Seeker of Truth

जीवनका रहस्य

संसारकी विचित्र दशा है। मनुष्य जन्मता है, बड़ा होता है, विषय-भोग करता है, सन्तान उत्पन्न करता है, उनका पालन-पोषण करता है, धन, जमीन, मकान तथा अन्य भोगकी सामग्री एकत्र करता है, इनके संग्रहमें न्याय-अन्यायकी परवा नहीं करता और अन्तमें इन सबको यहीं छोड़कर असफलता और अतृप्तिका बोध करता हुआ चिन्ताओं और पापोंका बोझ सिरपर लिये हुए इस असार संसारसे चल देता है। अधिकांश मनुष्योंकी यही दशा है। इस प्रकारके जीवनमें और पशु-जीवनमें क्या अन्तर है?

पशु भी अपना पेट भरते हैं, सन्तान उत्पन्न करते हैं और अन्तमें मर जाते हैं; बल्कि कई बातोंमें पशु आजके मनुष्योंसे कहीं अच्छे हैं। उन्हें भविष्यकी चिन्ता नहीं होती, वे संग्रह नहीं करते और संग्रहके लिये दूसरोंका गला नहीं घोटते। फिर पशुओंमें तो अपना हिताहित सोचनेकी बुद्धि नहीं है, मनुष्यको भगवान् ने बुद्धि दी है। फिर भी वह सोचता नहीं कि यह मनुष्य-जीवन हमें किसलिये मिला है—क्या खाने-कमाने, भोग-भोगने और अन्तमें असहायकी भाँति सब कुछ यहीं छोड़कर मर जानेके लिये ही हमें यह जीवन मिला है? जिस मनुष्य-जीवनको शास्त्रोंने देव-दुर्लभ बताया है, क्या उसकी चरितार्थता भोग- भोगनेमें ही है? ये भोग तो हमें अन्य योनियोंमें भी सुलभतासे प्राप्त हो जाते हैं। जो सुख इन्द्रको अमरावतीमें इन्द्राणीके साथ रहनेमें मिलता है, वही सुख एक कुत्तेको कुतियाके सहवाससे प्राप्त होता है। जो स्वाद हमें षट्रस भोजन करनेमें मिलता है, वही स्वाद विष्ठा खानेवाली शूकरीको विष्ठामें मिलता है। जिस आरामका बोध हमें मखमलके गद्दोंपर लेटनेपर होता है, उसी आरामका बोध एक गदहेको घूरेपर पड़ी हुई राखकी ढेरीपर लोटनेमें होता है। फिर पशुओंमें और हममें क्या अन्तर रहा? हम अपनेको पशुओंसे श्रेष्ठ क्यों मानते हैं? आज हममेंसे कितने भाई इन प्रश्नोंपर गम्भीरतापूर्वक विचार करते हैं? हमारा जीवन भोगमय बन गया है, हम रात-दिन इस शरीरकी ही चिन्तामें व्यस्त रहते हैं। हमने शरीरको ही अपना आत्मा मान रखा है, इस शरीरके परे भी कोई वस्तु है, इस बातको जाननेकी हमें आवश्यकता ही नहीं प्रतीत होती। मरनेके बाद हम कहाँ जायँगे, इस जीवनके परे भी कोई जीवन है, इस जीवनमें किये हुए पाप और पुण्यका फल हमें इस जीवनके बाद भी मिल सकता है—इन सब बातोंको हम सोचते ही नहीं। इस जीवनमें हम सुखसे रहें, हमारा मान हो, हमें अधिक-से-अधिक भोग प्राप्त हों—यही हमारे जीवनका लक्ष्य हो गया है। परन्तु क्या यह लक्ष्य ठीक है, आज हम इसी विषयपर कुछ विचार करेंगे।

यह जीवन हमें सांसारिक भोग भोगनेके लिये नहीं मिला है। भोग सभी अनित्य, अस्थिर एवं क्षणभंगुर हैं। जिस प्रकार जुगनूकी चमक एक क्षणके लिये अपनी छटा दिखलाकर तुरंत विलीन हो जाती है, उसी प्रकार विषयसुख केवल भोगकालमें सुखदायी प्रतीत होते हैं—भोगके पूर्वकालमें हम उनकी कामनासे जलते हैं और परिणाम भी उनका दु:खदायी होता है। भोगकालमें भी हमें विषयोंमें सुखकी प्रतीतिमात्र होती है। वस्तुत: उनमें सुख नहीं है। यदि सुख होता तो वह ठहरता, उसका विनाश नहीं होता; क्योंकि सत् और असत्की व्याख्या करते हुए भगवान् श्रीकृष्णने गीतामें हमें यही बतलाया कि सत् वस्तुका कभी विनाश नहीं होता और असत् काभाव नहीं होता—‘नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:’ (२। १६)। अतएव जो सुख अटल है, नित्य है, ध्रुव है, अविनाशी है, वही वास्तविक सुख है। जो सुख क्षणस्थायी है, एक क्षणमें उत्पन्न होता है और दूसरे क्षणमें विनाश हो जाता है, वह सुख, सुख ही नहीं है; वह मिथ्या सुख है, सुखकी भ्रान्ति है। विषयोंके सम्बन्धसे होनेवाले सुखको भगवान् ने राजस और परिणाममें विषके समान दु:खदायी बतलाया है—

विषयेन्द्रियसंयोगाद्यत्तदग्रेऽमृतोपमम् ।
परिणामे विषमिव तत्सुखं राजसं स्मृतम्॥
(गीता १८। ३८)

‘जो सुख विषय और इन्द्रियोंके संयोगसे होता है, वह पहले—भोगकालमें अमृतके तुल्य प्रतीत होनेपर भी परिणाममें विषके तुल्य है, इसलिये वह सुख राजस कहा गया है।’

इसी प्रकार प्रमाद, आलस्य और निद्रासे उत्पन्न होनेवाले सुखको भगवान् ने तामस और मोहकारक बतलाया है—

यदग्रे चानुबन्धे च सुखं मोहनमात्मन:।
निद्रालस्यप्रमादोत्थं तत्तामसमुदाहृतम्॥
(गीता १८। ३९)

‘जो भोगकालमें तथा परिणाममें भी आत्माको मोहित करनेवाला है—वह निद्रा, आलस्य और प्रमादसे उत्पन्न हुआ सुख तामस कहा गया है।’

विषयोंमें सुखकी प्रतीतिमात्र होती है, वास्तवमें उनमें कोई सुख नहीं है—इस तथ्यको समझानेके लिये महात्मालोग एक दृष्टान्त दिया करते हैं। कहते हैं, किसी सरोवरके किनारे एक वृक्षकी शाखामें एक अत्यन्त प्रकाशयुक्त मणि लटक रही थी। मणिकी परछाईं उस सरोवरके जलपर पड़ रही थी। किसी मनुष्यकी दृष्टि उस परछाईंपर गयी और उस परछाईंको मणि समझकर वह उसको पानेके लिये बार-बार जलमें गोता लगाने लगा। किन्तु मणि तो वहाँ थी नहीं, फिर वह उसके हाथ कैसे आती? एक महात्माने उसके व्यर्थ प्रयासको देखकर उससे कहा कि ‘जिसे मणि समझकर पानेके लिये तुम बार-बार जलमें गोता लगा रहे हो, वह मणि नहीं है अपितु मणिकी परछाईंमात्र है। मणि तो ऊपर वृक्षकी शाखामें लटक रही है। परछाईंको पकड़नेकी चाहे तुम जीवनभर चेष्टा करते रहो, वह तुम्हारी पकड़में नहीं आनेकी। मणि प्राप्त करना चाहते हो तो परछाईंके लिये व्यर्थमें परेशान होना छोड़कर ऊपरकी ओर दृष्टि करो और वृक्षपर चढ़कर मणिको ले आओ।’ अब तो उस मनुष्यको अपनी भूल समझमें आ गयी और उसने परछाईंको पकड़नेकी भूलभरी चेष्टा छोड़कर महात्माके बतलाये हुए मार्गसे वृक्षपर चढ़कर उस मणिको पा लिया। जो लोग सुखकी आशासे विषयोंके पीछे भटकते रहते हैं, उनकी दशा मणिको पानेकी आशासे उसकी परछाईंको पकड़नेके लिये व्यर्थ प्रयास करनेवाले उस मूढ़ मनुष्यकी-सी है। आज संसारमें यही हो रहा है। इसीलिये हमलोग असली सुखसे वंचित होकर जीवनभर दु:ख ही पाते रहते हैं। परन्तु बार-बार दु:ख पानेपर भी हम विषयोंसे सुख पानेकी आशाको छोड़ते नहीं और बार-बार उन्हींको पकड़ते हैं। यही तो मोहकी महिमा है। मदिरा पीकर मनुष्य जैसे मतवाला हो जाता है और उसे पूर्वापरका ज्ञान नहीं रहता, उसी प्रकार हमलोग भी मोहरूपी मदिराको पीकर विवेकशून्य हो गये हैं और विषयोंके पीछे पागल हुए-से भटक रहे हैं—‘पीत्वा मोहमयीं प्रमादमदिरामुन्मत्तभूतं जगत्।’

थोड़ी देरके लिये यदि मान लिया जाय कि विषयोंमें सुख है—क्योंकि हमें उसकी अनुभूति होती है—तो कम-से-कम इतनी बात तो स्पष्ट है कि वह सुख अल्प है, अनित्य है, क्षणिक है, सदा रहनेवाला नहीं है। यदि वह नित्य होता तो जिन्हें विषयसुख प्रचुरतासे प्राप्त है, वे कभी दु:खी होते ही नहीं, सदा सुखी ही रहते। परन्तु ऐसा देखनेमें नहीं आता। जिनके पास जितनी ही अधिक विषय-भोगकी सामग्री है, वह उतना ही अधिक दु:खी देखा जाता है। बात भी ठीक ही है। जो वस्तु स्वयं अनित्य है, वह हमें नित्य सुख कैसे दे सकती है? संसारका प्रत्येक पदार्थ नश्वर है, विनाशकी ओर जा रहा है; बल्कि यों कहना चाहिये कि प्रतिक्षण उसका विनाश हो रहा है। जैसे दीपककी लौ दीखनेमें एक होनेपर भी प्रतिक्षण बदलती रहती है अथवा जैसे नदीका जल एक दीखनेपर भी प्रतिक्षण बदलता रहता है, उसी प्रकार संसारके प्रत्येक पदार्थका प्रतिक्षण रूपान्तर होता रहता है। आज किसी वस्तुको हम जिस रूपमें देखते हैं, कल उसका दूसरा ही रूप हो जायगा और परसों उसका रूप कुछ और ही हो जायगा। उदाहरणके लिये दूधको लीजिये। दूधकी जो आकृति, गुण और स्वाद आज है, कल उसकी वह आकृति, गुण और स्वाद नहीं रह जायगा। परसों उसकी आकृति, गुण और स्वादमें और भी अन्तर आ जायगा। आज जो दूध हमें अमृतके समान लगता है, कल वह खट्टा लगने लगेगा, परसों उसमें खट्टी बदबू आने लगेगी तथा उसका गुण और स्वाद भी बिगड़ जायगा एवं यदि कुछ दिन उसे और पड़ा रखा जाय तो जो दूध एक दिन स्वाद और गुणमें अमृतके समान था, वही विष-तुल्य हो जायगा। यही बात न्यूनाधिक रूपमें संसारके सभी पदार्थोंके सम्बन्धमें समझनी चाहिये। किसीका रूपान्तर जल्दी हो जाता है, किसीका देरसे होता है; किन्तु होता सबका है। ऐसे क्षणभंगुर पदार्थोंसे हम नित्य सुखकी आशा ही कैसे कर सकते हैं?

फिर विषयोंके साथ हमारा सम्बन्ध भी नित्य नहीं है। आज जिस पदार्थको हम अपना मानकर इतराते हैं, कल ही उसके साथ हमारा सम्बन्ध छूट सकता है। यह शरीर भी जब हमारा नहीं है, जिसको लेकर हम विषयोंको अपना माने हुए हैं, तब विषय तो हमारे हो ही कैसे सकते हैं? इस शरीरके साथ हमारा सम्बन्ध कब छूट जाय, पता नहीं। शरीर छूट जानेपर उन समस्त पदार्थोंसे, जिन्हें हम अपना माने हुए हैं, हमारा सम्बन्ध अपने-आप छूट जायगा। पूर्वजन्ममें हमारा जिन पदार्थोंसे अथवा व्यक्तियोंसे सम्बन्ध था, आज, सम्बन्धकी बात तो अलग रही, उनकी हमें स्मृति भी नहीं है। उसी प्रकार इस जन्मके पदार्थोंसे हमारा मृत्यु हो जानेपर कोई सम्बन्ध नहीं रह जायगा; बल्कि हमें इनकी स्मृतितक नहीं रह जायगी। लाख प्रयत्न करनेपर भी इनमेंसे एक भी पदार्थ हमारे साथ नहीं जा सकेगा और मृत्यु हमारी एक-न-एक दिन निश्चित है। उसे हम एक क्षणके लिये भी नहीं टाल सकते। ऐसी दशामें यहाँके पदार्थोंसे सम्बन्ध जोड़ना, उन्हें अपना मानना और उनके बटोरनेमें आयु बिता देना कहाँतक बुद्धिमानी है—इसे हम स्वयं सोच सकते हैं।

इसके अतिरिक्त जितने भी विषय-सुख हैं, वे सब क्षणिक होनेके साथ ही विषयुक्त मधुकी भाँति दु:खमय हैं। भोगकालमें सुखरूप भासनेपर भी वे परिणाममें दु:खरूप ही हैं। उदाहरणत: स्त्रीप्रसंगके सुखको ही लीजिये। उससे क्षणभरके लिये हमें जो सुख प्रतीत होता है, उसके मुकाबलेमें दु:खकी मात्रा कितनी अधिक होती है—इसका भी अंदाजा लगाइये। उससे हमारे बल, वीर्य, बुद्धि, तेज, आयु आदिका नाश होता है, लोक-परलोक बिगड़ता है और शरीरमें भी शिथिलता और क्लान्तिका अनुभव होता है। ऐसी दशामें इन क्षणिक विषयोंके भोगनेमें ही जीवन बिता देना मूर्खता नहीं तो क्या है? अत: विषय-सुखोंका त्यागकर जो वास्तविक एवं स्थायी सुख है, जिसका कभी नाश नहीं होता और जो मृत्युके बाद भी बना रहता है, उस सुखको प्राप्त करनेकी हमें प्राणपणसे चेष्टा करनी चाहिये। इस सुखको प्राप्त करना ही मनुष्य-जीवनका लक्ष्य है। यही परम पुरुषार्थ है। वेद-शास्त्र इसीको प्राप्त करनेकी हमें आज्ञा देते हैं। इसीको पा लेनेपर मनुष्य सदाके लिये निहाल हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है, जन्म-मृत्युको लाँघ जाता है, सब प्रकारके दु:ख, भय, शोक और चिन्ताओंसे मुक्त हो जाता है, सब प्रकारके बन्धनोंसे छूट जाता है। इसीको परमात्मा अथवा परमपदकी प्राप्ति कहते हैं। इसीको प्राप्त करना हमारा सबसे बड़ा एवं मुख्य कर्तव्य है और इसीके लिये हमें यह जीवन मिला है।

भोग-सुख तो हमें देव, तिर्यक् आदि अन्यान्य योनियोंमें भी प्राप्त हो सकते हैं। न जाने अबतक हमारे कितने जन्म हो चुके हैं; न जाने कितनी बार हमने स्वर्गसुख भोगा है, कितनी बार हम इन्द्र बन चुके हैं, कितनी बार हम चक्रवर्ती सम्राट् हो चुके हैं, कितनी बार हमने स्त्री-सुख, सन्तान-सुख और जिह्वा आदि इन्द्रियोंके सुख भोगे हैं; परन्तु फिर भी इनसे हमारी तृप्ति नहीं हुई। हमारी सुखकी खोज अभी बनी ही हुई है और जबतक हम परमात्मरूप नित्य एवं निरतिशय सुखकी प्राप्ति नहीं कर लेंगे, तबतक हमारी यह सुखकी खोज बनी ही रहेगी, हमारी तृप्ति कभी होनेकी नहीं। अनन्त सुखकी खोज ही जीवका धर्म है। जबतक यह सुख उसे प्राप्त नहीं हो जायगा, तबतक उसे चैन नहीं मिलेगा; न उसका भटकना ही बंद होगा और न तो उसे विश्राम ही मिलेगा। इसलिये विषयोंके लिये भटकना छोड़कर उस परम सुखकी प्राप्तिके लिये ही मनुष्यको निरन्तर अथकरूपसे चेष्टा करनी चाहिये और जबतक वह प्राप्त न हो जाय, तबतक उसे दूसरी ओर ताकना भी नहीं चाहिये।

इस परम सुखकी प्राप्ति मनुष्य-योनिमें ही सम्भव है, अन्य किसी योनिमें नहीं; क्योंकि और सब योनियाँ तो भोगयोनियाँ हैं। मनुष्य-जीवनमें किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका फल हम अन्य योनियोंमें भोगते हैं। कर्म करनेका अधिकार तो केवल मनुष्य-योनिमें है। इसीलिये इसे कर्मयोनि कहते हैं, इसीलिये इसे सब योनियोंमें श्रेष्ठ कहा गया है, इसीलिये गोस्वामी तुलसीदासजीने इसे ‘साधन-धाम’ और ‘मोक्षका द्वार’ कहा है, इसीलिये देवतालोग भी मनुष्य-योनिमें जन्म लेनेके लिये तरसते रहते हैं और इसीलिये इस मनुष्यदेहको क्षणभंगुर होनेपर भी देवदुर्लभ कहा गया है। यह देवदुर्लभ देह हमें भगवान् की कृपासे ही प्राप्त होती है। जब यह जीव चौरासी लाख योनियोंमें भटककर हैरान हो जाता है, तब भगवान् करुणा करके उसे मनुष्य-शरीर देते हैं—

कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥

ऐसे देवदुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर भी यदि हमने अपना असली काम नहीं बनाया—जिसके लिये हम इस संसारमें आये हैं—तो हमसे बढ़कर मूर्ख कौन होगा? शास्त्रोंने तो ऐसे मनुष्यको कृतघ्न और आत्महत्यारा बतलाया है। गुसाईंजी महाराज शास्त्रोंका ही अनुवाद करते हुए कहते हैं—

जो न तरै भव सागर नर समाज अस पाइ।
सो कृत निंदक मंदमति आत्माहन गति जाइ॥

यह मनुष्य-शरीर हमें बार-बार नहीं मिलनेका। ऐसे दुर्लभ अवसरको यदि हमने हाथसे खो दिया तो फिर सिवा पछतानेके और कुछ हाथ नहीं लगेगा। मनुष्येतर प्राणियोंमें न तो भले-बुरेकी पहचान होती है, न कार्याकार्यका ज्ञान होता है और न शास्त्रानुकूल आचरण करते हुए उस परम सुखको प्राप्त करनेका साधन ही बन सकता है। इसलिये शीघ्र-से-शीघ्र इस जीवनमें ही हमें उस परम सुखको प्राप्त कर लेना चाहिये और उसके लिये कोई उपाय छोड़ न रखना चाहिये। इसीमें हमारी बुद्धिमत्ता है और इसीमें हमारे जीवनकी सफलता है। यदि जीवनमें हमने बहुत-सी भोगसामग्री एकत्र कर ली, बहुत-सा मान-सम्मान प्राप्त किया, बहुत नाम कमाया, हजारों-लाखों रुपये, विपुल सम्पत्ति, हाथी-घोड़े, नौकर-चाकर तथा बहुत बड़े परिवारका संग्रह किया; किन्तु यदि जीवनका वास्तविक उद्देश्य सिद्ध नहीं किया तो हमारा किया-कराया सब व्यर्थ ही नहीं हो गया; बल्कि यह सब करनेमें जो हमने पापाचरण किया उसके फलरूपमें हमें नरकोंकी प्राप्ति होगी, हम नीचेकी योनियोंमें ढकेले जायँगे। इसके विपरीत यदि हमारा जीवन लौकिक दृष्टिसे कष्टोंमें बीता, हमें मान प्राप्त नहीं हुआ; बल्कि जगह-जगह हम दुरदुराये गये, हमारा किसीने आदर नहीं किया, किसीने हमारी बात नहीं पूछी; किन्तु हमने अपने जीवनका सदुपयोग किया, जिस कार्यके लिये हम आये थे उस कार्यको बना लिया तो हम कृतकार्य हो गये, हमारा जीवन धन्य हो गया।

अब हमें यह देखना है कि दु:खोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति और अविनाशी सुखकी प्राप्तिका उपाय क्या है? हम देखते हैं कि सभी प्राणी सुख चाहते हैं, दु:ख कोई भी नहीं चाहता। परन्तु संसारमें सुख कहीं ढूँढ़नेसे भी नहीं मिलता। जहाँ देखिये वहीं हाय-हाय मची हुई है। सभी लोग दु:ख और अशान्तिकी ज्वालासे जल रहे हैं। कोई हमारे देखनेमें सुखी है भी तो वह अधिक सुखके लिये लालायित है, अपनी स्थितिसे उसे सन्तोष नहीं है, दूसरोंको अपनेसे अधिक सुखी देखकर वह ईर्ष्यासे जलता रहता है, दूसरोंको नीचा दिखानेके लिये वह उपाय सोचता है, जो कुछ मान-मर्यादा और धन-सम्पत्ति उसे प्राप्त है, उसके नष्ट हो जानेका भय उसे सदा बना रहता है। जरा-सी प्रतिकूलता भी उसे सहन नहीं होती, प्रतिकूल आचरण करनेवाले और अपनी कामना-पूर्तिमें बाधा पहुँचानेवालेके प्रति उसकी द्वेषाग्नि भभक उठती है, प्रतिहिंसाके भाव जाग उठते हैं, बदलेमें दूसरे भी उसके प्रति वैसे ही भावोंका पोषण करते हैं। फलत: चारों ओर भय, आशंका, ईर्ष्या, द्वेष और कलहका वातावरण बन जाता है और उसीमें सभी मनुष्य रात-दिन जला करते हैं, दु:खी रहते हैं, अशान्तिमय जीवन व्यतीत करते हैं और मरनेपर नरकोंकी असह्य यन्त्रणा भोगते हैं। इसीलिये जगत् को भगवान् ने ‘दु:खालय’—दु:खोंका घर बतलाया है। सभी लोग किसी-न-किसी अभावका अनुभव करते हैं और अभाव दु:खका कारण है। ऐसी स्थितिमें इस दु:खमय जगत् से मुँह मोड़कर—उससे सुख पानेकी आशा छोड़कर नित्य सुखके आकर सुखस्वरूप परमात्माका आश्रय ग्रहण करना, उसके तत्त्वको समझकर उसकी भक्ति करना, उसके नामका जप और उसके स्वरूपका चिन्तन करना, उसकी आज्ञाओंका पालन करना तथा उसके विधानमें सन्तुष्ट रहना—यही उसकी कृपाको प्राप्त करनेका सुगम उपाय है और उसकी कृपासे ही मनुष्य सब प्रकारके क्लेशोंसे मुक्त होकर परम सुखका अधिकारी बन जाता है—जिसके पा लेनेपर और कुछ पाना बाकी नहीं रह जाता, मनुष्य सदाके लिये कृतकृत्य हो जाता है, द्वन्द्वोंसे छूट जाता है।

यहाँ यह प्रश्न होता है कि मनुष्यको चिन्ता, शोक, भय, दु:ख आदि क्यों होते हैं? यदि यह कहा जाय कि प्रारब्धकर्मोंके फलस्वरूप ही हमें सुख-दु:ख आदिकी प्राप्ति होती है तो इसपर यह शंका होती है कि प्रारब्धभोग तो जीवन्मुक्त महापुरुषोंका भी शेष रहता है, बिना प्रारब्धभोग शेष रहे उनका शरीर ही नहीं रह सकता। उन्हें शारीरिक कष्ट, रोग, पीड़ा आदि भी होते देखे जाते हैं; परन्तु उन्हें सुख-दु:ख, हर्ष-शोक आदि नहीं होते। श्रुति कहती है—‘हर्षशोकौ जहाति’ (कठ० १। २। १२), ‘तत्र को मोह: क: शोक एकत्वमनुपश्यत:॥’ (ईश० ७) इत्यादि। गीतामें भी कहा है—‘गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥’ (२। ११)। इस प्रकारके और भी अनेकों वचन शास्त्रोंमें मिलते हैं, जिनसे यह सिद्ध होता है कि ज्ञानी महात्माओंको हर्ष-शोक तथा सुख-दु:ख आदि नहीं होते। सुख-दु:खकी घटना घटनेपर तथा सुख-दु:खके निमित्त प्राप्त होनेपर भी उनके अन्त:करणमें हर्ष-शोक आदि विकार नहीं होते, उनकी स्थिति सदा अविचल, सम रहती है। इससे यह सिद्ध होता है कि हर्ष-शोक आदिके होनेमें प्रारब्ध हेतु नहीं है; बल्कि हमारा अज्ञान ही हेतु है। अज्ञानका नाश हो जानेपर राग-द्वेष, चिन्ता, शोक, भय आदिका भी अत्यन्ताभाव हो जाता है और अज्ञानका नाश होता है परमात्माके यथार्थ ज्ञानसे। जिस प्रकार अन्धकारका नाश प्रकाशसे ही होता है, उसी प्रकार अज्ञानरूपी अन्धकारका नाश भी ज्ञानरूपी सूर्यके उदय होनेपर ही होता है। अत: दु:ख एवं शोकसे छूटनेके लिये मनुष्यको चाहिये कि वह अपना सारा समय परमात्माके तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके साधनमें ही लगावे और उसे प्राप्त करके ही विश्राम ले। वह परमात्माका यथार्थ ज्ञान विवेक एवं वैराग्यपूर्वक सद्गुण और सदाचारके सेवनसे—जिन्हें गीतामें दैवी सम्पत्तिके नामसे कहा गया है—होता है और दैवी सम्पत्तिका अर्जन भगवान् की भक्तिसे सुलभ हो जाता है। इस प्रकार भगवान् की भक्ति ही उनका तत्त्वज्ञान करानेमें सर्वोपरि साधन है। अत: मनुष्यको चाहिये कि वह श्रद्धा एवं प्रेमपूर्वक भगवद्भक्तिका ही अभ्यास करे।

भगवद्भक्तिमें मनुष्यमात्रका समान अधिकार है। कोई किसी वर्णाश्रमका, किसी जातिका, किसी समाजका और किसी अवस्थाका क्यों न हो, भगवान् की भक्ति करनेमें उसके लिये कोई रुकावट नहीं है। भक्तिमें न विद्याकी आवश्यकता है, न बुद्धिकी। मूर्ख-से-मूर्ख और पापी-से-पापी भी भगवान् की भक्ति करनेसे परम पवित्र होकर उनकी कृपा प्राप्त कर सकता है और उस कृपाके बलसे उसे बहुत जल्दी परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। भगवान् गीतामें अर्जुनसे कहते हैं—

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(९। ३०-३१)

‘यदि कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्यभावसे मेरा भक्त होकर मुझको निरन्तर भजता है, तो वह साधु ही माना जानेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है अर्थात् उसने भलीभाँति निश्चय कर लिया है कि परमेश्वरके भजनके समान अन्य कुछ भी नहीं है। उस भक्तिके प्रभावसे वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’

यही नहीं, भक्ति करनेवालेको भगवान् स्वयं ज्ञान प्रदानकर उसके अज्ञानरूपी अन्धकारका सर्वथा नाश कर देते हैं, जैसा कि गीतामें कहा है—

तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
(१०। १०-११)

‘उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं और हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये उनके अन्त:करणमें स्थित हुआ मैं स्वयं ही अज्ञानसे उत्पन्न हुए अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपकद्वारा नष्ट कर देता हूँ।’

भगवान् का भजन और ध्यान करनेवाला उनकी कृपासे परमानन्द एवं परम शान्तिको प्राप्त कर ले, इसमें तो आश्चर्य ही क्या है? भगवान् के भक्तोंका आश्रय ग्रहण करके उनके वचनोंके अनुसार चलनेवाला अतिशय मूढ़ पुरुष भी दु:खोंसे मुक्त होकर परमात्माको प्राप्त हो जाता है। गीतामें भगवान् श्रीकृष्ण स्वयं कहते हैं—

अन्ये त्वेवमजानन्त: श्रुत्वान्येभ्य उपासते।
तेऽपि चातितरन्त्येव मृत्युं श्रुतिपरायणा:॥
(१३। २५)

‘परन्तु इनसे दूसरे अर्थात् जो मन्दबुद्धिवाले पुरुष हैं, वे स्वयं इस प्रकार न जानते हुए, दूसरोंसे अर्थात् तत्त्वके जाननेवाले पुरुषोंसे सुनकर ही तदनुसार उपासना करते हैं। और वे श्रवणपरायण पुरुष भी मृत्युरूप संसारसागरको नि:सन्देह तर जाते हैं।’

यहाँ यह प्रश्न होता है कि भगवान् का निरन्तर भजन करनेसे समस्त दु:खोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति होकर उनकी प्राप्ति हो जाती है, इसमें युक्ति क्या है? निम्नलिखित उत्तरसे यह बात अच्छी तरहसे स्पष्ट हो जायगी। यह एक मनोवैज्ञानिक सिद्धान्त है कि मनुष्य जीवनकालमें जिस बातका निरन्तर अभ्यास करता है, अन्तकालमें भी उसीकी स्मृति होती है और अन्तकालमें मनुष्यको जिस वस्तुकी स्मृति होती है, मृत्युके बाद उसे उसी स्वरूपकी प्राप्ति होती है—

यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)

इसीलिये भगवान् कहते हैं कि जो पुरुष अन्तकालमें मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर त्याग कर जाता है, वह साक्षात् मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है—

अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम्।
य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय:॥
(गीता ८। ५)

इससे यह बात सिद्ध हुई कि कोई कैसा ही पापी, कैसा ही मूर्ख क्यों न हो, भगवान् के स्मरणके अभ्याससे उसका एक क्षणमें उद्धार हो सकता है। अत: हमको चलते-फिरते, उठते-बैठते, खाते-पीते, सब समय भगवान् के स्मरणका अभ्यास निरन्तर करते रहना चाहिये। ऐसा करनेसे सारे दुर्गुण-दुराचारोंका मूलसहित नाश होकर मनुष्यका जीवन सद्गुण एवं सदाचारमय बन जाता है तथा उस परमपुरुष परमात्माके तत्त्वका यथार्थ ज्ञान होकर सदाके लिये परमानन्द एवं परम शान्तिकी प्राप्ति अनायास और अति शीघ्र हो जाती है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur