Seeker of Truth

गो-महिमा और गोरक्षाकी आवश्यकता

गोरक्षा हिंदूधर्मका एक प्रधान अंग माना गया है। प्राय: प्रत्येक हिंदू गौको माता कहकर पुकारता है और माताके समान ही उसका आदर करता है। जिस प्रकार कोई भी पुत्र अपनी माताके प्रति किये गये अत्याचारको सहन नहीं करेगा, उसी प्रकार एक आस्तिक और सच्चा हिंदू गोमाताके प्रति निर्दयताके व्यवहारको नहीं सहेगा; गो-हिंसाकी तो वह कल्पना भी नहीं सह सकता। गौके प्राण बचानेके लिये वह अपने प्राणोंकी आहुति दे देगा, किन्तु उसका बाल भी बाँका न होने देगा। मर्यादापुरुषोत्तम भगवान् श्रीरामके पूर्वज महाराज दिलीपके चरित्रसे सभी लोग परिचित हैं। उन्होंने अपने कुलगुरु महर्षि वसिष्ठकी बछिया नन्दिनीकी रक्षाके लिये सिंहको अपना शरीर अर्पण कर दिया, किंतु जीते-जी उसकी हिंसा न होने दी। पाण्डवशिरोमणि अर्जुनने गोरक्षाके लिये बारह वर्षोंका निर्वासन स्वीकार किया।

परन्तु हाय! वे दिन अब चले गये। हिन्दू-जाति आज दुर्बल हो गयी है। हम अपनी स्वतन्त्रता, अपना पुरुषत्व, अपनी धर्मप्राणता, ईश्वर और ईश्वरीय कानूनमें विश्वास, शास्त्रोंके प्रति आदरबुद्धि, विचार-स्वातन्त्र्य, अपनी संस्कृति एवं मर्यादाके प्रति आस्था—सब कुछ खो बैठे हैं। आज हम आपसकी फूट एवं कलहके कारण छिन्न-भिन्न हो रहे हैं। हम अपनी संस्कृति एवं धर्मपर किये गये प्रहारों एवं आक्रमणोंको व्यर्थ करनेके लिये संघटित नहीं हो सकते। हम अपनी जीवनीशक्ति खो बैठे हैं। मूक पशुओंकी भाँति दूसरोंके द्वारा हाँके जा रहे हैं। राजनीतिक गुलामी ही नहीं, अपितु मानसिक गुलामीके भी शिकार हो रहे हैं। आज हम सभी बातोंपर पाश्चात्य दृष्टिकोणसे ही विचार करने लगे हैं। यही कारण है कि हमारी इस पवित्र भूमिमें प्रतिवर्ष लाखों-करोड़ोंकी संख्यामें गाय और बैल काटे जाते हैं और हम इसके विरोधमें अँगुलीतक नहीं उठाते। आज हम दिलीप और अर्जुनके इतिहास केवल पढ़ते और सुनते हैं, उनसे हमारी नसोंमें जोश नहीं भरता। हमारी नपुंसकता सचमुच दयनीय है!

हम सरकारके मत्थे अपनी धार्मिक भावनाओंको कुचलनेका दोष मँढ़ते हैं, हम अपने मुसलमान भाइयोंपर गायके प्रति निर्दयताका अभियोग लगाते हैं, किंतु अपने दोष नहीं देखते। गौओंके प्रति हमारी आदरबुद्धि केवल कहने भरके लिये रह गयी है। हम केवल वाणीसे ही उसकी पूजा करते हैं। हमीं तो अपनी गौओं और बैलोंको कसाइयोंके हाथ बेचते हैं। हमीं उनके साथ दुष्टता एवं क्रूरताका बर्ताव करते हैं—उन्हें भूखों मारते हैं, उनका सारा दूध दुह लेते हैं, बछड़ेका हिस्सा भी छीन लेते हैं, बैलोंपर बेहद बोझा लाद देते हैं, न चलनेपर उन्हें बुरी तरहसे पीटते हैं, गोचर-भूमियोंका सफाया करते जा रहे हैं और फिर भी अपनेको गो-रक्षक कहते हैं और विधर्मियोंको गोघातक कहकर कोसते हैं! हमारी वैश्य जातिके लिये कृषि और वाणिज्यके साथ-साथ शास्त्रोंने गोरक्षाको भी प्रधान धर्म माना है, परंतु आज हमारे वैश्य भाइयोंने गोरक्षाको अनावश्यक मानकर छोड़ रखा है। हमारी गोशालाओंका बुरा हाल है और उनके द्रव्यका ठीक-ठीक उपयोग नहीं होता। उनमें परस्पर सहयोगका अभाव है। सारांश, सब कुछ विपरीत हो गया है!

दूसरी जातियाँ अपने गोधनकी वृद्धिमें बड़ी तेजीके साथ अग्रसर हो रही हैं। दूसरे देशोंमें क्षेत्रफलके हिसाबसे गौओंकी संख्या भारतकी अपेक्षा कहीं अधिक है और प्रति मनुष्य दूधकी खपत भी अधिक है। वहाँकी गौएँ हमारी गौओंकी अपेक्षा दूध भी अधिक देती हैं। कारण यही है कि वे गौओंको भरपेट भोजन देते हैं, अधिक आरामसे रखते हैं, उनकी अधिक सँभाल करते हैं और उनके साथ अधिक प्रेम और कोमलताका बर्ताव करते हैं। अन्य देशोंमें गोचरभूमियोंका अनुपात भी खेतीके उपयोगमें आनेवाली भूमिकी तुलनामें कहीं अधिक है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यद्यपि हम अपनेको ‘गो-पूजक’ और ‘गो-रक्षक’ कहते हैं, वस्तुत: आज हम गो-रक्षामें बहुत पिछड़े हुए हैं। गोजातिके प्रति हमारे इस अनादर एवं उपेक्षाका परिणाम भी प्रत्यक्ष ही है। अन्य देशोंकी अपेक्षा हम भारतीयोंकी औसत आयु बहुत ही कम है और अन्य देशोंकी तुलनामें हमारे यहाँके बच्चे बहुत अधिक संख्यामें मरते हैं। यही नहीं, अन्य लोगोंकी अपेक्षा हमलोगोंमें जीवनीशक्ति भी बहुत कम है। कहना न होगा कि दूध और दूधसे बने हुए पदार्थोंकी कमी भी हमारी इस शोचनीय अवस्थाका एक मुख्य हेतु है। इससे यह बात प्रत्यक्ष हो जाती है कि किसी जातिके स्वास्थ्य एवं आयुमानके साथ गोधनका कितना घनिष्ठ सम्बन्ध है। अस्तु,

हमारे शास्त्र कहते हैं कि गायसे अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष—चारों पुरुषार्थोंकी सिद्धि होती है। दूसरे शब्दोंमें धार्मिक, आर्थिक, सांसारिक एवं आध्यात्मिक—सभी दृष्टियोंसे गाय हमारे लिये अत्यन्त उपयोगी है। पुराणोंमें लिखा है कि जगत् में सर्वप्रथम वेद, अग्नि, गौ एवं ब्राह्मणोंकी सृष्टि हुई । वेदोंसे हमें अपने कर्तव्यकी शिक्षा मिलती है, वे हमारे ज्ञानके आदिस्रोत हैं। वे हमें देवताओंको प्रसन्न करनेकी विद्या—यज्ञानुष्ठानका पाठ पढ़ाते हैं। गीतामें भी कहा है—

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
देवान् भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
इष्टान् भोगान् हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्‍क्ते स्तेन एव स:॥
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसंभव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
(३। १०—१६)

‘प्रजापति ब्रह्माजीने कल्पके आदिमें यज्ञसहित प्रजाओंको रचकर उनसे कहा कि तुमलोग इस यज्ञके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुमलोगोंको इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। तुमलोग इस यज्ञके द्वारा देवताओंको उन्नत करो और वे देवता तुमलोगोंको उन्नत करें। इस प्रकार नि:स्वार्थभावसे एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे। यज्ञके द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुमलोगोंको बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंके द्वारा दिये हुए भोगोंको जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीर-पोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं। वे तो पापको ही खाते हैं। सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्नकी उत्पत्ति वृष्टिसे होती है, वृष्टि यज्ञसे होती है और यज्ञ विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। कर्मसमुदायको तू वेदसे उत्पन्न और वेदको अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञमें प्रतिष्ठित है। हे पार्थ! जो पुरुष इस लोकमें इस प्रकार परम्परासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।’

ऊपरके वचनोंसे यह प्रकट होता है कि (१) यज्ञकी उत्पत्ति सृष्टिके प्रारम्भमें हुई और (२) यज्ञ हमारे अभ्युदय (लौकिक उन्नति) एवं नि:श्रेयस (परम कल्याण) दोनोंका साधन है। यज्ञसे हम जो कुछ चाहें प्राप्त कर सकते हैं। लौकिक सुख-समृद्धि तथा ऐहिक एवं पारलौकिक भोग हमें देवताओंसे प्राप्त होते हैं। देवता भगवान् की ही कलाएँ—भगवान् की ही दिव्य चेतन विभूतियाँ हैं, जो मनुष्यों एवं मनुष्योंसे निम्न स्तरके जीवोंकी लौकिक आवश्यकताओंको पूर्ण करते हैं—हमारे लिये समयानुसार घाम, चाँदनी, वर्षा आदिकी व्यवस्था करके हमारे वनस्पतिवर्गका और उनके द्वारा हमारे जीवनका पोषण करते हैं। वे ही हमें रहनेके लिये पृथ्वी, हमारी प्यास बुझानेके लिये जल, हमारे भोजनको पकाने तथा हमारा शीतसे त्राण करनेके लिये अग्नि, साँस लेनेके लिये वायु तथा इधर-उधर घूमनेके लिये अवकाश प्रदान करते हैं। सारांश, वे ही इस संसारचक्रकी व्यवस्था करते हैं, जीवोंके कर्मोंकी देख-रेख तथा उनके अनुसार शुभाशुभ फलभोगका विधान करते हैं तथा हमारे जीवन-मरणका नियमन करते हैं। इन भगवत्कलाओंको प्रसन्न रखने, इनका आशीर्वाद, सहानुभूति एवं सद्भाव प्राप्त करनेके लिये और आदान-प्रदानके सिद्धान्तको चालू रखनेके लिये—जो जगच्चक्रके परिचालनके लिये आवश्यक एवं अनिवार्य है—यज्ञानुष्ठानके द्वारा इनकी आराधना करना मनुष्यमात्रका परम कर्तव्य है। जबतक भारतमें यज्ञ-यागादिके द्वारा देवताओंकी आराधना होती थी, तबतक यह देश सुखी एवं समृद्ध था, समयपर यथेष्ट मात्रामें वर्षा होती थी तथा बाढ़, भूकम्प, दुष्काल एवं महामारी आदि दैवी संकटोंसे यह प्राय: मुक्त था। जबसे यज्ञ-यागादिकी प्रथा लुप्तप्राय हो गयी, तभीसे यह देश अधिकाधिक दैवी प्रकोपोंका शिकार होने लगा है!

इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि यज्ञसे अभ्युदय एवं नि:श्रेयस—दोनों सिद्ध होते हैं। संसार-चक्रका परिचालन करनेवाले भगवत्कलारूप देवताओंकी प्रसन्नताद्वारा वह हमारी सुख-समृद्धिका साधन बनता है और निष्कामभावसे केवल कर्तव्यबुद्धिपूर्वक किये जानेपर वह भगवत्प्रीतिका सम्पादन कर भगवत्प्राप्ति अथवा मोक्षरूप जीवनके परम लक्ष्यकी प्राप्ति करा देता है। यही नहीं, यज्ञ-दान-तपरूप कर्मको भगवान् ने अवश्यकर्तव्य, अनिवार्य बताया है—‘यज्ञदानतप:कर्म न त्याज्यं कार्यमेव तत्’ (गीता १८। ५) और यज्ञादिकी परम्पराका विच्छेद करनेवालेको अघायु (पापी) कहकर उसकी गर्हणा की है। इस यज्ञचक्रको चलानेके लिये ही वेद, अग्नि, गौ एवं ब्राह्मणोंकी सृष्टि हुई है। वेदोंमें यज्ञानुष्ठानकी विधि बतायी गयी है—‘कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि’ (गीता ३। १५) एवं ब्राह्मणोंके द्वारा वह विधि सम्पन्न होती है। अग्निके द्वारा आहुतियाँ देवताओंको पहुँचायी जाती हैं—‘अग्निमुखा हि देवा भवन्ति’ और गौसे हमें देवताओंको अर्पण करनेयोग्य हवि प्राप्त होता है। इसीलिये हमारे शास्त्रोंमें गौको ‘हविर्दुघा’ (हवि देनेवाली) कहा गया है। गोघृत देवताओंका परम प्रिय हवि है और यज्ञके लिये भूमिको जोतकर तैयार करने एवं गेहूँ, चावल, जौ, तिल आदि हविष्यान्न पैदा करनेके लिये गो-संतति—बैलोंकी परम आवश्यकता है। यही नहीं, यज्ञभूमिको परिष्कृत एवं शुद्ध करनेके लिये उसे गोमूत्रसे छिड़का जाता है और गोबरसे लीपा जाता है तथा गोबरके कंडोंसे यज्ञाग्निको प्रज्वलित किया जाता है। यज्ञानुष्ठानके पूर्व प्रत्येक यजमानको देहशुद्धिके लिये पंचगव्यका प्राशन करना होता है और यह गायके दूध, गायके दही, गायके घी, गोमूत्र एवं गायके ही गोबरसे तैयार किया जाता है—इसीलिये इसे ‘पंचगव्य’ कहते हैं। इसके अतिरिक्त गायका दूध और उससे तैयार होनेवाले पदार्थ सबसे स्वादिष्ट एवं पोषक आहार हैं। दूधमें पकाये हुए चावलको—जिसे आधुनिक भाषामें खीर कहते हैं—संस्कृतमें परमान्न (सर्वश्रेष्ठ भोजन) कहा गया है और घीको हमारे यहाँ सर्वश्रेष्ठ रसायन माना गया है—‘आयुर्वै घृतम्’। इतना ही नहीं, घृतरहित अन्नको हमारे शास्त्रोंमें अपवित्र कहा गया है। घी और चीनीसे युक्त खीरका भोजन ब्राह्मणोंके लिये विशेष तृप्तिकारक होता है और देवताओंको आहुति पहुँचानेके लिये हमारे यहाँ दो ही मार्ग माने गये हैं—अग्नि और ब्राह्मणोंका मुख। बल्कि भगवान् ने तो कहा है कि—‘मैं यज्ञमें यजमानद्वारा दी हुई घीसे चूती हुई आहुतियोंका अग्निरूप मुखसे भक्षण करता हुआ उतना तृप्त नहीं होता, जितना कि अपने सम्पूर्ण कर्मफल मुझे अर्पण करके सदा संतुष्ट रहनेवाले निष्काम ब्राह्मणके मुखसे प्रत्येक ग्रास खाते समय होता हूँ’—

नाहं तथाद्मि यजमानहविर्विताने
श्च्योतद्‍घृतप्लुतमदन् हुतभुङ्मुखेन।
यद् ब्राह्मणस्य मुखतश्चरतोऽनुघासं
तुष्टस्य मय्यवहितैर्निजकर्मपाकै:॥
(श्रीमद्भा० ३। १६। ८)

तात्पर्य यह कि दोनों प्रकारसे देवताओंकी तृप्तिके लिये तथा सर्वोपरि भगवत्प्रीतिके लिये गौकी परमोपयोगिता सिद्ध होती है।

भारत-जैसे कृषिप्रधान देशमें आर्थिक दृष्टिसे भी गायका महत्त्व स्पष्ट ही है। जिन लोगोंने हमारे ग्रामीण जीवनका विशेष मनोयोगपूर्वक अध्ययन किया है, उन सबने एक स्वरसे हमारे जीवनके लिये गौकी परमावश्यकता बतायी है। गोधन ही हमारा प्रधान बल है। गोधनकी उपेक्षा करके हम जीवित नहीं रह सकते। अत: हमारे गोवंशकी संख्या एवं गुणोंकी दृष्टिसे जो भयानक ह्रास हो रहा है, उसका बहुत शीघ्र प्रतीकार करना चाहिये और हमारी गौओंकी दशाको सुधारने, उनकी नस्लकी उन्नति करने और उनका दूध बढ़ाने तथा इस प्रकार दुग्धोत्पादनमें वृद्धि करनेका भी पूरा प्रयत्न करना चाहिये। गायों, बछड़ों एवं बैलोंका वध रोकने तथा उनपर किये जानेवाले अत्याचारोंको बंद करनेके लियेकानून बनाना आवश्यक है और विधर्मियोंको भी गौकी परमोपयोगिता बतलाकर गोजातिके प्रति उनकी सहानुभूति एवं सद्भावका अर्जन करना चाहिये। जिस देशमें कभी दूध और दहीका पानीकी तरह बाहुल्य था, उस देशमें असली दूध मिलनेमें कठिनता हो रही है—यह कैसा आश्चर्य है!

आध्यात्मिक दृष्टिसे भी गायका महत्त्व कम नहीं है। गायके दर्शन एवं स्पर्शसे पवित्रता आती है, पापोंका नाश होता है, गायके शरीरमें तैंतीस करोड़ देवताओंका निवास माना गया है। गायके खुरसे उड़नेवाली धूलि भी पवित्र मानी गयी है।

महाभारतमें कथा आती है। एक बार राजा नहुषने च्यवन ऋषिके बदलेमें अपना सारा राज्य देना भी स्वीकार कर लिया; किंतु च्यवनने कहा कि मेरा मूल्य नहीं आया। इसपर राजाने मुनि गविजके निर्णयानुसार ब्राह्मण और गायकी कीमत समान समझकर गायसे ऋषिका मूल्य आँक दिया। तब ऋषि बोले—‘राजन्! अब मैं उठता हूँ, तुमने यथार्थमें मुझे मोल ले लिया। मैं इस संसारमें गौओंके समान दूसरा कोई धन नहीं समझता। गौओंके नाम और गुणोंका कीर्तन करना-सुनना, गौओंका दान देना और उनका दर्शन करना—इनकी शास्त्रोंमें बड़ी प्रशंसा की गयी है। ये सब कार्य सम्पूर्ण पापोंको दूर करके परम कल्याण देनेवाले हैं। गौएँ लक्ष्मीकी जड़ हैं, उनमें पापका लेश भी नहीं है। गौएँ ही मनुष्यको अन्न एवं देवताओंको हविष्य देनेवाली हैं। स्वाहा और वषट्कार सदा गौओंमें ही प्रतिष्ठित होते हैं। गौएँ ही यज्ञका संचालन करनेवाली और उसका मुख हैं। वे विकाररहित दिव्य अमृत धारण करती और दुहनेपर अमृत ही देती हैं। वे अमृतका आधार होती हैं और सारा संसार उनके सामने मस्तक झुकाता है। इस पृथ्वीपर गौएँ अपने तेज और शरीरमें अग्निके समान हैं। वे महान् तेजकी राशि और समस्त प्राणियोंको सुख देनेवाली हैं। गौओंका समुदाय जहाँ निर्भयतापूर्वक बैठकर साँस लेता है, उस स्थानकी श्री बढ़ जाती है और वहाँका सारा पाप नष्ट हो जाता है। गौएँ स्वर्गकी सीढ़ी हैं, वे स्वर्गमें भी पूजी जाती हैं। गौएँ समस्त कामनाओंको पूर्ण करनेवाली देवियाँ हैं, उनसे बढ़कर दूसरा कोई नहीं है। राजन्! यह मैंने गौका माहात्म्य बतलाया है, इसमें उनके गुणोंके एक अंशका दिग्दर्शन कराया गया है। गौओंके सम्पूर्ण गुणोंका वर्णन तो कोई कर ही नहीं सकता।’१

१-उत्तिष्ठाम्येष राजेन्द्र सम्यक् क्रीतोऽस्मि तेऽनघ।

गोभिस्तुल्यं न पश्यामि धनं किंचिदिहाच्युत॥

कीर्तनं श्रवणं दानं दर्शनं चापि पार्थिव।

गवां प्रशस्यते वीर सर्वपापहरं शिवम्॥

गावो लक्ष्म्या: सदा मूलं गोषु पाप्मा न विद्यते।

अन्नमेव सदा गावो देवानां परमं हवि:॥

स्वाहाकारवषट्कारौ गोषु नित्यं प्रतिष्ठितौ।

गावो यज्ञस्य नेत्र्यो वै तथा यज्ञस्य ता मुखम्॥

अमृतं ह्यव्ययं दिव्यं क्षरन्ति च वहन्ति च।

अमृतायतनं चैता: सर्वलोकनमस्कृता:॥

तेजसा वपुषा चैव गावो वह्निसमा भुवि।

गावो हि सुमहत्तेज: प्राणिनां च सुखप्रदा:॥

निविष्टं गोकुलं यत्र श्वासं मुञ्चति निर्भयम्।

विराजयति तं देशं पापं चास्यापकर्षति॥

गाव: स्वर्गस्य सोपानं गाव: स्वर्गेऽपि पूजिता:।

गाव: कामदुहो देव्यो नान्यत् किंचित् परं स्मृतम्॥

इत्येतद् गोषु मे प्रोक्तं माहात्म्यं भरतर्षभ।

गुणैकदेशवचनं शक्यं पारायणं न तु॥

(अनुशासन० ५१।२६—३४)

‘ब्रह्माजी भी इन्द्रसे कहते हैं—

इन्द्र! गौओंको यज्ञका अंग और साक्षात् यज्ञरूप ही बतलाया गया है। इनके बिना यज्ञ किसी तरह भी नहीं हो सकता। इसके सिवा, ये अपने दूध और घीसे प्रजाका पालन-पोषण करती हैं तथा इनके पुत्र (बैल) भी खेतीके काम आते और तरह-तरहके अन्न एवं बीज पैदा करते हैं, जिनसे यज्ञ सम्पन्न होते और सब प्रकारसे हव्य-कव्यका भी काम चलता है; इन्हींसे दूध, दही और घी प्राप्त होते हैं। सुरेश्वर! ये गौएँ बड़ी पवित्र होती हैं और बैल भूख-प्यासका कष्ट सहकर अनेक प्रकारके बोझ ढोते रहते हैं। इस प्रकार गोजाति अपने कर्मसे इस लोकमें ऋषियों तथा प्रजाओंका भी पालन करती रहती है। इन्द्र! उसके व्यवहारमें शठता या माया नहीं होती, वह सदा पवित्र कर्ममें लगी रहती है।’२

२-यज्ञाङ्गं कथिता गावो यज्ञ एव च वासव।

एताभिश्च विना यज्ञो न वर्तेत कथञ्चन॥

धारयन्ति प्रजाश्चैव पयसा हविषा तथा।

एतासां तनयाश्चापि कृषियोगमुपासते॥

जनयन्ति च धान्यानि बीजानि विविधानि च।

ततो यज्ञा: प्रवर्तन्ते हव्यं कव्यं च सर्वश:॥

पयोदधिघृतं चैव पुण्याश्चैता: सुराधिप।

वहन्ति विविधान् भारान् क्षुत्तृष्णापरिपीडिता:॥

मुनीश्च धारयन्तीह प्रजाश्चैवापि कर्मणा।

वासवाकूटवाहिन्य: कर्मणा सुकृतेन च॥

(अनुशासन० ८३।१७—२१)

इस प्रकार सभी दृष्टियोंसे गाय हमारे लिये बडे़ ही आदर और प्रेमकी वस्तु है, हमें सब प्रकारसे उसकी रक्षा एवं उन्नतिके लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur