जीव-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर
एक सज्जनका प्रश्न है कि ‘इस देहमें जीव कहाँसे, कैसे और क्यों आता है, क्या-क्या वस्तुएँ साथ लाता है, गर्भसे बाहर कैसे निकलता है और प्राण निकलनेपर कहाँ, कैसे और क्यों जाता है तथा क्या-क्या वस्तुएँ साथ ले जाता है?’ प्रश्नकर्ताने शास्त्रप्रमाण और युक्तियोंसहित उत्तर लिखनेका अनुरोध किया है।
प्रश्न वास्तवमें बड़ा गहन है, इसका वास्तविक उत्तर तो सर्वज्ञ योगी महात्मागण ही दे सकते हैं, मेरा तो इस विषयपर कुछ लिखना एक विनोदके सदृश है। मैं किसीको यह माननेके लिये आग्रह नहीं करता कि इस प्रश्नपर मैं जो कुछ लिख रहा हूँ, सो सर्वथा निर्भ्रान्त और यथार्थ है, क्योंकि ऐसा कहनेका मैं कोई अधिकार नहीं रखता। अवश्य ही शास्त्र, सन्त-महात्माओंके प्रसादसे मैंने अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार जो कुछ समझा है, उसमें मुझे तत्त्वत: कोई शंका नहीं है।
इस विषयमें मनस्वियोंमें बड़ा मतभेद है, जो लोग जीवकी सत्ता केवल मृत्युतक ही समझते हैं और पुनर्जन्म आदि बिलकुल नहीं मानते, उनकी तो कोई बात ही नहीं है, परन्तु पुनर्जन्म माननेवालोंमें भी मतभेदकी कमी नहीं है, इस अवस्थामें अमुक मत ही सर्वथा सत्य है, यह कहनेका मैं अपना कोई अधिकार नहीं समझता तथापि अपने विचारोंको नम्रताके साथ पाठकोंके सम्मुख इसीलिये रखता हूँ कि वे इस विषयका मनन अवश्य करें।
वेदान्तके मतसे तो संसार मायाका कार्य होनेसे वास्तवमें गमनागमनका कोई प्रश्न ही नहीं रह जाता, परन्तु यह सिद्धान्त समझानेकी वस्तु नहीं है, यह तो वास्तविक स्थिति है, इस स्थितिमें स्थित पुरुष ही इसका यथार्थ रहस्य जानते हैं। जिस यथार्थतामें एक शुद्ध सत्-चित्-आनन्दघन ब्रह्मके सिवा अन्यका सर्वथा अभाव है उसमें तो कुछ भी कहना-सुनना सम्भव नहीं होता, जहाँ व्यवहार है, वहाँ सृष्टि, जीव, जीवके कर्म, कर्मानुसार गमनागमन और भोग आदि सभी सत्य हैं। अतएव यही समझकर यहाँ इस विषयपर कुछ विचार किया जाता है।
जीव अपनी पूर्वकी योनिसे, योनिके अनुसार साधनोंद्वारा प्रारब्ध कर्मका फल भोगनेके लिये पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मराशिके अनन्त संस्कारोंको साथ लेकर सूक्ष्म शरीरसहित परवश नयी योनिमें आता है। गर्भसे पैदा होनेवाला जीव अपनी योनिका गर्भकाल पूरा होनेपर प्रसूतिरूप अपानवायुकी प्रेरणासे बाहर निकलता है और मृत्युके समय प्राण निकलनेपर सूक्ष्म शरीर और शुभाशुभ कर्मराशिके संस्कारोंसहित कर्मानुसार भिन्न-भिन्न साधनों और मार्गोंद्वारा मरणकालकी कर्मजन्य वासनाके अनुसार परवशतासे भिन्न-भिन्न गतियोंको प्राप्त होता है। संक्षेपमें यही सिद्धान्त है। परन्तु इतने शब्दोंसे ही यह बात ठीक समझमें नहीं आती, शास्त्रोंके विविध प्रसंगोंमें भिन्न-भिन्न वर्णन पढ़कर भ्रम-सा हो जाता है, इसलिये कुछ विस्तारसे विवेचन किया जाता है—
तीन प्रकारकी गति
भगवान् ने श्रीगीताजीमें मनुष्यकी तीन गतियाँ बतलायी हैं—अध:, मध्य और ऊर्ध्व। तमोगुणसे नीची, रजोगुणसे बीचकी और सत्त्वगुणसे ऊँची गति प्राप्त होती है। भगवान् ने कहा है—
ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:॥
(गीता १४।१८)
‘सत्त्वगुणमें स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं, रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात् मनुष्यलोकमें ही रहते हैं एवं तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित हुए तामस पुरुष, अधोगति अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियोंको एवं नरकको प्राप्त होते हैं।’ यह स्मरण रखना चाहिये कि तीनों गुणोंमेंसे किसी एक या दोका सर्वथा नाश नहीं होता, संग और कर्मोंके अनुसार कोई-सा एक गुण बढ़कर शेष दोनों गुणोंको दबा लेता है। तमोगुणी पुरुषोंकी संगति और तमोगुणी कार्योंसे तमोगुण बढ़कर रज और सत्त्वको दबाता है, रजोगुणी पुरुषकी संगति और कार्योंसे रजोगुण बढ़कर तम और सत्त्वको दबा लेता है तथा इसी प्रकार सत्त्वगुणी पुरुषकी संगति और कार्योंसे सत्त्वगुण बढ़कर रज और तमको दबा लेता है (गीता १४।१०)। जिस समय जो गुण बढ़ा हुआ होता है, उसीमें मनुष्यकी स्थिति समझी जाती है और जिस स्थितिमें मृत्यु होती है, उसीके अनुसार उसकी गति होती है। यह नियम है कि अन्तकालमें मनुष्य जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीरका त्याग करता है, उसी प्रकारके भावको वह प्राप्त होता है (गीता ८।६)। सत्त्वगुणमें स्थिति होनेसे अन्तकालमें शुभ भावना या वासना होती है। शुभ वासनामें—सत्त्वगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेसे मनुष्य निर्मल ऊर्ध्वके लोकोंको जाता है।
यहाँ यह प्रश्न होता है कि यदि वासनाके अनुसार ही अच्छे-बुरे लोकोंकी प्राप्ति होती है तो कोई मनुष्य अशुभ वासना ही क्यों करेगा? सभी कोई उत्तम लोकोंको पानेके लिये उत्तम वासना ही करेंगे? इसका उत्तर यह है कि अन्तकालकी वासना या कामना अपने-आप नहीं होती, वह प्राय: उसके तात्कालिक कर्मोंके अनुसार ही हुआ करती है। आयुके शेषकालमें यानी अन्तकालके समय मनुष्य जैसे कर्मोंमें लिप्त रहता है, करीब-करीब उन्हींके अनुसार उसकी मरणकालकी वासना होती है। मृत्युका कोई पता नहीं, कब आ जाय, इससे मनुष्यको सदा-सर्वदा उत्तम कर्मोंमें ही लगे रहना चाहिये। सर्वदा शुभ कर्मोंमें लगे रहनेसे ही वासना शुद्ध रहेगी, सर्वथा शुद्ध वासनाका रहना ही सत्त्वगुणी स्थिति है; क्योंकि देहके सभी द्वारोंमें चेतनता और बोधशक्तिका उत्पन्न होना ही सत्त्वगुणकी वृद्धिका लक्षण है (गीता १४।११) और इस स्थितिमें होनेवाली मृत्यु ही ऊर्ध्वलोकोंकी प्राप्तिका कारण है।
जो लोग ऐसा समझते हैं कि अन्तकालमें सात्त्विक वासना कर ली जायगी, अभीसे उसकी क्या आवश्यकता है? वे बड़ी भूल करते हैं। अन्तकालमें वही वासना होगी, जैसी पहलेसे होती रही होगी। जब साधक ध्यान करने बैठता है—कुछ समय स्वस्थ और एकान्त चित्तसे परमात्माका चिन्तन करना चाहता है, तब यह देखा जाता है कि पूर्वके अभ्यासके कारण उसे प्राय: उन्हीं कार्यों या भावोंकी स्फुरणा होती है, जिन कार्योंमें वह सदा लगा रहता है। वह साधक बार-बार मनको विषयोंसे हटानेका प्रयत्न करता है, उसे धिक्कारता है, बहुत पश्चात्ताप भी करता है तथापि पूर्वका अभ्यास उसकी वृत्तियोंको सदाके कार्योंकी ओर खींच ले जाता है। भगवान् भी कहते हैं—‘सदा तद्भावभावित:’ जब मनुष्य सावधान अवस्थामें भी मनकी भावनाको सहसा अपने इच्छानुसार नहीं बना सकता,तब जीवनभरके अभ्यासके विरुद्ध मृत्युकालमें हमारी वासना अनायास ही शुभ हो जायगी, यह समझना भ्रमके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है।
यदि ऐसा ही होता तो शनै:-शनै: उपरामताको प्राप्त करने और बुद्धिद्वारा मनको परमात्मामें लगानेकी आज्ञा भगवान् कैसे देते? (गीता ६।२५)। इससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्यके कर्मोंके अनुसार ही उसकी भावना होती है, जैसी अन्तकालकी भावना होती है—जिस गुणमें उसकी स्थिति होती है, उसीके अनुसार परवश होकर जीवको कर्मफल भोगनेके लिये दूसरी योनिमें जाना पड़ता है।
ऊर्ध्वगतिके दो भेद—इस ऊर्ध्वगतिके दो भेद हैं। एक ऊर्ध्वगतिसे वापस लौटकर नहीं आना पड़ता और दूसरीसे लौटकर आना पड़ता है। इसीको गीतामें शुक्ल-कृष्ण-गति और उपनिषदों में देवयान-पितृयान कहा है। सकामभावसे वेदोक्त कर्म करनेवाले, स्वर्ग-प्राप्तिके प्रतिबन्धक देव-ऋणरूप पापसे छूटे हुए पुण्यात्मा पुरुष धूम-मार्गसे पुण्यलोकोंको प्राप्त होकर वहाँ दिव्य देवताओंके विशाल भोग भोगकर, पुण्य क्षीण होते ही पुन: मृत्युलोकमें लौट आते हैं और निष्कामभावसे भगवद्भक्ति या ईश्वरार्पण-बुद्धिसे भेदज्ञानयुक्त श्रौत-स्मार्त कर्म करनेवाले परोक्षभावसे परमेश्वरको जाननेवाले योगिजन क्रमसे ब्रह्मको प्राप्त हो जाते हैं। भगवान् कहते हैं—
अग्निर्ज्योतिरह: शुक्ल: षण्मासा उत्तरायणम्।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जना:॥
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण: षण्मासा दक्षिणायनम्।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते॥
शुक्लकृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते।
एकया यात्यनावृत्तिमन्ययावर्तते पुन:॥
(गीता ८।२४—२६)
‘दो प्रकारके मार्गोंमेंसे जिस मार्गमें ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता, दिनका अभिमानी देवता, शुक्लपक्षका अभिमानी देवता और उत्तरायणके छ: महीनोंका अभिमानी देवता है, उस मार्गमें मरकर गये हुए ब्रह्मवेत्ता अर्थात् परमेश्वरकी उपासनासे, परमेश्वरको परोक्षभावसे जाननेवाले योगिजन उपर्युक्त देवताओंद्वारा क्रमसे ले गये हुए ब्रह्मको प्राप्त होते हैं तथा जिस मार्गमें धूमाभिमानी देवता, रात्रि-अभिमानी देवता, कृष्णपक्षका अभिमानी देवता और दक्षिणायनके छ: महीनोंका अभिमानी देवता है, उस मार्गमें मरकर गया हुआ सकाम कर्मयोगी उपर्युक्त देवताओंद्वारा क्रमसे ले गया हुआ चन्द्रमाकी ज्योतिको प्राप्त होकर, स्वर्गमें अपने शुभ कर्मोंका फल भोगकर वापस आता है। जगत् के यह शुक्ल और कृष्ण नामक दो मार्ग सनातन माने गये हैं, इनमें एक—(शुक्ल-मार्ग-)के द्वारा गया हुआ वापस न लौटनेवाली परम गतिको प्राप्त होता है और दूसरे (कृष्ण-मार्ग-) द्वारा गया हुआ वापस आता है, अर्थात् जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है।’
शुक्ल—अर्चि या देवयानमार्गसे गये हुए योगी नहीं लौटते और कृष्ण—धूम या पितृयानमार्गसे गये हुए योगियोंको लौटना पड़ता है। श्रुति कहती है—
‘ते य एवमेतद्विदुर्ये चामी अरण्ये श्रद्धाॸ सत्यमुपासते तेऽर्चिरभिसम्भवन्ति, अर्चिषोऽहरह्न आपूर्यमाणपक्षमापूर्यमाणपक्षाद्यान्षण्मासानुदङ्ङादित्य एति मासेभ्यो देवलोकं देवलोकादादित्यमादित्याद्वैद्युतं तान् वैद्युतान् पुरुषो मानस एत्य ब्रह्मलोकान् गमयति ते तेषु ब्रह्मलोकेषु परा: परावतो वसन्ति तेषां न पुनरावृत्ति:।’
(बृह० ६।२।१५)
‘जिनको ज्ञान होता है, जो अरण्यमें श्रद्धायुक्त होकर सत्यकी उपासना करते हैं, वे अर्चिरूप होते हैं, अर्चिसे दिनरूप होते हैं, दिनसे शुक्लपक्षरूप होते हैं, शुक्लपक्षसे उत्तरायणरूप होते हैं, उत्तरायणसे देवलोकरूप होते हैं, देवलोकसे आदित्यरूप होते हैं, आदित्यसे विद्युद्रूप होते हैं, यहाँसे अमानव पुरुष उन्हें ब्रह्मलोकमें ले जाते हैं, वहाँ अनन्त वर्षोंतक वह रहते हैं, उनको वापस लौटना नहीं पड़ता।’ यह देवयानमार्ग है। एवं—
‘अथ ये यज्ञेन दानेन तपसा लोकाञ्जयन्ति ते धूममभिसम्भवन्ति धूमाद्रात्रिॸरात्रेरपक्षीयमाणपक्षमपक्षीयमाणपक्षाद्यान्षण्मासान् दक्षिणादित्य एति मासेभ्य: पितृलोकं पितृलोकाच्चन्द्रं ते चन्द्रं प्राप्यान्नं भवन्ति ताॸस्तत्र देवा यथा सोमॸराजानमाप्यायस्वापक्षीयस्वेत्येवमेनाॸस्तत्र भक्षयन्ति.......’ (बृह० ६। २। १६)
‘जो सकामभावसे यज्ञ, दान तथा तपद्वारा लोकोंपर विजय प्राप्त करते हैं, वे धूमको प्राप्त होते हैं, धूमसे रात्रिरूप होते हैं, रात्रिसे कृष्णपक्षरूप होते हैं, कृष्णपक्षसे दक्षिणायनको प्राप्त होते हैं, दक्षिणायनसे पितृलोकको और वहाँसे चन्द्रलोकको प्राप्त होते हैं, चन्द्रलोक प्राप्त होनेपर वे अन्नरूप होते हैं... और देवता उनको भक्षण करते हैं।’ यहाँ ‘अन्न’ होने और ‘भक्षण’ करनेसे यह मतलब है कि वे देवताओंकी खाद्य वस्तुमें प्रविष्ट होकर उनके द्वारा खाये जाते हैं और फिर उनसे देवरूपमें उत्पन्न होते हैं। अथवा ‘अन्न’ शब्दसे उन जीवोंको देवताओंका आश्रयी समझना चाहिये। नौकरको भी अन्न कहते हैं, सेवा करनेवाले पशुओंको अन्न कहते हैं, ‘पशव: अन्नम्।’ आदि वाक्योंसे यह सिद्ध है। वे देवताओंके नौकर होनेसे अपने सुखोंसे वंचित नहीं हो सकते। यह पितृयानमार्ग है।
ये धूम, रात्रि और अर्चि, दिन आदि नामक भिन्न-भिन्न लोकोंके अभिमानी देवता हैं, जिनका रूप भी उन्हीं नामोंके अनुसार है। जीव इन देवताओंके समान रूपको प्राप्तकर क्रमश: आगे बढ़ता है। इनमेंसे अर्चिमार्गवाला प्रकाशमय लोकोंके मार्गसे प्रकाशपथके अभिमानी देवताओंद्वारा ले जाया जाकर क्रमश: विद्युत्-लोकतक पहुँचकर अमानव पुरुष-(भगवद्-पार्षद-) के द्वारा बड़े सम्मानके साथ भगवान् के सर्वोत्तम दिव्य परम धाममें पहुँच जाता है। इसीको ब्रह्मोपासक ब्रह्मलोकका शेष भाग—सर्वोच्च गति, श्रीकृष्णके उपासक दिव्य गोलोक, श्रीरामके उपासक दिव्य साकेतलोक, शैव शिवलोक, जैन मोक्षशिला, मुसलमान सातवाँ आसमान और ईसाई स्वर्ग कहते हैं। इसीको उपनिषदों में विष्णुका परम धाम कहा है। इस दिव्यधाममें पहुँचनेवाला महापुरुष सारे लोकों और मार्गोंको लाँघता हुआ एक प्रकाशमय दिव्य स्थानमें स्थित होता है, जहाँ उसे सभी सिद्धियाँ और सभी प्रकारकी शक्तियाँ प्राप्त हो जाती हैं। वह कल्पपर्यन्त अर्थात् ब्रह्माके आयुतक वहाँ दिव्यभावसे रहकर अन्तमें भगवान् में मिल जाता है। अथवा भगवदिच्छासे भगवान् के अवतारकी-ज्यों बन्धनमुक्त अवस्थामें ही लोक-हितार्थ संसारमें आ भी सकता है। ऐसे ही महात्माको कारक पुरुष कहते हैं।
धूममार्गके अभिमानी देवगण और इनके लोक भी प्रकाशमय हैं, परन्तु इनका प्रकाश अर्चिमार्गवालोंकी अपेक्षा दूसरा ही है तथा ये जीवको मायामय विषयभोग भोगनेवाले मार्गोंमें ले जाकर ऐसे लोकमें पहुँचाते हैं जहाँसे वापस लौटना पड़ता है, इसीसे यह अन्धकारके अभिमानी बतलाये गये हैं। इस मार्गमें भी जीव देवताओंकी तद्रूपताको प्राप्त करता हुआ चन्द्रमाकी रश्मियोंके रूपमें होकर उन देवताओंके द्वारा ले जाया हुआ अन्तमें चन्द्रलोकको प्राप्त होता है और वहाँके भोग भोगनेपर पुण्यक्षय होते ही वापस लौट आता है।
वापस लौटनेका क्रम—स्वर्गादिसे वापस लौटनेका क्रम उपनिषदोंको अनुसार यह है—
‘तस्मिन्यावत्सम्पातमुषित्वाथैतमेवाध्वानं पुनर्निवर्तन्ते, यथैतमाकाशमाकाशाद्वायुं वायुर्भूत्वा धूमो भवति, धूमो भूत्वाभ्रं भवति। अभ्रं भूत्वा मेघो भवति, मेघो भूत्वा प्रवर्षति, त इह व्रीहियवा ओषधिवनस्पतयस्तिलमाषा इति जायन्तेऽतो वै खलु दुर्निष्प्रपतरं यो यो ह्यन्नमत्ति यो रेत: सिंचति तद्भूय एव भवति।’
(छान्दो० ५। १०। ५-६)
कर्मभोगकी अवधितक देवभोगोंको भोगनेके बाद वहाँसे गिरते समय जीव पहले आकाशरूप होता है, आकाशसे वायु, वायुसे धूम, धूमसे अभ्र और अभ्रसे मेघ होते हैं, मेघसे जलरूपमें बरसते हैं और भूमि, पर्वत, नदी आदिमें गिरकर, खेतोंमें वे व्रीहि, यव, ओषधि, वनस्पति, तिल आदि खाद्य पदार्थोंमें सम्बन्धित होकर पुरुषोंके द्वारा खाये जाते हैं। इस प्रकार पुरुषके शरीरमें पहुँचकर रस, रक्त, मांस, मेद, मज्जा, अस्थि आदि होते हुए अन्तमें वीर्यमें सम्मिलित होकर शुक्र-सिंचनके साथ माताकी योनिमें प्रवेश कर जाते हैं, वहाँ गर्भकालकी अवधितक माताके खाये हुए अन्न-जलसे पालित होते हुए समय पूरा होनेपर अपानवायुकी प्रेरणासे मल-मूत्रकी तरह वेग पाकर स्थूलरूपमें बाहर निकल आते हैं। कोई-कोई ऐसा भी मानते हैं कि गर्भमें शरीरका पूरा निर्माण हो जानेपर उसमें जीव आता है, परन्तु यह बात ठीक नहीं मालूम होती। बिना चैतन्यके गर्भमें बालकका बढ़ना सम्भव नहीं और यह कहना युक्ति तथा नियमके विरुद्ध है। यहाँ लौटकर आनेवाले जीव कर्मानुसार मनुष्य या पशु आदि योनियोंको प्राप्त होते हैं। श्रुति कहती है—
‘तद्य इह रमणीयचरणा अभ्याशो ह यत्ते रमणीयां योनिमापद्येरन्ब्राह्मणयोनिं वा क्षत्रिययोनिं वा वैश्ययोनिं वाथ य इह कपूयचरणा अभ्याशो ह यत्ते कपूयां योनिमापद्येरञ्श्वयोनिं वा सूकरयोनिं वा चाण्डालयोनिं वा।’
(छान्दो० ५।१०।७)
‘इनमें जिनका आचरण अच्छा होता है यानी जिनका पुण्य संचय होता है वे शीघ्र ही किसी ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्यकी रमणीय योनिको प्राप्त होते हैं। ऐसे ही जिनके आचरण बुरे होते हैं अर्थात् जिनके पापका संचय होता है वे किसी श्वान, सूकर या चाण्डालकी अधम योनिको प्राप्त होते हैं।’
यह ऊर्ध्वगतिके भेद और एकसे वापस न आने और दूसरीसे लौटकर आनेका क्रम बतलाया गया।
मध्यगति—मध्यगति या मनुष्य लोकको प्राप्त होनेवाले जीवोंकी रजोगुणकी वृद्धिमें मृत्यु होनेपर उनका प्राण-वायु सूक्ष्म-शरीरसहित समष्टि-लौकिक वायुमें मिल जाता है। व्यष्टि-प्राण-वायुको समष्टि-प्राण-वायु अपनेमें मिलाकर इस लोकमें जिस योनिमें जीवको जाना चाहिये, उसीके खाद्य पदार्थमें उसे पहुँचा देता है। यह वायुदेवता ही इसके योनि-परिवर्तनका प्रधान साधक होता है, जो सर्वशक्तिमान् ईश्वरकी आज्ञा और उसके निर्भ्रान्त विधानके अनुसार जीवको उसके कर्मानुसार भिन्न-भिन्न मनुष्योंके खाद्य पदार्थोंद्वारा उनके पक्वाशयमें पहुँचाकर उपर्युक्त प्रकारसे वीर्यरूपमें परिणत कर-कर मनुष्यरूपमें उत्पन्न कराता है।
अधोगति—अधोगतिको प्राप्त होनेवाले वे जीव हैं, जो अनेक प्रकारके पापोंद्वारा अपना समस्त जीवन कलंकित किये हुए होते हैं, उनके अन्तकालकी वासना कर्मानुसार तमोमयी ही होती है, इससे वे नीच गतिको प्राप्त होते हैं।
जो लोग अहंकार, बल, घमण्ड, काम और क्रोधादिके परायण रहते हैं, पर-निन्दा करते हैं, अपने तथा पराये सभीके शरीरोंमें स्थित अन्तर्यामी परमात्मासे द्वेष करते हैं,ऐसे द्वेषी, पापाचारी, क्रूरकर्मी नराधम मनुष्य सृष्टिके नियन्त्रणकर्ता भगवान् के विधानसे बारम्बार आसुरी योनियोंमें उत्पन्न होते हैं और आगे चलकर वे उससे भी अति नीच गतिको प्राप्त होते हैं (गीता १६।१८—२०)।
इस नीच गतिमें प्रधान हेतु काम, क्रोध और लोभ हैं, इन्हीं तीनोंसे आसुरी सम्पत्तिका संग्रह होता है। भगवान् ने इसीलिये इनका त्याग करनेकी आज्ञा दी है—
त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन:।
काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत्॥
(गीता १६।२१)
‘काम, क्रोध तथा लोभ—यह तीन प्रकारके नरकके द्वार अर्थात् सब अनर्थोंके मूल और नरककी प्राप्तिमें हेतु हैं, यह आत्माका नाश करनेवाले यानी उसे अधोगतिमें ले जानेवाले हैं, इससे इन तीनोंको त्याग देना चाहिये।’
नीच गतिके दो भेद—जो लोग आत्म-पतनके कारणभूत काम, क्रोध, लोभरूपी इस त्रिविध नरक-द्वारमें निवास करते हुए आसुरी, राक्षसी और मोहिनी सम्पत्तिकी पूँजी एकत्र करते हैं, गीताके उपर्युक्त सिद्धान्तोंके अनुसार उनकी गतिके प्रधानत: दो भेद हैं—
(१) बारम्बार तिर्यक् आदि आसुरी योनियोंमें जन्म लेना और (२) उनसे भी अधम भूत, प्रेत, पिशाचादि गतियोंका या कुम्भीपाक, अवीचि, असिपत्र आदि नरकोंको प्राप्त होकर वहाँकी रोमांचकारी दारुण यन्त्रणाओंको भोगना।
इनमें जो तिर्यगादि योनियोंमें जाते हैं, वे जीव मृत्युके पश्चात् सूक्ष्म शरीरसे समष्टि-वायुके साथ मिलकर जरायुज योनियोंके खाद्य पदार्थोंमें मिलकर वीर्यद्वारा शरीरमें प्रवेश करके गर्भकी अवधि बीतनेपर उत्पन्न हो जाते हैं। इसी प्रकार अण्डज प्राणियोंकी भी उत्पत्ति होती है। उद्भिज्ज, स्वेदज जीवोंकी उत्पत्तिमें भी वायुदेवता ही कारण होते हैं, जीवोंके प्राणवायुको समष्टि वायुदेवता अपने रूपमें भरकर जल-पसीने आदिद्वारा स्वेदज प्राणियोंको और पृथिवी-जल आदिके साथ उनको सम्बन्धित कर बीजमें प्रविष्ट करवाकर पृथिवीसे उत्पन्न होनेवाले वृक्षादि जड योनियोंमें उत्पन्न कराते हैं।
यह वायुदेवता ही यमराजके दूतके स्वरूपमें उस पापीको दीखते हैं, जो नारकी या प्रेतादि योनियोंमें जानेवाला होता है। इसीकी चर्चा गरुडपुराण तथा अन्यान्य पुराणोंमें जहाँ पापीकी गतिका वर्णन है, वहाँ की गयी है। यह समस्त कार्य सबके स्वामी और नियन्ता ईश्वरकी शक्तिसे ऐसा नियमित होता है कि जिसमें कहीं किसी भूलकी गुंजाइश नहीं होती। इसी परमात्मशक्तिकी ओरसे नियुक्त देवताओंद्वारा परवश होकर जीव अधम, मध्यम और उत्तम गतियोंमें जाता-आता है। यह नियन्त्रण न होता तो, न तो कोई जीव कम-से-कम व्यवस्थापकके अभावमें पापोंका फल भोगनेके लिये कहीं जाता और न भोग ही सकता। अवश्य ही सुख भोगनेके लिये जीव लोकान्तरमें जाना चाहता, पर वह भी ले जानेवालेके अभावमें मार्गसे अनभिज्ञ रहनेके कारण नहीं जा पाता।
जीव साथ क्या लाता, ले जाता है—अब प्रधानत: यही बतलाना रहा कि जीव अपने साथ किन-किन वस्तुओंको ले जाता है और किनको लाता है। जिस समय यह जीव जाग्रत्-अवस्थामें रहता है, उस समय इसकी स्थिति स्थूल शरीरमें रहती है। तब इसका सम्बन्ध पाँच प्राणोंसहित चौबीस तत्त्वोंसे रहता है। (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवीका सूक्ष्म भावरूप) पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, मन, त्रिगुणमयी मूल प्रकृति, कान, त्वचा, आँख, जीभ, नाक—यह पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ और गुदा—यह पाँच कर्मेन्द्रियाँ एवं शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध—यह इन्द्रियोंके पाँच विषय (गीता १३।५)। यही चौबीस तत्त्व हैं। इन तत्त्वोंका निरूपण करनेवाले आचार्योंने प्राणोंको इसीलिये अलग नहीं बतलाया कि प्राणवायुका ही भेद है, जो पंचमहाभूतोंके अन्दर आ चुका है। योग, सांख्य, वेदान्त आदि शास्त्रोंके अनुसार प्रधानत: तत्त्व चौबीस ही माने गये हैं। प्राणवायुके अलग माननेकी आवश्यकता भी नहीं है। भेद बतलानेके लिये ही प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान नामक वायुके पाँच रूप माने गये हैं।
स्वप्नावस्थामें जीवकी स्थिति सूक्ष्म शरीरमें रहती है, सूक्ष्म शरीरमें सत्रह तत्त्व माने गये हैं—पाँच प्राण, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, उनके कारणरूप पाँच सूक्ष्म तन्मात्राएँ तथा मन और बुद्धि। यह सत्रह तत्त्व हैं। कोई-कोई आचार्य पाँच सूक्ष्म तन्मात्राओंकी जगह पाँच कर्मेन्द्रियाँ लेते हैं। पंचतन्मात्रा लेनेवाले कर्मेन्द्रियोंको ज्ञानेन्द्रियोंके अन्तर्गत मानते हैं और पाँच कर्मेन्द्रियाँ माननेवाले पंच तन्मात्राओंको उनके कार्यरूप ज्ञानेन्द्रियोंके अन्तर्गत मान लेते हैं। किसी तरह भी मानें, अधिकांश मनस्वियोंने तत्त्व सत्रह ही बतलाये हैं, कहीं इनका ही कुछ विस्तार और कहीं कुछ संकोच कर दिया गया है।
इस सूक्ष्म शरीरके अन्तर्गत तीन कोश माने गये हैं—प्राणमय, मनोमय और विज्ञानमय। (सब पाँच कोश हैं, जिनमें स्थूल देह तो अन्नमय कोश है। यह पंचभौतिक शरीर पाँच भूतोंका भण्डार है, इसके अन्दरके सूक्ष्म शरीरमें) पहला प्राणमय कोश है, जिसमें पंच प्राण हैं। उसके अन्दर मनोमय कोश है, इसमें मन और इन्द्रियाँ हैं। उसके अन्दर विज्ञानमय (बुद्धिरूपी) कोश है, इसमें बुद्धि और पंच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं, यही सत्रह तत्त्व हैं। स्वप्नमें इस सूक्ष्म रूपका अभिमानी जीव ही पूर्वकालमें देखे-सुने पदार्थोंको अपने अन्दर सूक्ष्मरूपसे देखता है।
जब इसकी स्थिति कारण-शरीरमें होती है, तब अव्याकृत माया प्रकृति-रूपी एक तत्त्वसे इसका सम्बन्ध रहता है। इस समय सभी तत्त्व उस कारणरूप प्रकृतिमें लय हो जाते हैं। इसीसे उस जीवको किसी बातका ज्ञान नहीं रहता। इसी गाढ़ निद्रावस्थाको सुषुप्ति कहते हैं। मायासहित ब्रह्ममें लय होनेके कारण उस समय जीवका सम्बन्ध सुखसे होता है। अतएव इसीको आनन्दमय कोश कहते हैं। इसीसे इस अवस्थासे जागनेपर यह कहता है कि ‘मैं बहुत सुखसे सोया’, उसे और किसी बातका ज्ञान नहीं रहता, यही अज्ञान है, इस अज्ञानका नाम ही माया—प्रकृति है। सुखसे सोया, इससे सिद्ध होता है कि उसे आनन्दका अनुभव था। सुखरूपमें नित्य स्थित होनेपर भी वह प्रकृति यानी अज्ञानमें रहनेके कारण वापस आता है। घटमें जल भरकर उसका मुख अच्छी तरह बन्द करके उसे अनन्त जलके समुद्रमें छोड़ दिया गया और फिर वापस निकाला तब वह घड़ेके अन्दरका जल ज्यों-का-त्यों रहा, घड़ा न होता तो वह जल समुद्रके अनन्त जलमें मिलकर एक हो जाता। इसी प्रकार अज्ञानमें रहनेके कारण सुखरूप ब्रह्ममें स्थित होनेपर भी जीवको ज्यों-का-त्यों लौट आना पड़ता है। अस्तु!
चौबीस तत्त्वोंके स्थूल शरीरमेंसे निकलकर जब यह जीव बाहर जाता है, तब स्थूल देह तो यहीं रह जाता है। प्राणमय कोशवाला सत्रह तत्त्वोंका सूक्ष्म शरीर इसमेंसे निकलकर अन्य शरीरमें जाता है। भगवान् ने कहा है—
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:।
मन:षष्ठानीन्द्रियाणि प्रकृतिस्थानि कर्षति॥
शरीरं यदवाप्नोति यच्चाप्युत्क्रामतीश्वर:।
गृहीत्वैतानि संयाति वायुर्गन्धानिवाशयात्॥
(गीता १५।७-८)
‘इस देहमें यह जीवात्मा मेरा ही सनातन अंश है और वही इन त्रिगुणमयी मायामें स्थित पाँचों इन्द्रियोंको आकर्षण करता है। जैसे गन्धके स्थानसे वायु गन्धको ग्रहण करके ले जाता है, वैसे ही देहादिका स्वामी जीवात्मा भी जिस पहले शरीरको त्यागता है, उससे मनसहित इन इन्द्रियोंको ग्रहण करके, फिर जिस शरीरको प्राप्त होता है, उसमें जाता है।’
प्राणवायु ही उसका शरीर है, उसके साथ प्रधानतासे पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ और छठाँ मन (अन्त:करण) जाता है, इसीका विस्तार सत्रह तत्त्व हैं। यही सत्रह तत्त्वोंका शरीर शुभाशुभ कर्मोंके संस्कारके सहित जीवके साथ जाता है।
यहाँ यह एक शंका बाकी रह जाती है कि श्रीमद्भगवद्गीताके द्वितीय अध्यायके २२वें श्लोकमें कहा है—
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नवीन वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त करता है।’ इसका यदि यह अर्थ समझा जाय कि इस शरीरसे वियोग होते ही जीव उसी क्षण दूसरे शरीरमें प्रवेश कर जाता है तो इससे दूसरा शरीर पहलेसे तैयार होना चाहिये और जब दूसरा तैयार ही है, तब कहीं आने-जाने, स्वर्ग-नरकादि भोगनेकी बात कैसे सिद्ध होगी तथा गीता स्वयं तीन गतियाँ निर्देशकर आना-जाना स्वीकार करती है, इसमें परस्पर विरोध आता है, इसका क्या समाधान है?
इसका समाधान यह है कि यह शंका ही ठीक नहीं है। क्योंकि भगवान् ने इस मन्त्रमें यह नहीं कहा कि मरते ही जीवको दूसरी ‘स्थूल’ देह ‘उसी समय तुरन्त ही’ मिल जाती है। एक मनुष्य कई जगह घूमकर घर आता है और घर आकर वह अपनी यात्राका बयान करता हुआ कहता है—‘मैं बम्बईसे कलकत्ते पहुँचा, वहाँसे कानपुर और कानपुरसे दिल्ली चला आया।’ इस कथनसे क्या यह अर्थ निकलता है कि वह बम्बई छोड़ते ही कलकत्तेमें प्रवेश कर गया या कानपुरसे दिल्ली उसी दम आ गया? रास्तेका वर्णन स्पष्ट न होनेपर भी इसके अन्दर है ही, इसी प्रकार जीवका भी देह-परिवर्तनके लिये लोकान्तरोंमें जाना समझना चाहिये। रही नयी देह मिलनेकी बात, सो देह तो अवश्य मिलती है परन्तु वह स्थूल नहीं होती है। समष्टि-वायुके साथ सूक्ष्म शरीर मिलकर एक वायुमय देह बन जाती है, जो ऊर्ध्वगामियोंका प्रकाशमय तैजस, नरकगामियोंका तमोमय प्रेत-पिशाच आदिका होता है, यह सूक्ष्म होनेसे हमलोगोंकी स्थूल-दृष्टिसे दीखता नहीं। इसलिये यह शंका निरर्थक है। सूक्ष्म देहका आना-जाना कर्मबन्धन न छूटनेतक चला ही करता है।
प्रलयमें भी सूक्ष्म शरीर रहता है—प्रलयकालमें भी जीवोंके यह सत्रह तत्त्वोंके शरीर ब्रह्माके समष्टि सूक्ष्म शरीरमें अपने-अपने संचित कर्म-संस्कारोंसहित विश्राम करते हैं और सृष्टिके आदिमें उसीके द्वारा पुन: इनकी रचना हो जाती है (गीता ८।१८)। महाप्रलयमें ब्रह्मासहित समष्टि-व्यष्टि सम्पूर्ण सूक्ष्म शरीर ब्रह्माके शान्त होनेपर शान्त हो जाते हैं, उस समय एक मूल प्रकृति रहती है, जिसको अव्याकृत माया कहते हैं। उसी महाकारणमें जीवोंके समस्त कारण-शरीर अभुक्त कर्म-संस्कारोंसहित अविकसितरूपसे विश्राम पाते हैं। सृष्टिके आदिमें सृष्टिके आदिपुरुषद्वारा ये सब पुन: रचे जाते हैं (गीता १४।३-४)। अर्थात् परमात्मारूप अधिष्ठाताके सकाशसे प्रकृति ही चराचरसहित इस जगत् को रचती है, इसी तरह यह संसार आवागमनरूप चक्रमें घूमता रहता है (गीता ९।१०)। महाप्रलयमें पुरुष और उसकी शक्तिरूपा प्रकृति यह दो ही वस्तुएँ रह जाती हैं, उस समय अज्ञानसे आच्छादित जीवोंका ही प्रकृतिसहित पुरुषमें लय हुआ रहता है, इसीसे सृष्टिके आदिमें उनका पुनरुत्थान होता है।
आवागमनसे छूटनेका उपाय
जबतक परमात्माकी निष्काम भक्ति, कर्मयोग और ज्ञानयोग आदि साधनोंद्वारा यथार्थ ज्ञान उत्पन्न होकर उसकी अग्निसे अनन्त कर्मराशि सम्पूर्णत: भस्म नहीं हो जाती, तबतक फल भोगनेके लिये जीवको परवश होकर शुभाशुभ कर्मोंके संस्कार मूल-प्रकृति और अन्त:करण तथा इन्द्रियोंको साथ लिये लगातार बारम्बार जाना-आना पड़ता है। जाने और आनेमें ये ही वस्तुएँ साथ जाती-आती हैं। जीवके पूर्वजन्मकृत शुभाशुभ कर्म ही इसके गर्भमें आनेके हेतु हैं और अनेक जन्मार्जित संचित कर्मोंके अंशविशेषसे निर्मित प्रारब्धका भोग करना ही इसके जन्मका कारण है। कर्म या तो भोगसे नाश होते हैं या प्रायश्चित्तसे या निष्काम कर्म-उपासनादि साधनोंसे नष्ट होते हैं।*
*‘कल्याण-प्राप्तिके उपाय’ में ‘कर्मरहस्य’ नामक लेख देखना चाहिये।
इनका सर्वतोभावसे नाश तो परमात्माकी प्राप्तिसे ही होता है। जो निष्कामभावसे सदा-सर्वदा परमात्माका स्मरण करते हुए—मन-बुद्धि परमात्माको अर्पण करके समस्त कार्य परमात्माके लिये ही करते हैं, उनकी अन्त समयकी वासना परमात्मविषयक ही होती है और उसीके अनुसार उन्हें परमात्माकी प्राप्ति होती है। इसलिये भगवान् कहते हैं—
तस्मात् सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
(गीता ८। ७)
‘हे अर्जुन! तू सब समय निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर, इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त हुआ तू निस्सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’
इस स्थितिमें तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति होनेके कारण अज्ञानसहित पुरुषके सभी कर्म नाश हो जाते हैं, इनसे उसका आवागमन सदाके लिये मिट जाता है, यही मुक्ति है, इसीका नाम परम पदकी प्राप्ति है, यही जीवका चरम लक्ष्य है। इस मुक्तिके दो भेद हैं—एक सद्योमुक्ति और दूसरी क्रममुक्ति। इनमें क्रममुक्तिका वर्णन तो देवयानमार्गके प्रकरणमें ऊपर आ चुका है। सद्योमुक्ति भी दो प्रकारकी है—जीवन्मुक्ति और विदेहमुक्ति।
तत्त्वज्ञानकी प्राप्ति हो जानेपर जीवन्मुक्त पुरुष लोकदृष्टिमें जीता हुआ और कर्म करता हुआ-सा प्रतीत होता है, परन्तु वास्तवमें उसका कर्मसे सम्बन्ध नहीं होता। यदि कोई कहे कि सम्बन्ध बिना उससे कर्म कैसे होते हैं? इसका उत्तर यह है कि वास्तवमें वह तो किसी कर्मका कर्ता है नहीं, पूर्वकृत शुभाशुभ कर्मोंसे बने हुए प्रारब्धका जो शेष भाग अवशिष्ट है, उसके भोगके लिये उसीके वेगसे, कुलालके न रहनेपर भी, कुलालचक्रकी भाँति कर्ताके अभावमें भी परमेश्वरकी सत्ता-स्फूर्तिसे पूर्व-स्वभावानुसार कर्म होते रहते हैं परन्तु वे कर्तृत्व-अभिमानसे शून्य कर्म किसी पुण्य-पापके उत्पादक न होनेके कारण वास्तवमें कर्म ही नहीं समझे जाते (गीता१८।१७)।
अन्तकालमें तत्त्वज्ञानके द्वारा तीनों शरीरोंका अत्यन्त अभाव होनेसे जब शुद्ध सच्चिदानन्दघनमें तद्रूपताको प्राप्त हो जाता है (गीता ५।१७) तब उसे विदेहमुक्ति कहते हैं। जिस मायासे कहीं भी नहीं आने-जानेवाले निर्मल निर्गुण सच्चिदानन्दरूप आत्मामें भ्रमवश आने-जानेकी भावना होती है, भगवान् की भक्तिके द्वारा उस मायासे छूटकर इस परमपदकी प्राप्तिके लिये ही हम सबको प्रयत्न करना चाहिये!