Seeker of Truth

ईश्वर और परलोक

ईश्वर, माया, जीव, सृष्टि, कर्म, मोक्ष, और परलोक आदिके विषयमें कतिपय मित्रोंके प्रश्न हैं। प्रश्न बड़े गहन और तात्त्विक हैं। इन प्रश्नोंका वास्तविक उत्तर तो परमेश्वर ही जानते हैं तथा वे महान् पुरुष भी जानते हैं जो श्रोत्रिय और ब्रह्मनिष्ठ हैं। मुझ-जैसे व्यक्तिके लिये तो इन प्रश्नोंका उत्तर देना महान् ही कठिन है तथापि मित्रोंके अनुरोध करनेपर अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार मैं अपने भावोंको प्रकट करता हूँ। त्रुटियोंके लिये विज्ञजन क्षमा करेंगे।

प्रश्न—ईश्वर है या नहीं?

उत्तर—ईश्वर निश्चय ही है।

प्रश्न—ईश्वरके होनेमें क्या प्रमाण है?

उत्तर—ईश्वर स्वत: प्रमाण है। इसके लिये अन्य प्रमाणोंकी आवश्यकता ही नहीं है। सम्पूर्ण प्रमाणोंकी सिद्धि भी उसीकी सत्ता-स्फूर्तिसे होती है। तुम्हारा प्रश्न भी ईश्वरको सिद्ध करता है; क्योंकि मिथ्या वस्तुके विषयमें तो प्रश्न ही नहीं बनता जैसे ‘वन्ध्यापुत्र है या नहीं’—यह प्रश्न नहीं बनता।

प्रश्न—सन्दिग्धतामें भी प्रश्न बन सकता है और मुझे शंका है इसलिये ईश्वरके विषयमें आप प्रमाण बतावें?

उत्तर—यद्यपि ईश्वरकी सिद्धिसे ही हम सबकी सिद्धि है इसलिये प्रमाणोंद्वारा ईश्वरको सिद्ध करनेका प्रयत्न लड़कपन ही है तथापि सन्दिग्ध मनुष्योंकी शंका-निवृत्तिके लिये श्रुति-स्मृति, इतिहास-पुराणादि शास्त्र ईश्वरकी सत्ताको स्थल-स्थलपर घोषित कर रहे हैं। ईश्वरको जाननेके लिये ही उन सबकी व्युत्पत्ति है।

यथा—

‘वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्य:’
(गीता १५। १५)
‘ईशावास्यमिदॸ सर्वं यत्किंच जगत्यां जगत्।’
(यजुर्वेद ४०।१)
‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’
(योग० १। २३)
‘आत्मा द्विविध आत्मा परमात्मा च’
(तर्कसंग्रह)

प्रमाणोंका विशेष विस्तार ‘कल्याण’ के ‘ईश्वरांक’ में देखना चाहिये।

प्रश्न—क्या आप युक्तियोंद्वारा भी ईश्वर-सिद्धि कर सकते हैं?

उत्तर—यद्यपि जिस ईश्वरसे सब युक्तियोंकी सिद्धि होती है, उस ईश्वरको युक्तियोंद्वारा सिद्ध करना अनधिकार चेष्टा है तथापि संशययुक्त एवं नास्तिकोंको समझनेके लिये विभिन्न सज्जनोंने ‘कल्याण’ के ईश्वरांक और उसके परिशिष्टांकमें बहुत-सी युक्तियाँ प्रदर्शित की हैं।आकाश, वायु, तेज, जल,पृथ्वी, सूर्य, चन्द्र, नक्षत्रादि पदार्थोंकी उत्पत्ति और नाना प्रकारकी योनियोंके यन्त्रोंकी भिन्न-भिन्न अद्भुत रचना और नियमित संचालन क्रियाको देखनेसे यह सिद्ध होता है कि बिना कर्ताके उत्पत्ति और बिना संचालकके नियमित संचालन होना असम्भव है। जो इनकी उत्पत्ति और संचालन करनेवाला है, वही ईश्वर है। जीवोंके सुख, दु:ख, जाति, आयु, स्वभावकी भिन्नताका गुण कर्मानुसार यथायोग्य विभाग करना ज्ञानस्वरूप ईश्वरके बिना जड प्रकृतिसे होना सम्भव नहीं है क्योंकि सृष्टिके प्रत्येक कार्यमें सर्वत्र प्रयोजन देखा जाता है। ऐसी प्रयोजनवती सृष्टिकी रचना एवं विभाग किसी परम चेतन कर्ताके बिना होना सम्भव नहीं है।

प्रश्न—ईश्वरका स्वरूप कैसा है?

उत्तर—ईश्वर सर्वशक्तिमान्, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सम्पूर्ण गुण-सम्पन्न, निर्विकार, अनन्त, नित्य, विज्ञान-आनन्दघन है।

प्रश्न—ईश्वर सगुण है या निर्गुण?

उत्तर—वह चिन्मय परमात्मा सगुण भी है और निर्गुण भी। यह त्रिगुणमय सम्पूर्ण संसार उस परमात्माके किसी एक अंशमें है, जिस अंशमें यह संसार है उस अंशका नाम सगुण है, और संसारसे रहित अनन्त असीम जो नित्य विज्ञान आनन्दघन परमात्माका स्वरूप है उसका नाम निर्गुण है। सगुण और निर्गुण समग्रको ही ईश्वर कहा गया है।

प्रश्न—वह सगुण ईश्वर निराकार है या साकार?

उत्तर—साकार भी है और निराकार भी। जैसे निराकाररूपसे व्यापक अग्नि संघर्षण आदि साधनोंद्वारा साधकके सम्मुख प्रकट हो जाता है वैसे ही सर्वान्तर्यामी दयालु परमात्मा निराकाररूपसे चराचर सम्पूर्ण भूत-प्राणियोंमें व्यापक रहता हुआ ही धर्मके स्थापन और जीवोंके उद्धारके लिये भक्तोंकी भावनाके अनुसार भी श्रद्धा, भक्ति, प्रेम आदि साधनोंद्वारा साकाररूपसे समय-समयपर प्रकट होता है। जहाँ साकाररूपसे भगवान् प्रकट हुए हों वहाँ यह नहीं समझना चाहिये कि वे इतने ही हैं, निर्गुण और सगुण रूपमें सब जगह स्थित रहता हुआ ही अर्थात् सम्पूर्ण शक्तिसम्पन्न समग्र ब्रह्म ही सगुण-साकार-स्वरूपमें प्रकट होता है। वह सगुण परमात्मा सृष्टिकी उत्पत्ति, पालन और विनाशकालमें सदा ही ब्रह्मा, विष्णु, महेशरूपसे विराजमान है।

प्रश्न—माया किसे कहते हैं?

उत्तर—ईश्वरकी शक्तिका नाम माया है जिसको प्रकृति भी कहते हैं।

प्रश्न—प्रकृतिका क्या स्वरूप है?

उत्तर—जो अनादि हो (प्राकृत हो), जिसकी किसीसे उत्पत्ति नहीं हुई हो और जो अन्य पदार्थोंकी उत्पत्तिमें कारण हो, उसको प्रकृति कहते हैं।

प्रश्न—यह माया स्वतन्त्र है या परतन्त्र?

उत्तर—परतन्त्र है।

प्रश्न—किसके परतन्त्र है?

उत्तर—ईश्वरके।

प्रश्न—यह माया अनादि-अनन्त है या अनादि-सान्त है?

उत्तर—अनादि-सान्त है।

प्रश्न—जो वस्तु अनादि हो वह तो अनन्त ही होनी चाहिये?

उत्तर—यह कोई नियम नहीं है।

प्रश्न—ऐसा कोई दृष्टान्त बतलाइये जो अनादि होकर सान्त हो?

उत्तर—सूर्य-चन्द्रादि सभी दृश्य वस्तुओंका अज्ञान अर्थात् उनका न जाननापन अनादि है, किन्तु मनुष्य जिस समाज जिस वस्तुको यथार्थ जान जाता है उसी समय उस वस्तु-विषयका वह अज्ञान नष्ट हो जाता है, इसी प्रकार यह माया भी अज्ञानकी तरह अनादि-सान्त है।

प्रश्न—यह माया सत् है या असत्?

उत्तर—सत् भी है और असत् भी। अनादि होनेसे सत् है और सान्त होनेसे असत् है। वास्तवमें इसको सत् या असत् कुछ भी नहीं कहा जा सकता। क्योंकि तत्त्वज्ञानके द्वारा सान्त हो जानेके कारण सत् नहीं कहा जा सकता और सदासे इसकी प्रतीति होती चली आयी है इसलिये असत् भी नहीं कह सकते। इसीलिये मायाको सत्-असत् दोनोंसे विलक्षण एवं अनिर्वचनीय कहा गया है।

प्रश्न—माया जड है या चेतन?

उत्तर—जड है, क्योंकि जो वस्तु दृश्य और विकारी होती है वह जड ही होती है।

प्रश्न—मायाका स्वरूप क्या है?

उत्तर—जो कुछ देखने, सुनने और समझनेमें आता है वह सब मायाका कार्य होनेके कारण मायाका स्वरूप है।

प्रश्न—माया कितने प्रकारकी है?

उत्तर—दो प्रकारकी है। विद्या और अविद्या।

प्रश्न—विद्या किसे कहते हैं।

उत्तर—जिसके द्वारा ईश्वर सृष्टिकी रचना करते हैं और गुण कर्मोंके अनुसार यथायोग्य ऊँच-नीच योनियोंका विभाग करते हैं तथा साकाररूपसे प्रकट होकर जिस विद्याके द्वारा धर्मकी स्थापना करके जीवोंका उद्धार करते हैं।

प्रश्न—अविद्या किसे कहते हैं?

उत्तर—अज्ञानको कहते हैं, जिसके द्वारा सब जीव मोहित हो रहे हैं अर्थात् अपने स्वरूप और कर्तव्यको भूले हुए हैं।

प्रश्न—जीवका स्वरूप क्या है?

उत्तर—जीव नित्य आनन्द चेतन (द्रष्टा) और ईश्वरका अंश है। प्रकृति और उसके कार्यसे भिन्न एवं अत्यन्त विलक्षण होनेपर भी प्रकृतिके सम्बन्धसे कर्ता और भोक्ता भी है (देखिये गीता अ० १३ श्लो० २०,२१)

प्रश्न—जीव ईश्वरका किस प्रकारका अंश है?

उत्तर—वास्तवमें तो इसके सदृश संसारमें कोई उदाहरण ही नहीं है। यदि सूर्यके प्रतिबिम्बकी तरह जीवको ईश्वरका अंश बताया जाय तो वह बताना युक्तियुक्त नहीं होगा, क्योंकि सूर्यमण्डल जड है और उसका प्रतिबिम्बी वस्तुत: कोई वस्तु नहीं है। परन्तु जीवात्मा तो वस्तुत: नित्य और चेतन है। यदि घटाकाश और महाकाशका उदाहरण दिया जाय तो वह भी समीचीन नहीं, क्योंकि आकाश भी जड है और ईश्वर चेतन है। यदि स्वप्नकी सृष्टिके जीवोंका उदाहरण दिया जाय तो वह भी पूर्ण समीचीनरूपसे नहीं, क्योंकि स्वप्न-सृष्टिकी उत्पत्ति स्वप्न-द्रष्टा पुरुषके मोहसे हुई है और वह पुरुष उस मोहके अधीन है परन्तु ईश्वर स्वतन्त्र और निर्भ्रान्त है। ऊपर बताये हुए सब उदाहरणोंकी अपेक्षा तो योगीकी सृष्टिका उदाहरण सर्वोत्तम है, क्योंकि योगी अपनी योग-शक्तिसे अपनी सृष्टिकी रचना कर सकता है और उसकी सृष्टिमें रचित जीव सब उसके अंश एवं अधीन भी होते हैं, इसी प्रकार जीवको ईश्वरका अंश समझना चाहिये।

प्रश्न—सृष्टिकी उत्पत्ति कैसे होती है?

उत्तर—शास्त्रोंमें जैसा वर्णन है।

प्रश्न—शास्त्रोंमें तो अनेक प्रकारका वर्णन है।

उत्तर—विचार करनेपर करीब-करीब सबका परिणाम एक-सा ही निकलता है।

प्रश्न—महासर्गके आदिमें सृष्टिकी उत्पत्ति कैसे होती है, संक्षेपसे व्याख्या कीजिये।

उत्तर—महासर्गके आदिके समय सर्वव्यापी विज्ञानानन्दघन निराकार परमात्मामें सृष्टिके रचनेके लिये स्वाभाविक ऐसी स्फुरणा होती है कि ‘मैं एक बहुत रूपोंमें होऊँ’ तब उसकी शक्तिरूप प्रकृतिमें क्षोभ होता है अर्थात् सत्, रज, तम—तीनों गुणोंकी साम्यावस्थामें न्यूनाधिकता हो जाती है जिससे महत्तत्त्व यानी समष्टि-बुद्धिकी उत्पत्ति होती है। उस महत्तत्त्वसे समष्टि अहंकार उत्पन्न होता है। अहंकारसे मन और पाँच सूक्ष्म महाभूत उत्पन्न होते हैं। इन महाभूतोंको योग और सांख्य आदि शास्त्रोंमें तन्मात्राओंके नामसे कहा है। वैशेषिक और न्यायशास्त्र इन्हींको परमाणु मानते हैं। उपनिषदोंमें इन्हींको अर्थके नामसे भी कहा है और इन्द्रियोंके कारणरूप होनेसे इन्द्रियोंसे परे बतलाया है। गीतामें इन पाँच सूक्ष्म महाभूतोंको मन, बुद्धि और अहंकारके सहित अपरा प्रकृतिके नामसे कहा है। मूल-प्रकृतिसे उत्पन्न हुए इन आठ पदार्थोंसे ही संसारकी उत्पत्ति होती है। इसलिये इनको भी प्रकृति कहा जाता है। सांख्य और योगशास्त्र मनको प्रकृति नहीं मानते।

प्रश्न—सूक्ष्म महाभूतोंकी उत्पत्तिका क्रम बतलाइये?

उत्तर—समष्टि अहंकारसे सूक्ष्म आकाश, आकाशसे वायु, वायुसे तेज, तेजसे जल और जलसे पृथ्वीकी तन्मात्राएँ उत्पन्न हुईं।

प्रश्न—इन आठ पदार्थोंकी उत्पत्तिके बाद सृष्टिकी उत्पत्ति किस प्रकार हुई?

उत्तर—आकाशादि सूक्ष्म महाभूतोंसे अर्थात् तन्मात्राओंसे श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, रसना, घ्राण—क्रमश: इन पाँच ज्ञानेन्द्रियोंकी उत्पत्ति हुई। तदनन्तर उन्हीं पाँच सूक्ष्म महाभूतोंसे वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ, गुदा—क्रमश: इन पाँच कर्मेन्द्रियोंकी उत्पत्ति हुई। ऊपर बताये हुए अठारह तत्त्वोंमें अहंकारको बुद्धिके अन्तर्गत मानकर इन सत्रह तत्त्वोंके समुदायको समष्टि-सूक्ष्म शरीर कहते हैं। इसका जो अधिष्ठाता है उसीको हिरण्यगर्भ सूत्रात्मा एवं ब्रह्मा कहते हैं। उसी हिरण्यगर्भके द्वारा उसके समष्टि-अव्यक्त-शरीरसे जीवोंके गुण और कर्मानुसार सम्पूर्ण स्थूललोकोंकी एवं स्थूल शरीरोंकी उत्पत्ति होती है।

अव्यक्ताद्‍व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यगामेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥
(गीता ८। १८-१९)

‘हे अर्जुन! सम्पूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्माके दिनके प्रवेशकालमें अव्यक्तसे अर्थात् ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरसे उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माकी रात्रिके प्रवेशकालमें उस अव्यक्त नामक ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरमें ही लय होते हैं और वह ही भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर प्रकृतिके वशमें हुआ रात्रिके प्रवेशकालमें लय होता है और दिनके प्रवेशकालमें फिर उत्पन्न होता है।’

कोई-कोई आचार्य पाँच सूक्ष्म भूतोंको इन्द्रियोंके अन्तर्गत मानकर पंचप्राणोंको सूक्ष्म शरीरके साथ और सम्मिलित करते हैं किन्तु वायुके अन्तर्गत भी पंचप्राणोंको मान लिया जा सकता है।

प्रश्न—कर्म कितने प्रकारके होते हैं?

उत्तर—तीन प्रकारके होते हैं—संचित, प्रारब्ध और क्रियमाण।

प्रश्न—इन तीनोंका स्वरूप बतलाइये?

उत्तर—(१) अनेक जन्मोंसे लेकर अबतकके किये हुए सुकृत-दुष्कृतरूप कर्मोंके संस्कार समूह, जो अन्त:करणमें संगृहीत हैं उन्हें संचित कहते हैं।

(२) पाप-पुण्यरूप संचितका कुछ अंश जो किसी एक जन्ममें सुख-दु:खरूप फल भुगतानेके लिये सम्मुख हुआ है उसका नाम प्रारब्धकर्म है।

(३) अपनी इच्छासे जो शुभाशुभ नवीन कर्म किये जाते हैं उन्हें क्रियमाण कर्म कहते हैं।

प्रश्न—मोक्ष किसे कहते हैं?

उत्तर—सम्पूर्ण दु:खों और क्लेशोंसे* एवं सम्पूर्ण कर्मोंसे छूटकर नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मामें स्थित होनेका नाम मोक्ष है।

* ‘अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशा पंच क्लेशा:।’ (योगसूत्र २। ३) अर्थात् अज्ञान, अहंता (चिद्जडग्रन्थि) राग, द्वेष और मरणभय—ये पाँच क्लेश हैं।

प्रश्न—मुक्त हुए पुरुषोंका पुनर्जन्म होता है या नहीं?

उत्तर—नहीं।

सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च॥
(गीता १४। २)

‘हे अर्जुन! वे पुरुष सृष्टिके आदिमें पुन: उत्पन्न नहीं होते हैं और प्रलयकालमें भी व्याकुल नहीं होते।’

भगवान् कहते हैं—

मामुपेत्य तु कौन्तेय पुनर्जन्म न विद्यते॥
(गीता ८। १६)

‘हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मुझको प्राप्त होकर पुनर्जन्म नहीं होता।’

न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते॥
(छान्दोग्य० ४। १५। १)

‘वह मुक्त पुरुष पुन: वापस नहीं आता, पुन: वापस नहीं आता।’

प्रश्न—नवीन जीव उत्पन्न होते हैं या नहीं?

उत्तर—नहीं। क्योंकि बिना हेतु जीवोंकी नवीन सृष्टि होना युक्तिसंगत नहीं।

प्रश्न—इस तरह माननेसे फिर जीवोंकी संख्या कम हो जायगी।

उत्तर—हो जाय, इसमें क्या आपत्ति है?

प्रश्न—इस न्यायसे तो सभीकी मुक्ति सम्भव है।

उत्तर—ठीक है, किन्तु मोक्षका अधिकारी केवल मनुष्य ही है। मनुष्योंमें भी लाखों-करोड़ोंमें किसी एककी ही मुक्ति होती है।

भगवान् कहते हैं—

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये।
यततामपि सिद्धानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वत:॥
(गीता ७। ३)

‘हे अर्जुन! हजारों मनुष्योंमें कोई ही मनुष्य मेरी प्राप्तिके लिये यत्न करता है और उन यत्न करनेवाले योगियोंमें भी कोई ही पुरुष मेरे परायण हुआ मेरेको तत्त्वसे जानता है अर्थात् यथार्थ मर्मसे जानता है।’ इसलिये सभीका मुक्त हो जाना असम्भव-सा है।

प्रश्न—असम्भव-सा होनेपर भी न्यायसे किसी-न-किसी दिन सबकी मुक्ति हो तो सकती है, क्योंकि इसमें तो कोई रुकावट नहीं है?

उत्तर—रुकावटकी क्या आवश्यकता है? तथा न्याय भी नहीं है, क्योंकि सभीका समान अधिकार है।

प्रश्न—तब तो एक दिन सृष्टिकी समाप्ति भी हो सकती है?

उत्तर—ऐसा होना असम्भव-सा है, क्योंकि जीव असंख्य हैं, तथापि सब जीवोंका मोक्ष हो भी जाय तो इसमें क्या आपत्ति है?

प्रश्न—यदि ऐसा न्याय होता तो अबसे पहले ही सृष्टि समाप्त हो जानी चाहिये थी?

उत्तर—नहीं भी हुई तो सिद्धान्तमें क्या हानि है?

प्रश्न—इस सिद्धान्तसे सृष्टिकी समाप्ति हो तो सकती है?

उत्तर—ठीक है, यदि हो जाय तो बहुत ही उत्तम है। इसीलिये महान् पुरुष सबके कल्याणके लिये कोशिश करते हैं।

सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:।
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:खभाग्भवेत्॥

‘सभी सुखी तथा सभी नीरोग होवें, सभी कल्याणका अनुभव करें, कोई भी जीव दु:खभागी न बनें अर्थात् दु:खी न हों।’

प्रश्न—यदि मुक्तिको प्राप्त जीव वापस आता है यह बात मान ली जाय तो क्या हानि है?

उत्तर—इस प्रकार माननेवालेकी नित्यमुक्ति नहीं होती क्योंकि वापिस आनेकी भावना रहनेसे साधक सदाके लिये मुक्त नहीं हो सकता।

प्रश्न—मुक्ति कितने प्रकारकी होती है?

उत्तर—दो प्रकारकी। एक सद्योमुक्ति, दूसरी क्रममुक्ति। विज्ञान-आनन्दघन ब्रह्ममें तद्रूप हो जाना सद्योमुक्ति है और अर्चि-मार्गके द्वारा परमात्माके धामविशेषमें जाना क्रममुक्ति है।

प्रश्न—क्रममुक्ति कितने प्रकारकी है?

उत्तर—चार प्रकारकी है। सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य।

(क) नित्यधाममें जाकर वास करना सालोक्यमुक्ति है।

(ख) सगुण भगवान् के समीप रहना सामीप्यमुक्ति है।

(ग) भगवान् के सदृश स्वरूप धारणकर रहना सारूप्यमुक्ति है।

(घ) सगुण भगवान् में लय हो जाना सायुज्यमुक्ति है।

प्रश्न—मुक्तिका उपाय क्या है?

उत्तर—तत्त्वज्ञान।

प्रश्न—तत्त्वज्ञान किसे कहते हैं?

उत्तर—परमात्माको यथार्थरूपसे जैसा है वैसा ही जाननेका नाम तत्त्वज्ञान है।

गीतामें भगवान् ने कहा है—

भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:।
ततो मां तत्त्वतो ज्ञात्वा विशते तदनन्तरम्॥
(१८। ५५)

‘हे अर्जुन! उस परा भक्तिके द्वारा मेरेको तत्त्वसे भली प्रकार जानता है कि मैं जो और जिस प्रभाववाला हूँ तथा उस भक्तिसे मुझको तत्त्वसे जानकर तत्काल ही मुझमें प्रवेश हो जाता है।’

प्रश्न—तत्त्वज्ञानकी प्राप्तिके अनेक साधन शास्त्रोंमें वर्णित हैं उनमें सच्चा मार्ग कौन-सा है?

उत्तर—सभी सच्चे हैं।

प्रश्न—प्रधानतया कितने मार्ग हैं?

उत्तर—तीन उपाय प्रधान हैं। भक्तियोग, सांख्योग और निष्काम कर्मयोग।

यथा—

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
(गीता १३। २४)

‘हे अर्जुन! परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानयोगके द्वारा यानी भक्तियोगके द्वारा हृदयमें देखते हैं तथा अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा देखते हैं और अपर कितने ही निष्काम कर्मयोगके द्वारा देखते हैं।’

प्रश्न—भक्तियोग किसे कहते हैं?

उत्तर—परमेश्वरके स्वरूपको निष्काम प्रेमभावसे नित्य-निरन्तर चिन्तन करनेका नाम भक्तियोग है।

प्रश्न—वह चिन्तन विज्ञान-आनन्दघन निर्गुण ब्रह्मका करना चाहिये या सगुणका?

उत्तर—वास्तवमें तो निर्गुण ब्रह्मका चिन्तन हो ही नहीं सकता, सगुणका ही होता है, किन्तु निर्गुणकी भावनासे उस विज्ञान-आनन्दघन निराकार ब्रह्मका जो चिन्तन किया जाता है वह निर्गुणका ही समझा जाता है।

प्रश्न—सगुण ब्रह्मका ध्यान साकारका करना चाहिये या निराकारका?

उत्तर—साधककी इच्छापर निर्भर है। निराकारका करे या साकारका करे, किन्तु निष्काम प्रेमभावसे निरन्तर करना ही शीघ्र लाभदायक होता है।

प्रश्न—सांख्ययोग किसका नाम है?

उत्तर—मायासे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं—ऐसे समझकर तथा मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमानन्दमें एकीभावसे नित्य स्थित रहनेका नाम सांख्ययोग है।

प्रश्न—निष्काम कर्मयोगका क्या स्वरूप है?

उत्तर—फल और आसक्तिको त्यागकर भगवदाज्ञानुसार केवल भगवत्-प्रीत्यर्थ कर्म करनेका नाम निष्काम कर्मयोग है। यह दो प्रकारका होता है, एक भक्तिप्रधान, दूसरा कर्मप्रधान।

प्रश्न—भक्तिप्रधानका क्या लक्षण है?

उत्तर—निष्काम प्रेमभावसे हर समय भगवान् का चिन्तन करते हुए भगवत्-आज्ञानुसार केवल भगवत्प्रीत्यर्थ ही कर्म करनेका नाम भक्ति-प्रधान निष्काम कर्मयोग है।

चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।
बुद्धियोगमुपाश्रित्य मच्चित्त: सततं भव॥
(गीता १८। ५७)

‘हे अर्जुन! तू सब कर्मोंको मनसे मुझमें अर्पण करके मेरे परायण हुआ समत्व-बुद्धिरूप निष्काम कर्मयोगको अवलम्ब करके निरन्तर मेरेमें चित्तवाला हो।’

प्रश्न—कर्मप्रधानका क्या स्वरूप है?

उत्तर—कर्मप्रधानमें भी भक्ति रहती है किन्तु वह सामान्य भावसे रहती है। फल और आसक्तिको त्याग कर भगवदाज्ञानुसार समत्व बुद्धिसे कर्म करनेका नाम कर्मप्रधान निष्काम कर्मयोग है।

योगस्थ: कुरु कर्माणि संगं त्यक्त्वा धनंजय।
सिद्धॺसिद्धॺो: समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते॥
(गीता २। ४८)

‘हे धनंजय! आसक्तिको त्याग कर तथा सिद्धि और असिद्धिमें समान बुद्धिवाला होकर योगमें स्थित हुआ कर्मोंको कर। यह समत्व भाव ही योग नामसे कहा जाता है।’

प्रश्न—परलोक है या नहीं?

उत्तर—अवश्य है।

प्रश्न—क्या प्रमाण है?

उत्तर—श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराण स्थल-स्थलमें घोषित कर रहे हैं।

न साम्पराय: प्रतिभाति बालं
प्रमाद्यन्तं वित्तमोहेन मूढम्।
अयं लोको नास्ति पर इति मानी
पुन: पुनर्वशमापद्यते मे॥
(क० उ० १। २। ६)

‘जो धनके मोहसे मोहित हो रहा है, ऐसे प्रमादी, मूढ़, अविवेकी पुरुषको परलोकमें श्रद्धा नहीं होती। यह लोक ही है परलोक नहीं है इस प्रकार माननेवाला वह मूढ़ मुझ मृत्युके वशमें बार-बार पड़ता है अर्थात् पुन:-पुन: जन्म-मृत्युको प्राप्त होता है।’

ऊर्ध्वं गच्छन्ति सत्त्वस्था मध्ये तिष्ठन्ति राजसा:।
जघन्यगुणवृत्तिस्था अधो गच्छन्ति तामसा:॥
(गीता १४। १८)

‘सत्त्वगुणमें स्थित हुए पुरुष स्वर्गादि उच्च लोकोंको जाते हैं और रजोगुणमें स्थित राजस पुरुष मध्यमें अर्थात् मनुष्यलोकमें ही रहते हैं एवं तमोगुणके कार्यरूप निद्रा, प्रमाद और आलस्यादिमें स्थित हुए तामस पुरुष अधोगतिको अर्थात् कीट, पशु आदि नीच योनियोंको प्राप्त होते हैं, इत्यादि शास्त्रोंमें कर्मानुसार परलोककी प्राप्तिके जगह-जगह प्रमाण मिलते हैं किन्तु लेखका कलेवर बढ़ जानेके संकोचसे तथा यह बात प्रसिद्ध ही है, इसलिये शास्त्रोंके विशेष प्रमाणोंका उल्लेख नहीं किया गया।

प्रश्न—युक्तिप्रमाण दीजिये।

उत्तर—प्राणियोंके गुण, कर्म, स्वभाव, जाति, आयु, सुख, दु:खादि भोगोंकी परस्पर भिन्नता देखनेसे भूत और भविष्यत्-जन्मकी सिद्धि होती है।

(क) बालक जन्मते ही रोता है, जन्मनेके बाद कभी हँसता है, कभी रोता है, कभी सोता है, जब माता मुखमें स्तन देती है तब दूधको खींचता है और भयसे काँपता हुआ भी नजर आता है इत्यादि—उस बालकके आचरण पूर्वजन्मका लक्ष्य कराते हैं। क्योंकि इस जन्ममें तो उसने उपर्युक्त शिक्षाएँ प्राप्त की नहीं। पूर्वजन्मके अभ्याससे ही यह सब बातें उसमें स्वाभाविक ही प्रतीत होती हैं।

(ख) एक ही कालमें कोई मनुष्य, कोई पशु, कोई कीट, कोई पतंग इत्यादि योनियोंमें जन्म लेते हैं, उनमें भी गुण, कर्म, स्वभाव, आयु, सुख-दु:खादि भोग समान नहीं देखे जाते।

(ग) एक देश और एक जातिमें पैदा हुए बालकोंमें भी स्वभाव, आचरण, आयु, सुख-दु:खादि भोग एकके दूसरेकी अपेक्षा अत्यन्त भिन्न-भिन्न देखे जाते हैं, जैसे एक माताके एक साथ पैदा हुए दो बालकोंमें।

—इत्यादि युक्तियोंसे पूर्व-जन्मकी सिद्धि होती है और पूर्व-जन्मके लिये यह जन्म परलोक है, इससे परलोककी सिद्धि हो चुकी। जबतक इस पुरुषको ज्ञान न होगा तबतक इसी प्रकार गुण, कर्म और स्वभावके अनुसार भावी जन्म होते रहेंगे।

प्रश्न—परलोक न माननेसे क्या हानि है?

उत्तर—पशुओंकी अपेक्षा भी अधिक उच्छृंखलता आ जायगी और उच्छृंखल मनुष्यमें झूठ, कपट, चोरी, जारी, हिंसा आदि पाप-कर्मोंकी एवं काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि अवगुणोंकी वृद्धि होकर उसका पतन हो जाता है जिसके परिणाममें वह महान् दु:खी बन जाता है।

प्रश्न—परलोकको माननेसे लाभ क्या है?

उत्तर—परलोक सत्य है और सत्य बातको सत्य माननेमें ही कल्याण है, क्योंकि आत्मा नित्य है, शरीरके नाश होनेपर भी आत्माका नाश नहीं होता (गीता २। २०) इसलिये इस जन्ममें किये हुए शुभाशुभ कर्मोंका फल अगले जन्ममें अवश्य ही भोगना पड़ता है। जब वास्तवमें इस प्रकारका निश्चय हो जायगा तब मनुष्य जन्म-मृत्यु, जरा-व्याधिके दु:खोंसे छूटनेके लिये निष्कामभावसे यज्ञ, दान, तप, सेवा आदि उत्तम कर्मोंके तथा श्रवण, कीर्तन, स्मरण आदि ईश्वरकी उपासनाके द्वारा सम्पूर्ण दुराचार, दुर्गुण एवं दु:खोंसे मुक्त होकर उस विज्ञानानन्दघन परमात्माको प्राप्त हो जायगा, इसलिये परलोकको अवश्यमेव मानना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur