Seeker of Truth

गृहस्थ-धर्म

सानन्दं सदनं सुताश्च सुधियः कान्ता न दुर्भाषिणी

सन्मित्रं सुधनं स्वयोषिति रतिश्चाज्ञापराः सेवकाः।

आतिथ्यं शिवपूजनं प्रतिदिनं मृष्टान्नपानं गृहे

साधोः सङ्गमुपासते हि सततं धन्यो गृहस्थाश्रमः ॥

'घरमें सब सुखी हैं, पुत्र बुद्धिमान् हैं, पत्नी मधुरभाषिणी है, अच्छे मित्र हैं, अपनी पत्नीका ही संग है, नौकर आज्ञापरायण हैं, प्रतिदिन अतिथि-सत्कार एवं भगवान् शंकरका पूजन होता है, पवित्र एवं सुन्दर खान-पान है और नित्य ही सन्तोंका संग किया जाता है-ऐसा जो गृहस्थाश्रम है, वह धन्य है!’

प्रश्न - विवाह क्यों करें? क्या विवाह करना आवश्यक है?

उत्तर - हमारे यहाँ दो तरहके ब्रह्मचारी होते हैं-नैष्ठिक और उपकुर्वाण। जो आजीवन ब्रह्मचर्यका पालन करते हैं, वे 'नैष्ठिक ब्रह्मचारी' कहलाते हैं और जो विचारके द्वारा भोगेच्छाको नहीं मिटा पाते और केवल भोगेच्छाको मिटानेके लिये ही विवाह करते हैं, वे 'उपकुर्वाण ब्रह्मचारी' कहलाते हैं। तात्पर्य है कि जो विचारके द्वारा भोगेच्छाको न मिटा सके, वह विवाह करके देख ले, जिससे यह अनुभव हो जाय कि यह भोगेच्छा भोग भोगनेसे मिटनेवाली नहीं है। इसलिये गृहस्थके बाद वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रममें जानेका विधान किया गया है। सदा गृहस्थमें ही रहकर भोग भोगना मनुष्यता नहीं है।

जिसके मनमें भोगेच्छा है अथवा जो वंश-परम्परा चलाना चाहता है और (वंश-परम्परा चलानेके लिये) उसका कोई भाई नहीं है, उसको केवल भोगेच्छा मिटानेके उद्देश्यसे अथवा वंश- परम्परा चलानेके लिये विवाह कर लेना चाहिये। अगर उपर्युक्त दोनों इच्छाएँ न हों तो विवाह करनेकी जरूरत नहीं है। शास्त्रोंमें निवृत्तिको सर्वश्रेष्ठ बताया गया है- 'निवृत्तिस्तु महाफला।'

प्रश्न - कलियुगमें तो संन्यास लेना मना किया गया है, अतः मनुष्य निवृत्ति कैसे करे?

उत्तर - कलियुगमें संन्यास लेना इसलिये मना किया गया है कि कलियुगमें संन्यास-धर्मका पालन करनेमें बहुत कठिनता पड़ती है, जिससे मनुष्य ठीक तरहसे संन्यास-धर्मको निभा नहीं सकता। अतः जैसे सरकारी कर्मचारी नौकरीसे रिटायर होते हैं, ऐसे ही मनुष्यको घरसे रिटायर हो जाना चाहिये और बेटों-पोतोंको काम-धंधा सौंपकर घरमें रहते हुए ही भजन-स्मरण करना चाहिये। यदि बेटे चाहते हों तो घरसे केवल भोजन, वस्त्र आदि निर्वाहमात्रका सम्बन्ध रखना चाहिये। यदि बेटे न चाहें तो निर्वाहमात्रका सम्बन्ध भी छोड़ देना चाहिये। निर्वाह कैसे होगा, इसकी चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि-

प्रारब्ध पहले रचा, पीछे रचा सरीर।

तुलसी चिन्ता क्यों करे, भज ले श्रीरघुबीर ॥

प्रश्न - गृहस्थका खास धर्म क्या है?

उत्तर - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास-इन चारों आश्रमोंकी सेवा करना गृहस्थका खास धर्म है; क्योंकि गृहस्थ ही सबका माँ-बाप है, पालक है, संरक्षक है अर्थात् गृहस्थसे ही ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यासी उत्पन्न होते हैं और पालित एवं संरक्षित होते हैं। अतः चारों आश्रमोंका पालन- पोषण करना गृहस्थका खास धर्म है।

अतिथि-सत्कार करना; गाय-भैंस, भेड़-बकरी आदिको सुख-सुविधा देना; घरमें रहनेवाले चूहे आदिको भी अपने घरका सदस्य मानना; उन सबका पालन-पोषण करना गृहस्थका खास धर्म है। ऐसे ही देवता, ऋषि-मुनिकी सेवा करना, पितरोंको पिण्ड-पानी देना, भगवान्‌की विशेषतासे सेवा (भजन-स्मरण) करना गृहस्थका खास धर्म है।

प्रश्न - गृहस्थाश्रममें कैसे रहना चाहिये ?

उत्तर - यह मनुष्य-शरीर और इसमें भी गृहस्थ-आश्रम उद्धार करनेकी पाठशाला है। भोग भोगने और आराम करनेके लिये यह मनुष्य-शरीर नहीं है। 'एहि तन कर फल बिषय न भाई' (मानस, उत्तर० ४४।१) । शास्त्रविहित यज्ञ आदि कर्म करके ब्रह्मलोक आदि लोकोंकी प्राप्ति करना भी खास बात नहीं है; क्योंकि वहाँ जाकर फिर पीछे लौटकर आना ही पड़ता है- 'आब्रह्मभुवनाल्लोकाः पुनरावर्तिनः' (गीता ८। १६) । अतः प्राणिमात्रके हितकी भावना रखते हुए गृहस्थ-आश्रममें रहना चाहिये और अपनी शक्तिके अनुसार तन, मन, बुद्धि, योग्यता, अधिकार आदिके द्वारा दूसरोंको सुख पहुँचाना चाहिये। दूसरोंकी सुख-सुविधाके लिये अपने सुख-आरामका त्याग करना ही मनुष्यकी मनुष्यता है।

प्रश्न - गृहस्थमें काम-धंधा करते हुए जो हिंसा होती है, उससे छुटकारा कैसे हो?

उत्तर - गृहस्थमें रोज ये पाँच हिंसाएँ होती हैं- (१) जहाँ रसोई बनती है, वहाँ आगमें चींटी आदि छोटे-छोटे जीव मरते हैं, लकड़ियोंमें रहनेवाले जीव मरते हैं, आदि। (२) जहाँ जल रखते हैं, वहाँ घड़ा इधर-उधर करने आदिसे भी जीव मरते हैं। (३) झाड़ लगाते समय बहुत-से जीव मरते हैं। (४) चक्कीमें अनाज पीसते समय भी बहुत-से जीव पीसे जाते हैं। (५) ऊखलमें चावल आदि कूटते समय भी जीव मरते हैं। इन हिंसाओंसे छूटनेके लिये गृहस्थको प्रतिदिन बलिवैश्वदेव, पंचमहायज्ञ करना चाहिये। जो सर्वथा भगवान्के ही शरण हो जाता है, उसको यह हिंसा नहीं लगती। वह सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त हो जाता है।

प्रश्न - हम चक्की नहीं चलाते, धान नहीं कूटते तो हमें हिंसा नहीं लगेगी ?

उत्तर - आप पीसा हुआ आटा, कूटा हुआ धान अपने काममें लेते हैं तो उस आटेको पीसनेमें, धानको कूटनेमें जो हिंसा हुई है, वह आपको लगेगी ही। 

प्रश्न - खेतीमें अनेक जीवोंकी हिंसा होती है, तो क्या किसान खेती न करे ?

उत्तर - खेती जरूर करे, पर खयाल रखे कि हिंसा न हो। किसानके लिये खेती करनेका विधान होनेसे उसको पाप कम लगता है, अतः उसको पापसे डरकर अपने कर्तव्यका त्याग नहीं करना चाहिये। हाँ, जहाँतक बने, हिंसा न हो, ऐसी सावधानी अवश्य रखनी चाहिये।

प्रश्न - आजकल किसानलोग फसलकी सुरक्षाके लिये जहरीली दवाएँ छिड़कते हैं तो क्या यह ठीक है?

उत्तर - किसानको यह काम कभी नहीं करना चाहिये। पहले लोग ऐसी हिंसा नहीं करते थे तो अनाज सस्ता मिलता था। आजकल हिंसा करते हैं तो अनाज महँगा मिलता है। दीखनेमें तो ऐसा दीखता है कि जीवोंको मार देनेसे अनाज अधिक होता है, पर इसका परिणाम अच्छा नहीं होगा।

प्रश्न - शास्त्रोंमें गृहस्थपर पाँच ऋण बताये गये हैं- पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण, भूतऋण और मनुष्यऋण। इनमेंसे पितृऋण क्या है और उससे छूटनेका उपाय क्या है?

उत्तर - माता-पिता, दादा-दादी, परदादा-परदादी, नाना- नानी, परनाना-परनानी आदिके मरनेपर जो कार्य किये जाते हैं, वे सब 'प्रेतकार्य' हैं और परम्परासे श्राद्ध-तर्पण करना, पिण्ड- पानी देना आदि जो कार्य पितरोंके उद्देश्यसे किये जाते हैं, वे सब 'पितृकार्य' हैं। मरनेके बाद प्राणी देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी, भूत-प्रेत, वृक्ष-लता आदि किसी भी योनिमें चला जाय तो उसकी 'पितर' संज्ञा होती है।

माता-पिताके रज-वीर्यसे शरीर बनता है। माताके दूधसे और पिताके कमाये हुए अन्नसे शरीरका पालन-पोषण होता है। पिताके धनसे शिक्षा एवं योग्यता प्राप्त होती है। माता-पिताके उद्योगसे विवाह होता है। इस तरह पुत्रपर माता-पिताका, माता-पितापर दादा-दादीका और दादा-दादीपर परदादा-परदादीका ऋण रहता है। परम्परासे रहनेवाले इस पितृऋणसे मुक्त होनेके लिये, पितरोंकी सद्गतिके लिये उनके नामसे पिण्ड-पानी देना चाहिये। श्राद्ध-तर्पण करना चाहिये।

पुत्र जन्मभर माता-पिता आदिके नामसे पिण्ड-पानी देता है, पर आगे पिण्ड-पानी देनेके लिये सन्तान उत्पन्न नहीं करता तो वह पितृऋणसे मुक्त नहीं होता अर्थात् उसपर पितरोंका ऋण रहता है। परन्तु सन्तान उत्पन्न होनेपर उसपर पितृऋण नहीं रहता, प्रत्युत वह पितृऋण सन्तानपर आ जाता है। पितर पिण्ड-पानी चाहते हैं; अतः पिण्ड-पानी मिलनेसे वे सुखी रहते हैं और न मिलनेसे वे दुःखी हो जाते हैं। पुत्रकी सन्तान न होनेसे भी वे दुःखी हो जाते हैं कि आगे हमें पिण्ड-पानी कौन देगा!

प्रश्न - क्या पितरोंके नामसे दिया हुआ उनको मिल जाता है?

उत्तर - पितरोंके नामसे जो कुछ दिया जाय, वह सब उनको मिल जाता है। वे चाहे किसी भी योनिमें क्यों न हों, उनके नामसे दिया हुआ पिण्ड-पानी उनको उसी योनिके अनुसार खाद्य या पेय पदार्थके रूपमें मिल जाता है। जैसे, पितर पशुयोनिमें हों तो उनके नामसे दिया हुआ अन्न उनको घास बनकर मिल जायगा और देवयोनिमें हों तो अमृत बनकर मिल जायगा। तात्पर्य है कि जैसी वस्तुसे उनका निर्वाह होता हो, वैसी वस्तु उनको मिल जाती है। जैसे हम यहाँसे अमेरिकामें किसीको मनीआर्डरके द्वारा रुपये भेजें तो वे वहाँ डालर बनकर उसको मिल जाते हैं, ऐसे ही हम पितरोंके नामसे पिण्ड-पानी देते हैं, दान-पुण्य करते हैं, तो वह जिस योनिमें पितर हैं, उसी योनिके अनुसार खाद्य या पेय पदार्थके रूपमें पितरोंको मिल जाता है।

आज हमें बड़े आदरसे जो रोटी कपड़ा आदि मिलता है, वह हमारे पूर्वकृत पुण्योंका फल भी हो सकता है और हमारे पूर्वजन्मके पुत्र-पौत्रादिकोंके द्वारा किये हुए श्राद्ध-तर्पणका फल भी हो सकता है, पर है यह हमारा प्रारब्ध ही।

जैसे किसीने बैंकमें एक लाख रुपये जमा किये। उनमेंसे उसने कुछ अपने नामसे, कुछ पत्नीके नामसे और कुछ पुत्रके नामसे जमा किये, तो वह अपने नामसे जमा किये हुए पैसे ही निकाल सकता है, अपनी पत्नी और पुत्रके नामसे जमा किये हुए पैसे नहीं। वे पैसे तो उसकी पत्नी और पुत्रको ही मिलेंगे। ऐसे ही पितरोंके नामसे जो पिण्ड-पानी दिया जाता है, वह पितरोंको ही मिलता है, हमें नहीं। हाँ, हम जीते-जी गयामें जाकर अपने नामसे पिण्ड-पानी देंगे तो मरनेके बाद वह हमें ही मिल जायगा। गयामें तो पशु-पक्षीके नामसे दिया हुआ पिण्ड-पानी भी उनको मिल जाता है। एक सज्जनका अपनी गायपर बड़ा स्नेह था। वह गाय मर गयी तो वह उसको स्वप्नमें बहुत दुःखी दिखायी दी। उसने गयामें जाकर उस गायके नामसे पिण्ड-पानी दिया। फिर वह गाय स्वप्नमें दिखायी दी तो वह बहुत प्रसन्न थी।

जैसे हमारे पास एक तो अपना कमाया हुआ धन है और एक पिता, दादा, परदादाका कमाया हुआ धन है तो अपने कमाये हुए धनपर ही हमारा अधिकार है; पिता, दादा आदिके कमाये हुए धनपर हमारा उतना अधिकार नहीं है। वंश-परम्पराके अनुसार पिता, दादा आदिके धनपर हमारे पुत्र-पौत्रोंका अधिकार है। ऐसे ही पितरोंको वंश-परम्पराके अनुसार पुत्र-पौत्रोंका दिया हुआ पिण्ड-पानी मिलता है। अतः पुत्र-पौत्रोंपर पिता, दादा आदिके पिण्ड-पानी देनेका दायित्व है।

एक पितृलोक भी है, पर मरनेके बाद सब पितृलोकमें ही जाते हों-यह कोई नियम नहीं है। कारण कि अपने-अपने कर्मोंके अनुसार ही सबकी गति होती है।

प्रश्न - यदि किसीके माता-पिता (पितर) मुक्त हो गये हैं, भगवद्धाममें चले गये हैं तो उनके नामसे दिये हुए पिण्ड-पानीका क्या होगा ?

उत्तर - पुत्रको तो यह पता नहीं रहता कि मेरे माता-पिता मुक्त हो गये, भगवद्धाममें चले गये; पर वह उनके नामसे आदरपूर्वक जो पिण्ड-पानी देता है, दान-पुण्य करता है, वह सब उसके नामपर जमा हो जाता है और मरनेके बाद उसीको मिल जाता है। जैसे, हम किसीके नामसे बम्बई पैसे भेजते हैं, पर वह व्यक्ति वहाँ नहीं है तो वे पैसे वापिस हमें ही मिल जाते हैं।

प्रश्न - क्या सन्तान उत्पन्न किये बिना भी मनुष्य पितृऋणसे छूट सकता है?

उत्तर - हाँ, छूट सकता है। जो भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है, उसपर कोई भी ऋण नहीं रहता-

देवर्षिभूताप्तनृणां पितृणां न किङ्करो नायमृणी च राजन्।

सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ॥

(श्रीमद्भा० ११।५।४१)

'राजन् ! जो सारे कार्योंको छोड़कर सम्पूर्णरूपसे शरणागतवत्सल भगवान्‌की शरणमें आ जाता है, वह देव, ऋषि, प्राणी, कुटुम्बीजन और पितृगण इनमेंसे किसीका भी ऋणी और सेवक (गुलाम) नहीं रहता।'

प्रश्न - देवऋण क्या है और उससे छूटनेका उपाय क्या है?

उत्तर - वर्षा होती है, घाम तपता है, हवा चलती है, पृथ्वी सबको धारण करती है, रात्रिमें चन्द्रमा और दिनमें सूर्य प्रकाश करता है, जिससे सबका जीवन-निर्वाह चलता है- यह सब हमपर देवऋण है। हवन, यज्ञ करनेसे देवताओंकी पुष्टि होती है और हम देवऋणसे मुक्त हो जाते हैं।

प्रश्न - ऋषिऋण क्या है और उससे छूटनेका उपाय क्या है?

उत्तर - ऋषि-मुनियोंने, सन्त-महात्माओंने जो ग्रन्थ बनाये हैं, स्मृतियाँ बनायी हैं, उनसे हमें प्रकाश मिलता है, शिक्षा मिलती है, कर्तव्य-अकर्तव्यका ज्ञान होता है; अतः उनका हमपर ऋण है। उनके ग्रन्थोंको पढ़नेसे, स्वाध्याय करनेसे, पठन-पाठन करनेसे, सन्ध्या-गायत्री करनेसे हम ऋषिऋणसे मुक्त हो जाते हैं।

प्रश्न - भूतऋण क्या है और उससे छूटनेका उपाय क्या है?

उत्तर - गाय-भैंस, भेड़-बकरी, ऊँट-घोड़ा आदि जितने प्राणी हैं, उनसे हम अपना काम चलाते हैं, अपना जीवन-निर्वाह करते हैं। वृक्ष-लता आदिसे फल, फूल, पत्ती, लकड़ी आदि लेते हैं। यह हमपर दूसरोंका, प्राणियोंका ऋण है। पशु-पक्षियोंको घास, अन्न आदि देनेसे, जल पिलानेसे, वृक्ष-लता आदिको खाद और जल देनेसे हम इस भूतऋणसे मुक्त हो जाते हैं।

प्रश्न - मनुष्यऋण क्या है और उससे छूटनेका उपाय क्या है?

उत्तर - बिना किसीकी सहायता लिये हमारा जीवन-निर्वाह नहीं होता। हम दूसरोंके बनाये हुए रास्तेपर चलते हैं, दूसरोंके बनाये हुए कुएँका पानी काममें लेते हैं, दूसरोंके लगाये हुए पेड़- पौधोंको काममें लेते हैं, दूसरोंके द्वारा उत्पन्न किये हुए अन्न आदि खाद्य पदार्थोंको काममें लेते हैं - यह उनका हमपर ऋण है। दूसरोंकी सुख-सुविधाके लिये कुआँ खुदवानेसे, प्याऊ लगानेसे, बगीचा लगानेसे, रास्ता बनवानेसे, धर्मशाला बनवानेसे, अन्न-क्षेत्र चलानेसे हम मनुष्यऋणसे मुक्त हो सकते हैं।

पितृऋण, देवऋण, ऋषिऋण, भूतऋण और मनुष्यऋण- ये पाँचों ऋण गृहस्थपर ही लागू होते हैं। जो भगवान्के सर्वथा शरण हो जाता है, वह पितर, देवता आदि किसीका भी ऋणी नहीं रहता, सभी ऋणोंसे छूट जाता है।

प्रश्न - यदि कोई सन्तान न हो तो अपने सम्बन्धियोंके अथवा अनाथ बालक-बालिकाओंको गोद लेना चाहिये या नहीं?

उत्तर - आजकलके जमानेमें गोद न लेना ही अच्छा है; क्योंकि अपना पैदा किया हुआ बेटा भी सेवा नहीं करता, आज्ञा नहीं मानता तो गोद लिया हुआ बेटा क्या निहाल करेगा ! यद्यपि पिण्ड-पानी देनेके लिये गोद लेनेका विधान तो है, पर वह पिण्ड-पानी ही नहीं देगा तो उसको गोद लेना किस कामका ? यदि हमारे लिये लड़केकी आवश्यकता होती तो भगवान् दे देते। हमारे लिये लड़केकी आवश्यकता नहीं है, इसलिये भगवान्ने नहीं दिया है। अतः हम गोद लेकर अपने लिये आफत क्यों पैदा करें! प्रायः ऐसा देखा गया है कि गोद लिये हुए लड़के माँ-बापको दुःख-ही-दुःख देते हैं, उनकी सेवा नहीं करते। अतः अनाथ बालकोंको पढ़ाना चाहिये, उनकी सेवा करनी चाहिये, उनके शरीर निर्वाहका प्रबन्ध करना चाहिये।

प्रश्न - अगर कोई बेटा नहीं होगा तो वृद्धावस्थामें हमारी सेवा कौन करेगा ?

उत्तर - जिनके बेटे हैं, क्या वे सभी अपने माँ-बापकी सेवा करते हैं? आजकलके बेटे तो माँ-बापकी धन-सम्पत्ति अपने नाम करवाना चाहते हैं और श्राद्ध-तर्पणको फालतू समझते हैं तो ऐसे बेटे क्या सेवा करेंगे? वे तो केवल दुःखदायी होते हैं। वास्तवमें प्रारब्धसे जैसी सेवा बननेवाली है, जितना सुख-आराम मिलनेवाला है, वह तो मिलेगा ही, चाहे पुत्र हो या न हो। हमने यह प्रत्यक्ष देखा है कि विरक्त सन्तोंकी जितनी सेवा होती है, उतनी सेवा गृहस्थोंके बेटे नहीं करते। तात्पर्य है कि बेटा होनेसे ही सेवा होती है, यह बात नहीं है।

प्रश्न - अगर कोई बेटा नहीं होगा तो मरनेके बाद हमें पिण्ड-पानी कौन देगा और पिण्ड-पानी न मिलनेसे हमारी गति कैसे होगी ?

उत्तर - पिण्ड-पानी देनेसे पिण्ड-पानी लेनेवालोंका आगे जन्म-मरण चालू होता है। जैसे रास्तेमें चलनेवाला व्यक्ति भूख-प्यासके कारण कहीं रुक जाता है, रास्तेमें अटक जाता है और अन्न-जल मिलनेके बाद फिर अपने रास्तेपर चल पड़ता है, ऐसे ही मृतात्माओंको पिण्ड-पानी न मिलनेसे वे एक जगह अटक जाते हैं, रुक जाते हैं और पिण्ड-पानी मिलनेसे वे वहाँसे चल पड़ते हैं अर्थात् उनकी आगे गति शुरू हो जाती है, उनका जन्म-मरण चालू हो जाता है; परन्तु उनकी मुक्ति, कल्याण नहीं होता।

वास्तवमें मुक्ति होना, कल्याण होना सन्तानके अधीन किंचिन्मात्र भी नहीं है। अगर मुक्ति सन्तानके अधीन हो तो मुक्ति पराधीन ही हुई! फिर मनुष्य जन्मकी स्वतन्त्रता कहाँ रही? कल्याणमें, मुक्तिमें जब शरीरकी आसक्ति भी बाधक है, तो फिर मरनेके बाद भी पुत्रसे पिण्ड-पानीकी आशा कल्याण कैसे होने देगी ? वह तो बन्धनमें ही डालेगी। अतः जो अपना कल्याण चाहता है, उसको पुत्रैषणा (पुत्रकी इच्छा), लोकैषणा (संसारमें आदर-सत्कार, मान-बड़ाईकी इच्छा) और वित्तैषणा (धनकी इच्छा) -इन तीनोंका त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि ये तीनों ही परमात्मप्राप्तिमें बाधक हैं।

जिसको सन्तानकी, पिण्ड-पानीकी इच्छा है, वह जन्म- मरणके चक्रमें पड़े रहना चाहता है; क्योंकि कहीं जन्म होगा, तभी तो वह पिण्ड-पानी चाहेगा। अगर जन्म होगा ही नहीं तो पिण्ड-पानी किसको चाहिये !

पुत्र न होनेसे कल्याण नहीं होता - यह बात बिलकुल गलत है। अगर सन्तान होनेसे कल्याण होता तो सूकरीके ग्यारह और सर्पिणीके एक सौ आठ बच्चे होते हैं, फिर उनका तो कल्याण हो ही जाना चाहिये ! ऐसे ही ज्यादा बच्चेवालोंका कल्याण जल्दी होना चाहिये, पर वह होता नहीं।

सन्तान हो अथवा न हो, मनुष्यको केवल भगवान्में ही लगना चाहिये; भगवान्के परायण होकर भगवान्का भजन करना चाहिये। अगर पुत्रकी इच्छा न मिटती हो तो निःसन्तान मनुष्यको चाहिये कि वह श्रीरामललाको, श्रीकृष्णललाको अपना पुत्र मान ले और पुत्र-भावसे उनका लाड़-प्यार करे। वह पुत्र (भगवान्) जैसी सेवा करेगा, वैसी सेवा पैदा किया हुआ पुत्र कर ही नहीं सकता ! वह पुत्र तो लोक-परलोकका सब काम कर देगा।

प्रश्न - गृहस्थमें बाल-बच्चोंके भरण-पोषण, विवाह आदिको लेकर अनेक चिन्ताएँ रहती हैं, उन चिन्ताओंसे छुटकारा कैसे पाया जा सकता है?

उत्तर - प्रत्येक प्राणी अपने प्रारब्धके अनुसार ही जन्मता है। प्रारब्धमें तीन चीजें होती हैं-जन्म, आयु और भोग। * इन तीनोंमें प्राणीका 'जन्म' तो हो चुका है; उसकी जितनी 'आयु' है, उतना तो वह जीयेगा ही; और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंका आना 'भोग' है। वास्तवमें परिस्थिति किसीको भी सुखी-दुःखी नहीं करती, प्रत्युत मनुष्य ही अज्ञानवश परिस्थितिसे सुखी- दुःखी हो जाता है।

कन्या बड़ी हो जाय तो ऐसी परिस्थितिमें उसके विवाहको लेकर चिन्ता नहीं करनी चाहिये; क्योंकि कन्या अपने प्रारब्ध (भाग्य) को लेकर ही आयी है। अतः उसको अनुकूल या प्रतिकूल परिस्थिति उसके प्रारब्धके अनुसार ही मिलेगी। माता- पिताको तो उसके विवाहके विषयमें यह विचार करना है कि जहाँ हमारी कन्या सुखी रहे, वहीं उसको देना है। ऐसा विचार करना माता-पिताका कर्तव्य है। परन्तु हम उसको सुखी कर ही देंगे, उसको अच्छा परिवार मिल ही जायगा, यह उनके हाथकी बात नहीं है। अतः कर्तव्यका पालन तो होना चाहिये, पर चिन्ता नहीं होनी चाहिये।

एक चिन्ता होती है और एक विचार होता है। चिन्ता अज्ञान (मूर्खता) से पैदा होती है और उससे अन्तःकरण मैला होता है, नया विकास नहीं होता। परन्तु विचारसे बुद्धिका विकास होता है। अतः हरेक काम कैसे करना है, किस रीतिसे करना है आदि विचार तो करना चाहिये, पर चिन्ता कभी नहीं करनी चाहिये। यदि चिन्तासे रहित होकर विचार किया जाय तो कोई-न-कोई उपाय जरूर मिल जाता है।

* सति मूले तद्विपाको जात्यायुर्भोगाः। (योगदर्शन २।१३) 

प्रश्न - यदि बेटे वृद्धावस्थामें सेवा न करें तो क्या करना चाहिये ?

उत्तर - बेटोंसे अपनी ममता उठा लेनी चाहिये। यही मानना चाहिये कि ये हमारे बेटे नहीं हैं। कोई भी सेवा न करे तो ऐसी अवस्थामें कुटुम्बियोंसे जो सुख-सुविधा पानेकी आशा होती है, उसीसे दुःख होता है- 'आशा हि परमं दुःखं नैराश्यं परमं सुखम्'। अतः उस आशाका ही त्याग कर देना चाहिये और असुविधामें तपकी भावना करनी चाहिये कि 'भगवान्‌की बड़ी कृपासे हमें स्वतः तप करनेका अवसर मिला है। अगर परिवारवाले हमारी सेवा करने लग जाते तो हम उनकी मोह-ममतामें फँस जाते, पर भगवान्ने कृपा करके हमें फँसने नहीं दिया!'

मनुष्य मोह-ममतामें फँस जाता है- यही उसकी आध्यात्मिक उन्नतिमें बाधा है। उस बाधाको जो हटाते हैं, उनका तो उपकार ही मानना चाहिये कि ये हमें बाधारहित कर रहे हैं, हमारा कल्याण कर रहे हैं, उनकी हमपर बड़ी भारी कृपा है!

जीवनभर सेवा लेते रहनेसे वृद्धावस्थामें असमर्थताके कारण परिवारवालोंसे सेवा लेनेकी इच्छा ज्यादा हो जाती है। अतः मनुष्यको पहलेसे ही सावधान रहना चाहिये कि मैं सेवा लेनेके लिये यहाँ नहीं आया हूँ, मैं तो सबकी सेवा करनेके लिये ही यहाँ आया हूँ; क्योंकि मनुष्य, देवता, ऋषि-मुनि, पितर, पशु-पक्षी, भगवान् आदि सबकी सेवा करनेके लिये ही यह मनुष्य-शरीर है। अतः किसीसे भी सुख-सुविधा नहीं चाहनी चाहिये। अगर हम पहलेसे ही किसीसे सुख-सुविधा, सेवा नहीं चाहेंगे तो वृद्धावस्थामें सेवा न होनेपर भी दुःख नहीं होगा। हाँ, हमारे मनमें सेवा लेनेकी इच्छा न रहनेसे दूसरोंके मनमें हमारी सेवा करनेकी इच्छा जाग्रत् हो जायगी !

हरेक क्षेत्रमें त्यागकी आवश्यकता है। त्यागसे तत्काल शान्ति मिलती है। प्रतिकूल परिस्थिति आनेपर भी प्रसन्न रहना बड़ा भारी तप है। अन्तःकरणकी शुद्धि तपसे होती है, सुख- सुविधासे नहीं। सुख-सुविधा चाहनेसे अन्तःकरण अशुद्ध होता है। अतः मनुष्य सुख कभी चाहे ही नहीं, प्रत्युत अपने मन- वाणी-शरीरसे दूसरोंको सुख पहुँचाये।

प्रश्न - यदि परिवारमें कोई मर जाय तो मृतात्माकी शान्तिके लिये तथा अपना शोक दूर करनेके लिये क्या करना चाहिये ?

उत्तर - (१) मृतात्माके लिये विधिवत् नारायणबलि, श्राद्ध-तर्पण आदि करना चाहिये। (२) जब-जब उसकी याद आये, तब-तब उसको भगवान्के चरणोंमें देखना चाहिये। (३) उसके निमित्त गीता-पाठ, भागवत सप्ताह, श्रीरामचरितमानसका नवाह्नपारायण, नाम जप, कीर्तन आदि करने चाहिये। (४) उसके निमित्त गरीब बालकोंको मिठाई बाँटनी चाहिये। मिठाई मिलनेसे बालक प्रसन्न हो जाते हैं। उनकी प्रसन्नतासे मृतात्माको भी शान्ति मिलती है और खुदको भी।

सत्संग, कथा-कीर्तन, मन्दिर, तीर्थ आदिमें जानेके विषयमें शोक नहीं रखना चाहिये, प्रत्युत वहाँ जरूर जाना चाहिये। इनमें भी सत्संगकी विशेष महिमा है, क्योंकि सत्संगसे सब प्रकारका शोक दूर होता है।

- स्रोत : गृहस्थमें कैसे रहें? (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)