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कल्याण-प्राप्तिके उपाय

कल्याण मुक्तिको कहते हैं, यह शब्द परमपद या परमगतिका वाचक है। कल्याणको प्राप्त करनेके प्रधान उपाय तीन हैं—निष्काम कर्मयोग, ज्ञानयोग अर्थात् सांख्ययोग और भक्तियोग अर्थात् ध्यानयोग। इनमें भक्तिका साधन स्वतन्त्र भी किया जा सकता है और निष्काम कर्मयोग एवं सांख्ययोगके साथ भी।

निष्काम कर्मयोगका विस्तृत वर्णन श्रीमद्भगवद्गीताके द्वितीय अध्यायके ३९वें श्लोकसे ५३वें श्लोकतक है और निष्काम कर्मयोगद्वारा सिद्धिको प्राप्त हुए पुरुषोंके लक्षण इसी अध्यायके ५४वेंसे ७२वें श्लोकतक वर्णित हैं।

ज्ञानयोगका विस्तारसे वर्णन द्वितीय अध्यायके ११वेंसे ३०वें श्लोकतक है और उसीके अनुसार तृतीय अध्यायके २८वें; पंचम अध्यायके ८वें और ९वें तथा चतुर्दश अध्यायके १९वें श्लोकमें ज्ञानयोगीके कर्म करनेकी विधि बतलायी है। इसके अतिरिक्त पंचम अध्यायके १३वेंसे २६वें श्लोकतक ज्ञान और अष्टादश अध्यायके ४९वेंसे ५५वें श्लोकतक उपासनासहित ज्ञानयोगका वर्णन है।

पंचम अध्यायके २७वेंसे २९वें, षष्ठ अध्यायके ११वेंसे ३२वें; अष्टम अध्यायके ५वेंसे २२वें; नवम अध्यायके ३०वेंसे ३४वें, दशम अध्यायके ८वेंसे १२वें, एकादश अध्यायके ३५वेंसे ५५वें और द्वादश अध्यायके २सरेसे ८वें श्लोकतक ध्यानयोग या भक्तियोगका वर्णन है, वास्तवमें ध्यानयोग और भक्तियोग एक ही वस्तु है। इसी प्रकार श्रीगीताजीके अन्यान्य स्थलोंमें भी तीनों साधनोंका भिन्न-भिन्न रूपसे वर्णन है, इन सबमें वर्तमान समयके लिये कल्याणकी प्राप्तिका सबसे सुगम और उत्तम उपाय भक्तिसहित निष्काम कर्मयोग है। इसका बड़ा सुन्दर उपदेश श्रीगीताजीके अष्टादश अध्यायके निम्नलिखित ११ श्लोकोंमें है—

भगवान् श्रीकृष्ण महाराज कहते हैं—

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्‍व्यपाश्रय:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥५६॥
चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥५७॥
मच्चित्त: सर्वदुर्गाणि मत्प्रसादात्तरिष्यसि।
अथ चेत्त्वमहंकारान्न श्रोष्यसि विनङ्क्ष्यसि॥५८॥
यदहंकारमाश्रित्य न योत्स्य इति मन्यसे।
मिथ्यैष व्यवसायस्ते प्रकृतिस्त्वां नियोक्ष्यति॥५९॥
स्वभावजेन कौन्तेय निबद्ध: स्वेन कर्मणा।
कर्तुं नेच्छसि यन्मोहात् करिष्यस्यवशोऽपि तत्॥६०॥
ईश्वर: सर्वभूतानां हृद्देशेऽर्जुन तिष्ठति।
भ्रामयन्सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया॥६१॥
तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥६२॥
इति ते ज्ञानमाख्यातं गुह्याद्गुह्यतरं मया।
विमृश्यैतदशेषेण यथेच्छसि तथा कुरु॥६३॥
सर्वगुह्यतमं भूय: शृणु मे परमं वच:।
इष्टोऽसि मे दृढमिति ततो वक्ष्यामि ते हितम्॥६४॥
मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि सत्यं ते प्रतिजाने प्रियोऽसि मे॥६५॥
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥६६॥

‘मेरे परायण हुआ निष्काम कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है। अतएव हे अर्जुन! तू सब कर्मोंको मनसे मेरेमें अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्वबुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगको अवलम्बन करके निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो।’

‘इस प्रकार तू मेरेमें निरन्तर मनवाला हुआ मेरी कृपासे जन्म-मृत्यु आदि संकटोंसे अनायास ही तर जायगा और यदि अहंकारके कारण मेरे वचनोंको नहीं सुनेगा तो नष्ट हो जायगा अर्थात् परमार्थसे भ्रष्ट हो जायगा।’

‘जो तू अहंकारको अवलम्बन करके ऐसे मानता है कि मैं युद्ध नहीं करूँगा तो तेरा यह निश्चय मिथ्या है; क्योंकि क्षत्रियपनका स्वभाव तेरेको जबर्दस्ती युद्धमें लगा देगा।’

‘हे अर्जुन! जिस कर्मको तू मोहसे नहीं करना चाहता है उसको भी अपने पूर्वकृत स्वाभाविक कर्मसे बँधा हुआ परवश होकर करेगा।’

‘क्योंकि हे अर्जुन! शरीररूप यन्त्रमें आरूढ़ हुए सम्पूर्ण प्राणियोंको अन्तर्यामी परमेश्वर अपनी मायासे उनके कर्मोंके अनुसार भ्रमाता हुआ सब भूत-प्राणियोंके हृदयमें स्थित है, अतएव हे भारत! सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो, उस परमात्माकी कृपासे परम शान्तिको एवं सनातन परम धामको प्राप्त होगा।’

‘इस प्रकार यह गोपनीयसे भी अति गोपनीय ज्ञान मैंने तेरे लिये कहा है। इस रहस्ययुक्त ज्ञानको सम्पूर्णतासे अच्छी प्रकार विचारके फिर तू जैसे चाहता है वैसे ही कर यानी जैसी तेरी इच्छा हो वैसे ही कर।’

‘हे अर्जुन! सम्पूर्ण गोपनीयोंसे भी अति गोपनीय मेरे परम रहस्ययुक्त वचनको तू फिर भी सुन; क्योंकि तू मेरा अतिशय प्रिय है। इससे यह परम हितकारक वचन मैं तेरे लिये कहूँगा।’

‘हे अर्जुन! तू केवल मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्मामें ही अनन्य प्रेमसे नित्य-निरन्तर अचल मनवाला हो और मुझ परमेश्वरको ही अतिशय श्रद्धा-भक्तिसहित निष्कामभावसे नाम, गुण और प्रभावके श्रवण, कीर्तन, मनन और पठन-पाठनद्वारा निरन्तर भजनेवाला हो तथा मेरा (शंख, चक्र, गदा, पद्म और किरीट, कुण्डल आदि भूषणोंसे युक्त पीताम्बर, वनमाला और कौस्तुभमणिधारी विष्णुका) मन, वाणी और शरीरके द्वारा सर्वस्व अर्पण करके अतिशय श्रद्धा, भक्ति और प्रेमसे विह्वलतापूर्वक पूजन करनेवाला हो और मुझ सर्वशक्तिमान्, विभूति, बल, ऐश्वर्य, माधुर्य, गम्भीरता, उदारता, वात्सल्य और सुहृदता आदि गुणोंसे सम्पन्न,सबके आश्रयरूप वासुदेवको विनयभावपूर्वक भक्तिसहित साष्टांग दण्डवत्-प्रणाम कर, ऐसा करनेसे तू मेरेको ही प्राप्त होगा, यह मैं तेरे लिये सत्य प्रतिज्ञा करता हूँ; क्योंकि तू मेरा अत्यन्त प्रिय सखा है।’

‘अतएव सर्व धर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्मोंके आश्रयको त्यागकर केवल एक मुझ सच्चिदानन्दघन वासुदेव परमात्माकी ही अनन्य शरणको प्राप्त हो; मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’

कैसा दिव्य उपदेश है! इसके सिवा ध्यानयोग और भक्तियोग-सम्बन्धी ग्रन्थोंमें पातंजलयोगदर्शन ध्यानयोगका और नारदसूत्र तथा शाण्डिल्यसूत्र भक्तियोगके प्रधान ग्रन्थ हैं, अवश्य ही इनमें कुछ मतभेद है परन्तु इन ग्रन्थोंमें भक्तियोगका ही प्रतिपादन है। इन ग्रन्थोंको मनन करनेसे भक्तियोगका बहुत कुछ पता लग सकता है।

बहुत विस्तारसे न लिखकर मैंने श्रीगीताजीके कुछ श्लोकोंको उद्धृत कर तथा कुछकी केवल संख्या ही बतलाकर पाठकोंसे संकेतमात्र कर दिया है, यदि कोई सज्जन इन श्लोकोंके अर्थका मननकर उसके अनुसार चलना आरम्भ कर दें तो मेरी सम्मतिमें उनको परम कल्याण—मोक्षकी प्राप्ति बहुत ही सुगमतासे हो सकती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur