ईश्वर और धर्ममें विश्वासकी आवश्यकता
जिसके द्वारा इस जीवनमें और आगे भी पवित्र सुख, शान्ति और समृद्धिमय सफलता प्राप्त हो और अन्तमें निरतिशय एवं दु:खलेशरहित परम कल्याणरूप आत्यन्तिक सुखकी प्राप्ति हो जाय, उसका नाम धर्म है।*
* यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:। (वैशेषिकदर्शन)
‘जिसके द्वारा अभ्युदय और नि:श्रेयसकी सिद्धि हो, वह धर्म है।’
य एव श्रेयस्कर: स एव धर्मशब्देनोच्यते। (मीमांसादर्शन, सूत्र-भाष्य)
‘जिसके अनुष्ठानसे (लौकिक और पारमार्थिक) कल्याण हो, उसे धर्म कहते हैं।’
विभिन्न कर्मानुसार जीव, जगत् एवं जीवोंके सुख-दु:ख एवं उन्नति-अवनतिका निर्णय, निर्माण, नियमन-नियन्त्रण करनेवाली नित्य सत्य चेतन शक्तिका नाम ईश्वर है। त्रिकालज्ञ—सर्वज्ञ ऋषियोंने ईश्वरकी इच्छा और अभिप्रायको जानकर ईश्वर स्वरूप वेदोंके अनुकूल जो विधि-निषेधमय कानून बनाये हैं, उनका नाम है—शास्त्र। ईश्वरको मानकर शास्त्रके अनुकूल आचरण करनेवाला मनुष्य इस लोकमें पवित्र सुख, शान्ति एवं समृद्धिको प्राप्त करता हुआ अन्तमें मनुष्य-जीवनके चरम फलरूप परमात्माको प्राप्त कर लेता है। यह धर्मका फल है।
ईश्वर और धर्म—जगत् की सर्वांगीण एवं स्थायी उन्नतिके ये ही दो परम आधार हैं। धर्म सदा ही ईश्वरके आश्रित है और जहाँ धर्म है, वहाँ ईश्वर है ही। इन दोनोंमें परस्पर नित्य सम्बन्ध है। ईश्वरका कानून ही धर्म है और जहाँ धर्म है, वहीं विजय है—सफलता है।
‘यत: कृष्णस्ततो धर्मो यतो धर्मस्ततो जय:॥’
(महा०, अनु० १६७। ४१)
ईश्वर और धर्मके प्रति जब मनुष्यकी अनास्था हो जाती है, तब धर्मका बन्धन ढीला हो जाता है और मनुष्यके आचरण मनमाने होने लगते हैं। मनमाने आचरण करनेवालेको न सिद्धि मिलती है, न सुख और न परम गति ही मिलती है। भगवान् ने गीतामें कहा है—
य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
(१६।२३)
‘जो पुरुष शास्त्रविधिको त्यागकर अपनी इच्छासे मनमाना आचरण करता है, वह न सिद्धिको प्राप्त होता है, न परम गतिको और न सुखको ही।’
सिद्धि, सुख और परमगति धर्माचरणसे ही मिलते हैं। जगत् में आज जो सर्वत्र असफलता और दु:ख दिखायी दे रहे हैं, इसका एकमात्र कारण है—मनुष्यका धर्मसे च्युत हो जाना—ईश्वरको न मानकर उनके अनुकूल आचरण न करना। जगत् का यह दु:ख तबतक बना रहेगा, जबतक मनुष्य ईश्वर और उनके कानूनको न मानकर मनमाना आचरण करता रहेगा। हम सभी सफलता चाहते हैं; परन्तु ईश्वर और धर्मसे विमुख होकर सफलता चाहना दुराशामात्र ही है।
गीता हमें बतलाती है कि सृष्टिके आदिमें जगत्पिता ब्रह्माजीने मनुष्यको यही आदेश दिया था कि ‘तुम इन देवताओंकी स्वधर्म-पालनरूप यज्ञद्वारा आराधना करो और तुम्हारी सेवासे प्रसन्न एवं परिपुष्ट होकर ये तुम्हारी पुष्टि, तुम्हारी उन्नति करें—
‘देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।’
(३। ११)
ये देवता यदि हमारी सहायता न करें तो हम जगत् में जीवित ही नहीं रह सकते; और इनकी सहायता प्राप्त करनेके लिये यह आवश्यक है कि हम भी बदलेमें उनकी पुष्टि करें। आज जगत् में विग्रह, महामारी, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अकाल, भूकम्प, अग्निकाण्ड एवं बाढ़ आदिके कारण जो भयंकर जन-संहार हो रहा है, उसका प्रधान कारण इन देवताओंका मनुष्यके द्वारा पुष्ट नकिया जाना ही है। परंतु आज भी जितना अपराध देवताओंका हम करते हैं, उतना देवता हमारा नहीं करते। सूर्य अब भी समयपर उगते और समयपर ही अस्त होते हैं। चन्द्रमा अब भी हमपर तथा हमारी ओषधियों एवं वनस्पतियोंपर सुधावृष्टि करते हैं। अग्नि अब भी हमें सदाकी भाँति ताप एवं प्रकाश देती है और हमारे अनेकों कार्य सिद्ध करती है। अवश्य ही इनके कार्योंमें बहुत कुछ व्यतिक्रम होने लगा है, परन्तु इनके स्वभावमें परिर्वतन नहीं हुआ है। कहते हैं, इनके स्वभावमें परिवर्तन होगा, उस समय प्रलय हो जायगा। अत: जगत् में सुख-समृद्धिके विस्तारके लिये इन देवताओंका पूजन एवं पोषण होना आवश्यक है। लौकिक कार्योंमें देवताओंके यजन एवं आराधनसे शीघ्र सिद्धि मिलती है। भगवान् गीतामें कहते हैं—
काङ्क्षन्त: कर्मणां सिद्धिं यजन्त इह देवता:।
क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा॥
(४। १२)
‘इस मनुष्यलोकमें कर्मोंके फलको चाहनेवाले लोग देवताओंका पूजन किया करते हैं; क्योंकि उनको कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाली सिद्धि शीघ्र मिल जाती है।’
यहाँ इस बातपर ध्यान देना चाहिये कि जहाँ एक ओर भगवान् मनमाने आचरणसे सिद्धिका अभाव बतलाते हैं, वहीं दूसरी ओर वे देवताओंके आराधनसे बहुत शीघ्र सिद्धि मिलनेकी बात कहते हैं। इससे लौकिक सिद्धिमें भी देवाराधनकी आवश्यकता एवं उपयोगिता सिद्ध होती है।
देवाराधनका पंचमहायज्ञ एक मुख्य अंग है। इसमें देवताओं,ऋषियों, पितरों, मनुष्यों तथा अन्य जीवोंका यजन किया जाता है। बलिवैश्वदेव इसका प्रतीक है। इनमें देवताओंको अग्निहोत्र तथा पूजनके द्वारा, ऋषियोंको स्वाध्यायसे, पितरोंको तर्पणादिसे, मनुष्योंको भोजन आदिके और अन्य जीवोंको भी आहार आदिके द्वारा प्रसन्न करना होता है। आजकल पंचमहायज्ञोंका अनुष्ठान तो दूर रहा, अधिकांश लोग नियमपूर्वक सन्ध्यावन्दन भी नहीं करते। इसके विपरीत वे ऐसे कर्म करते हैं, जिनसे देवताओंका पोषण, संवर्द्धन तो किनारे रहा, उलटे उनकी शक्ति क्षीण होती चली जा रही है। ऐसी दशामें मनुष्यजाति आये दिन दैवी प्रकोपोंका शिकार बने—इसमें आश्चर्य ही क्या है। आजके मनुष्यका प्राय: दैवी साधनोंमें विश्वास नहीं रहा, अतएव वह केवल भौतिक साधनोंके करनेमें ही अपने कर्तव्यकी इतिश्री मान बैठा है। आजकलका शिक्षित समाज यज्ञादिके अनुष्ठानपर यों कहकर आपत्ति किया करता है कि इस समय जबकि प्रजापर अन्नका महान् संकट है, लोग अन्नके बिना भूखों मर रहे हैं, यज्ञादिके नामपर अन्नका अपव्यय करना—उसे अग्निमें होम देना कितना बड़ा अपराध है! वे लोग यह नहीं सोचते कि आखिर अन्न आता कहाँसे है? पृथ्वीमाताके गर्भसे ही तो। अन्नके लिये पृथ्वीपर वर्षाका होना भी परमावश्यक है; परन्तु वर्षा इन्द्रकी कृपाके बिना नहीं हो सकती। ऐसी दशामें अन्नकी उपजके लिये अन्नका बोया जाना जैसे अपव्यय नहीं कहा जा सकता, उसी प्रकार यज्ञादिमें देवताओंकी पुष्टिके लिये अन्न-घी आदिका उपयोग करना उनका दुरुपयोग नहीं कहा जा सकता, बल्कि प्रजाके हितके लिये वह परमावश्यक है। ठीक तरहसे यदि देवाराधन हो तो दैवी विपत्तियाँ आ ही नहीं सकतीं—अकाल, महामारी आदिका भय ही न रहे। जगत् में इतना अन्न उपजे कि वह जल्दी समाप्त ही न हो।
गोस्वामी तुलसीदासजीने रामचरितमानसमें रामराज्यका इस प्रकार वर्णन किया है—
लता बिटप मागें मधु चवहीं।
मनभावतो धेनु पय स्रवहीं॥
ससि संपन्न सदा रह धरनी।
त्रेताँ भइ कृतजुग कै करनी॥
प्रगटीं गिरिन्ह बिबिध मनिखानी।
जगदातमा भूप जग जानी॥
सरिता सकल बहहिं बर बारी।
सीतल अमल स्वाद सुखकारी॥
सागर निज मरजादाँ रहहीं।
डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं॥
सरसिज संकुल सकल तड़ागा।
अति प्रसन्न दस दिसा बिभागा॥
बिधु महि पूर मयूखन्हि रबि तप जेतनेहि काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचंद्र कें राज॥
(उत्तर० २३)
इसका कारण भी गोस्वामीजीने वहीं लिख दिया है—
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग।
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहिं भय सोक न रोग॥
(उत्तर० २०)
आजकलके लोग इस वर्णनको काल्पनिक अथवा अत्युक्तिपूर्ण कह सकते हैं; परन्तु वास्तवमें ऐसी बात नहीं है। जिन दैवी शक्तियोंके द्वारा जगच्चक्रका परिचालन होता है, उन शक्तियोंके प्रसन्न रहनेसे असम्भव भी सम्भव हो सकता है। फिर भगवान् रघुकुलचूड़ामणि श्रीरामचन्द्रजी तो साक्षात् परमेश्वर ही थे। सारी शक्तियोंके अनन्त निधि थे। उनके राज्यमें ऐसा हो तो इसमें आश्चर्यकी कौन-सी बात है। धार्मिक लोगोंका ऐसा विश्वास ही नहीं, अनुभव भी है। वे लोग ऐसा मानते हैं कि लौकिक उपायोंसे उतना लाभ नहीं होता, जितना दैवी उपायोंसे सम्भव है। किसी वृक्षको हरा-भरा देखनेका एकमात्र उपाय है—उसकी जड़को सींचना। वृक्षके मूलमें सींचा हुआ जल उसके तनेको ही नहीं, बल्कि उसकी शाखा-प्रशाखाओं एवं छोटी-छोटी टहनियों, पत्तियों, फूलों तथा फलोंतकको आप्यायित कर देता है, उनमें रस भर देता है। इसके विपरीत यदि वृक्षके मूलमें जल न देकर केवल उसके पत्तों, फलों एवं टहनियों आदिको ही सींचा जाय तो उससे कोई लाभ नहीं होगा, वृक्ष हरा-भरा होनेके बदले जल्दी ही सूख जायगा और मर जायगा। जगत् के सुख-शान्तिके विस्तार एवं दैवी आपदाओंको टालनेके लिये भगवदाराधन और भगवान् के आज्ञानुसार देवाराधनादि कर्तव्यपालनको छोड़कर केवल बाहरी उपाय करना तो वृक्षकी जड़को न सींचकर केवल पत्तोंको सींचनेके समान ही है।
मानवका बाह्य भौतिक प्रयत्न आज कम नहीं है। लौकिक सुख तथा शरीरको आराम पहुँचानेके साधन जितने आज उपलब्ध हैं, उतने पहले कभी थे—यह कहा नहीं जा सकता। क्योंकि पारमार्थिक उन्नतिमें बाधक होनेके कारण उस समय भौतिक सुखका इतना आदर नहीं था। परन्तु यह मूलमें जल न देकर डाली-पत्तोंको सींचना है, इसलिये इनसे सफलता न होकर व्यर्थता ही मिलती है। सुख-शान्तिके लिये जितने बाह्य उपाय किये जाते हैं, उतना ही जगत् में दु:ख और अशान्ति बढ़ती जा रही है!
यह बात नहीं है कि लोगोंको देवाराधनके लिये अवकाश नहीं है। समय तो है, परन्तु अधिकांश मनुष्योंका दैवी साधनोंमें विश्वास ही उठ गया है। विश्वास होनेपर समय आसानीसे निकल सकता है। सिनेमा देखने, सभा-सोसाइटियोंमें जाकर व्याख्यान देने, क्लबोंमें जाकर अनुचित आमोद-प्रमोदमें तथा भोजोंमें सम्मिलित होनेके लिये आज लोग समय निकाल ही लेते हैं। प्राचीन कालमें ऐसी बात नहीं थी। बड़े-बड़े चक्रवर्ती नरेश भी देवाराधन तथा अन्य धार्मिक कृत्योंमें अपना समय लगाया करते थे। द्विजातिमात्रके लिये सन्ध्या, तर्पण, बलिवैश्वदेव, गायत्री-जप तथा अग्निहोत्र आदि अनिवार्य माने जाते थे। महाभारतमें वर्णन आता है कि महाराज युधिष्ठिर जुएमें अपना सर्वस्व हारकर जब वनमें गये, उस समय अग्निहोत्रकी अग्नियाँ उनके साथ थीं। इतना ही नहीं, घोर युद्धके समय जब लड़ते-लड़ते सूर्यास्तका समय हो जाता था और किसी पक्षकी विजय नहीं होती थी, उस समय दोनों पक्षोंकी सम्मतिसे युद्ध बंद कर दिया जाता था और उभयपक्षके योद्धा सायं-सन्ध्योपासनाके लिये बैठ जाते थे। महाराज दिलीपकी कथा प्रसिद्ध है कि वे गुरुकी आज्ञासे अपनी राजोचित मान-मर्यादाका परित्याग कर एक साधारण सेवककी भाँति वनमें जाकर अपने गुरुकी गायकी सेवा करते थे। स्वयं भगवान् श्रीकृष्णकी दिनचर्याका वर्णन श्रीमद्भागवतमें मिलता है। वहाँ लिखा है कि वे प्रतिदिन पहर रात रहते उठ जाते थे और उठकर आचमन करके आत्मचिन्तन करने बैठ जाते थे। फिर विधिपूर्वक निमज्जन (जलमें गोता लगाकर स्नान) करके नवीन वस्त्र धारण कर सन्ध्या-वन्दन तथा अग्निहोत्र करते थे और फिर मौन होकर गायत्री-मन्त्रका जप करते थे। इसके अनन्तर सूर्योपस्थान तथा अपनी ही कलारूप देवता, ऋषि एवं पितरोंका तर्पण करते थे, ब्राह्मणोंका पूजन करते थे और फिर वस्त्र, तिल तथा वस्त्राभूषणोंसे अलंकृत १३,०८४ गौओंका प्रतिदिन दान करते थे। इसके बाद वे गौ, ब्राह्मण, देवता, बड़े-बूढ़े तथा गुरुजनोंको प्रणाम करते थे। इस प्रकार उनका बहुत-सा समय नित्य धार्मिक कृत्योंमें बीतता था (श्रीमद्भागवत १० स्कन्ध, ७० अध्याय देखिये)। भगवान् श्रीकृष्णके-जैसा कर्ममय जीवन तो किसका हो सकता है। फिर भी वे नियमितरूपसे दो पहरका काल धार्मिक कृत्योंमें बिताते थे। किसलिये? इसका उत्तर उन्हींके शब्दोंमें सुनिये। गीतामें वे स्वयं कहते हैं—
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि॥
यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रित:।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥
उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमा: प्रजा:॥
(३। २२—२४)
‘हे अर्जुन! मुझे इन तीनों लोकोंमें न तो कुछ कर्तव्य है और न कोई भी प्राप्त करनेयोग्य वस्तु अप्राप्त है; तो भी मैं कर्ममें ही बरतता हूँ; क्योंकि हे पार्थ! यदि कदाचित् मैं सावधान होकर कर्मोंमें न बरतूँ तो बड़ी हानि हो जाय; क्योंकि मनुष्य सब प्रकारसे मेरे ही मार्गका अनुसरण करते हैं। इसलिये यदि मैं कर्म न करूँ तो ये सब मनुष्य नष्ट-भ्रष्ट हो जायँ और मैं संकरताका करनेवाला होऊँ तथा इस समस्त प्रजाको नष्ट करनेवाला बनूँ।’
असलमें उस समय वृक्षके पत्तोंको न सींचकर मूल सींचनेकी भाँति भौतिक साधनोंकी अपेक्षा दैवी साधनोंपर अधिक आस्था थी। धार्मिक जनताकी बात जाने दीजिये—हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु तथा रावण-कुम्भकर्ण-जैसे महान् असुरोंका भी तप एवं यज्ञ-यागादिमें विश्वास था, चाहे उनका लक्ष्य कितना ही दुष्ट रहा हो। हिरण्यकशिपुने अपने अभूतपूर्व तपके द्वारा ब्रह्माजीको प्रसन्न किया था और रावणने अपने हाथों अपने सिरोंकी बलि देकर शंकरजीका अमोघ वर प्राप्त किया था। यह बात दूसरी है कि देवाराधनके द्वारा प्राप्त शक्तिका दुरुपयोग करके अधर्माचरणके द्वारा वे भगवान् के कोपभाजन बने और अन्तमें अपनी दुर्दम्य शक्ति, सर्वस्व एवं प्यारे प्राणोंसे भी हाथ धो बैठे। परन्तु आरम्भ श्रेष्ठ होनेके कारण वे भी भगवान् के हाथों मरकर अन्तमें परम कल्याणको ही प्राप्त हुए। उनके चरित्रसे हमें यह भी शिक्षा मिलती है कि जिस प्रकार तपस्या एवं देवाराधनके द्वारा शक्ति-संचय होता है, उसी प्रकार धर्मविरुद्ध आचरणके द्वारा उस शक्तिको हम खो बैठते हैं।
लौकिक साधनोंके द्वारा शक्ति-संचय तो होता है, परन्तु वह अधिक दिन टिकता नहीं। जर्मनीने थोड़े ही दिनोंमें कितनी शक्ति अर्जन कर ली थी, पर आज वह देश पराधीन हो गया है। यूरोप आज कितना समृद्धिशाली माना जाता है और है भी, परन्तु वहाँ कितना हाहाकार मचा हुआ है—इसे वहाँके निवासी ही जानते हैं। अमेरिका इस समय सबसे अधिक बलशाली तथा समृद्ध राष्ट्र माना जाता है; परन्तु वहाँ भी सुख-शान्ति नहीं है। बहुत-से लोग अशान्तिमय जीवनसे दु:खी होकर आत्मघात करते सुने जाते हैं। पारस्परिक राग-द्वेष एवं प्रतिहिंसाके भाव भी कम नहीं हैं; और तो क्या, पति-पत्नियोंके भी आपसमें बहुत संख्यामें मुकदमे होते रहते हैं। जापानने थोड़े ही वर्षोंमें इतनी उन्नति कर ली थी कि वह संसारकी बड़ी-बड़ी शक्तियोंमें गिना जाने लगा था। पर आज उसकी क्या दशा है—इसे सब लोग जानते हैं। इस प्रकार परिणाममें प्राप्त होनेवाली इस असफलताका कारण है—प्रयत्नकी अधर्ममूलकता। अधर्ममूलक कर्मसे आरम्भमें चाहे सफलता दीखे, पर परिणाममें असफलता ही हाथ लगती है। अधर्ममूलक प्रयत्न व्यर्थ ही नहीं जाते, उनसे परलोकमें भी दुर्गति भोगनी पड़ती है। आसुरी सम्पदा और उससे होनेवाले अनिष्टकर परिणामोंका भगवान् ने गीताके सोलहवें अध्यायमें बड़ा ही सुन्दर एवं विशद वर्णन किया है। कहना न होगा कि आजका मानव स्पष्ट ही असुर-मानव होने जा रहा है और उसके कर्म प्राय: आज वैसे ही हैं, जैसे भगवान् ने आसुरी सम्पदावालोंके बताये हैं। फलत: इस लोकमें दु:ख और अशान्ति तथा परलोकमें घोर नारकीय यन्त्रणाएँ अनिवार्य हैं—चाहे कोई इसे माने या न माने।
यह ऊपर बताया जा चुका है कि धर्म और ईश्वर—ये दो ही सुख, सफलता एवं परम गतिके एकमात्र आधार हैं; परन्तु आजका अभिमानमत्त असुर-मानव इन्हींको अनावश्यक एवं त्याज्य मानने लगा है। कुछ ही वर्षों पूर्व रूसवासियोंने बहुमतसे ईश्वर और धर्मका बहिष्कार करनेका दु:साहस किया था। (सौभाग्यकी बात है कि पिछले युद्धकी विभीषिकाने उनकी आँखें खोल दीं और आज वे खुल्लमखुल्ला ईश्वर तथा धर्मका विरोध नहीं करते एवं वहाँके गिरजाघरोंमें फिरसे ईश्वरकी प्रार्थना होने लगी है!) पश्चिमके लोगोंकी देखा-देखी हम भारतवासी भी आज यह कहने लगे हैं कि धर्म से ही हमारा पतन हुआ है, ईश्वरके प्रति विश्वासने ही हमें अधोगतिपर पहुँचाया है। इसीका परिणाम यह है कि आज हम पापसे नहीं डरते। ईश्वर और धर्ममें विश्वास करनेवाला एकान्तमें भी पाप करनेसे झिझकेगा, क्योंकि वह जानता है कि ईश्वर सर्वव्यापी एवं सर्वतश्चक्षु हैं। किन्तु ईश्वर और धर्मको न माननेवाला पापसे नहीं डरेगा, केवल कानूनसे बचनेकी चेष्टा करेगा। यही कारण है कि आज लोग कानूनसे बचनेके नये-नये उपाय निकालकर नाना प्रकारके पाप करते हैं। ईश्वर और धर्मके प्रति अविश्वासके कारण ही आज प्राय: सभी क्षेत्रोंमें घूसखोरी बढ़ गयी है। चोरबाजारी और जनताके संकटोंसे लाभ उठानेकी जघन्य मनोवृत्ति भी इसीके परिणाम हैं। सरकार घूसखोरी और चोरबाजारीको रोकनेके लिये नये महकमे खोलने जा रही है, परन्तु इस बुराईको रोकनेके लिये नियुक्त किये जानेवाले अधिकारी भी तो हमारे-ही-जैसे मनुष्य होंगे। वे घूसखोरी और चोरबाजारीको रोकने जाकर स्वयं इनके शिकार नहीं बन जायँगे—यह कौन कह सकता है। आज तो यह स्थिति है कि जनताके रक्षक कहलानेवाले भी जनताको दोनों हाथोंसे लूटने लगे हैं। इसका कारण यही है कि हमारे मनोंमें धर्म और ईश्वरका भय नहीं रहा; इसकी ओर किसीका ध्यान नहीं है। इसीलिये क्षुद्र स्वार्थकी सिद्धिके लिये किसी भी पाप-कर्ममें संकोच नहीं है। पकड़े न जायँ, फिर चाहे सो करें; कोई आपत्ति नहीं। इसीलिये कानूनको बचाकर पाप करना आजकल बुद्धिमानीका चिह्न हो गया है। सर्वव्यापी भगवान् सब कुछ देखते हैं, हृदयके अंदरकी बात भी जानते हैं—यह धारणा प्राय: मिट गयी है।
एक कथा आती है कि एक बार किसी महात्माके पास दो शिष्य ज्ञान प्राप्त करनेके उद्देश्यसे गये। गुरुजीने दोनोंको एक-एक चिड़िया देकर कहा कि ‘इसे किसी ऐसे स्थानमें ले जाकर मार डालो, जहाँ कोई न देखता हो।’ पहला शिष्य गुरुजीकी आज्ञा मानकर तुरंत उसे किसी निर्जन स्थानमें ले जाकर मार लाया। दूसरे शिष्यने बहुत चेष्टा की; परन्तु उसे कोई ऐसा स्थान ही नहीं मिला, जहाँ कोई न देखता हो। वह जहाँ भी गया, वहाँ कोई-न-कोई देखनेवाला था ही। कहीं कोई पशु बैठा था, तो कहीं कोई पक्षी। जहाँ कोई भी जीव नहीं मिला, वहाँ उसने देखा कि और नहीं तो वायु देवता तो वहाँ हैं ही; एकान्त वनमें भी इसने सोचा कि यहाँ वनदेवी तो अवश्य होंगी। वह कहीं भी जाता पृथ्वीमाता तो मौजूद ही रहती, सूर्य भगवान् तो हैं ही; कोई भी नहीं, वहाँ भी स्वयं वह और उसके अपने अंदरका अन्तर्यामी द्रष्टातो था ही। अन्तमें वह निराश होकर लौट आया और जहाँ पहला शिष्य अपनी करतूतपर गर्वित था, वहाँ यह गुरुजीकी आज्ञाका पालन न कर सकनेके कारण विषण्णवदन होकर खेद प्रकट करने लगा। परीक्षा हो गयी। गुरुजीने समझ लिया कि दूसरा शिष्य ही ज्ञानका वास्तविक अधिकारी है, क्योंकि, वह भगवान् को सर्वत्र देखता था। गुरुजी समर्थ थे। उन्होंने पहले शिष्यद्वारा मारी हुई चिड़ियाको जिला दिया।
तात्पर्य यह है कि आजका मनुष्य पहले शिष्यकी भाँति प्रत्यक्षवादी हो गया है। अधर्मका फल प्रत्यक्ष तो दीखता नहीं। इसीलिये लोग झूठ बोलनेमें, झूठी गवाही देनेमें, झूठे आँकड़े बनानेमें नहीं हिचकते। कहीं पकड़े भी जाते हैं तो यही सोचते हैं कि ‘मैंने अमुक जाल बनानेमें भूल कर दी, आगे और भी सावधान रहूँगा।’ उस समय भी यह नहीं सोचते कि ‘मैंने झूठ बोलकर पाप किया है, इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।’ आज तो हमारा यहाँतक पतन हो गया है कि ईश्वर और धर्मको माननेवालोंको आजका शिक्षित समाज पाखण्डी और मूर्ख मानने लगा है। यही नहीं, सभ्य समाजमें लोग आज अपनेको ईश्वरवादी कहनेमें भी हिचकने लगे हैं। यह सत्य है कि आज अपनेको ईश्वरवादी और धार्मिक कहलानेवालोंमें पाखण्डी भी बहुत-से हैं और वे नास्तिकोंसे भी अधिक भयंकर और नास्तिकताके उत्पादक हैं; परन्तु ऐसे लोगोंसे ईश्वर और धर्मका अपलाप (बाध) नहीं हो सकता है। सत्य तो सत्य ही रहेगा। उसका त्रिकालमें भी बाध नहीं हो सकता। अवश्य ही उसे न माननेवाला उसके लाभसे वंचित रहेगा और नष्ट हो जायगा।
जो कुछ सहृदय महानुभाव जनताका दु:ख दूर करना, सर्वत्र सुख-शान्तिका प्रसार करना, अनाचार-अत्याचारको मिटाकर सबको समान भावसे लौकिक पदार्थोंकी प्राप्ति कराना और सबको आराम पहुँचाना चाहते हैं, उनमें भी अधिकांश ऐसे हैं जो, इस उद्देश्यकी सिद्धिके लिये स्वयं केवल लौकिक उपायोंको ही काममें लाते हैं और उन्हींके लिये दूसरोंको भी उपदेश करते हैं। धर्म और ईश्वरमें जो सुख-शान्तिके मूल हैं, विश्वास बढ़नेका साधन न तो वे करते हैं और न उसे करनेके लिये दूसरोंको ही उपदेश करते हैं। यही कारण है कि आज जगत् में सर्वत्र हाहाकार मचा हुआ है और मानवजाति दु:खाग्निकी ज्वालासे जल रही है!
धर्म और ईश्वर नित्य हैं, अटल हैं, महान् हैं। ऐसा समझकर हमें अपने कल्याणके लिये उनका आश्रय लेकर उनका प्रचार करना चाहिये। ‘धर्मो रक्षति रक्षित:।’ जो बुद्धिमान् एवं विचारशील हैं, उनका कर्तव्य है कि वे धर्मानुकूल आचरणके द्वारा धार्मिक भावोंका प्रचार करें। स्वयं धर्मानुकूल आचरण किये बिना कोई धर्मका प्रचार नहीं कर सकता। वास्तवमें तो ईश्वर और धर्मका प्रचार कोई कर ही क्या सकता है। ईश्वर सर्वसमर्थ हैं। उनकी शक्तिसे ही सब कुछ हो रहा है। कल्याणकामी सभी मनुष्योंको एक-न-एक दिन उन्हें मानना ही पड़ेगा। बिना माने जीवनका निस्तार नहीं है; फिर भी प्रत्येक धार्मिक एवं ईश्वरवादी मनुष्यका यह कर्तव्य है कि वह ईश्वरका आश्रय लेकर अपने आचरणद्वारा जगत् में ईश्वर और धर्मका प्रचार करे। स्वयं ईश्वर और धर्मकी ओर आगे बढ़े तथा सबको बढ़ानेका प्रयत्न करे। यही जगत् की सबसे बड़ी सेवा है और इसीसे जगत् का वास्तविक कल्याण होगा।