Seeker of Truth

कल्याणप्राप्तिकी कई युक्तियाँ

सभी कार्योंमें स्वार्थत्याग प्रधान है। किसी भी वैध कार्यमें स्वार्थका त्याग होनेसे नीच-से-नीच प्राणीका भी कल्याण हो जाता है।

उतने ही भोगोंका अनासक्त भावसे ग्रहण किया जाय जितने शरीर-निर्वाहके लिये आवश्यक हैं। तथा केवल आसक्तिका त्याग कर देनेसे भी कल्याण हो जाता है।

जो कुछ भी कार्य करे उसमें अहंकारका त्याग कर दे। किसी भी उत्तम कार्यमें अहंकारको पास न आने दे।

घरमें भगवान् की मूर्ति रखकर भक्तिभावसे उसकी पूजा, आरती, स्तुति एवं प्रार्थना करनेसे भी कल्याण हो जाता है।

प्रतिदिन नियमपूर्वक एकान्तमें बैठकर मनसे सम्पूर्ण संसारको भूल जावे। इस प्रकार संसारको भुला देनेसे केवल एक चैतन्य आत्मा शेष रह जायगा। तब उस चैतन्य स्वरूपका ध्यान करे। ध्यान करनेसे समाधि हो जाती है और मुक्ति हो जाती है।

यह नियम ले ले कि शरीरसे वही कार्य निष्काम भावके साथ किया जायगा कि जिससे दूसरेका उपकार हो। इसके समान कोई भी धर्म नहीं है। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने कहा है—

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

इस नियमको धारण कर लेनेसे भी संसारसे मुक्ति हो जाती है।

यदि इन्द्रियाँ और मन वशमें हों तो भगवान् का ध्यान ही सबसे बढ़कर कल्याणका साधन है। यदि मन, इन्द्रियाँ वशमें न हों तो ऐसी अवस्थामें बिना किसी कामनाके केवल आत्माके कल्याणके लिये व्रत एवं उपवास आदिका साधन करना चाहिये। परमात्माकी प्राप्तिके अतिरिक्त उनसे और कुछ भी कामना नहीं करनी चाहिये। इस प्रकार साधन करनेसे भगवान् की प्राप्ति होती है। सारांश यह है कि यदि मन एवं इन्द्रियाँ वशमें हों तब तो ध्यानयोगका साधन करे। नहीं तो बिना किसी कामनाके केवल भगवान् की प्राप्तिके लिये ही तप एवं उपवास आदिका साधन करे। लेकिन इन सबसे भी सुगम उपाय तो भजन ही है।

उठते, बैठते, चलते हर समय नामहीका जप किया जाय। नामको कभी भी न भूले, यह भगवत्प्राप्तिका बहुत सुगम उपाय है। कहा भी है—

कलिजुग केवल नाम अधारा।
सुमिरि सुमिरि भव उतरहु पारा॥
सुमिरि पवनसुत पावन नामू।
अपने बस करि राखे रामू॥
अपतु अजामिलु गजु गनिकाऊ।
भए मुकुत हरि नाम प्रभाऊ॥

एक ऐसा साधन भी है कि जिससे हर समय आनन्द रहता है और जिसमें परिश्रम भी नहीं करना पड़ता। वह है आनन्दमयका अभ्यास ‘आनन्दमयोऽभ्यासात्।’ (ब्र० सू० १। १। १२) आनन्द परमात्माका स्वरूप है। चारों तरफ बाहर-भीतर आनन्द-ही-आनन्द भरा हुआ है, सारे संसारमें आनन्द छाया हुआ है। यदि ऐसा दिखलायी न दे तो वाणीसे केवल कहते रहो और मनसे मानते रहो। जलमें डूब जाने, गोता खा जानेके समान निरन्तर आनन्दहीमें डूबा रहे और गोता लगाता रहे। रात-दिन आनन्दमें मग्न रहे। किसीकी मृत्यु हो जाय, घरमें आग लग जाय अथवा और भी कोई अनिष्ट कार्य हो जाय तो भी आनन्द-ही-आनन्द, कुछ भी हो केवल आनन्द-ही-आनन्द। इस प्रकारका अभ्यास करनेसे सम्पूर्ण दु:ख एवं क्लेश नष्ट हो जाते हैं। वाणीसे उच्चारण करे तो केवल आनन्दहीका, मनसे मनन करे तो आनन्दहीका तथा बुद्धिसे विचार करे तो आनन्दहीका; परन्तु यदि ऐसी प्रतीति न हो तो कल्पितरूपसे ही आनन्दका अनुभव करे। इसका भी फल बहुत अच्छा होता है। ऐसा करते-करते आगे चलकर नित्य आनन्दकी प्राप्ति हो जाती है। इस साधनको सब कर सकते हैं। पुराने जमानेमें मुसलमानोंके राज्यमें हिंदुओंसे कहा गया कि तुम मुसलमान मत बनो, हिंदू ही रहो एवं हिंदूधर्मका ही पालन करो, केवल मुसलमानोंमें अपना नाम लिखा दो। कोई पूछे तो कहो कि हम मुसलमान हैं। इसमें तुम्हारा क्या बिगड़ता है। उन्होंने यह बात स्वीकार कर ली। आगे चलकर उनकी सन्तानसे काजियोंने कहा कि तुम तो मुसलमान हो इसलिये मुसलमानोंके धर्मका पालन करो। अन्तमें यहाँतक हुआ कि वे लोग कट्टर मुसलमान बन गये। इसी प्रकार हमलोगोंको भी यह निश्चय कर लेना चाहिये कि हम सब एक आनन्द ही हैं। ऐसा निश्चय कर लेनेसे आनन्द-ही-आनन्द हो जायगा।

भगवान् की मूर्ति या चित्रको सामने रखकर तथा आँखें खोलकर उनके नेत्रोंसे अपने नेत्र मिलावे। त्राटककी भाँति आँख खोलकर उसमें ध्यान लगा दे। ध्यानके समय यह विश्वास रखे कि इसमें भगवान् प्रकट होंगे। विश्वासपूर्वक ऐसा ध्यान करनेपर इससे भी भगवान् मिल जाते हैं। यह भी भगवत्प्राप्तिका सुगम साधन है।

वृक्ष, पत्थर, मनुष्य, पशु, पक्षी इत्यादि संसारकी जो भी वस्तुएँ दिखलायी दें उन सबमें यह भाव करे कि भगवान् ने ही ये सब रूप धारण कर रखे हैं। मनसे कहे जहाँ तुम्हारी इच्छा हो वहीं जाओ, सब रूप तो भगवान् ने ही धारण कर रखे हैं। जो भी वस्तुएँ दिखलायी देती हैं वे सब परमात्मा नारायणका ही रूप हैं। सारे संसारमें सबको भगवान् का रूप समझकर मन-ही-मन भगवद्बुद्धिसे सबको प्रणाम करे। एक परमात्माने ही अनन्त रूप धारण कर लिये हैं, इस प्रकारके अभ्याससे भी कल्याण हो जाता है। इस प्रकार शास्त्रोंमें बहुत उपाय बतलाये गये हैं। जिसको जो सुगम मालूम पड़े उसको उसीका साधन करना चाहिये। क्योंकि उनमेंसे किसी भी एकका साधन करनेसे कल्याण हो सकता है।

वृत्तियाँ दो हैं—अनुकूल और प्रतिकूल। जो मनको अच्छी लगे वह अनुकूल एवं जो मनके विरुद्ध हो वह प्रतिकूल कही जाती है। कोई भी काम जो मनके अनुकूल होता है उसमें स्वाभाविक ही प्रसन्नता होती है और जो मनके प्रतिकूल होता है उसमें दु:ख होता है। उस दु:खको भगवान् का भेजा हुआ पुरस्कार समझकर उसमेंसे प्रतिकूलताको निकाल दे और यह विचार करे कि जो कुछ भी होता है भगवान् की इच्छासे होता है। भगवान् की इच्छाके बिना पेड़का एक पत्तातक नहीं हिल सकता।

हमलोग अनुकूलमें तो प्रसन्न होते हैं और प्रतिकूलमें द्वेष करते हैं। भला इस प्रकार कहीं भगवान् मिल सकते हैं? भगवान् की प्रसन्नतामें ही प्रसन्नताका निश्चय करना चाहिये। जो बात मनके अनुकूल होती है उसमें तो ऐसा निश्चय करनेमें कोई कठिनाई है ही नहीं, लेकिन जो मनके प्रतिकूल हो उसको अनुकूल बना लेना चाहिये। स्मरण रखना चाहिये कि भगवान् के प्रतिकूल तो वह है नहीं, उनके प्रतिकूल होता तो होता ही कैसे? इस साधनसे भी उद्धार हो सकता है।

वाणीसे सत्य बोले, व्यवहार सत्य करे, सत्यका आचरण करे। इससे कल्याण हो जाता है।

साँच बरोबर तप नहीं झूठ बरोबर पाप।
जाके हिरदै साँच है ता के हिरदै आप॥

संसारके जितने पदार्थ जिस रूपमें दिखलायी देते हैं वे सब सचमुच नाशवान् हैं। वे जैसे हैं हमारी आँखोंके सामने हैं। उन सब पदार्थोंमें समबुद्धि कर ले। उनमेंसे भेदभाव उठा दे। किसी भी वस्तुमें भेद न रखे। जैसे शरीरमें अपनापन है, भेद नहीं, अंगोंमें अन्तर नहीं; इसी तरह एक-दूसरेसे भेद न रखे। सबमें समता कर ले, भेदबुद्धि उठा दे। इस भेदबुद्धिके उठानेसे भी कल्याण हो जायगा।

गंगाजीके प्रवाहका, हवा, पशु, पक्षी आदिका जो भी शब्द सुनायी दे उसमें ऐसी भावना करे कि शब्द ही भगवान् है। किसी प्रकारका भी शब्द सुनायी क्यों न दे। ‘नादं ब्रह्म’ शब्दको ही ब्रह्म समझे। जो कुछ भी सुनायी दे वह भगवान् है। चाहे कोई गाली दे, चाहे आशीर्वाद दे, दोनोंको ही भगवान् समझे। यदि गाली सुनकर हमें दु:ख होता है तो फिर हमने शब्दको भगवान् कहाँ समझा? भगवान् समझनेपर तो आनन्द-ही-आनन्द होगा। भगवान् के दर्शनोंसे जो आनन्द हो, गाली सुननेसे भी उसी आनन्दका अनुभव करे। इस बातसे भी कल्याण हो जाता है।

संकल्पमात्र (स्फुरणामात्र) को भगवान् का स्वरूप समझकर एकान्तमें आँखें मीचकर बैठ जावे। मन जहाँ जाता है और जो कुछ देखता है सब भगवान् है ऐसी भावना करे। यह निश्चय कर ले कि मेरा मन भगवान् के सिवा और किसी भी वस्तुका चिन्तन ही नहीं करता है। मन घट, पट आदि जिस किसी भी पदार्थका चिन्तन करे उसीको भगवान् समझ ले, उसमें भगवद्बुद्धि कर ले। यह विश्वास कर ले कि जो कुछ मन चिन्तन करता है वह भगवान् है। भगवान् का स्वरूप वही है जो मन चिन्तन करता है। चाहे वह स्त्री, पुत्र, धन आदिका ही चिन्तन करे; उनको स्त्री, पुत्र एवं धन न समझे किन्तु भगवान् समझे। पत्थर तथा वृक्ष जिस किसीका भी चिन्तन करे सब भगवान् है। जैसा दीखे वैसा ही भगवान् का स्वरूप मान ले। यह भी कल्याण-प्राप्तिका सीधा रास्ता है। ऊपर जितनी बातें बतलायी गयी हैं उनमेंसे एक-एकके पालनसे कल्याण हो सकता है। हाँ, यह बात जरूर है कि श्रद्धा और रुचिके तारतम्यके कारण किसी साधनमें समय अधिक लगता है और किसीमें कम। लेकिन कल्याण सभीसे होता है।

स्वप्नमें जो संसार दीखता है, आँखें खोलनेसे जागनेपर वह नहीं दीखता। इसी तरह यह विश्वास कर ले कि मैं स्वप्नमें हूँ, मुझे जो कुछ भी प्रतीत होता है वह सब स्वप्न है। जब स्वप्न समाप्त हो जायगा तब अपने-आप ही असली सत्य वस्तु दीखने लगेगी। यह विश्वास कर ले कि जो दीखती है वह सच्ची वस्तु नहीं है यह स्वप्नवत् है। जो भासती है वह है नहीं। स्वप्न मिटनेवाला जरूर है। आँख खुलते ही मिट जायगा। इसपर यदि यह कहा जाय कि आजतक आँख क्यों नहीं खुली? तो इसका उत्तर यह है कि आजतक संसारके स्वप्नवत् होनेका निश्चय ही कब किया था? आत्माका संकल्प सत्य है। इसलिये यह निश्चय करो कि यह संसार स्वप्न है। चाहे वह सत्य ही क्यों न दिखायी दे, उसे स्वप्नवत् मानते रहो। मानते-मानते एक दिन स्वप्नका नाश हो जायगा और सत्य वस्तु प्राप्त हो जायगी।

सबको प्राण ही सबसे बढ़कर प्यारे हैं। प्राणके समान प्यारा कुछ भी नहीं है, प्रिय-से-प्रिय वस्तु तो याद रहेगी ही। इसलिये प्राणोंमें ब्रह्मकी भावना करे। आने-जानेवाले श्वासकी तरफ लक्ष्य रखे। श्वास तो अन्ततक आता ही है। यदि इस तरह अभ्यास किया जायगा तो अन्त समयमें उद्धार हो जायगा। प्राणको ब्रह्म मान ले! उसमें होनेवाले शब्दको ब्रह्मका नाम मान ले; क्योंकि प्राणोंसे ‘सोऽहं सोऽहं’ शब्दका उच्चारण होता रहता है। यह भी परमात्माका नाम है। इसलिये प्राण ही ब्रह्म है ऐसा निश्चय करनेसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है, अब जिसको जो उपाय सुगम एवं प्यारा मालूम हो वह उसीका साधन करे।

इस प्रकार कल्याणकी प्राप्तिके और भी सैकड़ों उपाय हैं, परन्तु कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा। साधन किये बिना कल्याण नहीं हो सकता। वे सब साधन गीता, वेद तथा श्रुतिमें बतलाये गये हैं। श्रेयार्थियोंको उनमेंसे कोई-सा भी एक साधन, जो उन्हें पसंद हो, करना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur