ईश्वर-तत्त्व
प्रश्न—सर्वज्ञ, सर्वेश, सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी आदि शब्दोंसे जिस ईश्वरका संकेत किया जाता है वह ईश्वर किसका ज्ञाता, ईश और अन्तर्यामी आदि है? जिसका ज्ञाता ईश आदि है, उसका नामरूप क्या है? वह उससे भिन्न है या नहीं?
उत्तर—विज्ञानानन्द ब्रह्म अनादि और अनन्त है, उसके किसी एक अंशमें त्रिगुणमयी मायासहित जड-चेतनमय यह समस्त संसार है। ब्रह्मके जिस अंशमें यह संसार है, उस अंशको सगुण ब्रह्म और जिस अंशमें संसार नहीं है उसको निर्गुण ब्रह्म कहते हैं। उस सगुण ब्रह्मको ही सर्वज्ञ, सर्वेश, सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी आदि शब्दोंसे संकेत किया जाता है। वही इस मायासहित जड-चेतन सम्पूर्ण संसारका ज्ञाता, ईश और अन्तर्यामी है; उसीके सकाशसे मन मनन करता है, बुद्धि निश्चय करती है और सम्पूर्ण संसार प्रकाशित होता है। वह अनन्त है, अपार है, अनादि है, अचल है, ध्रुव है, नित्य है, सत्य और आनन्दमय है।
माया जड और विकारी है, मायाको ही प्रकृति कहते हैं। यह प्रकृति परमेश्वरकी शक्ति है और उसीके अधीन है। इसके दो भेद हैं—विद्या और अविद्या। जिसके द्वारा सत्-असत् समस्त वस्तुएँ यथार्थरूपसे जाननेमें आती हैं उस ज्ञानशक्तिका नाम विद्या है; और जिसके द्वारा आवृत हुए सारे जीव मोहित हो रहे हैं उसका नाम अविद्या है। इस अविद्याका नाश उपर्युक्त विद्यासे ही होता है। चौबीस तत्त्वोंमें विभक्त हुआ जड संसार प्रकृतिका ही विस्तार या कार्य (विकार) है। मूल-प्रकृतिसे महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार और अहंकारसे पंचतन्मात्राओंकी उत्पत्ति होती है; फिर अहंकारसे मन और पंचतन्मात्राओंसे पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और पाँच स्थूल महाभूतोंकी उत्पत्ति होती है।* इस प्रकार मूलप्रकृतिसहित चौबीस तत्त्व माने गये हैं।
*श्रोत्र, त्वक्, नेत्र, रसना और नासिका—ये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ है। हाथ, पैर, मुख, गुदा और उपस्थ—ये पाँच कर्मेन्द्रियाँ है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्धतन्मात्रा—ये पंचतन्मात्राएँ हैं। आकाश, वायु, तेज, जल और पृथ्वी—ये पंच महाभूत हैं।
मायाके द्वारा आवृत हुए व्यष्टि चेतनको जीव कहते हैं। ये जीव मायाके सम्बन्धसे नाना और असंख्य हैं। परमेश्वरका अंश होनेपर भी मायाके साथ सम्बन्ध रहनेके कारण इसकी जीव-संज्ञा मानी गयी है और मायाका यह सम्बन्ध अनादि एवं सान्त है। उस मायाके अविद्या अंश यानी अज्ञानसे जीव मोहित है। विद्याके द्वारा अविद्याका नाश होनेसे जीव परमात्माको प्राप्त हो जाता है और जैसे ईंधनको जलाकर अग्नि स्वयं शान्त हो जाता है वैसे ही अविद्या या अज्ञानका नाश करके विद्या या ज्ञान भी शान्त होता है। तब मायासे रहित जीव केवल अवस्थाको अर्थात् सच्चिदानन्दघन परमात्मामें तद्रूपताको प्राप्त हो जाता है।
जीव-समुदायके भी दो भेद हैं—स्थावर और जंगम। देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, कीट, पतंग आदि चलनेवाले जीवोंको जंगम एवं वृक्ष, लता, पर्वत आदि स्थिर रहनेवाले जीवोंको स्थावर कहा गया है।
इस जड-चेतनमय संसारसे परमेश्वर भिन्न भी है और अभिन्न भी। जैसे पुरुषसे स्वप्नकी सृष्टि है और आकाशसे वायु। वायुकी उत्पत्ति आकाशसे होती है और उसका आधार भी आकाश है। आकाशसे उत्पन्न होनेके कारण वायु उससे अभिन्न है; और आकाशमें आकाशसे अलग होकर रहती हुई प्रतीत होनेसे उससे भिन्न भी है। इसी प्रकार जिस पुरुषको स्वप्न आता है, उसीसे स्वप्नसृष्टिकी उत्पत्ति होती है और वही उस स्वप्नके संसारका आधार है। पुरुषसे ही उत्पन्न होनेसे स्वप्न उससे अभिन्न है और स्वप्न-कालमें पृथक् प्रतीत होनेके कारण भिन्न भी है। इसी तरह सगुण ब्रह्म परमेश्वर अभिन्न निमित्तोपादान-कारण होते हुए ही भिन्न और अभिन्न है तथा वही ईश, ज्ञाता, व्यापक और अन्तर्यामी है। जीवको स्वप्न-सृष्टिकी प्रतीति मोहसे होती है और ईश्वरको सृष्टिकी प्रतीति अपनी योगशक्ति या लीलासे होती है। ईश्वर स्वतन्त्र है और जीव परतन्त्र है।
प्रश्न—आवरण या बन्धन है या नहीं? यदि है तो किसको है? और वह स्वाभाविक है या आगन्तुक? यदि स्वाभाविक है तो उससे मुक्ति कैसी और आगन्तुक है तो फिर भी हो सकता है? आवरण किसको कहते हैं और वह आवरण किसको है?
उत्तर—आवरण या बन्धन है भी और नहीं भी है। जिसको संसार भिन्नरूपसे प्रतीत होता है उसको बन्धन है और जिसको नहीं होता उसको नहीं है। यह बन्धन न स्वाभाविक है और न आगन्तुक, परन्तु अनादि सान्त है। आवरण या बन्धन अज्ञान या अविद्याको कहते हैं। यह आवरण मायामोहित जीवको है। इसलिये इस बन्धनसे छूटनेका प्रयत्न अवश्य करना चाहिये। बन्धनसे छूटनेका उपाय है तत्त्वज्ञान, जो सांख्ययोग, भक्तियोग, निष्काम कर्मयोग आदि साधनोंसे प्राप्त होता है।
प्रश्न—पूजा कौन करता है और किसकी करता है? ब्रह्म देश, काल, निमित्तके परे है या नहीं? यदि नहीं तो वह बद्ध है और यदि हाँ तो वह असाध्य है। वह पूजा कैसी और उससे क्या लाभ?
उत्तर—पूजा जीव करता है और परमेश्वरकी करता है। ब्रह्म देश, काल, निमित्तसे परे भी है और अंदर भी है। क्योंकि देश, काल, निमित्त आदि सब उस ब्रह्मके किसी अंशमें हैं और उसीके अधीन हैं, अतएव वह उनसे बद्ध नहीं है। उसकी पूजा आदि अवश्य करनी चाहिये। पूजाके दो प्रकार हैं—
(क) सर्वव्यापी, सर्वशक्तिमान् परमेश्वर सम्पूर्ण चराचर जीवोंका आत्मा है इसलिये सम्पूर्ण चराचर जीवोंको परमेश्वरका स्वरूप समझ फलासक्तिको त्यागकर, निष्कामप्रेमभावसे, अपने-अपने वर्णाश्रमके अनुसार, कर्मोंद्वारा उनका सेवा-सत्कार करना उस सर्वव्यापी निराकार ब्रह्मकी पूजा है। भगवान् ने कहा है—
यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता १८। ४६)
‘जिस परमात्मासे सर्वभूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सर्व जगत् व्याप्त है उस परमेश्वरको अपने स्वाभाविक कर्मोंद्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होता है।’
(ख) अपने-अपने भाव और रुचिके अनुसार उसी सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन परमात्माकी, शिव, विष्णु आदि किसी भी एककी मानसिक या पार्थिव-प्रतिमाको निमित्त बनाकर, उस परमेश्वरके प्रभावको समझते हुए श्रद्धा और प्रेमभावसे शास्त्रविधिके अनुसार, पत्र-पुष्पादिसे उसकी अर्चना करना साकार परमेश्वरकी पूजा है। (गीता ९।२६)
इस प्रकार पूजा करनेसे मनुष्य इस दु:खरूप संसार-बन्धनसे सदाके लिये छूटकर परमात्माको प्राप्त हो जाता है।