कल्याणका तत्त्व
सब प्रकारके दु:खोंसे, विकारोंसे, गुणों और कर्मोंसे सदाके लिये मुक्त होकर परम विज्ञान आनन्दमय कल्याणस्वरूप परमात्माको प्राप्त कर लेना ही परम कल्याण है। इसीको कोई मुक्ति, कोई परम पदकी प्राप्ति, कोई निर्वाणपदकी प्राप्ति और कोई मोक्ष कहते हैं। इस स्थितिको प्राप्त करनेका अधिकार मनुष्यमात्रको है। श्रीभगवान् ने कहा है—
मां हि पार्थ व्यपाश्रित्य येऽपि स्यु: पापयोनय:।
स्त्रियो वैश्यास्तथा शूद्रास्तेऽपि यान्ति परां गतिम्॥
(गीता ९।३२)
‘मेरी शरण होनेवाले स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि (अन्त्यजादि) कोई भी हो (सब) परम गतिको प्राप्त होते हैं।’ अतएव जो मनुष्य परमात्माके भजन-ध्यानद्वारा इस प्रकार संसारसे मुक्त होकर परम पदको पा जाता है उसीका मानव-जीवन कृतार्थ होता है।
इस विषयमें लोग भिन्न-भिन्न प्रकारकी भ्रमात्मक बातें किया करते हैं जिनमेंसे मुख्य ये तीन हैं—
१—‘वर्तमान देश-कालमें या इस भूमिपर मुक्ति सम्भव नहीं है एवं गृहस्थ और नीच वर्णोंमें मुक्ति नहीं होती।’
२—‘मुक्त पुरुष दीर्घकालपर्यन्त मुक्तिका सुख भोगनेके बाद पुन: संसारमें जन्म लेते हैं।’
३—‘मुक्ति ज्ञानसे होती है। काम, क्रोध, असत्य, चोरी और व्यभिचारादि विकारोंके रहते भी ज्ञान हो जानेपर मनुष्य जीवन्मुक्त हो सकता है। उपर्युक्त विकार तो अन्त:करणके धर्म हैं, जबतक अन्त:करण है तबतक प्रारब्धानुसार इन विकारोंका रहना भी अनिवार्य है।’
ये तीनों ही विचार वास्तवमें न तो सत्य हैं और न लाभप्रद तथा युक्तियुक्त ही हैं। वरं इनके माननेसे बड़ी हानि होती है तथा लोगोंमें भ्रम फैलता है इसलिये यहाँ इसी विषयपर क्रमश: विचार किया जाता है—
१—मुक्तिका कारण आत्मज्ञान है और उस आत्मसाक्षात्कारके लिये निष्काम कर्मयोग, ध्यानयोग और ज्ञानयोगादि प्रत्येक देश-कालमें सुसाध्य उपाय वेद-शास्त्रोंमें बतलाये गये हैं।
कोई खास युग, देश, वर्ण या आश्रममात्र ही मुक्तिका कारण नहीं माना गया है। साधनसम्पन्न होनेपर प्रत्येक देश-कालमें और प्रत्येक वर्ण-आश्रममें मुक्तिकी प्राप्ति हो सकती है। उपर्युक्त गीताके श्लोकसे भी यही निर्णीत है। मुक्तिके लिये श्रुति-स्मृतियोंमें कहीं भी कलियुग, भारतभूमि या किसी वर्णाश्रमका निषेध नहीं किया गया है। आजतकके संत-महात्माओंके जीवन-चरित्रोंसे भी यही सिद्ध होता है कि प्रत्येक देश, भूमि, वर्ण और आश्रममें साधन करनेपर मुक्ति हो सकती है। विष्णुपुराणमें एक प्रसंग है—
‘ऐसा कौन-सा समय है कि जिसमें धर्मका थोड़ा-सा अनुष्ठान भी महत् फल देता हो,’ इस विषयपर एक बार ऋषियोंमें बड़ी बहस हुई, अन्तमें वे सब मिलकर इस प्रश्नका निर्णयात्मक उत्तर पानेके लिये भगवान् वेदव्यासके पास गये। व्यासजी महाराज उस समय भगवती भागीरथीमें स्नान कर रहे थे, ऋषिगण उनकी प्रतीक्षामें जाह्नवीके तटपर वृक्षोंकी छायामें बैठ गये। थोड़ी देरके बाद व्यासजीने बाहर निकलकर मुनियोंको सुनाते हुए क्रमश: ऐसा कहा—‘कलियुग ही साधु है,’ ‘हे शूद्र! तुम्हीं साधु हो, तुम्हीं धन्य हो!’ ‘हे स्त्रियो! तुम धन्य हो, तुमसे अधिक धन्य और कौन है?’ इससे मुनियोंको बड़ा आश्चर्य हुआ और उन्होंने कौतूहलसे व्यासजीसे इन वचनोंका मर्म पूछा। व्यासदेवने कहा कि यही तुम्हारे विवादग्रस्त प्रश्नका उत्तर है। इन तीनोंमें मनुष्य अल्पायाससे ही परमगति पा सकता है। दूसरे युगोंमें, दूसरे वर्णोंमें और पुरुषोंमें तो बड़े साधनसे कहीं कुछ होता है, परन्तु—
स्वल्पेनैव प्रयत्नेन धर्म: सिद्धॺति वै कलौ।
नरैरात्मगुणाम्भोभि: क्षालिताखिलकिल्बिषै:॥
शूद्रैश्च द्विजशुश्रूषातत्परैर्मुनिसत्तमा:।
तथा स्त्रीभिरनायासं पतिशुश्रूषयैव हि॥
ततस्त्रितयमप्येतन्मम धन्यतमं मतम्।
(विष्णुपुराण ६।२।३४—३६)
‘हे मुनिगण! कलियुगमें मनुष्य सद्वृत्तिका अवलम्बन करके थोड़े-से प्रयाससे ही सारे पापोंसे छूटकर धर्मकी सिद्धि पाता है। शूद्र द्विजसेवासे और स्त्रियाँ केवल पतिसेवासे अल्पायाससे ही उत्तम गति पा सकती हैं। इसीलिये मैंने इन तीनोंको धन्यतम कहा है।’ इससे यह सिद्ध होता है कि वर्तमान देश-कालमें और स्त्री, शूद्रोंके लिये तो मुक्तिका पथ और भी सुगम है।
थोड़ी देरके लिये यदि यह भी मान लें कि वर्तमान देश-कालमें और प्रत्येक वर्णाश्रममें मुक्ति नहीं होती, लोग भूलसे ही उत्साहपूर्वक मुक्तिके लिये साधनमें लगे हुए हैं तथापि यह तो नहीं माना जा सकता कि इस भूलसे वे कोई अपना नुकसान कर रहे हैं। मुक्ति न सही, परन्तु साधनका कुछ-न-कुछ तो उत्तम फल अवश्य ही होगा। सत्त्वगुणकी वृद्धि होगी, अन्त:करणकी शुद्धि होगी और दैवी सम्पत्तिके गुणोंका विकास होगा। जब मुक्ति होती ही नहीं तब वह तो साधक और असाधक दोनोंकी ही नहीं होगी, परन्तु साधकमें साधनसे सद्गुणोंकी वृद्धि होगी और साधनहीन मनुष्य कोरा-का-कोरा ही रह जायगा। इसके अतिरिक्त यदि वर्तमान देश-कालमें प्रत्येक मनुष्यकी मुक्ति होती होगी तो साधककी तो हो ही जायगी, परन्तु साधन न करनेवाला सर्वथा वंचित रह जायगा। जब वह साधनमें प्रवृत्त ही नहीं होगा तब मुक्ति कैसी? अतएव वह बेचारा भ्रमसे इस परम लाभसे वंचित रहकर बारम्बार संसारके आवागमन-चक्रमें घूमता रहेगा। अतएव इस युक्तिसे भी प्रत्येक देश-कालमें और प्रत्येक वर्णाश्रममें मुक्तिका सुगम मानना ही उचित, श्रेयस्कर और तर्कसिद्ध है।
२—श्रुति, स्मृति और उपनिषदादि सद्ग्रन्थोंमें कहींपर भी मुक्त पुरुषोंके पुनरागमन-सम्बन्धी प्रमाण नहीं मिलते। पुनरागमन उन्हींका होता है जो सकामी पुण्यात्मा पुरुष अपने पुण्यबलसे स्वर्गादि लोकोंको प्राप्त होते हैं। भगवान् ने कहा है—
त्रैविद्या मां सोमपा: पूतपापा-
यज्ञैरिष्ट्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।
ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोक-
मश्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान्॥
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालं-
क्षीणे पुण्ये मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना
गतागतं कामकामा लभन्ते॥
(गीता ९।२०-२१)
तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकामकर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञोंके द्वारा पूजकर स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं; वे पुरुष अपने पुण्योंके फलरूप स्वर्गलोकको प्राप्त होकर स्वर्गमें दिव्य देवताओंके भोगोंको भोगते हैं। वे उस विशाल स्वर्गलोकको भोगकर पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकको प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्गके साधनरूप तीनों वेदोंमें कहे हुए सकामकर्मका आश्रय लेनेवाले और भोगोंकी कामनावाले पुरुष बार-बार आवागमनको प्राप्त होते हैं, अर्थात् पुण्यके प्रभावसे स्वर्गमें जाते हैं और पुण्य क्षीण होनेपर मृत्युलोकमें आते हैं॥२०-२१॥
मुक्त पुरुषके सम्बन्धमें तो श्रुति-स्मृतियोंमें स्थान-स्थानपर उनके पुन: संसारमें न आनेके ही प्रमाण मिलते हैं। श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—
आब्रह्मभुवनाल्लोका: पुनरावर्तिनोऽर्जुन।
मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥
(८।१६)
‘हे अर्जुन! ब्रह्मलोकसे लेकर सब लोक पुनरावर्ती स्वभाववाले हैं, परन्तु हे कौन्तेय! मुझको प्राप्त होनेपर पुनर्जन्म नहीं होता।’
‘न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते’
(छान्दोग्य० ८।१५।१)
‘इमं मानवमावर्तं नावर्तन्ते’
(छान्दोग्य० ४।१५।६)
‘तेषां न पुनरावृत्ति:’
(बृह० ६।२।१५)
आदि श्रुतियाँ प्रसिद्ध हैं। इन शास्त्र-वचनोंसे यह स्पष्ट सिद्ध होता है कि मुक्त जीवोंका पुनरागमन कभी नहीं होता। जीवन्मुक्तोंके द्वारा लोकदृष्टिमें यथायोग्य सभी कार्य होते हुए प्रतीत होते हैं परन्तु वास्तवमें उनका उन कार्योंसे कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता—
यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥
(गीता ४।१९)
जिसके सम्पूर्ण शास्त्रसम्मत कर्म बिना कामना और संकल्पके होते हैं तथा जिसके समस्त कर्म ज्ञानरूप अग्निके द्वारा भस्म हो गये हैं, उस महापुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं॥१९॥
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
हत्वापि स इमाँल्लोकान्न हन्ति न निबध्यते॥
(गीता १८।१७)
जिस पुरुषके अन्त:करणमें ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं है तथा जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थोंमें और कर्मोंमें लिपायमान नहीं होती, वह पुरुष इन सब लोकोंको मारकर भी वास्तवमें न तो मारता है और न पापसे बँधता है॥ १७॥
इसके सिवा उस मुक्त पुरुषकी दृष्टिमें एक विशुद्ध विज्ञान-आनन्दघन परमात्मतत्त्वके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं रह जाता—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७।१९)
बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, सब कुछ वासुदेव ही है—इस प्रकार मुझको भजता है, वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है॥१९॥
वह समझता है कि सभी कुछ केवल वासुदेव ही है। इसीलिये उसे मुक्त कहते हैं। ऐसे पुरुषका किसी कालमें भी इस मायामय संसारसे पुन: सम्बन्ध नहीं होता; क्योंकि उसकी दृष्टिमें संसारका सदाके लिये आत्यन्तिक अभाव हो जाता है। इस अवस्थामें उसका पुनरागमन क्योंकर हो सकता है?
यदि कोई यह कुतर्क करे कि यदि मुक्त जीवोंका पुनरागमन नहीं होगा तो मुक्त होते-होते एक दिन जगत् के सभी जीव मुक्त हो जायँगे तब तो सृष्टिकी सत्ता ही मिट जायगी। इसका उत्तर यह है कि प्रथम तो ऐसा होना सम्भव नहीं; क्योंकि—
मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
(गीता ७।३)
‘हजारों मनुष्योंमें कोई मनुष्य मोक्षके लिये यत्न करता है, उन यत्न करनेवाले योगियोंमेंसे कोई पुरुष मुझको (परमात्माको) तत्त्वसे जानता है।’ इस अवस्थामें सभी जीवोंका मुक्त होना असम्भव है; क्योंकि जीव असंख्य हैं। तथापि यदि किसी दिन ‘सम्पूर्ण संसारके सभी जीव किसी तरह मुक्त हो जायँ’ तो इसमें हानि ही कौन-सी है? आजतक अनेक श्रेष्ठ पुरुष इससे पूर्व ऐसी चेष्टा कर चुके हैं, महात्मागण अब भी कर रहे हैं और आगे भी करते रहेंगे। यदि किसी दिन उनका परिश्रम सफल हो जाय और अखिल जगत् के जीवोंका उद्धार हो जाय तो बहुत ही अच्छी बात है, इससे सिद्धान्तमें कौन-सी बाधा आती है?
तर्कके लिये मान लिया जाय कि मुक्त पुरुषका पुनर्जन्म होता है और पुनर्जन्म न माननेवाले भूल करते हैं, पर इस भूलसे उनकी हानि क्या होती है? इस सिद्धान्तके अनुसार पुनरागमन माननेवाला भी वापस आवेगा और न माननेवाला भी। फल दोनोंका एक ही है। परन्तु कदाचित् यही सिद्धान्त सत्य हो कि ‘मुक्त पुरुषका पुनरागमन नहीं होता’ तब तो भूलसे पुनरागमन माननेवालेकी बड़ी हानि होगी; क्योंकि उस पुनरागमन माननेवालेको तो वह मुक्ति ही नहीं मिलेगी कि जिसमें पुनरागमन न होता हो। वह बेचारा भूलसे ही इस परम लाभसे वंचित रह जायगा और पुनरागमन न माननेवाला मुक्त हो जायगा। इस न्यायसे भी पुनरागमन न मानना ही युक्तियुक्त लाभजनक और सर्वोत्तम सिद्ध होता है।
३—श्रुति-स्मृति और उपनिषदादि किसी भी प्रामाणिक सद्ग्रन्थसे यह सिद्ध नहीं हो सकता कि काम-क्रोधादि विकारोंके रहते जीवन्मुक्ति प्राप्त हो सकती है। श्रीमद्भगवद्गीतामें तो स्पष्ट शब्दोंमें काम, क्रोध और लोभको नरकका त्रिविध द्वार बतलाया है—
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(१६।२१)
श्रीगीतामें भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुनके प्रश्नोत्तरसे यह बात स्पष्ट विदित होती है कि समस्त पापोंका बीज ‘काम’ है और उसको आत्मज्ञानके द्वारा नष्ट करके ही साधक मुक्त हो सकता है। तीसरे अध्यायके ३६वें श्लोकसे ४३वें श्लोकपर्यन्त इसका विस्तारसे वर्णन है। जहाँतक काम-क्रोध और हर्ष-शोकादि विकारोंसे ही मनुष्यका छुटकारा नहीं होगा, वहाँतक उसकी मुक्ति कैसे हो सकती है? मुक्त पुरुषका वास्तवमें संसारसे कोई सम्बन्ध नहीं रहता। गीताजीमें कहा है—
यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानव:।
आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते॥
नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रय:॥
(३।१७-१८)
परन्तु जो मनुष्य आत्मामें ही रमण करनेवाला और आत्मामें ही तृप्त तथा आत्मामें ही सन्तुष्ट हो उसके लिये कोई कर्तव्य नहीं है। उस महापुरुषका इस विश्वमें न तो कर्म करनेसे कोई प्रयोजन रहता है और न कर्मोंके न करनेसे ही कोई प्रयोजन रहता है। तथा सम्पूर्ण प्राणियोंमें भी इसका किंचिन्मात्र भी स्वार्थका सम्बन्ध नहीं रहता॥१७॥॥१८॥
उसका अन्त:करण मल-विक्षेप और आवरणसे सर्वदा रहित होकर शुद्ध हो जाता है, ऐसी स्थितिमें काम-क्रोध और हर्ष-शोकादि विकार उसमें कैसे रह सकते हैं? भगवान् ने कहा है—
लभन्ते ब्रह्मनिर्वाणमृषय: क्षीणकल्मषा:।
छिन्नद्वैधा यतात्मान: सर्वभूतहिते रता:॥
कामक्रोधवियुक्तानां यतीनां यतचेतसाम्।
अभितो ब्रह्मनिर्वाणं वर्तते विदितात्मनाम्॥
(गीता ५।२५-२६)
जिनके सब पाप नष्ट हो गये हैं, जिनके सब संशय ज्ञानके द्वारा निवृत्त हो गये हैं, जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत हैं और जिनका जीता हुआ मन निश्चलभावसे परमात्मामें स्थित है, वे ब्रह्मवेत्ता पुरुष शान्त ब्रह्मको प्राप्त होते हैं।काम-क्रोधसे रहित, जीते हुए चित्तवाले, परब्रह्म परमात्माका साक्षात्कार किये हुए ज्ञानी पुरुषोंके लिये सब ओरसे शान्त परब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं॥२५-२६॥
‘हर्षशोकौ जहाति’, ‘तरति शोकमात्मवित्’
आदि श्रुतियाँ भी इसके प्रमाणमें प्रसिद्ध हैं। शास्त्रोंमें जहाँ देखिये वहीं एक स्वरसे यही प्रमाण मिलता है। श्रीपरमात्माका साक्षात्कार हो जानेपर जब समस्त विकारोंकी जड़ आसक्तिका ही अत्यन्त अभाव हो जाता है तब उसके कार्यरूप अन्य विकार तो कैसे रह सकते हैं? इन शास्त्रवचनोंसे यही सिद्ध होता है कि जीवन्मुक्तके शुद्ध अन्त:करणमें विकारोंका अस्तित्व मानना कदापि उचित नहीं है।
यदि ऐसा मान भी लिया जाय कि जीवन्मुक्तिके बाद भी काम-क्रोधादि विकारोंका लेश शेष रह जाता है और जो लोग उसका शेष रहना नहीं मानते, वे भूलसे ही काम-क्रोधादि विकारोंको जड़से उखाड़नेकी धुनमें लगे रहते हैं, इसपर यह सोचना चाहिये कि क्या इस भूलसे उसका कोई नुकसान होता है? यदि पक्षपात छोड़कर विचार किया जाय तो पता लगता है कि काम-क्रोधादि विकारोंके नाशका उपाय न करनेवालोंकी अपेक्षा उपाय करनेवाले अधिक बुद्धिमान् हैं; क्योंकि उपाय करनेसे उनके विकार अधिक नष्ट होंगे और इससे वे कम-से-कम जीवन्मुक्तोंमें तो उत्तम ही माने जायँगे। एक मनुष्य अत्यन्त क्रोधी तथा कामी है और दूसरा इन दोनोंसे छूटा हुआ है और इस सिद्धान्तके अनुसार वे दोनों ही जीवन्मुक्त हैं। इस दशामें यह तो स्वाभाविक है कि इनमें काम-क्रोधपरायण मनुष्यकी अपेक्षा काम-क्रोधरहित जीवन्मुक्त ही अधिक सम्माननीय होगा। इस दृष्टिसे भी काम-क्रोधादि विकारोंका नाश करना ही उचित सिद्ध होता है और यदि कहीं यही बात सत्य हो कि जीवन्मुक्तके अन्त:करणमें कोई विकार शेष नहीं रहता तब तो विकारोंका शेष रहना माननेवालेकी केवल मुक्ति नहीं होगी सो ही बात नहीं, परन्तु उसकी और भी बड़ी हानि होगी; क्योंकि वह मिथ्या ज्ञानसे (गीता १८। २२के अनुसार) ही अपनेको ज्ञानी और मुक्त मानकर अपने चरित्र-सुधारके पवित्र कार्यसे भी वंचित रह जायगा और काम-क्रोधादि विकारोंके मोहमय जालोंमें फँसकर अनेक प्रकारकी नरक-यन्त्रणा भोगता हुआ (गीता अध्याय १६के श्लोक १६ से २० के अनुसार) लगातार संसार-चक्रमें भटकता फिरेगा। इसलिये यही सिद्धान्त सर्वोपरि मानना चाहिये कि जीवन्मुक्तके अन्त:करणमें काम-क्रोध और हर्ष-शोकादि कोई भी विकार शेष नहीं रह जाते।
इसके सिवा मुक्तिके सम्बन्धमें लोग और भी अनेक प्रकारकी शंकाएँ किया करते हैं पर लेख बढ़ जानेके कारण उन सबपर विचार नहीं किया गया।
इस लेखसे पाठक समझ गये होंगे कि मुक्त पुरुष तीनों गुणोंसे सर्वथा अतीत होता है (गीता अ० १४ के १९वें और २२वें से २५वें श्लोकतक इसका वर्णन है), इसीसे उसके अन्त:करणमें कोई विकार या कोई भी कर्म शेष नहीं रहता और इसीलिये उसका पुनर्जन्म भी नहीं होता। पुनर्जन्मका हेतु गुणोंका संग ही है। भगवान् कहते हैं—
पुरुष: प्रकृतिस्थो हि भुङ्क्ते प्रकृतिजान्गुणान्।
कारणं गुणसंगोऽस्य सदसद्योनिजन्मसु॥
(गीता १३।२१)
प्रकृतिमें स्थित ही पुरुष प्रकृतिसे उत्पन्न त्रिगुणात्मक पदार्थोंको भोगता है और इन गुणोंका संग ही इस जीवात्माके अच्छी-बुरी योनियोंमें जन्म लेनेका कारण है॥२१॥
पाठक यह भी समझ गये होंगे कि वर्तमान देश-कालमें मुक्त होना कोई असम्भव बात नहीं है अतएव अब शीघ्र सावधान होकर कर्तव्यमें लग जाना चाहिये। आलस्यमें अबतक बहुत समय नष्ट हो चुका। अब तो सचेत होना चाहिये। मनुष्य-जीवनके एक भी अमूल्य क्षणको व्यर्थमें गँवाना उचित नहीं। गया हुआ समय किसी भी उपायसे वापस नहीं मिल सकता। अतएव यथासाध्य शीघ्र ही सत्संगके द्वारा अपने कल्याणका मार्ग समझकर उसपर आरूढ़ हो जाना चाहिये।
—यही कल्याणका तत्त्व है!
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।