Seeker of Truth

काम करते हुए भगवत्-प्राप्तिकी साधना

काम करते हुए भी हम ईश्वरको सदा-सर्वदा याद रखते हुए अपना कल्याण किस प्रकार कर सकते हैं—इस सम्बन्धमें कुछ निवेदन किया जाता है। निश्चय ही सभी लोग कामको छोड़कर भजन-ध्यानमें नहीं लग सकते। वास्तवमें गीताके अनुसार कामको छोड़ देनेकी आवश्यकता भी नहीं है। लोग भूलसे ही यह धारणा कर लेते हैं कि गीता तो संन्यास ले लेनेका ही उपदेश देती है। किन्तु यह बात ठीक नहीं; क्योंकि अर्जुन तो सब कुछ छोड़कर भीखके द्वारा अपना जीवन-निर्वाह करनेको तैयार ही हो गये थे। उन्होंने भगवान् से स्पष्ट कह दिया था कि—

गुरूनहत्वा हि महानुभावान्
श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव
भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान्॥
(गीता २। ५)

‘इन महानुभाव गुरुजनोंको न मारकर मैं इस लोकमें भिक्षाका अन्न भी खाना कल्याणकारक समझता हूँ; क्योंकि गुरुजनोंको मारकर भी इस लोकमें रुधिरसे सने हुए अर्थ और कामरूप भोगोंहीको तो भोगूँगा।’

किन्तु भगवान् ने उसे अपना स्मरण करते हुए ही स्वधर्मरूप युद्ध करनेकी आज्ञा दी।

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
(गीता ८। ७)

‘इसलिये हे अर्जुन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’

भगवान् के इस उपदेशके अनुसार जब भगवत्स्मृतिके रहते हुए युद्ध-जैसी क्रिया भी हो सकती है तो फिर हमलोगोंके साधारण कार्योंके होनेमें तो कठिनाई ही क्या है? गीता अध्याय १८ श्लोक ५६ में तो सदा कर्म करते हुए भी भगवत्प्राप्ति होनेकी बात कही गयी है।

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्व्यपाश्रय:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥

‘मेरे परायण हुआ कर्मयोगी तो सम्पूर्ण कर्मोंको सदा करता हुआ भी मेरी कृपासे सनातन अविनाशी परमपदको प्राप्त हो जाता है।’

अत: भगवान् की शरण होकर कर्म करने चाहिये। कई भाइयोंका कहना है कि काम करते हुए भजन करनेसे काम अच्छी तरह नहीं होता और कामको अच्छी तरह करनेसे भजन निरन्तर नहीं होता। उनका यह कहना ठीक है। आरम्भमें ऐसी कठिनाई हो सकती है, किन्तु आगे चलकर अभ्यासके बढ़ जानेपर भगवत्कृपासे यह कठिनाई नहीं रहती। इसलिये काम करते समय भी हमें भजनका अभ्यास डालना चाहिये। इस सम्बन्धमें नटनीका उदाहरण सामने रखा जा सकता है। नटनी बाँसपर चढ़ते समय ढोल भी बजाती रहती है और गायन भी करती रहती है; किन्तु इन सब क्रियाओंको करते हुए भी उसका ध्यान निरन्तर अपने पैरोंपर ही रहता है। इसी प्रकार गाने-बजानेकी भाँति हमें सब काम करने चाहिये और उसके पैरोंके ध्यानकी तरह हमें परमात्मामें अपना मन रखना चाहिये।

जब हमलोग कोई भी काम करें, उस समय हमें श्वास या वाणीके द्वारा भगवान् के नामका जप तथा गुण-प्रभावके सहित उनके स्वरूपका ध्यान करते हुए ही काम करनेका अभ्यास डालना चाहिये। काम करते समय यह भाव रहना चाहिये कि यह काम भगवान् का है और उन्हींके आज्ञानुसार मैं इसे उन्हींकी प्रसन्नताके लिये कर रहा हूँ। प्रभु मेरे पास खड़े हुए मेरे कामको देख रहे हैं—ऐसा समझकर सदा प्रसन्न रहना चाहिये।

इस प्रकार मनसे परमात्माका चिन्तन और श्वास या वाणीसे उनके नामका जप करते हुए ही काम करनेका अभ्यास करनेसे परमात्माकी प्राप्ति सहज ही हो सकती है। ऐसा अभ्यास करनेसे आरम्भमें यदि काममें कमी भी आवे तो कोई हर्ज नहीं। वास्तवमें जप-ध्यानमें कमी नहीं आनी चाहिये।

हमलोगोंको प्रात:-सायं दोनों समय नियमितरूपसे अपने-अपने अधिकारके अनुसार ईश्वरकी उपासना अवश्य ही करनी चाहिये; क्योंकि प्रात:कालकी उपासना करनेपर परमात्माकी कृपासे दिनभर उनकी स्मृति रह सकती है। स्मृतिको तैलधाराकी तरह अखण्ड बनाये रखनेके लिये हमें चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते तथा प्रत्येक कार्य करते हुए भगवान् को अपने साथ समझना चाहिये। मनमें सदा-सर्वदा यह निश्चय रखना चाहिये कि हम जो कुछ करते हैं उसे भगवान् ही करवाते हैं। गुरु जिस प्रकार बच्चेका हाथ पकड़कर उससे अक्षर लिखवाते हैं, उसी प्रकार परमात्मा हमें प्रेरित करके समस्त कार्योंका आचरण हमसे करवाते हैं। कठपुतली जिस प्रकार सूत्रधारके इशारेपर नाचती है उसी प्रकार हमें भगवान् के हाथमें अपनी बागडोर सँभलाकर उनके इशारेपर काम करना चाहिये। इस प्रकारके अभ्याससे हमें प्रत्यक्षमें शान्तिका अनुभव होने लगेगा और हमारे इस साधनसे परमात्मा विशेष प्रसन्न होंगे। इसी प्रकार सायंकालकी उपासना करनेपर भगवत्कृपासे रात्रिमें और सोनेके समय भी भगवान् की स्मृति रह सकती है। उससे दु:स्वप्नोंका नाश होकर वृत्तियाँ सात्त्विक हो जाती हैं और निरन्तर प्रसन्नता तथा शान्ति रहती है। इसलिये हमें अपने मस्तकपर प्रभुका हाथ समझकर सदा आनन्दित रहना चाहिये और भोग, आराम, पाप, आलस्य तथा प्रमाद आदिको मृत्युके समान समझकर अपने जीवनके क्षणोंका उपयोग उत्तम-से-उत्तम कार्योंमें ही करना चाहिये। भगवान् के नामका जप और गुण तथा प्रभावके सहित उनके स्वरूपका ध्यान करते हुए ही उनकी आज्ञाके अनुसार तत्परताके साथ काम करना चाहिये।

परन्तु इस साधनामें निम्नलिखित बातें अत्यन्त बाधक हैं—क्रोध, वैमनस्य, ईर्ष्या, भय, शोक, मोह, अभिमान, मनोमालिन्य, राग-द्वेष और घृणा आदि। इन विघ्नोंको मृत्युके समान समझते हुए इनका सर्वथा परित्याग कर देना ही उचित है। इनसे छुटकारा पानेका मुख्य उपाय है—ईश्वरकी शरण। इस शरणागतिका यदि पूर्णतया पालन कर लिया जाय तो उपर्युक्त विघ्नोंसे सहज ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है—इसमें तो सन्देह ही क्या है; किन्तु परेच्छा और अनिच्छासे जो कुछ भी प्राप्त हो उसे ईश्वरका भेजा हुआ पुरस्कार मानकर प्रसन्न होनेसे भी इन विघ्नोंसे छुटकारा हो सकता है। मनके प्रतिकूल जो कार्य होता है उसे दैवेच्छा यानी भगवदिच्छासे होनेवाला मान लें तो तुरंत ऊपर लिखे विघ्न नष्ट हो सकते हैं। जब कोई कार्य हमारे मनके प्रतिकूल हो तो हमें समझना चाहिये कि इसमें निश्चय ही भगवान् का हाथ है। यह उनकी हमपर बड़ी भारी दया हो रही है कि वे सब कुछ जानते हुए भी आज हमारे हितके लिये हमारी परीक्षा ले रहे हैं। अब हमें सावधान रहना चाहिये कि कहीं हम उस परीक्षामें अनुत्तीर्ण न हो जायँ। इस प्रकार जो उस स्थलपर भी आनन्दका ही अनुभव करता है वही वास्तविक भक्त है। भगवान् के प्रत्येक विधानमें प्रसन्न रहना ही तो भक्तका परम कर्तव्य है। अतएव भगवान् का भक्त बननेकी इच्छावालोंको चाहिये कि वे उनके प्रत्येक विधानमें प्रसन्न रहें। भगवान् हमें पापोंसे मुक्त करके विशुद्ध बनाने तथा सहनशील और धैर्यवान् होनेके लिये हमारे मनके प्रतिकूल पदार्थ भेजकर हमें चेतावनी दिया करते हैं। बाढ़, भूकम्प, महामारी और दुर्भिक्ष आदि अनिच्छासे होनेवाले अनिष्ट भगवान् के द्वारा ही भेजे हुए होते हैं। मनुष्यों तथा पशु-पक्षियों आदि द्वारा परेच्छासे जो अनिष्ट होते हैं, उनमें भी भगवान् की ही प्रेरणा समझनी चाहिये। यह समझकर हमें उन विपरीत परिस्थितियोंमें भी इतना आनन्द होना चाहिये जितना कि एक दरिद्र पुरुषको प्राप्त पारसके होनेपर भी नहीं होता।

निन्दा और अपमान हमको जिस दिन अच्छे मालूम होने लगेंगे, उस दिन समझना चाहिये कि हम भगवान् के सन्निकट पहुँच रहे हैं। वर्तमान स्थितिसे वह स्थिति बिलकुल विपरीत होगी। जो मान और स्तुति आज हमको अमृतके समान मधुर लगते हैं, वे ही भगवत्-शरणापन्न होनेपर विषके समान लगने लगेंगे। जिस प्रकार स्तुति सुनकर हमारे हृदयमें प्रसन्नताकी लहर उठती है, उसी प्रकार जब निन्दा सुनकर भी हमारे हृदयकी वही स्थिति बनी रहेगी, हमारे हृदयमें स्तुति सुननेके समान ही प्रसन्नताकी लहर उठेगी, तब समझना चाहिये कि हम भगवान् के समीप आ गये हैं। आज पुष्पमाला पहनकर जिस हर्षका अनुभव हम करते हैं, ठीक उसी हर्षकी अनुभूति तब हमें जूतोंसे तिरस्कृत होनेपर भी होगी।

हमें चाहिये कि हम उन पुरुषोंको, जो हमारी निन्दा करते हैं, उसी भावसे देखें जिस भावसे हम अपनी प्रशंसा करनेवालेको देखते हैं। महात्मा कबीरदासजी तो यहाँतक कहते हैं कि निन्दक पुरुषको अपनी कुटिया देकर अपने पास बसाना चाहिये।

निन्दक नियरे राखिये, आँगन कुटी छवाय।
बिन पानी साबुन बिना, निरमल करै सुभाय॥

कहनेका तात्पर्य यह है कि जिस किसी भी प्रकारसे हो अपनी निन्दा करनेवालेको अधिक-से-अधिक अपने सम्पर्कमें रखा जाय; क्योंकि वह हमारे जिस कार्यकी निन्दा करेगा उसे सुधारनेकी चेष्टा हमारे द्वारा अवश्य ही होगी। मनुष्यको अपने दोष शीघ्र दिखलायी नहीं पड़ते, परन्तु किसीके द्वारा अपने दोषोंके लिये चेतावनी दिये जानेपर कल्याणकामी पुरुष उन्हें दूर करनेकी चेष्टा करता है। अतएव हमें प्रसन्नतापूर्वक अपनी निन्दा सुननेका स्वभाव बनाना चाहिये। ऐसा स्वभाव बना लेनेपर हमारे द्वारा होनेवाले निन्दनीय कार्योंका तथा निन्दाश्रवणसे उत्पन्न होनेवाले हमारे अन्त:करणके विकारोंका विनाश हो जायगा। इसी बातका स्पष्टीकरण करनेके लिये एक काल्पनिक उदाहरण दिया जाता है—

एक दूकानदार था। उसके हृदयमें किसीके प्रति जरा भी क्रोध, द्वेष या घृणाका भाव नहीं था। वह सभी कार्योंमें भगवत्प्रेरणाका ही अनुभव किया करता था। वह अपने-आपको प्रभुके चरणोंमें समर्पित कर चुका था। एक बार पासके एक दूकानदारने उसे इस प्रकार प्रत्येक विधानमें सन्तुष्ट और कभी क्रोध न करते हुए देखकर विचार किया कि आज चाहे जैसे हो उसको क्रोध दिलाना चाहिये। यह निश्चय करके वह उसकी दूकानपर गया और प्रत्येक बातमें उसके विपरीत बोलने लगा। उसने उसके प्रति न जाने कितनी कटूक्तियाँ—कितने अपशब्द कहे पर वह अपनी स्थितिसे तिलभर भी विचलित न हुआ। अन्तमें उसे किसी प्रकार भी क्रोध न करते देखकर उस दूकानदारको अपनी असफलतापर कुछ निराशा हुई किन्तु फिर भी उसने मन-ही-मन इस बातका दृढ़ संकल्प किया कि मैं इसे क्रोध दिलाकर ही विश्राम लूँगा। कुछ दिनों बाद मौका देखकर वह फिर उसके पास गया और कहने लगा—‘आज मुझे अपने ससुराल जाना है। मैं चाहता हूँ कि तुम भी मेरे साथ चलो।’ उस भक्तने उसके सन्तोषके लिये उसकी बातको स्वीकार कर लिया और साथ जानेके लिये तैयार हो गया। जब वे दोनों चलने लगे तब उसने उस भक्तसे कहा कि इस समय मेरे पास कोई नौकर नहीं है और मेरी इस मिठाईकी हँडियाको ससुरालतक ले जाना जरूरी है। क्या तुम अपने सिरपर रखकर उसे वहाँतक ले चलोगे? उस भक्तने सहर्ष उस हँडियाको अपने सिरपर रख लिया और उस दूकानदारके आगे-आगे चलने लगा। जब वे लोग एक ऐसे स्थानपर पहुँचे जहाँपर बड़ा भारी जनसमूह एकत्र था, उपयुक्त अवसर देखकर दूकानदारने पीछेसे अपने डंडेसे उस हँडियाको फोड़ दिया। हँडियाका फूटना था कि उसके भीतरका सारा कीचड़ और सारा मैला उस भक्तके बदनपर फैल गया। उस भक्तको इस दशामें देखकर सारा जनसमाज हँस पड़ा। वह दूकानदार भी भक्तके सामने खड़ा होकर खूब हँसने लगा। उन सबको हँसते देखकर वह भक्त भी खिलखिलाकर हँसने लगा। तब दूकानदारने पूछा कि ‘भाई! मैं तो तुम्हारी इस दुरवस्थापर हँस रहा हूँ पर तुम्हारे हँसनेका क्या कारण है?’ उस भक्तने कहा—‘मैं अपने ऊपर भगवान् की महती अनुकम्पाका अनुभव करके हँस रहा हूँ। आपकी भी मुझपर कितनी दया है जो कि आप पद-पदपर मेरी सँभाल रखते हैं। नहीं तो किसको क्या गरज पड़ी है कि वह बिना किसी स्वार्थके दूसरेका भला करे—उसकी पूरी सँभाल रखे। आप तो हमेशा ही मुझपर कृपा करके ऐसा कार्य करते रहते हैं जिससे मैं अक्रोधकी कसौटीपर खरा उतर सकूँ।’ इस बातको सुनते ही वह दुष्टात्मा दूकानदार पानी-पानी हो गया। उसकी कलुषित भावनाएँ एकदम विलुप्त हो गयीं। उसकी आँखें खुल गयीं। वह उस भक्तके चरणोंमें लोट गया और अपने अपराधोंके लिये क्षमा-प्रार्थना करने लगा। उस भक्तने उसे अपने हाथोंसे उठा लिया और कहा—‘भाई! आप तो मेरे गुरु हैं। आपके द्वारा ही तो मैं अक्रोधका पाठ पढ़ सका हूँ। मेरे हितकी दृष्टिसे ही भगवान् ने आपके द्वारा यह कार्य करवाया है। आप चिन्ता न कीजिये। इस कार्यके करवानेमें भगवान् की इच्छा थी।’

कहनेका अभिप्राय यह है कि सब कार्योंमें भगवदिच्छाका अनुभव करनेके कारण ही उस महात्माके मनमें स्वयं जनसमाजमें अपमानितकिये जानेपर भी किंचिन्मात्र भी विपरीत भाव उत्पन्न ही नहीं हुआ। अस्तु,

भगवान् अपने भक्तोंके सम्मुख उनके हितके लिये इस प्रकारकी प्रतिकूल परिस्थितियाँ पैदा करते रहते हैं। उन विपरीत विधानोंके प्राप्त होनेपर भी जो जरा भी उद्विग्न न होकर उन्हें भगवान् के भेजे हुए पुरस्कार समझकर उनमें सदा सन्तुष्ट रहते हैं, वे ही सच्चे भक्त हैं। इसके विपरीत यदि हम उनके विधानमें आनन्द नहीं मानते, उनकी प्रसन्नतामें प्रसन्न नहीं होते तो हम भगवान् के भक्त कहाँ? इसलिये इन सब विपरीत विधानोंमें भी हमें हर्ष मानना चाहिये; क्योंकि ऐसा करनेसे हमारे पूर्वकृत पापोंका नाश होता है, आत्मबल और सहनशक्तिकी वृद्धि होती है और साथ-ही-साथ भगवत्स्मृति होकर शास्त्रविपरीत कर्मोंका होना रुक जाता है तथा शत्रु मित्र बन जाता है और विष अमृतके रूपमें परिणत हो जाता है।

श्रीतुलसीदासजीने भी यही कहा है—

गरल सुधासम अरि हित होई।
तेहि मनि बिनु सुख पाव न कोई॥

इसकी चरितार्थता प्रह्लाद और मीरा आदिके जीवनमें प्रत्यक्ष देखी जाती है। मीराबाई भगवान् की अनन्य उपासिका थी। उसकी भक्तिसे चिढ़कर राणाने उसके प्राणोंका हनन करनेके लिये उसके पास विषका प्याला यह कहकर भेजा कि मीरा! यह तेरे उपास्यदेवका चरणामृत है। कहना नहीं होगा कि भक्तिमती मीरा भगवान् का नाम लेकर उसे पी गयी। भगवान् के चरणामृतसे बढ़कर उत्तम वस्तु उसके लिये और हो ही क्या सकती थी? भगवान् भी अपने भक्तोंका अनिष्ट कैसे होने देते? तुरंत मीराका वह विष अमृत हो गया। यह दृश्य देखकर राणा अवाक् रह गया और मीराकी भक्तिके प्रभावसे प्रभावित होकर अन्तमें उसका भक्त बन गया। यह है ईश्वर-भक्तिका प्रताप!

इसलिये हमलोगोंको भी अपने मनके प्रतिकूल जो कुछ भी हो उसे भगवान् का विधान समझकर हर समय सन्तुष्ट रहना चाहिये; क्योंकि उन प्रभुकी प्रेरणाके बिना वृक्षका एक पत्ता भी नहीं हिल सकता। अतएव चाहे हमारा कोई कितना ही अनिष्ट क्यों न करे, हमें उसको भगवान् की ही प्रेरणा जानकर उससे प्रेम ही करना चाहिये—उसके प्रति आदर-बुद्धि ही रखनी चाहिये। यह भी ईश्वरशरणागतिका तत्त्व है। अपनेसे प्रेम करनेवालेके साथ तो पशु भी प्रेम करते हैं। कुत्ते, गधे आदि सभी इसके प्रमाण हैं। देखा जाता है कि एक जब दूसरेसे प्रेम करता है तो दूसरा भी उससे प्रेम करता है। जब एक कुत्ता दूसरेको चाटता है तो दूसरा भी उसको चाटता है। इसी प्रकार वैरके विषयमें भी समझ लेना चाहिये। यदि हमलोग भी अपनेसे प्रेम करनेवालेके साथ प्रेम और अपनेसे द्वेष रखनेवालेके साथ द्वेष करें तो फिर हममें और पशुओंमें अन्तर ही क्या है? हमें तो अपनेसे वैर करनेवालेके साथ भी अधिक-से-अधिक प्रेम करना चाहिये। ऐसा करनेसे ही हमारा वास्तविक मनुष्यत्व सिद्ध होगा।

इस विषयमें हमारे सामने मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने प्रेमके व्यवहारका जो आदर्श रखा है वह कितना उच्च है? निरपराधी रामको कैकेयी दशरथजीकी इच्छा न रहते हुए भी चौदह वर्षके लिये वनमें भेज रही है। भगवान् राम उसकी आज्ञाको शिरोधार्य करके सहर्ष वन जानेको तैयार हैं। कैकेयीके बाणके समान मर्मवेधी वचनोंका उत्तर भगवान् कितनी नम्रता और मधुरताके साथ देते हैं। वे कहते हैं—‘माता! ‘वनमें जानेसे मुनियोंके दर्शनोंका सौभाग्य प्राप्त होगा। वन जानेमें पिताजीकी आज्ञा और आपकी भी सम्मति है। मेरे वन जानेसे भाई भरतको राज्य मिलेगा। इससे बढ़कर मेरे लिये सौभाग्यकी और बात ही क्या हो सकती है?’ श्रीतुलसीदासजीने अयोध्याकाण्डमें कहा है—

मुनिगन मिलनु बिसेषि बन सबहि भाँति हित मोर।
तेहि महँ पितु आयसु बहुरि संमत जननी तोर॥
भरतु प्रानप्रिय पावहिं राजू।
बिधि सब बिधि मोहि सनमुख आजू॥
जौं न जाउँ बन ऐसेहु काजा।
प्रथम गनिअ मोहि मूढ़ समाजा॥

इतने विनय और प्रेमपूर्ण व्यवहारके होनेपर भी कैकेयीने निष्ठुरताका ही व्यवहार किया।

सहज सरल रघुबर बचन कुमति कुटिल करि जान।
चलइ जोंक जल बक्र गति जद्यपि सलिलु समान॥

जब सीता भी रामचन्द्रजीके साथ वन जानेको तैयार हो गयी तब कैकेयी उसे कहती है—‘हे सीते! लो, तुम भी वल्कल वस्त्र धारण कर लो।’ सीता वल्कल वस्त्र अपने हाथमें ले लेती है। परन्तु वह राजकुमारी, जिसने कभी अपने हाथसे आभूषणादि भी नहीं पहने, वल्कल वस्त्र पहनना क्या जाने? वह भगवान् की ओर देखने लग जाती है। ऐसी परिस्थितिमें भगवान् लज्जाकी परवा न करके सीताको वल्कल वस्त्र पहनाते हैं। इस अनुचित और करुणापूर्ण दृश्यको देखकर रनवासकी स्त्रियाँ रो पड़ती हैं और वसिष्ठजी कैकेयीके इस कठोर व्यवहारकी कड़ी आलोचना करके सीताको वल्कल वस्त्र नहीं पहनानेका विधान करते हैं। अन्तमें अपनी विमाताके दुर्व्यवहारोंकी ओर तनिक भी ध्यान न देकर मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामचन्द्रजी प्रसन्नवदन होकर हँसते-हँसते वनकी ओर चले जाते हैं। इतना ही नहीं, अपितु चित्रकूटमें तथा चौदह वर्षकी अवधि पूर्ण होनेपर अयोध्या लौटकर सबसे प्रथम कैकेयीका ही आदर करते हैं। उनके इस आदर्श व्यवहारसे हमें यह शिक्षा लेनी चाहिये कि अपने साथ कोई चाहे कितना ही कठोरतापूर्ण व्यवहार करे किन्तु हमें उसके साथ प्रेमका ही व्यवहार करना चाहिये।

जब किसीको हमपर क्रोध होता है तो हमें समझना चाहिये कि हमारा कोई अपराध बन गया है इसीसे तो इनको क्रोध आया है। यदि हमारा कोई भी अपराध न होता तो इन्हें अकारण ही क्यों क्रोध आता। इस प्रकार अपनेपर दूसरेके क्रोधित होनेमें अपनेको ही उसका कारण मानकर अपनेको ही अपराधी समझना चाहिये। परन्तु यदि अपनेको भी क्रोध आ गया तो फिर अपनी नीचताकी चरम सीमा ही समझनी चाहिये। किसी भी जीवपर क्रोध करना भगवान् पर ही क्रोध करना है। इसलिये किसीपर भी क्रोध न करके सबके साथ अहैतुक प्रेम करना चाहिये; क्योंकि किसीके साथ जो प्रेम करना है वह भगवान् के साथ ही प्रेम करना है। इस प्रकारके प्रेमपूर्ण व्यवहारके प्रभावसे हम भगवान् के परम प्रिय बन जायँगे। गीताके १२ वें अध्यायके १५ वें श्लोकमें भगवान् श्रीकृष्ण अपने प्रेमी भक्तोंके लक्षणोंका वर्णन करते हुए कहते हैं—

यस्मान्नोद्विजते लोको लोकान्नोद्विजते च य:।
हर्षामर्षभयोद्वेगैर्मुक्तो य: स च मे प्रिय:॥

‘जिससे कोई भी उद्वेगको प्राप्त नहीं होता और जो स्वयं भी किसी जीवसे उद्वेगको प्राप्त नहीं होता; तथा जो हर्ष, अमर्ष, भय और उद्वेगादिसे रहित है—वह भक्त मुझको प्रिय है।’

अत: साधकोंको निरन्तर भगवान् का स्मरण करते हुए ही उनकी आज्ञाके अनुसार काम करना चाहिये और अपने मनके प्रतिकूल कार्योंको भी भगवान् का विधान समझकर सदा उनमें सन्तुष्ट रहना चाहिये; क्योंकि भगवान् का प्रत्येक विधान जीवोंके कल्याणके लिये होता है। यदि यह रहस्य याथातथ्य समझमें आ जाय तो भगवत्साक्षात्कार होकर सदाके लिये परमानन्द और परमशान्तिकी प्राप्ति हो सकती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur