Seeker of Truth

गृहस्थ में व्यवहार

प्रश्न - परिवारके बड़े-बूढ़ोंके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ?

उत्तर - बड़ोंको सुख-आराम देना, उनकी सेवा करना, उनको बड़प्पन देना, उनका आदर करना, उनकी आज्ञाका पालन करना, उनके शासनमें रहना-यह छोटोंका कर्तव्य है। परन्तु यह खुद बड़ोंका कर्तव्य नहीं है अर्थात् हम बड़े हैं, पूजनीय हैं, आदरणीय हैं- ऐसा मानना बड़ोंका काम नहीं है। कारण कि ऐसा भाव रहनेसे दूसरोंके हृदयमें उनके प्रति आदरभाव कम होता है और आगे चलकर उनका निरादर होने लगता है। अतः बड़ोंका भाव तो सबका पालन-पोषण करनेका, कष्ट सहनेका, छोटोंको सुख- सुविधा देनेका ही होना चाहिये। छोटों और बड़ोंका इस प्रकार भाव होनेसे सम्पूर्ण परिवार एवं समाज सुखी होता है।

प्रश्न - विधवा स्त्रीके साथ सास-ससुर, माता-पिता आदिका कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - बहू अथवा बेटी विधवा हो जाय तो सास-ससुर, माता-पिता आदिको उसका हृदयसे आदर करना चाहिये और बाहरसे रक्षा एवं शासन करना चाहिये, जिससे वह बिगड़ न जाय। तात्पर्य है कि उसका हित चाहते हुए उसके साथ ऐसा बर्ताव करना चाहिये, जिससे वह दुःखी भी न हो और उसके आचरण भी न बिगड़ें।

बहू अथवा बेटीके विधवा होनेपर सास और माँको चाहिये कि वे अपना जीवन सादगीसे बितायें; गहने-कपड़े, भोजन आदिको भोगबुद्धिसे सेवन न करें, प्रत्युत निर्वाहमात्र करें। ऐसा करनेसे बहू और बेटीका सुधार होगा। कारण कि सास और माँ भोग भोगेंगी तो उसका असर बहू और बेटीपर अच्छा नहीं पड़ेगा। यदि सास और माँ संयम रखेंगी तो उसका असर बहू और बेटीपर भी अच्छा पड़ेगा, जिससे उनका जीवन सुधरेगा। सास और माँको यही विचार करना चाहिये कि अभी इस अवस्थामें हम संयम नहीं करेंगी तो फिर कब संयम करेंगी? संसारमें संयमी और त्यागीकी ही महिमा है, भोगी और संग्रहीकी नहीं।

प्रश्न - विधवा स्त्रीके साथ भाई और भौजाइयोंका कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - भाई और भौजाइयोंको विधवाका हृदयसे आदर करना चाहिये, उसका तिरस्कार नहीं करना चाहिये। उसके चरित्र और भावोंकी रक्षा करते हुए उसके साथ आदरका बर्ताव करना चाहिये। उसके हितकी दृष्टिसे उसपर शासन और प्यार - दोनों ही करना चाहिये।

प्रश्न - माता-पिताको कन्याके घरका अन्न खाना चाहिये या नहीं ?

उत्तर - माता-पिताने कन्याका दान कर दिया तो वह उस घरकी मालकिन बन गयी, अब माता-पिताको उसके घरका अन्न लेनेका अधिकार नहीं है। दान की हुई वस्तुपर दाताका अधिकार नहीं रहता। हमने एक कथा सुनी है। बरसानेका एक चमार सुबह किसी कामके लिये नन्दगाँव गया। वहीं दोपहर हो गयी। कुछ खाया-पीया नहीं था। प्यास लगी थी, पर बेटीके गाँवका जल कैसे पीया जाय ? * क्योंकि हमारे वृषभानुजीने यहाँ कन्या दी है-ऐसा सोचकर उसने वहाँका जल नहीं पीया और बरसानेके लिये चल दिया। चलते-चलते वह प्यासके कारण रास्तेमें गिर पड़ा। उस समय राधाजी उस चमारकी कन्याका रूप धारण करके उसके पास आयीं और बोलीं कि पिताजी ! मैं आपके लिये जल लायी हूँ, पी लो। चमारने कहा कि बेटी! मैं अभी नन्दगाँवकी सीमामें हूँ; अतः मैं यहाँका पानी नहीं पी सकता। राधाजीने कहा कि पिताजी ! मैं तो बरसानेका जल लायी हूँ। उसने वह जल पी लिया और कहा कि बेटी! अब तुम जाओ, मैं आता हूँ। राधाजी चली गयीं। चमार अपने घर पहुँचा तो उसने अपनी बेटीको गोदमें लेकर कहा कि बेटी ! तुमने जल पिलाकर मेरे प्राण बचा लिये! अगर तुम जल लेकर नहीं आती तो मेरे प्राण चले जाते। कन्याने कहा कि पिताजी ! मैं तो जल लेकर आयी ही नहीं थी! तब चमार समझ गया कि राधाजी ही मेरी कन्याका रूप धारण करके जल पिलाने आयी थीं। तात्पर्य है कि पहले लोग अपनी बेटीके गाँवका भी अन्न-जल नहीं लेते थे।

जबतक कन्याकी सन्तान न हो जाय, तबतक उसके घरका अन्न-जल नहीं लेना चाहिये। परंतु कन्याकी सन्तान होनेपर माता-पिता कन्याके यहाँका अन्न-जल ले सकते हैं। कारण कि दामादने केवल पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये ही दूसरेकी कन्या स्वीकार की है। उससे सन्तान होनेपर दामाद पितृऋणसे मुक्त हो जाता है; अतः कन्यापर माँ-बापका अधिकार हो जाता है, तभी तो दौहित्र अपने नाना-नानीका श्राद्ध-तर्पण करता है, उनको पिण्ड-पानी देता है और परलोकमें नाना-नानी अपने दौहित्रके द्वारा किया हुआ श्राद्ध-तर्पण, पिण्ड-पानी स्वीकार भी करते हैं। यदि कन्याकी सन्तान पुत्री हो, पुत्र न हो, तो भी उसके घरका अन्न-जल ले सकते हैं; क्योंकि सन्तान होनेसे कन्यादान सफल हो जाता है।

* बरसानेके लोग राधाजीको अपनी कन्या मानते हैं।

प्रश्न - माता-पिता और पुत्र-पुत्रीका आपसमें कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - माता-पिताका यही भाव होना चाहिये कि पुत्र-पुत्रीने हमारे घर जन्म लिया है; अतः हमें इनके लोक-परलोकका सुधार करना है। हमें केवल अपना सुख-आराम नहीं देखना है, प्रत्युत 'इनका सुधार कैसे हो' इस भावसे पुत्र-पुत्रीपर शासन करना है, उनको अच्छी शिक्षा देनी है और समयपर ताड़ना भी करनी पड़े तो वह भी उनके हितके लिये ही करनी है।

पुत्र-पुत्रीका यही भाव होना चाहिये कि जिस शरीरसे हम परमात्माकी प्राप्ति कर सकते हैं, महान् आनन्दकी प्राप्ति कर सकते हैं, वह शरीर हमें माँ-बापसे मिला है; अतः हमारे द्वारा इनको कभी दुःख न हो। हमारे कारण इनका अपयश न हो। हमारे ऐसे आचरण हों, जिनसे लोगोंमें इनका आदर-सम्मान बढ़े। हम तीर्थ, व्रत आदि जो कुछ शुभ कर्म करें, उनका फल (पुण्य) माता-पिताको ही मिले। ऐसे भावसे आपसमें प्रेम बढ़ेगा, वर्तमानमें परिवार सुखी होगा और भविष्यमें सबका कल्याण होगा।

प्रश्न - पति और पत्नीका आपसमें कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - पतिका यही भाव रहना चाहिये कि यह अपने माता-पिता, भाई आदि सबको छोड़कर मेरे पास आयी है तो इसने कितना बड़ा त्याग किया है! अतः इसको किसी तरहका कष्ट न हो, शरीर-निर्वाहके लिये इसको रोटी, कपड़े, स्थान आदिकी कमी न हो, मेरी अपेक्षा इसको ज्यादा सुख मिले। ऐसा भाव रखनेके साथ-साथ उसके पातिव्रत धर्मका भी खयाल रखना चाहिये, जिससे वह उच्छृंखल न बने और उसका कल्याण हो जाय।

पत्नीका यही भाव रहना चाहिये कि मैं अपने गोत्र और सब कुटुम्बियों आदिका त्याग करके इनके पास आयी हूँ तो समुद्र लाँधकर अब किनारे आकर मैं डूब न जाऊँ अर्थात् मैं इतना त्याग करके आयी हूँ तो अब मेरे कारण इनको दुःख न हो, इनका अपमान, निन्दा, तिरस्कार न हो। अगर मेरे कारण इनकी निन्दा आदि होगी तो बड़ी अनुचित बात हो जायगी। मैं चाहे कितना ही कष्ट पा लूँ, पर इनको किंचिन्मात्र भी कष्ट न हो। इस तरह वह अपने सुख-आरामका त्याग करके पतिके सुख-आरामका खयाल रखे; उनका लोक-परलोक कैसे सुधरे - इसका खयाल रखे।

प्रश्न - सास और बहूका आपसमें कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - सासका तो यही भाव होना चाहिये कि यह अपनी माँको छोड़कर हमारे घरपर आयी है और मेरे ही बेटेका अंग है, अतः मेरा कोई व्यवहार ऐसा नहीं होना चाहिये, जिसके कारण इसको अपनी माँ याद आये।

बहूका यही भाव होना चाहिये कि मेरा जो सुहाग है, उसकी यह खास जननी है। जो मेरा सर्वस्व है, वह इसी वृक्षका फल है। अतः इनका आदर होना चाहिये, प्रतिष्ठा होनी चाहिये। कष्ट मैं भोगूँ और सुख इनको मिले। ये मेरे साथ चाहे जैसा कड़वा बर्ताव करें, वह मेरे हितके लिये ही है। यह प्रत्यक्ष देखनेमें आता है कि मेरे बीमार होनेपर मेरी सास जितनी सेवा करती है, उतनी सेवा दूसरा कोई नहीं कर सकता। वास्तवमें मेरे साथ हितैषितापूर्वक जैसा सासका व्यवहार है, वैसा व्यवहार और किसीका दीखता नहीं और सम्भव भी नहीं! इन्होंने मेरेको बहूरानी कहा है और अपना उत्तराधिकार मेरेको ही दिया है। ऐसा अधिकार दूसरा कौन दे सकता है! इनका बदला मैं कई जन्मोंमें भी नहीं उतार सकती। अतः मेरे द्वारा इनको किंचिन्मात्र भी किसी प्रकारका कष्ट न हो। इसी तरह अपने भाई-बहनोंसे भी जेठ-जेठानी, देवर-देवरानीका आदर ज्यादा करना है। जेठ- जेठानी माता-पिताकी तरह और देवर-देवरानी पुत्र-पुत्रीकी तरह हैं। अतः यही भाव रखना चाहिये कि इनको सुख कैसे हो! मैं केवल सेवा करनेके लिये ही इनके घरमें आयी हूँ; अतः मेरी छोटी-से-छोटी और बड़ी-से-बड़ी क्रिया केवल इनके हितके लिये, सुख-आरामके लिये ही होनी चाहिये। मेरे साथ इनका कैसा व्यवहार है-इस तरफ मुझे खयाल करना ही नहीं है; क्योंकि इनके कड़वे व्यवहारमें भी मेरा हित ही है।

प्रश्न - भौजाई और देवरका आपसमें कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - भौजाई सीताजीकी तरह और देवर भरतकी तरह व्यवहार करे। सीताजी भरतको पुत्रकी तरह समझती थीं। कैकयीने बिना कारण रामजीको वनमें भेज दिया, पर सीताजीने कभी भी भरतपर दोषारोपण नहीं किया, भरतका निरादर नहीं किया, प्रत्युत चित्रकूटमें जब भरतजीने सीताजीकी चरण-रजको अपने सिरपर चढ़ाया, तब सीताजीने उन्हें आशीर्वाद दिया! ऐसे ही भौजाईको चाहिये कि देवर कितना ही निरादर, अपमान करे, पर वह अपना मातृभाव, हितैषीभाव कभी न छोड़े और देवरको चाहिये कि भौजाईका माँकी तरह आदर करे। यद्यपि सीताजी अवस्थामें उतनी बड़ी नहीं थीं, फिर भी भरत, लक्ष्मण आदिका सीताजीमें मातृभाव था।

प्रश्न - बहनोई और सालेका आपसमें कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - बहनोईका यह भाव होना चाहिये कि जैसे मेरेको मेरी स्त्री प्यारी लगती है, ऐसे ही मेरी स्त्रीका प्यारा भाई होनेसे साला प्यारका पात्र है। इनके घरसे समय-समयपर कुछ-न-कुछ मिलता ही रहता है; अतः लौकिक दृष्टिसे देखा जाय तो भी फायदा-ही- फायदा है। पारमार्थिक भावमें तो त्यागकी मुख्यता है ही।

सालेका यह भाव होना चाहिये कि ये मेरी बहनके ही आदरणीय अंग हैं; अतः ये मेरे भी आदरके पात्र हैं। जैसे बहन और बेटीको देनेका माहात्म्य है, ऐसे ही बहनका अंग होनेसे बहनोईको भी देनेका माहात्म्य है। ये प्यारके, दानके पात्र हैं; अतः हृदयसे आदर करते हुए इनको देते रहना चाहिये।

प्रश्न - भाई और बहनका आपसमें कैसा व्यवहार होना चाहिये ?

उत्तर - प्रायः भाईकी तरफसे ही गलती होती है। बहनकी तरफसे कम गलती होती है। अतः भाईका यह भाव रहना चाहिये कि यह सुआसिनी है, दयाकी मूर्ति है, इसका ज्यादा आदर, प्यार करना है। ब्राह्मणको भोजन करानेका जैसा पुण्य होता है, वैसा ही पुण्य बहन-बेटीको देनेका होता है।

सरकारने पिताकी सम्पत्तिमें बहनके हिस्सेका जो कानून बनाया है, उससे भाई-बहनमें लड़ाई हो सकती है, मनमुटाव होना तो बहुत मामूली बात है। वह जब अपना हिस्सा माँगेगी, तब बहन-भाईमें प्रेम नहीं रहेगा। हिस्सा पानेके लिये जब भाई-भाईमें भी खटपट हो जाती है, तो फिर भाई-बहनमें खटपट हो जाय, इसमें कहना ही क्या है! अतः इसमें बहनोंको हमारी पुरानी रिवाज (पिताकी सम्पत्तिका हिस्सा न लेना) ही पकड़नी चाहिये, जो कि धार्मिक और शुद्ध है। धन आदि पदार्थ कोई महत्त्वकी वस्तुएँ नहीं हैं। ये तो केवल व्यवहारके लिये ही हैं। व्यवहार भी प्रेमको महत्त्व देनेसे ही अच्छा होगा, धनको महत्त्व देनेसे नहीं। धन आदि पदार्थोंका महत्त्व वर्तमानमें कलह करानेवाला और परिणाममें नरकोंमें ले जानेवाला है। इसमें मनुष्यता नहीं है। जैसे, कुत्ते आपसमें बड़े प्रेमसे खेलते हैं, पर उनका खेल तभीतक है, जबतक उनके सामने रोटी नहीं आती। रोटी सामने आते ही उनके बीच लड़ाई शुरू हो जाती है! अगर मनुष्य भी ऐसा ही करे तो फिर उसमें मनुष्यता क्या रही ?

धर्मको, अपने कर्तव्यको, भगवान् और ऋषियोंकी आज्ञाको और त्यागको महत्त्व देनेसे लोक-परलोक स्वतः सिद्ध हो जाते हैं। परन्तु मान, बड़ाई, स्वार्थ आदिको महत्त्व देनेसे लोक- परलोक दोनों बिगड़ जाते हैं।

प्रश्न - गृहस्थको अतिथिके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये ?

उत्तर - अतिथिका अर्थ है-जिसके आनेकी कोई तिथि, निश्चित समय न हो। अतिथि सेवाकी मुख्यता गृहस्थ-आश्रममें ही है। दो नम्बरमें इसकी मुख्यता वानप्रस्थ-आश्रममें है। ब्रह्मचारी और संन्यासीके लिये इसकी मुख्यता नहीं है।

जब ब्रह्मचारी स्नातक बनता है अर्थात् ब्रह्मचर्य-आश्रमके नियमोंका पालन करके दूसरे आश्रममें जानेकी तैयारी करता है, तब उसको यह दीक्षान्त उपदेश दिया जाता है- 'मातृदेवो भव। पितृदेवो भव । आचार्यदेवो भव । अतिथिदेवो भव ।' (तैत्तिरीयोपनिषद्, शिक्षा० ११ । २) अर्थात् माता, पिता, आचार्य और अतिथिको ईश्वर समझकर उनकी सेवा करो। गृहस्थ-आश्रममें जानेवालोंके लिये ये खास नियम हैं। अतः गृहस्थको अतिथिका यथायोग्य आदर-सत्कार करना चाहिये।

अतिथि-सेवामें आसन देना, भोजन कराना, जल पिलाना आदि बहुत-सी बातें हैं, पर मुख्य बात अन्न देना ही है। जब रसोई बन जाय, तब पहले विधिसहित बलिवैश्वदेव करे। बलिवैश्वदेव करनेका अर्थ है-विश्वमात्रको भोजन अर्पित करना। फिर भगवान्को भोग लगाये। फिर कोई अतिथि, भिक्षुक आ जाय तो उसको भोजन कराये। भिक्षुक छः प्रकारके कहे गये हैं-

ब्रह्मचारी यतिश्चैव विद्यार्थी गुरुपोषकः ।

अध्वगः क्षीणवृत्तिश्च षडेते भिक्षुकाः स्मृताः ॥

'ब्रह्मचारी, साधु-संन्यासी, विद्याध्ययन करनेवाला, गुरुकी सेवा करनेवाला, मार्गमें चलनेवाला और क्षीणवृत्तिवाला (जिसके घरमें आग लगी हो; चोर-डाकू सब कुछ ले गये हों, कोई जीविका न रही हो आदि) - ये छः भिक्षुक कहे जाते हैं'; अतः इन छहोंको अन्न देना चाहिये।

यदि बलिवैश्वदेव करनेसे पहले ही अतिथि, भिक्षुक आ जायँ तो ? समय हो तो बलिवैश्वदेव कर ले, नहीं तो पहले ही भिक्षुकको अन्न दे देना चाहिये। ब्रह्मचारी और संन्यासी तो बनी हुई रसोईके मालिक हैं। इनको अन्न न देकर पहले भोजन कर ले तो पाप लगता है, जिसकी शुद्धि चान्द्रायणव्रत** करनेसे होती है। अतिथि घरपर आकर खाली हाथ लौट जाय तो वह घरके मालिकका पुण्य ले जाता है और अपने पाप दे जाता है। अतः अतिथिको अन्न जरूर देना चाहिये।

गृहस्थको भीतरसे तो अतिथिको परमात्माका स्वरूप मानना चाहिये और उसका आदर करना चाहिये, उसको अन्न-जल देना चाहिये, पर बाहरसे सावधान रहना चाहिये अर्थात् उसको घरका भेद नहीं देना चाहिये, घरको दिखाना नहीं चाहिये आदि। तात्पर्य है कि भीतरसे आदर करते हुए भी उसपर विश्वास नहीं करना चाहिये; क्योंकि आजकल अतिथिके वेशमें न जाने कौन आ जाय !

** चान्द्रायणव्रतकी विधि इस प्रकार है-अमावस्याके बाद प्रतिपदाको एक ग्रास, द्वितीयाको दो ग्रास-इस क्रमसे एक-एक ग्रास बढ़ाते हुए पूर्णिमाको पन्द्रह ग्रास अन्न ग्रहण करे। फिर पूर्णिमाके बाद प्रतिपदासे एक-एक ग्रास कम करे अर्थात् प्रतिपदाको चौदह, द्वितीयाको तेरह आदि। तात्पर्य है कि चन्द्रमाकी कला बढ़ते समय ग्रास बढ़ाना और कला घटते समय ग्रास घटाना 'चान्द्रायणव्रत' है। ग्रासके सिवाय और कुछ भी नहीं लेना चाहिये।

प्रश्न - गृहस्थका धर्म तो पहले संन्यासी आदिको भोजन देनेका है और संन्यासीका धर्म गृहस्थके भोजन करनेके बाद भिक्षाके लिये जानेका है, तो दोनों बातें कैसे ?

उत्तर - गृहस्थको चाहिये कि रसोई बन जानेपर पहले बलिवैश्वदेव कर ले, फिर अतिथि आ जाय तो उसको यथाशक्ति भोजन दे और अतिथि न आये तो एक गाय दुहनेमें जितना समय लगता है, उतने समयतक दरवाजेके बाहर खड़े होकर अतिथिकी प्रतीक्षा करे। अतिथि न आये तो उसका हिस्सा अलग रखकर भोजन कर ले।

संन्यासी कुछ भी संग्रह नहीं करता। अतः जब उसको भूख लगे, तब वह भिक्षाके लिये गृहस्थके घरपर जाय। जब गृहस्थ भोजन कर ले और बर्तन माँजकर अलग रख ले, उस समय वह भिक्षाके लिये जाय। तात्पर्य है कि गृहस्थपर भार न पड़े, उसकी रसोई कम न पड़े। घरमें एक-दो आदमियोंकी रसोई बनी हो और भिक्षुक आ जाय तो रसोई कम पड़ेगी! हाँ, घरमें पाँच-सात आदमियोंकी रसोई बनी हो तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा; परन्तु उस घरपर भिक्षुक ज्यादा आ जायँ तो उनपर भी भार पड़ेगा। अतः गृहस्थके भोजन करनेके बाद ही संन्यासीको भिक्षाके लिये जाना चाहिये और जो बचा हो, वह लेना चाहिये। संन्यासीको चाहिये कि वह भिक्षाके लिये गृहस्थके घरपर ज्यादा न ठहरे। अगर गृहस्थ मना न करे तो एक गाय दुहनेमें जितना समय लगता है, उतने समयतक गृहस्थके घरपर ठहरे। अगर गृहस्थके मनमें देनेकी भावना न हो तो वहाँसे चल देना चाहिये, पर क्रोध नहीं करना चाहिये। ऐसे ही गृहस्थको भी क्रोध नहीं करना चाहिये।

प्रश्न - गृहस्थको अपने पड़ोसीके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ?

उत्तर - पड़ोसीको अपने परिवारका ही सदस्य मानना चाहिये। यह अपना है और यह पराया है-ऐसा भाव तुच्छ हृदयवालोंका होता है। उदार हृदयवालोंके लिये तो सम्पूर्ण पृथ्वी ही अपना कुटुम्ब है ***। भगवान्के नाते सब हमारे भाई हैं। अतः खास घरके आदमियोंकी तरह ही पड़ोसीसे बर्ताव करना चाहिये। घरमें कभी मिठाई या फल आ जायँ और सामने अपने तथा पड़ोसीके बालक हों तो मिठाई आदिका वितरण करते हुए पहले पड़ोसीके बालकोंको थोड़ा, ज्यादा और बढ़िया मिठाई आदि दे। उसके बाद बहन-बेटीके बालकोंको अधिक मात्रामें और बढ़िया मिठाई आदि दे। फिर कुटुम्बके तथा ताऊ आदिके बालक हों तो उनको दे। अन्तमें बची हुई मिठाई आदि अपने बालकोंको दे। इसमें कोई शंका करे कि हमारे बालकोंको कम और साधारण चीज मिले तो हम घाटेमें ही रहे? इसमें घाटा नहीं है। हम पड़ोसी या बहन-बेटीके बालकोंके साथ ऐसा बर्ताव करेंगे तो वे भी हमारे बालकोंके साथ ऐसा ही बर्ताव करेंगे, जिससे माप-तौल बराबर ही आयेगा। खास बात यह है कि ऐसा बर्ताव करनेसे आपसमें प्रेम बहुत बढ़ जायगा। प्रेमकी जो कीमत है, वह वस्तु-पदार्थोंकी नहीं है।

पड़ोसीकी कोई गाय-भैंस घरपर आ जाय तो पड़ोसीसे झगड़ा न करे और उन पशुओंको पीटे भी नहीं, प्रत्युत प्रेमपूर्वक पड़ोसीसे कह दे कि 'भैया ! तुम्हारी गाय-भैंस हमारे घरपर आ गयी है। वह फिर न आ जाय, इसका खयाल रखना।' हम ऐसा सौम्य बर्ताव करेंगे तो हमारी गाय-भैंस पड़ोसीके यहाँ जानेपर वह भी ऐसा ही बर्ताव करेगा। यदि पड़ोसी क्रूर बर्ताव करे तो भी हमारेको उसपर क्रोध नहीं करना चाहिये, प्रत्युत इस बातकी विशेष सावधानी रखनी चाहिये कि हमारी गाय-भैंस आदिसे पड़ोसीका कोई नुकसान न हो।

हमारे घर कोई उत्सव हो, विवाह आदि हो और उसमें बढ़िया-बढ़िया मिष्ठान्न आदि बने तो उसको पड़ोसीके बालकोंको भी देना चाहिये; क्योंकि पड़ोसी होनेसे वे हमारे कुटुम्बी ही हैं। इससे भी अधिक प्रेमका बर्ताव करना हो तो जैसे अपनी बहन-बेटीके विवाहमें देते हैं, ऐसे ही पड़ोसीकी बहन-बेटीके विवाहमें भी देना चाहिये; जैसे अपने दामादके साथ बर्ताव करते हैं, ऐसे ही पड़ोसीके दामादके साथ भी बर्ताव करना चाहिये।

*** अयं निजः परो वेति गणना लघुचेतसाम् । उदारचरितानां तु वसुधैव कुटुम्बकम् ॥ (पंचतन्त्र, अपरीक्षित० ३७)

प्रश्न - नौकरके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ?

उत्तर - नौकरके साथ अपने बालककी तरह बर्ताव करना चाहिये। नौकर दो तरहसे रखा जाता है- (१) नौकरको तनखाह भी देते हैं और भोजन भी । (२) नौकरको केवल तनखाह देते हैं, भोजन वह अपने घरपर करता है। जो नौकर तनखाह भी लेता है और भोजन भी करता है, उसके साथ भोजनमें विषमता नहीं करनी चाहिये। प्रायः घरोंमें नौकरके लिये तीन नम्बरका, घरके सदस्योंके लिये दो नम्बरका और अपने पति- पुत्रके लिये एक नम्बरका भोजन बनाया जाता है तो यह तीन तरहका भोजन न बनाकर एक तरहका ही भोजन बनाना चाहिये। भोजन मध्यम दर्जेका बनाना चाहिये और सबको देना चाहिये। समयपर कोई भिक्षुक आ जाय तो उसको भी देना चाहिये।

जो नौकर केवल तनखाह लेता है, भोजन नहीं करता, वह जैसा उचित समझे, बनाये और खाये। परन्तु हमारे घरपर कभी विशेषतासे मिठाई आदि बने तो नौकरके बाल-बच्चोंको देनी चाहिये। विवाह आदिमें उसको कपड़े आदि देने चाहिये। उसको तनखाह तो यथोचित ही देनी चाहिये, पर समय-समयपर उसको इनाम, कपड़ा, मिठाई आदि भी देते रहना चाहिये। अधिक तनखाहका उतना असर नहीं पड़ता, जितना इनाम आदिका असर पड़ता है। नौकरको इनाम आदि देनेसे देनेवालेके हृदयमें उदारता आती है और आपसमें प्रेम बढ़ता है, जिससे वह समयपर चोर-डाकू आदिसे हमारी रक्षा भी करेगा; विवाह आदिके अवसरपर वह उत्साहसे काम करेगा।

प्रश्न - घरमें चूहे, छिपकली, मच्छर, खटमल आदि जीवोंके साथ कैसा व्यवहार करना चाहिये ?

उत्तर - घरमें रहनेवाले चूहे आदिको भी अपने घरका सदस्य मानना चाहिये; क्योंकि वे भी अपना घर बनाकर हमारे घरमें रहते हैं। अतः उनका भी हमारे घरमें रहनेका अधिकार है। तात्पर्य है कि अपनी रक्षा करते हुए जहाँतक बने, उनका भी पालन करना चाहिये। परन्तु आजकल लोग उनको मार देते हैं, यह ठीक नहीं है। मनुष्यको अपनी रक्षा करनेका ही अधिकार है, किसीको मारनेका अधिकार नहीं है। जैसे मनुष्य पृथ्वीपर अपना घर बनाकर रहता है, ऐसे ही चूहे आदि भी अपना घर बनाकर रहते हैं; अतः उनको मारना नहीं चाहिये। घरमें साँप, बिच्छू आदि जहरीले जीव हों तो उनको युक्तिसे पकड़कर घरसे दूर सुरक्षित स्थानपर छोड़ देना चाहिये।

अपनी सफाई न रखनेसे, अशुद्धि रखनेसे ही मच्छर, खटमल आदि पैदा होते हैं। अतः घरमें पहलेसे ही स्वच्छता, निर्मलता रखनी चाहिये, जिससे वे पैदा हों ही नहीं। स्वच्छता रखते हुए भी वे पैदा हो जायँ, तो भी उनको मारनेका हमें अधिकार नहीं है।

प्रश्न - घरमें कुत्ता पालना चाहिये या नहीं ?

उत्तर - घरमें कुत्ता नहीं रखना चाहिये। कुत्तेका पालन करनेवाला नरकोंमें जाता है। महाभारतमें आया है कि जब पाँचों पाण्डव और द्रौपदी वीरसंन्यास लेकर उत्तरकी ओर चले तो चलते-चलते भीमसेन आदि सभी गिर गये। अन्तमें जब युधिष्ठिर भी लड़खड़ा गये, तब इन्द्रकी आज्ञासे मातलि रथ लेकर वहाँ आया और युधिष्ठिरसे कहा कि आप इसी शरीरसे स्वर्ग पधारो । युधिष्ठिरने देखा कि एक कुत्ता उनके पास खड़ा है। उन्होंने कहा कि यह कुत्ता मेरी शरणमें आया है; अतः यह भी मेरे साथ स्वर्गमें चलेगा। इन्द्रने युधिष्ठिरसे कहा-

स्वर्गे लोके श्ववतां नास्ति धिष्ण्यमिष्टापूर्त क्रोधवशा हरन्ति ।

ततो विचार्य क्रियतां धर्मराज त्यज श्वानं नात्र नृशंसमस्ति ॥

(महाभारत, महाप्र० ३।१०)

'धर्मराज ! कुत्ता रखनेवालोंके लिये स्वर्गलोकमें स्थान नहीं है। उनके यज्ञ करने और कुआँ, बावड़ी आदि बनवानेका जो पुण्य होता है, उसे क्रोधवश नामक राक्षस हर लेते हैं। इसलिये सोच-विचारकर काम करो और इस कुत्तेको छोड़ दो। ऐसा करनेमें कोई निर्दयता नहीं है।'

युधिष्ठिरने कहा कि मैंने इसका पालन नहीं किया है, यह तो मेरी शरणमें आया है। मैं इसको अपना आधा पुण्य देता हूँ, इसीसे यह मेरे साथ चलेगा। युधिष्ठिरके ऐसा कहनेपर उस कुत्तेमेंसे धर्मराज प्रकट हो गये और बोले कि मैंने तेरी परीक्षा ली थी। तुमने मेरेपर विजय कर ली, अब चलो स्वर्ग !

तात्पर्य है कि गृहस्थको घरमें कुत्ता नहीं रखना चाहिये। महाभारतमें आया है-

भिन्नभाण्डं च खट्वां च कुक्कुटं शुनकं तथा।

अप्रशस्तानि सर्वाणि यश्च वृक्षो गृहेरुहः ॥

भिन्नभाण्डे कलिं प्राहुः खट्वायां तु धनक्षयः ।

कुक्कुटे शुनके चैव हविर्नाश्नन्ति  देवताः।

वृक्षमूले धुवं सत्त्वं तस्माद् वृक्षं न रोपयेत् ॥

(महाभारत, अनु० १२७। १५-१६)

'घरमें फूटे बर्तन, टूटी खाट, मुर्गा, कुत्ता और अश्वत्थादि वृक्षका होना अच्छा नहीं माना गया है। फूटे बर्तनमें कलियुगका वास कहा गया है। टूटी खाट रहनेसे धनकी हानि होती है। मुर्गे और कुत्तेके रहनेपर देवता उस घरमें हविष्य ग्रहण नहीं करते तथा मकानके अन्दर कोई बड़ा वृक्ष होनेपर उसकी जड़के भीतर साँप, बिच्छू आदि जन्तुओंका रहना अनिवार्य हो जाता है, इसलिये घरके भीतर पेड़ न लगाये।'

कुत्ता महान् अशुद्ध, अपवित्र होता है। उसके खान-पानसे, स्पर्शसे, उसके जगह-जगह बैठनेसे गृहस्थके खान-पानमें, रहन- सहनमें अशुद्धि, अपवित्रता आती है और अपवित्रताका फल भी अपवित्र (नरक आदि) ही होता है।

प्रश्न - खेत आदिकी रक्षाके लिये कुत्ता रखा जाय तो क्या हानि है?

उत्तर - कुत्तेको केवल खेत आदिकी रक्षाके लिये ही रखे। समय-समयपर उसको रोटी दे, पर अपनेसे उसको दूर ही रखे। उसको अपने साथ रखना, अपने साथ घुमाना, मर्यादारहित छुआछूत करना ही निषिद्ध है। तात्पर्य है कि कुत्तेका पालन करना, उसकी रक्षा करना दोष नहीं है, प्रत्युत प्राणिमात्रका पालन करना तो गृहस्थका खास कर्तव्य है। परन्तु कुत्तेके साथ घुल- मिलकर रहना, उसको साथमें रखना, उसमें आसक्ति रखना पतनका कारण है, क्योंकि अन्तसमयमें यदि कुत्तेका स्मरण हो जायगा तो अगले जन्ममें कुत्ता ही बनना पड़ेगा

यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।

तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥ (गीता ८।६)

'हे कुन्तीपुत्र अर्जुन! मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भी भावका स्मरण करते हुए शरीर छोड़ता है, वह उसी भावसे सदा भावित होता हुआ उस-उसको ही प्राप्त होता है अर्थात् उस-उस योनिमें ही चला जाता है।’

प्रश्न - घरकी छतपर या दीवारपर पीपल लग जाय तो उसको हटाना चाहिये या नहीं?

उत्तर - उसको उखाड़कर चौराहेमें या मन्दिरके सामने अथवा गलीमें अच्छी जगह लगा देना चाहिये और उसको जल देते रहना चाहिये। छत या दीवार तोड़नी पड़े तो कोई बात नहीं, उसकी फिर मरम्मत करा लेनी चाहिये, पर जहाँतक बन सके, पीपलको काटना नहीं चाहिये। पीपल, वट, पाकर, गूलर, आँवला, तुलसी आदि पवित्र वृक्षोंका विशेष आदर करना चाहिये, जो मनुष्योंको पवित्र करनेवाले हैं।

प्रश्न - गृहस्थको जीवन-निर्वाहके लिये धन कैसे कमाना चाहिये ?

उत्तर - गृहस्थको शरीरसे परिश्रम करके और 'दूसरेका हक न आ जाय' ऐसी सावधानी रखकर धन कमाना चाहिये । जितना धन पैदा हो जाय, उसमेंसे दसवाँ, पन्द्रहवाँ अथवा बीसवाँ हिस्सा दान-पुण्यके लिये निकालना चाहिये। धन कमानेमें कुछ-न-कुछ दोष आ जाते हैं; अतः उन दोषोंके प्रायश्चित्तके लिये धन निकालना चाहिये।

प्रश्न - आजकल सरकारी कानून ऐसे हैं कि हम सच्चाईसे धन कमा नहीं सकते; अतः क्या करना चाहिये ?

उत्तर - सरकारी कानूनसे बचनेका उपाय है- अपना खर्चा कम करना; स्वाद-शौकीनी, सजावट आदिमें खर्चा न करना; साधारण रीतिसे निर्वाह करना; बड़ी सादगीसे सात्त्विक जीवन बिताना। कारण कि धन कमाना हाथकी बात नहीं है। धन तो जितना मिलनेवाला है, उतना ही मिलेगा; पर खर्चा कम करना हाथकी बात है, इसमें हम स्वतन्त्र हैं।

प्रश्न - यह बात तो प्रत्यक्ष है कि हम पूरा टैक्स देते हैं तो धन चला जाता है और टैक्स पूरा नहीं देते, छिपा लेते हैं तो धन बच जाता है; अतः छिपा लेना अच्छा हुआ ?

उत्तर - एक बार ऐसा दीखता है कि टैक्स न देनेसे धन बच गया, पर अन्तमें वह धन रहेगा नहीं  । बचा हुआ धन काममें भी आयेगा नहीं। परंतु धनके लिये जो झूठ, कपट, धोखेबाजी, अन्याय आदि किये हैं, उनका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा और अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन छोड़कर मरना ही पड़ेगा। तात्पर्य है कि अन्यायपूर्वक कमाया हुआ धन चाहे डॉक्टरों, वकीलों आदिके पास चला जायगा, चाहे चोर-डाकू ले जायँगे, चाहे बैंकोंमें पड़ा रहेगा, पर आपके काममें नहीं आयेगा। अतः जो धन आपके काममें नहीं आयेगा, उसके लिये पाप, अन्याय क्यों किया जाय ?

सच्चाईसे कमानेपर धन कम आयेगा, यह बात नहीं है। जो धन आनेवाला है, वह तो आयेगा ही। हाँ, किस तरह आयेगा, इसका तो पता नहीं, पर आनेवाला धन आयेगा जरूर । ऐसे कई उदाहरण देखनेमें आते हैं कि जो धनका त्याग कर देते हैं, धन लेते नहीं, उनके सामने भी धन आता है। तात्पर्य है कि जैसे घाटा, बीमारी, दुःख आदि बिना चाहे, बिना उद्योग किये आते हैं, ऐसे ही जो धन, सुख आनेवाला है, वह भी बिना चाहे, बिना उद्योग किये ही आयेगा-

सुखमैन्द्रियकं राजन् स्वर्गे नरक एव च।

देहिनां यद् यथा दुःखं तस्मान्नेच्छेत तद् बुधः ।।

(श्रीमद्भा० ११। ८। १)

'राजन् ! प्राणियोंको जैसे इच्छाके बिना प्रारब्धानुसार दुःख प्राप्त होते हैं, ऐसे ही इन्द्रियजन्य सुख स्वर्गमें और नरकमें भी प्राप्त होते हैं। अतः बुद्धिमान् मनुष्यको चाहिये कि वह उन सुखोंकी इच्छा न करे।'

अन्यायोपार्जितं द्रव्यं दशवर्षाणि तिष्ठति । प्राप्ते चैकादशे वर्षे समूलं तद्विनश्यति ॥

'अन्यायसे कमाया हुआ धन दस वर्षतक ठहरता है और ग्यारहवाँ वर्ष प्राप्त होनेपर वह मूलसहित नष्ट हो जाता है।’

- स्रोत : गृहस्थमें कैसे रहें? (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)