Seeker of Truth

ज्ञानीकी अनिर्वचनीय स्थिति

जिस प्रकार असत्य, हिंसा और मैथुनादि कर्म बुद्धिमें बुरे निश्चित हो जानेपर भी उन्हें मन नहीं छोड़ता, इसी प्रकार बुद्धि विचारद्वारा संसारको कल्पित निश्चय कर लेती है परंतु मन इस बातको नहीं मानता। साधककी एक ऐसी अवस्था होती है और इस अवस्थाको इस प्रकारसे व्यक्त किया जाता है कि ‘मेरी बुद्धिके विचारमें संसार कल्पित है’ इसके पश्चात् जब आगे चलकर मन भी इस बातको मान लेता है तब संसारमें कल्पित भाव हो जाता है। परंतु यह भी केवल कल्पना ही होती है। इसके बाद जब अभ्यास करते-करते ऐसी स्थिति प्रत्यक्षवत् हो जाती है तब साधकको किसी समय तो संसारका चित्र ‘आकाशमें तिरवरों’ की तरह भास होता है और किसी समय वह भी नहीं होता। जैसे आकाशमें तिरवरे देखनेवालेको यह ज्ञान बना रहता है कि ‘वास्तवमें आकाशमें कोई विकार नहीं है, बिना हुए ही भास होता है’ इसी प्रकार उस साधकका भी भास होने और न होनेमें समान ही भाव रहता है, उसे संसारकी सत्ताका किसी कालमें किसी और प्रकारसे भी सत्य भास नहीं होता। इस अवस्थाका नाम ‘अकल्पित स्थिति’ है। साधककी ऐसी अवस्था ज्ञानकी तीसरी भूमिकामें हुआ करती है परंतु इस अवस्थामें भी इस स्थितिका ज्ञाता एक धर्मी रह जाता है। इस तीसरी भूमिकामें साधनकी गाढ़ताके कारण साधकके व्यावहारिक कार्योंमें भूलें होनी सम्भव हैं। परन्तु भगवत्प्राप्तिरूप चौथी भूमिकामें प्राय: भूलें नहीं होतीं, उस अवस्थामें तो उसके द्वारा न्याययुक्त समस्त कार्य सुचारुरूपसे स्वाभाविक ही बिना संकल्पके हुआ करते हैं। जैसे श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—

यस्य सर्वे समारम्भा: कामसंकल्पवर्जिता:।
ज्ञानाग्निदग्धकर्माणं तमाहु: पण्डितं बुधा:॥
(४।१९)

‘जिसके सम्पूर्ण कार्य कामना और संकल्पसे रहित हैं, ज्ञानरूप अग्निद्वारा भस्म हुए कर्मोंवाले उस पुरुषको ज्ञानीजन भी पण्डित कहते हैं।’ पंचम भूमिकामें व्यावहारिक कार्योंमें भूलें हो सकती हैं परंतु तीसरी भूमिकावालेकी अवस्था साधनरूपा है और पाँचवीं भूमिकावालेकी स्थिति स्वाभाविक है। तीसरी भूमिकाके बाद ‘साक्षात्कार’ होता है, इसीको मुक्ति कहते हैं। कई जैन आदि मतावलम्बी लोग तो मृत्युके बाद मुक्ति मानते हैं, परंतु हमारे वेदान्तके सिद्धान्तमें जीवन्मुक्ति भी मानी गयी है, मृत्युके पहले भी ज्ञान हो सकता है। इस अवस्थामें उसका शरीर तथा शरीरके द्वारा होनेवाले कर्म केवल लोगोंको देखनेमात्रके लिये रह जाते हैं। उसमें कोई ‘धर्मी’ नहीं रहता। यदि कोई कहे कि जब उसमें चेतन ही नहीं रहा तो फिर क्रिया क्योंकर होती है? इसके उत्तरमें कहा जाता है कि समष्टि-चेतन तो कहीं नहीं गया, व्यष्टि-भावसे हटकर उसकी स्थिति शुद्ध चेतनमें हो गयी। समष्टि-चेतनकी सत्ता-स्फूर्तिसे क्रिया हुआ करती है, इसमें कोई बाधा नहीं पड़ती। इसपर यदि कोई फिर यह कहे कि चेतन तो जड पदार्थ और मुर्देमें भी है, उनमें क्रिया क्यों नहीं होती? इसका उत्तर यह है कि उनमें क्रिया न होनेका कारण अन्त:करणका अभाव है, यदि योगीजन एक चित्तकी अनेक कल्पना करके मुर्दे या जड पदार्थमें चित्तका प्रवेश करवा दें तो उसमें भी क्रियाओंका होना सम्भव है।

कोई पूछे कि ज्ञानी कौन है? तो इसके उत्तरमें कुछ भी नहीं कहा जा सकता। यदि शरीरको ज्ञानी कहा जाय तो जड शरीरका ज्ञानी होना सम्भव नहीं, यदि जीवको ज्ञानी कहें तो ज्ञानोत्तरकालमें उस चेतनकी ‘जीव’ संज्ञा नहीं रहती और यदि शुद्ध चेतनको ज्ञानी कहें तो शुद्ध चेतन तो कभी अज्ञानी हुआ ही नहीं। इसलिये यह नहीं बतलाया जा सकता कि ज्ञानी कौन है?

ज्ञानीकी कल्पना अज्ञानीके अन्त:करणमें है, शुद्ध चेतनकी दृष्टिमें तो कोई दूसरा पदार्थ है ही नहीं। ज्ञानीको जब दृष्टि ही नहीं रही तो फिर सृष्टि कहाँ रहती? अज्ञानीजन इस प्रकार कल्पना किया करते हैं कि इस शरीरमें जो जीव था सो समष्टि-चेतनमें मिल गया, समष्टि-चेतनके जिस अंशमें अन्त:करणका अध्यारोप है उस अन्त:करणसहित उस चेतनके अंशका नाम ज्ञानी है। वास्तविक दृष्टिमें ज्ञानी किसकी संज्ञा है यह कोई भी वाणीद्वारा नहीं बतला सकता; क्योंकि ज्ञानीकी दृष्टिमें तो ज्ञानीपन भी नहीं है। ज्ञानी और अज्ञानीकी संज्ञा केवल लोकशिक्षाके लिये है और अज्ञानियोंके अंदर ही इसकी कल्पना है। जिस प्रकार गुणातीतके ‘लक्षण’ बतलाये जाते हैं। भला जो तीनों गुणोंसे अतीत है उसमें ‘लक्षण’ कैसे? लक्षण तो अन्त:करणमें बनते हैं और अन्त:करणसे होनेवाली क्रिया त्रिगुणात्मिका है। बात यह है कि गुणातीतको समझनेके लिये अन्त:करणकी क्रियाओंके लक्षणोंका वर्णन किया जाता है। जैसे श्रीमद्भगवद्गीतामें कहा है—

प्रकाशं च प्रवृत्तिं च मोहमेव च पाण्डव।
न द्वेष्टि संप्रवृत्तानि न निवृत्तानि काङ्क्षति॥
(१४।२२)

इसीके आगे २३, २४ और २५वें श्लोकोंमें भी गुणातीतके लक्षण बतलाये गये हैं। उपर्युक्त २२वें श्लोकके ‘प्रकाश’ शब्दसे अन्त:करण और इन्द्रियोंमें उजियाला, प्रवृत्तिसे चेष्टा और मोहसे निद्रा, आलस्य (प्रमाद या अज्ञान नहीं) अथवा संसारके ज्ञानमें सुषुप्तिवत् अवस्था समझनी चाहिये। अन्त:करणमें कोई ‘धर्मी’ न रहनेके कारण ‘द्वेष’ और आकांक्षा तो किसको हो? राग-द्वेष और हर्ष-शोकादि न होनेके कारण यह सिद्ध होता है कि उसमें कोई ‘धर्मी’ नहीं है। यदि जड अन्त:करणके साथ समष्टि-चेतनकी लिप्तता होती तो जड अन्त:करणमें राग-द्वेषादि विकारोंका होना सम्भव होता। परंतु समष्टि-चेतनका सम्बन्ध अन्त:करणसे नहीं रहता, केवल उसकी सत्ता-स्फूर्तिसे चेष्टा होती है। ये सब लक्षण भी वहींतक हैं जहाँतक संसारका चित्र है और ये साधकके लिये आदर्श उपायस्वरूप हैं, इसीलिये शास्त्रोंमें इनका उल्लेख है।

गुणातीतकी वास्तविक अवस्थाको कोई दूसरा न तो जान सकता है और न बतला ही सकता है, वह स्वसंवेद्य स्थिति है। परन्तु यदि कोई इस प्रकार परीक्षा करे कि मुझमें ज्ञानीके लक्षण हैं या नहीं? तो जानना चाहिये कि इसे ज्ञान नहीं है, लक्षणोंकी खोजसे यह बात सिद्ध हो गयी कि उसकी स्थिति शरीरमें है, उस ज्ञानीकी सत्ता ब्रह्मसे भिन्न है, नहीं तो खोजनेवाला कौन और स्थिति किसकी? और यदि खोजना ही चाहे तो केवल शरीरमें ही क्यों खोजे, पाषाण या वृक्षोंमें उसे क्यों न खोजे? केवल शरीरमें ढूँढ़नेसे उसका शरीरमें अहंभाव सिद्ध होता है। इससे तो वह अपने-आप ही क्षुद्र बना हुआ है। हाँ, यदि साधक शरीरसे अलग होकर (द्रष्टा बनकर) पत्थर और वृक्षादिके साथ अपने शरीरकी सादृश्यता करता हुआ विचार करे तो इससे उसे लाभ होना सम्भव है। जैसे श्रीगीताजीमें कहा है—

नान्यं गुणेभ्य: कर्तारं यदा द्रष्टानुपश्यति।
गुणेभ्यश्च परं वेत्ति मद्भावं सोऽधिगच्छति॥
(१४।१९)

‘जिस कालमें द्रष्टा तीनों गुणोंके सिवा अन्य किसीको कर्ता नहीं देखता है अर्थात् गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं ऐसा देखता है और तीनों गुणोंसे अति परे सच्चिदानन्दघन मुझ परमात्माको तत्त्वसे जानता है, उस कालमें वह पुरुष मेरे स्वरूपको प्राप्त होता है।’

परन्तु जो कहता है कि ‘मुझे ज्ञान नहीं हुआ’ वह भी ज्ञानी नहीं है; क्योंकि वह स्पष्ट कहता है। जो कहता है कि ‘मुझे ज्ञान हो गया’ उसे भी ज्ञानी नहीं मानना चाहिये; क्योंकि यों कहनेसे ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञेय तीन पदार्थ सिद्ध होते हैं और जो यह कहता है कि ‘ज्ञान हुआ कि नहीं मुझे मालूम नहीं’ सो भी ज्ञानी नहीं है; क्योंकि ज्ञानोत्तरकालमें इस प्रकारका सन्देह रह नहीं सकता। तो ज्ञानी क्या कहे? इसका उत्तर नहीं मिलता। इसीलिये यह स्थिति ‘अनिर्वचनीय’ कही गयी है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur