, वे प्रारब्धसे होती हैं। प्रारब्धसे होनेवाली वासनासे सुख-दु:खोंका भोग मानसिकरूपसे सूक्ष्म शरीरको भी हो सकता है और स्थूल शरीरके द्वारा क्रिया होकर भी हो सकता है, परन्तु इस प्रारब्धसे उत्पन्न वासनाके परिवर्तनकी स्वतन्त्रता मनुष्यको नहीं है।

प्रारब्ध

यह ऊपर कहा जा चुका है कि पाप-पुण्यरूप संचितके कुछ अंशसे एक जन्मके लिये भोग भुगतानेके उद्देश्यसे प्रारब्ध बनता है। यह भोग दो प्रकारसे भोगा जाता है; मानसिक वासनासे और स्थूल शरीरकी क्रियाओंसे। स्वप्नादिमें या अन्य समय जो तरह-तरहकी वृत्ति-तरंगें चित्तमें उठती हैं, उनसे जो सुख-दु:खका भोग होता है, वह मानसिक है। एक व्यापारीने अनाज खरीदा, मनमें आया कि अबकी बार इस अनाजमें इतना नफा हो गया तो जमीन खरीदकर मकान बनवाऊँगा, नफेके कई कारणोंकी कल्पना भी हो गयी, मन आनन्दसे भर गया, दूसरे ही क्षण मनमें आया कि यदि कहीं भाव मंदा हो गया, घाटा लगा तो महाजनकी रकम भरनेके लिये घर-द्वार बेचनेकी नौबत आ जायगी, मनमें चिन्ता हुई, चेहरा उतर गया। चित्तमें इस तरहकी सुख-दु:ख उत्पन्न करनेवाली विविध तरंगें क्षण-क्षणमें उठा करती हैं। ऊपरका सारा साज-सामान ठीक है, दु:खका कोई कारण नजर नहीं आता, परन्तु मानसिक चिन्तासे मनुष्य बहुधा दु:खी देखे जाते हैं, लोगोंको उनके चेहरे उतरे हुए देखकर आश्चर्य होता है। इसी प्रकार सब प्रकारके बाह्य अभावोंमें दु:खके अनेक कारण उपस्थित होनेपर भी मानसिक प्रसन्नतासे समय-समयपर मनुष्य सुखी होते हैं। पुत्रकी मृत्युपर रोते हुए मनुष्यके मुखपर भी चित्त-वृत्तिके बदल जानेसे क्षणभरके लिये हँसीकी रेखा देखी जाती है। यह भी प्रारब्धका मानसिक भोग है।

प्रारब्ध-भोगका दूसरा प्रकार सुख-दु:खरूप इष्ट-अनिष्ट पदार्थोंका प्राप्त होना है। सुख-दु:खरूप प्रारब्धका भोग तीन प्रकारसे होता है। जिनको अनिच्छा, परेच्छा और स्वेच्छा-प्रारब्ध कहते हैं।

अनिच्छा—राह चलते हुए मनुष्यपर किसी मकानकी दीवालका टूटकर गिर पड़ना, बिजली पड़ जाना, वृक्ष टूट पड़ना, घरमें बैठे हुएपर छत टूट पड़ना, हाथसे अकस्मात् बंदूक छूटकर गोली लग जाना आदि दु:खरूप और राह चलते हुएको रत्न मिल जाना, खेत जोततेको जमीनसे धन मिलना आदि सुखरूप भोग जिनके प्राप्त करनेकी न मनमें इच्छा की थी और न किसी दूसरेकी ही ऐसी इच्छा थी, इस प्रकारसे अनायास दैवयोगसे आप-से-आप सुख-दु:खादिरूप भोगोंका प्राप्त होना अनिच्छा-प्रारब्ध है।

परेच्छा—सोये हुए मनुष्यपर चोर-डाकुओंका आक्रमण होना, जान-बूझकर किसीके द्वारा दु:ख दिया जाना आदि दु:खरूप और कुमार्गमें जाते हुएको सत्पुरुषका रोककर बचा देना, कुपथ्य करते हुए रोगीको हाथ पकड़कर वैद्य या मित्रद्वारा रोका जाना, बिना ही इच्छाके दूसरेके द्वारा धन मिल जाना आदि सुखरूप भोग जो दूसरोंकी इच्छासे प्राप्त होते हैं, उनका नाम परेच्छा-प्रारब्ध है। इसमें एक बात बहुत समझनेकी है। एक मनुष्यको किसीने चोट पहुँचायी या किसी मनुष्यने किसीके घरमें चोरी की, इसमें उस मनुष्यको चोट लगना या उसके घरमें चोरी होना तो उनके प्रारब्धका भोग है परन्तु जिसने आघात पहुँचाया और चोरी की, उसने अवश्य ही नवीन कर्म किया है, जिसका फल उसे आगे भोगना पड़ेगा। क्योंकि किसी भी कर्मके भोगका हेतु पहलेसे निश्चित नहीं होता, यदि हेतु निश्चित हो जाय और यह विधान कर दिया जाय कि अमुक पुरुष अमुकके घरमें चोरी करेगा, अमुकको चोट पहुँचावेगा तो फिर ऐसे लोग निर्दोष ठहरते हैं, क्योंकि वे तो ईश्वरीय विधानके वश होकर चोरी-डकैती आदि करते हैं। यदि यही बात है तो फिर ऐसे लोगोंके लिये शास्त्रोंमें दण्डविधान और इन कर्मोंके फलभोगकी व्यवस्था क्यों है?

इसलिये यह मानना चाहिये कि फलभोगके सभी हेतु पहलेसे निश्चित नहीं रहते। जिस क्रियामें कोई अन्याय या स्वार्थ रहता है, जो आसक्तिसे की जाती है, वह क्रिया अवश्य नवीन कर्म है। हाँ, यदि ईश्वर किसी व्यक्तिविशेषको ही किसीके मारनेमें हेतु बनाना चाहे, तो वह फाँसीका दण्ड पाये हुए व्यक्तिको फाँसीपर चढ़ानेवाले न्यायकर्ममें नियुक्त जल्लादकी भाँति किसीको हेतु बना सकते हैं। हो सकता है, उस फाँसी चढ़ानेवालेको चढ़नेवाला पूर्वके किसी जन्ममें मार चुका हो या यह भी हो सकता है कि उससे उसका कोई सम्बन्ध ही न हो और वह केवल न्याययुक्त कर्म ही करता हो।

स्वेच्छा—ऋतुकालमें भार्यागमनादिद्वारा सुख प्राप्त होना, उससे पुत्र होना, न होना या होकर मर जाना, न्याययुक्त व्यापारमें कष्ट स्वीकार करना, उससे लाभ होना, न होना या होकर नष्ट हो जाना आदि स्वेच्छा-प्रारब्ध है। इन कर्मोंके करनेके लिये जो प्रेरणात्मक वासना होती है, उसका कारण प्रारब्ध है। तदनन्तर क्रिया होती है। क्रियाका सिद्ध होना न होना, सुकृत-दुष्कृतका फल है।

स्वेच्छा-प्रारब्धके भोगोंके कारणको समझ लेना बड़ा ही कठिन विषय है। बड़े सूक्ष्म विचार और भाँति-भाँतिके तर्कोंका आश्रय लेनेपर भी निश्चितरूपसे यह कहना नितान्त कठिन है कि अमुक फलभोग हमारे पूर्वजन्मकृत अमुक कर्मोंका फल है जो उनकी प्रेरणासे मिला है या इसी जन्मका कोई कर्म हाथों-हाथ संचितसे प्रारब्ध बनकर इसमें कारण हुआ है।

एक मनुष्यने पुत्रकी प्राप्तिके लिये पुत्रेष्टि या धनलाभके लिये किसी यज्ञका अनुष्ठान किया। तदनन्तर उसे पुत्र या धनकी प्राप्ति हुई। इस पुत्र या धनकी प्राप्तिमें यज्ञ कारण है या पूर्वजन्मकृत कर्म कारण है, इसका यथार्थ निर्णय करना कठिन है। सम्भव है कि उसे पुत्र, धन पूर्वजन्मकृत कर्मके फलरूपमें मिला हो और वर्तमानके यज्ञका फल आगे मिले अथवा क्रिया वैगुण्यसे उसका फल नष्ट हो गया हो! एक आदमी रोगनिवृत्तिके लिये औषध-सेवन करता है, उसकी बीमारी मिट जाती है, इसमें यह समझना कठिन है कि यह उस औषधका फल है या भोग समाप्त होनेपर स्वत: ही ‘काकतालीय’ न्यायवत् ऐसा हो गया है१। तथापि यह अवश्य समझ लेना चाहिये कि जो कुछ भी हो, है सब स्वेच्छाकृत कर्मोंके प्रारब्धका फल।

१. बीमारी पूर्वकृत पापके फलस्वरूप भी होती है और इस समयके कुपथ्य-सेवनादिसे भी। कुपथ्यादिसे होनेवाली बीमारी प्राय: औषधसे नष्ट हो जाती है, पर कर्मजन्य रोग भोग समाप्त होनेतक दूर नहीं होता; परन्तु इस बातका निर्णय होना कठिन है कि कौन-सी बीमारी कर्मजन्य है और कौन-सी कुपथ्यजन्य, इसलिये औषध-सेवन सभी बीमारियोंमें करना चाहिये।

कर्मोंका फल अभी हो या आगे हो, यह कोई नियत बात नहीं है, सर्वथा ईश्वराधीन है, इसमें जीवकी पूर्ण परतन्त्रता है। इस जीवनमें पाप करनेवाले लोग धन-पुत्र-मानादिसे सुखी देखे जाते हैं (यद्यपि उनमें कितनोंको मानसिक दु:ख बहुत भारी हो सकता है जिसका हमें पता नहीं) और पुण्य करनेवाले मनुष्य सांसारिक पदार्थोंके अभावसे दु:खी देखे जाते हैं, (उनमें भी कितने ही मानसिक सुखी होते हैं) जिससे पाप-पुण्यके फलमें लोगोंको सन्देह होता है, वहाँ यह समझ रखना चाहिये कि उनके वर्तमान बुरे-भले कर्मोंका फल आगे मिलनेवाला है। अभी पूर्वजन्मकृत कर्मोंका अच्छा-बुरा फल प्राप्त हो रहा है।

कहा जाता है कि जो कर्म अधिक बलवान् होता है, उसका फल तुरंत होता है और जो साधारण है, उसका विलम्बसे होता है परन्तु यह नियम भी सब जगह लागू पड़ता नहीं देखा जाता; अतएव यहाँ यही कहना पड़ता है कि त्रिकालदर्शी जगन्नियन्ता परमात्माके सिवा, तर्क-युक्तियोंके बलपर मनुष्य स्वेच्छा-प्रारब्धका निर्णय नहीं कर सकता। कर्म और फलका संयमन करनेवाले योगी ईश्वरकृपासे अपनी योगशक्तिके द्वारा कुछ जान सकते हैं।

क्रियमाण

अपनी इच्छासे जो बुरे-भले नवीन कर्म किये जाते हैं, उन्हें क्रियमाण कहते हैं। क्रियमाण कर्मोंमें प्रधान हेतु संचित है, कहीं-कहीं अपना या पराया प्रारब्ध भी हेतु बन जाता है। क्रियमाण कर्ममें मनुष्य ईश्वरके नियमोंसे बँधा होनेपर भी क्रिया सम्पन्न करनेमें प्राय: स्वतन्त्र है। नियमोंका पालन करना, न करना, उसके अधिकारमें है। इसीसे उसे फलभोगके लिये भी बाध्य होना पड़ता है।

यदि कोई यह कहे कि हमारेद्वारा जो अच्छे-बुरे कर्म हो रहे हैं, सो सब ईश्वरेच्छा या प्रारब्धसे होते हैं तो उसका ऐसा कहना भ्रमात्मक है। पुण्य-पाप करानेमें ईश्वर या प्रारब्धको हेतु माननेसे प्रधानत: चार दोष आते हैं, जो निर्विकार, निरपेक्ष, समदर्शी, दयालु, न्यायकारी और उदासीन ईश्वरके लिये सर्वथा अनुपयुक्त हैं—

(१) जब ईश्वर या प्रारब्ध ही बुरे-भले कर्म कराते हैं तब विधि-निषेध बतलानेवाले शास्त्रोंकी क्या आवश्यकता है? ‘सत्यं वद। धर्मं चर।’ [तै० १।११।१] ‘मातृदेवो भव। पितृदेवो भव, आचार्यदेवो भव’[तै० १।११।२] और ‘सुरां न पिबेत्, परदारान्नाभिगच्छेत्’ आदि विधि-निषेधमय वाक्योंका उल्लंघन कर मनमाना यथेच्छाचार करनेवाले पापपरायण व्यक्ति यह अनायास कह सकते हैं कि हम तो प्रारब्धके नियन्ता ईश्वरकी प्रेरणासे ही ऐसा कर रहे हैं। अतएव ईश्वरपर शास्त्र-हननका दोष आता है।

(२) जब ईश्वर ही सब प्रकारके कर्म करवाता है, तब उन कर्मोंका फल सुख-दु:ख हमें क्यों होना चाहिये? जो ईश्वर कर्म करता है उसे ही फलभोगका दायित्व भी स्वीकार करना चाहिये। ऐसा न करके वह ईश्वर अपना दोष दूसरोंपर डालनेके लिये दोषी ठहरता है।

(३) ईश्वरके न्यायकारी और दयालु होनेमें दोष आता है; क्योंकि कोई भी न्यायकर्ता पापके दण्डविधानमें पुन: पाप करनेकी व्यवस्था नहीं दे सकता। यदि पाप करनेकी व्यवस्था कर दी तो फिर पापियोंके लिये दण्डकी व्यवस्था करना अन्याय सिद्ध होता है। फिर यदि ईश्वर ही पाप कराता है—पापमें हेतु बनता है और फिर दण्ड देता है तब तो अन्यायी होनेके साथ ही निर्दयी भी बनता है।

(४) ईश्वर ही जब पापीके लिये पुन: पाप करनेका विधान करता है तब जीवके कभी पापोंसे मुक्त होनेका तो कोई उपाय ही नहीं रह जाता। पापका फल पाप, उसका फल पुन: पाप, इस तरह जीव पापमें ही प्रवृत्त रहनेके लिये बाध्य होता है जिससे एक तो अनवस्थाका दोष और दूसरे ईश्वर जीवोंको पापबन्धनमें रखना चाहता है, यह दोष आता है।

अत: यह मानना उचित नहीं कि ईश्वर पाप-पुण्य कराते हैं, पाप-कर्मके लिये तो ईश्वरकी कभी प्रेरणा ही नहीं होती, पुण्यके लिये—सत्कर्मोंके लिये ईश्वरका आदेश है परन्तु उसका पालन करना, न करना या विपरीत करना हमारे अधिकारमें है। सरकारी अफसर कानूनके अनुसार चलता हुआ प्रजारक्षणका अधिकारी है परन्तु अधिकारारूढ़ होकर उसका सदुपयोग या दुरुपयोग करना उसके अधिकारमें है, यद्यपि वह कानूनसे बँधा है तथा कानून तोड़नेपर दण्डका पात्र भी होता है, वही हालत कर्म करनेमें मनुष्यके अधिकारकी है।२

२.इस विषयका विशेष विवेचन ‘मनुष्य कर्म करनेमें स्वतन्त्र है या परतन्त्र’ शीर्षक लेखमें किया गया है, वहाँ देखना चाहिये।

ईश्वर सामान्यरूपसे सन्मार्गका नित्य प्रेरक होनेके कारण जीवके कल्याणमें सहायक होता है। पापकर्मोंके होनेमें प्रधान हेतु निरन्तर विषयचिन्तन है, इसीसे रजोगुणसमुद्भूत कामकी उत्पत्ति होती है, उस कामसे ही क्रोध आदि दोष उत्पन्न होकर जीवकी अधोगतिमें कारण होते हैं। भगवान् ने कहा है—

ध्यायतो विषयान्पुंस: सङ्गस्तेषूपजायते।
सङ्गात्संजायते काम: कामात्क्रोधोऽभिजायते॥
क्रोधाद्भवति सम्मोह: सम्मोहात्स्मृतिविभ्रम:।
स्मृतिभ्रंशाद्बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति॥
(गीता २।६२-६३)

‘विषयोंको चिन्तन करनेवाले पुरुषकी उन विषयोंमें आसक्ति हो जाती है, आसक्तिसे उन विषयोंकी कामना उत्पन्न होती है, कामनामें विघ्न पड़नेसे क्रोध उत्पन्न होता है, क्रोधसे अविवेक अर्थात् मूढ़भाव उत्पन्न होता है, अविवेकसे स्मरणशक्ति भ्रमित हो जाती है, स्मृतिके भ्रमित हो जानेसे बुद्धि अर्थात् ज्ञानशक्तिका नाश हो जाता है और बुद्धिके नाशसे यह पुरुष अपने श्रेयसाधनसे गिर जाता है।’

इससे यह सिद्ध होता है कि पापकर्मोंके होनेमें विषयचिन्तनजनित राग—आसक्ति प्रधान कारण है, ईश्वर या प्रारब्ध नहीं। चिन्तन या स्फुरण क्रियमाणके—नवीन कर्मके—नवीन संचितके अनुसार पहले होता है। अत: पापोंसे बचनेके लिये नवीन शुभकर्म करनेकी आवश्यकता है, नवीन शुभकर्मोंसे शुभसंचित होकर शुभका चिन्तन होगा, जिससे शुभकर्मोंके होने और अशुभके रुकनेमें सहायता मिलेगी। इसीलिये अर्जुनके प्रश्नका उत्तर देते हुए भगवान् ने पुरुषार्थद्वारा पापकर्मके कारण रागरूप रजोगुणसे उत्पन्न कामका नाश करनेकी आज्ञा दी है। अर्जुनने भगवान् से पूछा—

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुष:।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजित:॥
(गीता ३।३६)

‘हे कृष्ण! फिर यह पुरुष बलात् लगाये हुएके सदृश न चाहता हुआ भी किससे प्रेरित होकर पापका आचरण करता है।’

इसके उत्तरमें भगवान् बोले कि—

काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धॺेनमिह वैरिणम्॥
(गीता ३।३७)

‘हे अर्जुन! रजोगुणसे उत्पन्न यह काम ही क्रोध है, यही महा अशन अर्थात् अग्निके सदृश भोगोंसे तृप्त न होनेवाला और पापी है, इस विषयमें इसको ही तू वैरी जान।’

आगे चलकर भगवान् ने धुएँसे अग्नि, मलसे दर्पण और जेरसे गर्भकी भाँति ज्ञानको ढकनेवाले इस दुष्पूरणीय अग्निसदृश कामके निवासस्थान मन, बुद्धि और इन्द्रियोंको बतलाकर इन्द्रियोंको वशमें करके ज्ञान-विज्ञाननाशक पापी कामको मारनेकी आज्ञा दी। यदि कामको जय करनेमें जीव समर्थ न होता तो उसके लिये भगवान् की ओरसे इस प्रकारकी आज्ञाका दिया जाना नहीं बन सकता। अतएव भगवान् के आज्ञानुसार शुभकर्म, शुभसंगति करनेसे क्रियमाण शुद्ध हो जाते हैं। यह क्रियमाण ही संचित और प्रारब्धके हेतुभूत हैं। इसलिये मनुष्यको क्रियमाण शुभ करनेकी चेष्टा करनी चाहिये; क्योंकि इन्हींके करनेमें यह स्वतन्त्र भी है।

त्रिविध कर्मोंका भोग बिना नाश होता है या नहीं?

अब यह समझनेकी आवश्यकता है कि उपर्युक्त तीनों प्रकारके कर्म फलभोगसे ही नाश होते हैं या उनके नाशका और भी कोई उपाय है? इनमेंसे प्रारब्धकर्मोंका नाश तो भोगसे ही होता है, जैसे आप्तपुरुषके वाक्य व्यर्थ नहीं जाते, इसी प्रकार प्रारब्धकर्मोंका नाश बिना भोगे नहीं हो सकता। भोग पूर्वोक्त अनिच्छा, परेच्छा या स्वेच्छासे हो सकते हैं और प्रायश्चित्तसे भी। सेवा या दण्डभोग दोनों ही छुटकारा मिलनेके उपाय हैं। संचित और क्रियमाण कर्मोंका नाश निष्कामभावसे किये हुए यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि सत्कर्मसे तथा प्राणायाम, श्रवण, मनन, निदिध्यासन (सत्संग, भजन, ध्यान) आदि परमेश्वरकी उपासनासे हो सकता है। इनसे अन्त:करणकी शुद्धि होकर ज्ञान उत्पन्न होता है, जिससे संचितकी राशि तो सूखे घासमें आग लगकर भस्म हो जानेकी भाँति भस्म हो जाती है।*

* यथैधांसि समिद्धोऽग्निर्भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन। ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुते तथा॥ (गीता ४।३७)

और कोई स्वार्थ न रहनेके कारण किसी भी सांसारिक पदार्थकी कामना एवं कर्म करनेमें आसक्ति तथा अहंबुद्धि न रह जानेसे सकाम नवीन कर्म बन नहीं सकते।

उत्तम कर्मोंसे छुटकारा मिलना तो बहुत ही सहज है, वे तो भगवत् के अर्पण कर देनेमात्रसे ही छूट जाते हैं। जैसे एक मनुष्यने दूसरेको कुछ रुपये कर्ज दे रखे हैं। उसे उससे रुपये लेने हैं, इस लेनेकी भावनासे तो वह हृदयके त्यागसे छूट सकता है। ‘रुपये छोड़ दिये’ इस त्यागसे ही वह छूट जाता है, परन्तु जिसे रुपये देने हैं, वह इस तरह कहनेसे नहीं छूटता। इसी प्रकार जिन पापोंका दण्ड हमें भोगना है उनसे छुटकारा ‘हम नहीं भोगना चाहते’ यह कहनेसे नहीं होता। उनके लिये या तो भोग भोगना पड़ता है या निष्काम कर्म और निष्काम उपासना आदि करने पड़ते हैं।

किये हुए पापोंका और सकाम पुण्य-कर्मोंका परस्पर हवाला नहीं पड़ता, एक-दूसरेके बदलेमें कटते नहीं। दोनोंका फल अलग-अलग भोगना पड़ता है। रामलालके श्यामलालमें रुपये पावने हैं। श्यामलालने रुपये नहीं दिये। इसलिये एक दिन गुस्सेमें आकर रामलालने श्यामलालपर दो जूते जमा दिये। श्यामलालने अदालतमें फरियाद की। इसपर रामलालने कहा कि ‘मेरे एक हजार रुपये श्यामलालमें लेने हैं, मैंने इसको दो जूते जरूर मारे हैं, इस अपराधके बदलेके दाम काटकर बाकी रुपये मुझे दिलवा दिये जायँ।’ यह सुनकर मैजिस्ट्रेट हँस पड़ा। उसने कहा, ‘तुम्हारा दीवानी मुकद्दमा अलग होगा। तुम्हारे रुपये न आवें तो तुम इसपर दीवानी कोर्टमें नालिश करके जेल भिजवा सकते हो, परन्तु यहाँ तो जूते मारनेके लिये तुम्हें दण्ड भोगना पड़ेगा।’ बस, इसी प्रकार पाप-पुण्यका फल अलग-अलग मिलता है। सकाम पुण्यसे पापका और पापसे सकाम पुण्यका हवाला नहीं पड़ता।

कर्मका फल कौन देता है?

कुछ लोग मानते हैं कि शुभाशुभ कर्मोंका फल कर्मानुसार आप ही मिल जाता है, इसमें न तो कोई नियामक ईश्वर है और न ईश्वरकी आवश्यकता ही है। परन्तु ऐसा मानना भूल है। इस मान्यतासे बहुत ही बाधाएँ आती हैं तथा यह युक्तिसंगत भी नहीं है। शुभाशुभ कर्मोंका विभाग कर तदनुसार फलकी व्यवस्था करनेवाले नियामकके अभावमें कर्मका भोग होना ही सम्भव नहीं है। क्योंकि कर्म तो जड़ होनेके कारण नियामक हो नहीं सकते, वे तो केवल हेतुमात्र हैं। और पापकर्म करनेवाला पुरुष स्वयं पापोंका फल दु:ख भोगना चाहता नहीं, यह बात निर्विवाद और लोकप्रसिद्ध है। किसी मनुष्यने चोरी की या डाका डाला। वह चोरी-डकैती नामक कर्म तो जड़ताके कारण उसके लिये कैदकी व्यवस्था कर नहीं सकते और वह कर्ता स्वयं चाहता नहीं, इसीलिये कोई शासक या राजा उसके दण्डकी व्यवस्था करता है। इसी प्रकार कर्मोंके नियमन, विभाग तथा व्यवस्थाके लिये किसी नियामक या व्यवस्थापक ईश्वरकी आवश्यकता है। इससे कोई यह न समझे कि राजा और ईश्वरकी समानता है। राजा सर्वान्तर्यामी और सर्वथा निरपेक्ष स्वभाववाला तथा स्वार्थहीन निर्भ्रान्त न होनेके कारण प्रमाद, पक्षपात, अनभिज्ञता या स्वार्थवश अनुचित व्यवस्था भी कर सकता है, परन्तु परमात्मा समदर्शी, सर्वान्तर्यामी, सुहृद्, निरपेक्ष, दयालु और न्यायकारी होनेके कारण उससे कोई भूल नहीं हो सकती। राजा स्वार्थवश न्याय करता है, ईश्वर दयाके कारण जीवके उपकारके लिये न्याय करता है। यदि यह कहा जाय कि जब ईश्वरको कोई स्वार्थ नहीं है तब वह इस झगड़ेमें क्यों पड़ता है। इसका उत्तर यह है कि ईश्वरके लिये यह कोई झगड़ा नहीं है। जैसे सुहृद् पुरुष पक्षपातरहित होकर दूसरोंके झगड़े निपटा देता है पर मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा कुछ नहीं चाहता, इससे उसका महत्त्व संसारमें प्रसिद्ध है। इसी प्रकार ईश्वर सारे संसारका उनके हितके लिये नि:स्वार्थरूपसे अपनी सुहृदताके कारण ही न्याय करता है।

ईश्वर नियामक न होनेसे तो कर्मका भोग ही नहीं हो सकता। इसमें एक युक्ति और विचारणीय है। एक मनुष्यने ऐसे पाप किये जिससे उसे कुत्तेकी योनि मिलनी चाहिये। उसके कर्म तो जड़ होनेसे उसे उस योनिमें पहुँचा नहीं सकते (क्योंकि विवेकयुक्त पुरुषकी सहायताके बिना रथ, मोटर आदि जड़ सवारियाँ अपने-आप यात्रीको उसके गन्तव्य स्थानपर नहीं पहुँचा सकतीं) और वह स्वयं पाप भोगनेके लिये जाना नहीं चाहता। यदि जाना चाहे तब भी नहीं जा सकता, क्योंकि उसमें ऐसी शक्ति नहीं है। जब हमलोग सावधान अवस्थामें भी सर्वथा अपरिचित स्थानमें नहीं जा सकते तब बिना विवेकके योनि परिवर्तन करना तो असम्भव है।

यदि यह कहा जाय कि उस समय अज्ञानका परदा दूर हो जाता है तो यह भी युक्तियुक्त नहीं है। क्योंकि मरणकालमें तो दु:ख और मोहकी अधिकतासे जीवकी दशा अधिक भ्रान्त-सी होती है। योगी या ज्ञानीकी-सी स्थिति होती नहीं। यदि अज्ञानका परदा हटकर उसका यों ही जीवन्मुक्त होना मान लें, तो यह भी युक्ति-संगत नहीं, क्योंकि भोग, प्रायश्चित्त या उपासना आदिके बिना पापोंका नाश होकर एकाएक किसीको जीवन्मुक्त हो जाना अयुक्त है। साधारण संसारी ज्ञानसे योनि प्रवेशादि क्रिया न तो सम्भव है और न प्रत्यक्ष दु:खरूप होनेके कारण साधारण पुरुषको इष्ट है तथा न उसकी सामर्थ्य ही है, अतएव यह सिद्ध होता है कि कर्मानुसार फलभोग करानेके लिये सृष्टिके स्वामी नियन्त्रणकर्ताकी आवश्यकता है और वह नियन्त्रणकर्ता ईश्वर अवश्य है।

ईश्वरभजनकी आवश्यकता क्यों है?

मान लिया जाय कि शुभाशुभ कर्मानुसार फल अवश्य ही ईश्वर देता है और वह कम-ज्यादा भी नहीं कर सकता, फिर उसके भजनकी क्या आवश्यकता है? इसी प्रश्नपर अब विचार करना है। प्रथम तो यह बात है कि ईश्वरभजन एक सर्वोत्तम उपासनारूप कर्म है, परम साधन है, सबका सिरमौर है। इसके करनेसे इसीके अनुसार बुद्धिमें स्फुरणाएँ होती हैं और इस तरहकी स्फुरणासे बारंबार ईश्वर-भजन-स्मरण होने लगता है, जिससे अन्त:करण शुद्ध होकर ज्ञानका परम दिव्य प्रकाश चमक उठता है। ज्ञानाग्निसे संचित कर्मराशि दग्ध होकर पुनर्जन्मके कारणको नष्ट कर डालती है। इसीलिये भजन करना परम आवश्यक है।

दूसरे यह समझकर भी भजन अवश्य करना चाहिये कि यही हमारे जीवनका परम कर्तव्य है। माता-पिताकी सेवा मनुष्य अपना कर्तव्य समझकर करते हैं। फिर जो माता-पिताका भी परमपिता है, जो परम सुहृद् है, जिसने हमें सब तरहकी सुविधाएँ दी हैं, जो निरन्तर हमपर अकारण ही कृपा रखता है, जिस कल्याणमय ईश्वरसे हम नित्य कल्याणका आदेश पाते हैं, जो हमारे जीवनकी ज्योति है, अन्धेकी लकड़ी है, डूबते हुएका सहारा और पथभ्रष्ट नाविकका एकमात्र ध्रुवतारा है, उसका स्मरण करना तो हमारा प्रथम और अन्तिम कर्तव्य ही है।

ईश्वरका स्मरण न करना बड़ी कृतघ्नता है, हम जब माता, पिता, गुरुके उपकारका भी बदला नहीं चुका सकते, तब परम सुहृद् ईश्वरके उपकारोंका बदला तो कैसे चुकाया जा सकता है? ऐसी हालतमें उसे भूल जाना भारी कृतघ्नता—नीचातिनीच कार्य है।

ईश्वर सब कुछ कर सकता है ‘कर्तुमकर्तुमन्यथाकर्तुम्’ समर्थ है परन्तु वह करता नहीं, अपने नियमोंकी आप रक्षा करता है और हमें पापोंकी क्षमा और पुण्योंका फल पानेके लिये उसके भजनका उपयोग ही क्यों करना चाहिये। पाप तो उसके भजनके प्रतापसे अपने-आप ही नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्यके उदयाभासमात्रसे अन्धकार नष्ट हो जाता है।

जबहिं नाम मनमें धर्यो, भयो पापको नास।
जैसे चिनगी आगकी, परी पुराने घास॥

परन्तु भगवान् का भजन करनेवालेको यह भावना नहीं रखनी चाहिये कि इस भजनसे पाप नाश हो जायगा। भगवान् के रहस्यको समझनेवाला भक्त अपराध क्षमा करानेके लिये भी उसके भजनका उपयोग नहीं करता। जिस ईश्वरभजनसे मायारूप संसार स्वयमेव नष्ट हो जाता है, क्या इस रहस्यको जाननेवाला पुरुष कभी तुच्छ सांसारिक दु:खोंकी निवृत्तिके लिये भजनका उपयोग कर सकता है? यदि करता है तो वह बड़ी भूल करता है। राजाको मित्र पाकर उससे दस रुपयेकी नालिशसे छुटकारा पानेकी प्रार्थना करनेके समान अत्यन्त हीन कार्य है। इसलिये भजनको किसी भी सांसारिक कार्यमें नहीं बर्तना चाहिये, परन्तु कर्तव्य समझकर ईश्वरभजन सदा-सर्वदा करते ही रहना चाहिये। क्योंकि भजनके आदि, मध्य और अन्तमें केवल कल्याण-ही-कल्याण भरा है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur