जीवन-सुधार
मनुष्यको अपना जीवन सदाचारमय बनाना चाहिये। यह मानव-जीवन बड़ा ही अमूल्य है। मनुष्यको चाहिये कि वह अपना सब प्रकारसे उत्थान करे और पतनके मार्गमें तो कभी भूलकर भी पैर न रखे। भगवान् गीतामें कहते हैं—
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मन:॥
(६। ५)
‘अपने द्वारा अपना संसार-समुद्रसे उद्धार करे और अपनेको अधोगतिमें न डाले; क्योंकि यह मनुष्य आप ही तो अपना मित्र है और आप ही अपना शत्रु है।’
परन्तु आजकल अधिकतर पतनकी ओर ही प्रवृत्ति होती जा रही है। नैतिक, सामाजिक और धार्मिक—सभी दृष्टियोंसे हमारा उत्तरोत्तर पतन होता जा रहा है और वर्तमान कालमें तो बहुत ही पतन हो गया है। लोगोंमें झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी और चोरबाजारी इतनी बढ़ गयी कि प्रतिशतमें एक व्यक्ति भी शायद ही इससे अछूता रहा हो।
परन्तु जो मनुष्य अन्यायसे धनोपार्जन करता है, वह न तो जीते जी उस धनका भोग ही कर सकता है और न उसे पुण्य-दानमें ही लगा सकता है; क्योंकि पापसे पैदा किये हुए द्रव्यका पुण्यमें लगना असम्भव-सा है, वह तो अधिकांशमें पापमें ही लगता है। बबूलके वृक्षमें तो काँटे ही लगते हैं, उसमें आम कहाँ अत: पापसे उपार्जित द्रव्यसे न इस लोकमें लाभ है और न परलोकमें ही। वह धन या तो मुकदमेबाजीमें लगकर नष्ट हो जाता है या किसी कारणसे सरकारके अधिकारमें चला जाता है अथवा चोर-डाकुओंके हाथोंमें पड़कर पूरा हो जाता है। यदि रहता भी है तो प्राय: उसका दुरुपयोग ही होता है। इसलिये अन्यायसे कभी पैसा पैदा नहीं करना चाहिये। न्यायोपार्जित द्रव्यसे खानेके लिये एक मुट्ठी चना ही मिले तो वह भी मेवा-मिष्टान्नोंसे बढ़कर है। यदि अन्यायसे मेवा-मिष्टान्न भी मिलें तो उन्हें विषके समान समझना चाहिये। शरीरका निर्वाह ही तो करना है। वह तो मेवा-मिष्टान्नसे भी होता है और चनोंसे भी हो सकता है। हम यदि चने-बाजरेकी रोटी खा लें तो क्या और मेवा-मिष्टान्न खा लें तो क्या; आखिर तो सब चीजोंकी एक ही गति होनी है। अत: मनुष्यको इन सब बातोंको विचारकर अन्यायका कभी आश्रय नहीं लेना चाहिये तथा अपना जीवन सब तरहसे सुधार कर पवित्र बनाना चाहिये।
समाजमें इस समय बहुत-सी कुरीतियाँ बढ़ी हुई हैं, उनका भी सुधार करना चाहिये तथा जो फिजूलखर्ची बढ़ी हुई है, उसे घटानेकी कोशिश करनी चाहिये।
दहेजकी प्रथा तो बिलकुल ही तोड़ देनी चाहिये; यदि बिलकुल न टूट सके तो बहुत संक्षिप्त, केवल नाममात्रको रखनी चाहिये। दहेज लेना एक बहुत ही निन्दनीय कर्म है। दहेज न दे सकनेके कारण बहुत-से गरीब भाई दु:खी और संतप्त हो रहे हैं। इसलिये बहुत-सी लड़कियाँ तो अपने माता-पिताके इस दु:खको देखकर आत्महत्या कर लेती हैं और बहुत-से माता-पिता भी यदि लड़की बीमार हो जाती है तो इसके मरनेकी ही बाट देखते हैं तथा मरनेपर बाहरसे शोक प्रकट करते हुए भी भीतरसे प्रसन्न ही होते हैं। उनकी आत्महत्या और मृत्युके पापका भागी दहेज लेनेवाला ही होता है। दहेज लेनेवालेको कोई विशेष लाभ भी नहीं होता; क्योंकि जो दहेज लेता है, उसे भी कभी देना ही पड़ता है। वह तो दहेज लेकर केवल अपयश और पापका ही भागी बनता है। इसलिये दहेजको एक प्रतिग्रहके समान समझकर अथवा रक्तसे सना हुआ द्रव्य मानकर उसका बिलकुल त्याग कर देना चाहिये।
सगाई, विवाह, द्विरागमन आदिके अवसरपर बुरे गीत गाना, हँसी-मजाक करना—ये सब बहुत ही हानिकारक कुरीतियाँ हैं। इनको भी बंद करनेकी चेष्टा करनी चाहिये। इनसे नैतिक, सामाजिक और धार्मिक—सब प्रकारका पतन होता है!
लड़का पैदा होनेके समय या दीपावलीपर लक्ष्मी-पूजनके समय अथवा अन्य किसी समय भी चौपड़, ताश, शतरंज, जुआ आदि खेलना पापकी जड़ है तथा समाजको कलंक लगानेवाला काम है। इस प्रथाको भी उठा देना चाहिये।
विवाहके अवसरपर जुआ, आतिशबाजी, नाटक-सिनेमा, कुरुचिपूर्ण खेल-तमाशे, कलाके नामपर युवती-नृत्य, बनोरी निकालना आदि सब प्रमाद हैं। इनका सर्वथा त्याग करना चाहिये तथा खातिरदारीमें विदेशी ढंगसे और अपवित्र वस्तुएँ आदि देना व्यर्थ खर्च करना है; इन सबको बंद कर देना चाहिये। परंतु आजकल तो प्राय: रोज ही लोग नाटक-सिनेमा, थियेटर, खेल-तमाशे, क्लब आदि प्रमादमें अपना समय और धन बर्बाद करते हैं। इस प्रकार प्रमादमें व्यर्थ खर्च करना बड़ी मूर्खता है। इस प्रमादसे समय और धनको बचाकर उसे दीन-दु:खी, गरीब, अनाथ, शरणार्थी और विधवाओंकी सेवामें लगाना चाहिये, जिससे इस लोक और परलोकमें कल्याण हो।
मिथ्या बहमका भी परित्याग करना चाहिये। डोरा-यन्त्र कराना, झाड़ा फुँकवाना, आखा दिखाना, पीर, फकीर, भैरव आदिके यहाँ जात-झड़ूला बोलना—ये सब धूर्तोंके चलाये हुए पाखण्ड हैं। समझदार स्त्री-पुरुषोंको इनके फंदेमें फँसकर अपने बुद्धि और विवेकको मिट्टीमें नहीं मिलाना चाहिये।
मनुष्यको ब्रह्मचर्यके पालनपर विशेष ध्यान देना चाहिये। शरीरमें वीर्य ही एक प्रधान सार वस्तु है, इसकी सब प्रकारसे रक्षा करनी चाहिये। इसके नाशसे मनुष्यके बल, बुद्धि, आयु, तेज और ओजका ह्रास होकर उसका यह लोक तथा परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं और इसके संरक्षणसे बल, बुद्धि, तेज एवं ओजकी वृद्धि होकर उसके दोनों लोक सुधर जाते हैं। इसलिये परस्त्रीके दर्शन, चिन्तन, स्पर्शका तो त्याग कर ही देना चाहिये; यदि किसी कार्यसे आवश्यक बात करनी पड़े तो नीची दृष्टि रखकर माता-बहिन समझते हुए ही सम्भाषण करना चाहिये। लड़के-लड़कियोंका स्पर्श तथा चुम्बन भी कभी नहीं करना चाहिये तथा ऐश-आराम-भोगकी वस्तुओंको, शृंगारशौकीनीको इस विषयमें खतरनाक जानकर इनसे बहुत ही दूर रहना चाहिये।
इसी प्रकार सत्यके पालनपर भी खूब ध्यान देना चाहिये। आजकल लोग सत्यका महत्त्व भूल गये हैं। मनुष्यको चाहिये कि वह सत्यका महत्त्व समझे और उसका दृढ़तासे पालन करे। महर्षि पतंजलि कहते हैं—
सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाफलाश्रयत्वम्।
(योग० २।३६)
भाव यह है कि सत्यकी प्रतिष्ठा होनेपर मनुष्य जो कुछ कह देता है, वही सत्य हो जाता है। अर्थात् जो आदमी कभी झूठ नहीं बोलता, वह किसीको यदि कुछ शाप, वरदान या आशीर्वाद दे देता है तो वह सिद्ध हो जाता है। श्रुति-स्मृति, इतिहास-पुराणोंमें इसके जगह-जगह उदाहरण मिलते हैं।
बृहदारण्यकोपनिषद्में कथा आती है कि शकलके पुत्र शाकल्यने याज्ञवल्क्यसे कई इधर-उधरके प्रश्न किये। अन्तमें याज्ञवल्क्यने उससे कहा कि ‘अब मैं तुझसे एक बात पूछता हूँ; तू यदि उसका उत्तर नहीं दे सकेगा तो तेरा मस्तक कट जायगा।’ शाकल्य उत्तर नहीं दे सका और उसका मस्तक धड़से अलग हो गया (३।९।२६)।
श्रीमद्भागवतमें आता है कि एक बार राजा परीक्षित् ने शमीक ऋषिके गलेमें मरा हुआ साँप डाल दिया; इससे कुपित होकर ऋषिकुमार शृंगीने राजाको शाप दे दिया कि ‘आजसे सातवें दिन राजाको तक्षक सर्प डस जायगा।’ उनका यह वचन सर्वथा सत्य सिद्ध हुआ (प्रथम स्कन्ध अध्याय १८)।
महाभारतकी कथा है कि यमराजने सावित्रीको यह वरदान दिया कि तुम्हारे एक सौ पुत्र होंगे। उसके अनुसार सावित्रीके एक सौ पुत्र हुए (वनपर्व, अध्याय २९७; २९९)। राजा शान्तनुने अपने पुत्र भीष्मको यह आशीर्वाद दिया कि ‘तुमको मृत्यु नहीं मार सकेगी, तुम इच्छामृत्यु होओगे’ और वास्तवमें ऐसा ही हुआ (आदिपर्व, अध्याय १००; अनुशासनपर्व, अध्याय १६७-१६८)।
इसी तरह शास्त्रोंमें अनेक दृष्टान्त मिलते हैं। इसलिये मनुष्यको सत्यके पालनमें खूब दृढ़ रहना चाहिये। किंतु सत्य ऐसा होना चाहिये कि जिसमें न कपट हो और न हिंसा ही हो; वही असली सत्य है।
महाभारत, द्रोणपर्वके १९०वें अध्यायमें आया है कि एक बार द्रोणाचार्यने राजा युधिष्ठिरसे पूछा कि मेरा पुत्र अश्वत्थामा मारा गया या नहीं, इसके उत्तरमें युधिष्ठिरने कहा कि अश्वत्थामा मारा गया, पर हाथी मारा गया। इस वाक्यमें उन्होंने ‘हाथी मारा गया’ ये शब्द धीरेसे कहे। इस दोषके कारण ऐसे सत्यवादी राजा युधिष्ठिरके भी ये वचन सत्य नहीं समझे गये।
इसी प्रकार महाभारत, कर्णपर्वके ६९वें अध्यायमें यह कथा आती है कि एक बार कुछ मनुष्य चोर-डाकुओंके डरसे जंगलकी ओर भाग गये। उस रास्तेमें एक सत्यवादी मुनि निवास करते थे। थोड़ी ही देरमें जब चोर-डाकू वहाँ आये, तब उन्होंने उन मनुष्योंका पता न पाकर उन मुनिसे पूछा कि वे मनुष्य किधर गये हैं। मुनिने सत्य बात बतला दी कि वे इस सघन वनमें घुसे हैं। इससे चोर-डाकुओंने उसी रास्तेसे जाकर उन मनुष्योंको पकड़ लिया और मार डाला। इस हत्याका दोष उन मुनिको लगा।
इसलिये जिसमें न कपट हो और न हिंसा हो, वही असली सत्य है। ऐसे सत्यकी ही शास्त्रोंमें महिमा गायी है।
यह तो सत्य वचनकी बात हुई। फिर जिसका व्यवहार भी सत्य हो और भाव भी सत्य हो, उसकी तो बात ही क्या है। क्योंकि सद्व्यवहार और सद्भावसे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। यज्ञ, दान, तप आदि जो उत्तम कर्म हैं और जो उत्तम भाव हैं तथा जो भगवदर्थ कर्म हैं, वे सब सत् स्वरूप परमात्माकी प्राप्ति करानेवाले होनेसे ‘सत्’ कहे जाते हैं। गीतामें श्रीभगवान् ने कहा है—
सद्भावे साधुभावे च सदित्येतत्प्रयुज्यते।
प्रशस्ते कर्मणि तथा सच्छब्द: पार्थ युज्यते॥
यज्ञे तपसि दाने च स्थिति: सदिति चोच्यते।
कर्म चैव तदर्थीयं सदित्येवाभिधीयते॥
(१७।२६-२७)
‘सत्’ इस प्रकार यह परमात्माका नाम सत्यभावमें और श्रेष्ठभावमें प्रयोग किया जाता है तथा हे पार्थ! उत्तम कर्ममें भी ‘सत्’ शब्दका प्रयोग किया जाता है। तथा यज्ञ, तप और दानमें जो स्थिति है, वह भी ‘सत्’ इस प्रकार कही जाती है और उस परमात्माके लिये किया हुआ कर्म निश्चयपूर्वक ‘सत्’ ऐसे कहा जाता है।’
इतना ही नहीं, वास्तवमें ‘सत्’ साक्षात् भगवान् का स्वरूप ही है। इसलिये भगवान् के नामोंमें ‘सत्’ भगवान् का एक नाम है। भगवान् कहते हैं—
ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:।
ब्राह्मणास्तेन वेदाश्च यज्ञाश्च विहिता: पुरा॥
(गीता १७।२३)
‘ॐ, तत् सत्—ऐसे यह तीन प्रकारका सच्चिदानन्दघन ब्रह्मका नाम कहा है; उसीसे सृष्टिके आदिकालमें ब्राह्मण और वेद तथा यज्ञादि रचे गये।’ श्रुति भी कहती है—
सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म।
(तैत्ति० २। १। १)
‘ब्रह्म सत्य, ज्ञानस्वरूप और अनन्त है।’
इसलिये सत्यका सेवन भगवान् का सेवन है, सत्यकी उपासना भगवान् की उपासना है और सत्यका आश्रय भगवान् का आश्रय है। मनुष्यको चाहिये कि वह सत्यको अपना जीवन, प्राण और साक्षात् परमात्माका स्वरूप समझकर मनसा-वाचा-कर्मणा उसका पालन करे। आचरण भी सत् बनाना चाहिये। जिसको हम सदाचार कहते हैं, उसीको उत्तम कर्म तथा सद्व्यवहार कहते हैं। वाणी भी सत्य ही होनी चाहिये। हिंसा और कपटसे रहित यथार्थ भाषण ही सत्य वाणी है तथा भाव भी सत्य ही होना चाहिये। जिसको हम उत्तम नीयत कहते हैं, उसका नाम सद्भाव है। समता, सन्तोष, शान्ति, सरलता आदि जितने भी परमात्माकी प्राप्तिमें सहायक दैवी-सम्पदाके सात्त्विक सद्गुण हैं, वे सभी सद्भाव हैं। ये परमात्माकी प्राप्तिमें सहायक होनेके कारण तत्परतासे धारण करनेयोग्य हैं। अत: हमको भारी-से-भारी आपत्ति पड़नेपर भी सत्यका कभी त्याग नहीं करना चाहिये।
कल्याण चाहनेवाले मनुष्यको उचित है कि चराचर जीव-मात्रको परमात्माका स्वरूप समझकर अपने तन, मन, धनसे उनकी सेवा करे। इस प्रकार जो सेवा करता है, वह भगवान् का सच्चा भक्त है। भगवान् ने गीतामें कहा है—
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(१८। ४६)
‘जिस परमेश्वरसे सम्पूर्ण प्राणियोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह समस्त जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरकी अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजा करके मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त हो जाता है।’
अभिप्राय यह है कि परमात्मा सर्वव्यापक हैं, सबमें विराजमान हैं। इसलिये अपने आचरणोंके द्वारा सबकी सेवा करना भगवान् की सेवा है। अत: चराचर प्राणिमात्रको नारायणका स्वरूप समझकर श्रद्धा, भक्ति और आदरके साथ मन, वाणी और क्रियासे तत्परतापूर्वक उनकी सेवा करनी चाहिये। मनसे सबका हित-चिन्तन करना मनके द्वारा सेवा करना है; जिससे सबका हित हो, ऐसा सत्य और प्रिय वचन बोलना वाणीके द्वारा सेवा करना है और शरीर-इन्द्रियद्वारा सेवा करना क्रियासे सेवा करना है। सदा मनमें यह भाव रखना चाहिये कि हमारा तन, धन, वाणी, मन—सब जगद्रूप जनार्दनकी सेवाके लिये है। इस भावसे जगज्जनार्दनकी सेवा करना ही उनकी अनन्य भक्ति है। तुलसीकृत रामायणमें भगवान् श्रीरामचन्द्रजी हनुमान् जीसे भेंट होते समय कहते हैं—
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
(किष्किन्धा०३)
‘हे हनुमान्! अनन्य भक्त वही है, जिसकी ऐसी बुद्धि कभी नहीं टलती कि मैं सेवक हूँ और यह चराचर (जड-चेतन) जगत् मेरे स्वामी भगवान् का रूप है।’
भगवान् ही सबके उपादान तथा निमित्त कारण हैं*।
* जैसे घड़ेका उपादानकारण मिट्टी और निमित्तकारण कुम्हार होता है, उसी प्रकार इस समस्त जगत् के एकमात्र भगवान् ही उपादान और निमित्त कारण हैं।
इसलिये सबकी सेवा भगवान् की सेवा है। मनुष्यको प्रत्येक क्रियामें भगवद्भाव रखना चाहिये। हवन करते समय यह समझना चाहिये कि मैं जो अग्निमें आहुति दे रहा हूँ, इसको स्वयं भगवान् ही भोग लगा रहे हैं। इसी प्रकार गौको घास खिलाते समय यह समझना चाहिये कि भगवान् ही गौके रूपमें घास खा रहे हैं; वृक्षोंमें पानी देते समय समझना चाहिये कि भगवान् ही वृक्षके रूपमें जल पी रहे हैं; अतिथि-अभ्यागतको भोजन कराते समय यह समझना चाहिये कि भगवान् ही इस रूपमें आकर भोजन कर रहे हैं। इस प्रकार स्थावर-जंगम यावन्मात्र प्राणियोंमें भगवद्बुद्धि करके उपर्युक्त विधिसे उनकी सेवा करनी चाहिये। इस तरह जो सबको अपना इष्टदेव समझकर सबके हितमें रत रहता है, वह भगवान् को ही प्राप्त होता है। भगवान् गीतामें कहते हैं—
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(१२। ४)
जो ऐसा समझता है कि उससे किसीका किंचिन्मात्र भी कभी अहित तो नहीं हो सकता। भला बताइये, वह मनुष्य मन, वाणी या शरीरसे किसी प्रकारसे भी कभी किसीको जरा भी कष्ट दे सकता है? कभी नहीं। क्योंकि उसकी तो सबमें भगवद्बुद्धि हो जाती है और इसके फलस्वरूप उसकी वह स्थिति हो जाती है, जो कि भगवान् ने गीतामें इस श्लोकसे व्यक्त की है—
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(७। १९)
‘बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त पुरुष, ‘सब कुछ वासुदेव ही हैं’—इस प्रकार मुझको भजता है; वह महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।’
इसलिये मनुष्यको इस प्रकारकी स्थिति प्राप्त करनेके लिये सब प्रकारसे स्वार्थका त्याग करके कटिबद्ध हो जाना चाहिये। वास्तवमें स्वार्थ ही मनुष्यको इससे वंचित रखनेवाला है। स्वार्थसे ही उपर्युक्त दोष आते हैं अर्थात् स्वार्थ ही समस्त दोषोंकी जड़ है। इसका नाश हो जानेपर स्वत: ही सम्पूर्ण दोषोंकी निवृत्ति हो जाती है। अत: दूसरोंके साथ या स्वजनोंके साथ भी जो अपना स्वार्थका भाव है, उसे सर्वथा हटाकर सब प्रकारसे सबके हितमें रत रहना चाहिये। इस प्रकार प्रत्येक क्रिया, पदार्थ और प्राणीके साथ किसी भी प्रकारका स्वार्थसिद्धिका भाव न रखकर सदा नि:स्वार्थभावसे सबकी सेवा करनी चाहिये। नि:स्वार्थ सेवा करनेवालेको ये दो वशीकरण मन्त्र सदा याद रखने चाहिये। एक तो यह कि दूसरोंके गुण गावे, अवगुण नहीं और दूसरा यह कि दूसरेके हितकी सदा चेष्टा रखे। ऐसा आचरण करनेसे सब लोग उसके अनुकूल हो जाते हैं और उसका परमार्थ भी सिद्ध हो जाता है।
अतएव हमलोगोंको उपर्युक्त बातोंपर ध्यान देना चाहिये और भारी-से-भारी आपत्ति पड़नेपर भी कभी काम-क्रोध, लोभ-मोह, स्वार्थ या भयके वशीभूत होकर अपने धर्मका त्याग नहीं करना चाहिये। क्योंकि ये सब सांसारिक पदार्थ एवं जीवन क्षणिक हैं और धर्म तथा धर्मके साथ जो सम्बन्ध है, वह नित्य है। बुद्धिमान् पुरुषको अनित्य वस्तुके लिये नित्य वस्तुका कभी त्याग नहीं करना चाहिये। याद रखना चाहिये कि मरनेके बाद धन, ऐश्वर्य, कुटुम्बकी तो बात ही क्या है, आपका यह शरीर भी आपके साथ जानेका नहीं। जिन वस्तुओंके लिये आप नाना प्रकारके पाप करते हैं, वे तो आपकी जीते-जी भी मदद नहीं कर सकतीं, फिर मरनेके बादकी तो बात ही क्या? आपको विचार करना चाहिये कि यह मनुष्य-जीवन बहुत ही स्वल्प है, पर है बहुत मूल्यवान्। इसलिये मनुष्यजन्म पाकर भोग-विलास, ऐश-आराममें अपना जीवन वृथा नहीं गँवाना चाहिये; बल्कि मन, इन्द्रियोंका संयम करके परोपकार और ईश्वरभक्तिमें बिताना चाहिये, जिससे आत्माका कल्याण हो। गीतामें भी भगवान् कहते हैं—
अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्।
(९।३३)
‘इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्यशरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।’
ईश्वर हैं, ध्रुव हैं। वे चेतन हैं, जड नहीं। वे सत्य, धर्म और न्यायके पोषक हैं। जहाँ सत्य, धर्म, न्याय और नीति है, वहीं परमात्मा प्रत्यक्ष हैं। ऐसा दृढ़ निश्चय करके नीति, धर्म और सत्यका कभी परित्याग नहीं करना चाहिये और उस सर्वशक्तिमान् परमात्मापर निर्भर रहना चाहिये, जिस प्रकार कि एक छोटा बच्चा अपने माता-पितापर निर्भर रहता है। बच्चा अपने लिये कुछ भी चिन्ता-शोक नहीं करता, माता-पिता ही उसकी सारी सार-सँभाल रखते हैं और पालन करते हैं; इसी प्रकार वे परमात्मा हमारी रक्षा करते आये हैं, कर रहे हैं और करेंगे—ऐसा अटूट विश्वास रखकर सर्वथा निश्चिन्त होकर उस ईश्वरके बलपर निर्भर रहना चाहिये। इसीमें हमारा सब प्रकारसे कल्याण है।