गीतामें फलसहित विविध उपासनाओंका वर्णन
गोविन्दाचार्यदेवानां पितॄणां यक्षरक्षसाम्।
उपासना च भूतानां फलं प्रोक्तं तु भावत:॥
गीतामें भगवान्, आचार्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिकी उपासनाका (विस्तारसे अथवा संक्षेपसे) फलसहित वर्णन हुआ है; जैसे—
(१) अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी(प्रेमी)—ये चार प्रकारके भक्त भगवान्का भजन करते हैं अर्थात् उनकी शरण होते हैं (७। १६)।
भगवान्का पूजन, भजन करनेवाले भक्त भगवान्को प्राप्त हो जाते हैं—‘मद्भक्ता यान्ति मामपि’ (७।२३); ‘यान्ति मद्याजिनोऽपि माम्’ (९।२५)।*
* गीतामें भगवान्की उपासनाका ही मुख्यतासे वर्णन हुआ है। इस ‘गीता-दर्पण’ में भी कई शीर्षकोंके अन्तर्गत भगवान्की उपासनाका अनेक प्रकारसे विवेचन किया गया है। अत: यहाँ भगवान्की उपासनाका वर्णन अत्यन्त संक्षेपसे किया गया है।
(२) जो वास्तवमें जीवन्मुक्त, तत्त्वज्ञ, भगवत्प्रेमी महापुरुष हैं, जिनका जीवन शास्त्रोंके अनुसार है, वे ‘आचार्य’ होते हैं। ऐसे आचार्यकी आज्ञाका पालन करना, उनके सिद्धान्तोंके अनुसार अपना जीवन बनाना ही उनकी उपासना है (४। ३४; १३। ७)। इस तरह आचार्यकी उपासना करनेवाले मनुष्य मृत्युको तर जाते हैं (४।३५; १३।२५)।
(३) जो लोग कामनाओंमें तन्मय होते हैं और भोग भोगना तथा संग्रह करना—इसके सिवाय और कुछ नहीं है, ऐसा निश्चय करनेवाले होते हैं, वे भोगोंकी प्राप्तिके लिये वेदोक्त शुभ कर्म करते हैं (२।४२-४३)। कर्मोंकी सिद्धि (फल) चाहनेवाले मनुष्य देवताओंकी उपासना किया करते हैं; क्योंकि मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि बहुत जल्दी मिल जाती है (४।१२)। सुखभोगकी कामनाओंके द्वारा जिनका विवेक ढक जाता है, वे भगवान्को छोड़कर देवताओंकी शरण हो जाते हैं और अपने-अपने स्वभावके परवश होकर कामनापूर्तिके लिये अनेक नियमों, उपायोंको धारण करते हैं (७।२०)। भगवान् कहते हैं कि जो-जो भक्त जिस-जिस देवताका पूजन करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ। फिर वह उस श्रद्धासे युक्त होकर उस देवताकी उपासना करता है। परंतु उसको उस उपासनाका फल मेरे द्वारा विधान किया हुआ ही मिलता है (७।२१-२२)। तीनों वेदोंमें विधान किये हुए सकाम कर्मोंको करनेवाले, सोमरसको पीनेवाले पापरहित मनुष्य यज्ञोंके द्वारा इन्द्रका पूजन करके स्वर्गकी प्राप्ति चाहते हैं (९।२०)। कामनायुक्त मनुष्य श्रद्धापूर्वक अन्य देवताओंका पूजन करते हैं, वे भी वास्तवमें मेरा (भगवान् का) ही पूजन करते हैं; परंतु उनका वह पूजन अविधिपूर्वक है (९।२३)।
देवताओंकी उपासना करनेवाले मनुष्य स्वर्गलोकमें जाते हैं और वहाँ अपने पुण्यका फल भोगकर फिर लौटकर मृत्युलोकमें आते हैं (९।२०-२१)। देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनके लोकोंमें चले जाते हैं—‘देवान्देवयज:’ (७।२३); ‘यान्ति देवव्रता देवान्’ (९।२५)।
(४) पितरोंके भक्त पितरोंका पूजन करते हैं और इसके फलस्वरूप वे पितरोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् पितृलोकमें चले जाते हैं—‘पितॄन्यान्ति पितृव्रता:’ (९।२५)। (परंतु यदि वे निष्कामभावसे कर्तव्य समझकर पितरोंका पूजन करते हैं, तो वे मुक्त हो जाते हैं।)
(५) राजस मनुष्य यक्ष-राक्षसोंका पूजन करते हैं (१७। ४) और फलस्वरूप यक्ष-राक्षसोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनकी योनिमें चले जाते हैं**।
** गीतामें भगवान्ने यक्ष-राक्षसोंके पूजनका तो वर्णन कर दिया—‘यक्षरक्षांसि राजसा:’ (१७। ४), पर उनके पूजनके फलका वर्णन नहीं किया। अत: यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जैसे देवताओंका पूजन करनेवाले देवताओंको ही प्राप्त होते हैं (९। २५), ऐसे ही यक्ष-राक्षसोंका पूजन करनेवाले यक्ष-राक्षसोंको ही प्राप्त होते हैं। कारण कि यक्ष-राक्षस भी देवयोनि होनेसे देवताओंके ही अन्तर्गत आते हैं।
(६) तामस पुरुष भूत-प्रेतोंका पूजन करते हैं (१७।४)। भूत-प्रेतोंका पूजन करनेवाले भूत-प्रेतोंको प्राप्त होते हैं अर्थात् उनकी योनिमें चले जाते हैं—‘भूतानि यान्ति भूतेज्या:’ (९।२५)।***
*** सत्रहवें अध्यायके चौदहवें श्लोकमें ‘देवद्विजगुरुप्राज्ञपूजनम्’ पदसे जो देवता, ब्राह्मण गुरुजन और ज्ञानीके पूजनकी बात कही गयी है, उसे यहाँ उपासनाके अन्तर्गत नहीं लिया गया है। कारण कि वहाँ ‘शारीरिक तप’ (केवल शरीर-सम्बन्धी पूजन, आदर-सत्कार आदि)-का प्रसंग है, जो कि परम्परासे मुक्त होनेमें हेतु है। दूसरी बात, उन देवता, ब्राह्मण आदिका पूजन केवल शास्त्रकी आज्ञा मानकर कर्तव्यरूपसे करते हैं’, उनको इष्ट मानकर नहीं करते।
गीतामें निष्कामभावसे मनुष्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस आदिकी सेवा, पूजन करनेका निषेध नहीं किया गया है, प्रत्युत निष्कामभावसे सबकी सेवा एवं हित करनेकी बड़ी महिमा गायी गयी है (५।२५; ६।३२; १२।४)। तात्पर्य है कि निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी आज्ञासे केवल देवताओंकी पुष्टिके लिये, उनकी उन्नतिके लिये ही कर्तव्य-कर्म, पूजा आदि की जाय, तो उससे मनुष्य बँधता नहीं, प्रत्युत परमात्माको प्राप्त हो जाता है (३।११)। ऐसे ही निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी आज्ञासे कर्तव्य समझकर पितरोंकी तृप्तिके लिये श्राद्ध-तर्पण किया जाय, तो उससे परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिके उद्धारके लिये, उन्हें सुख-शान्ति देनेके लिये निष्कामभावपूर्वक और शास्त्रकी आज्ञासे उनके नामसे गया-श्राद्ध करना, भागवत-सप्ताह करना, दान करना, भगवन्नामका जप-कीर्तन करना, गीता-रामायण आदिका पाठ करना आदि-आदि किये जायँ, तो उनका उद्धार हो जाता है, उनको सुख-शान्ति मिलती है और साधकको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। उन देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत आदिको अपना इष्ट मानकर सकामभावपूर्वक उनकी उपासना करना ही खास बन्धनका कारण है; जन्म-मरणका, अधोगतिका कारण है।
मनुष्य, देवता, पितर, यक्ष-राक्षस, भूत-प्रेत, पशु-पक्षी आदि सम्पूर्ण प्राणियोंमें हमारे प्रभु ही हैं, इन प्राणियोंके रूपमें हमारे प्रभु ही हैं—ऐसा समझकर (भगवद्बुद्धिसे) निष्कामभावपूर्वक सबकी सेवा की जाय तो परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
उपर्युक्त दोनों बातोंका तात्पर्य यह हुआ कि अपनेमें सकामभाव होना और जिसकी सेवा की जाय, उसमें भगवद्बुद्धिका न होना ही जन्म-मरणका कारण है। अगर अपनेमें निष्कामभाव हो और जिसकी सेवा की जाय, उसमें भगवद्बुद्धि (भगवद्भाव) हो तो वह सेवा परमात्मप्राप्ति करानेवाली ही होगी।
एक विलक्षण बात है कि अगर भगवान्की उपासनामें सकामभाव रह भी जाय, तो भी वह उपासना उद्धार करनेवाली ही होती है, पर भगवान्में अनन्यभाव होना चाहिये। भगवान्ने गीतामें अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी—इन चारों भक्तोंको उदार कहा है (७।१८); और मेरा पूजन करनेवाले मेरेको ही प्राप्त होते हैं—ऐसा कहा है (७।२३; ९।२५)। मनुष्य किसी भी भावसे भगवान्में लग जाय तो उसका उद्धार होगा ही।
देवता आदिकी उपासनाका फल तो अन्तवाला (नाशवान्) होता है (७।२३); क्योंकि देवताओंके उपासक पुण्यके बलपर स्वर्गादि ऊँचे लोकोंमें जाते हैं और पुण्यके समाप्त होनेपर फिर लौटकर आते हैं। परंतु परमात्माकी प्राप्ति अन्तवाली नहीं होती (८।१६); क्योंकि यह जीव परमात्माका अंश है (१५।७)। अत: जब यह जीव अपने अंशी परमात्माकी कृपासे उनको प्राप्त हो जाता है, तो फिर वह वहाँसे लौटता नहीं (८।२१; १५।६)। कारण कि परमात्माकी कृपा नित्य है और स्वर्गादि लोकोंमें जानेवालोंके पुण्य अनित्य हैं।
प्रश्न—भगवान्ने कहा है कि भूत-प्रेतोंकी उपासना करनेवाले भूत-प्रेत† ही बनते हैं (९।२५); ऐसा क्यों?
† जो यहाँसे चला जाता है, मर जाता है, उसको ‘प्रेत’ कहते हैं और उसके पीछे जो मृतक-कर्म किये जाते हैं, उनको शास्त्रीय परिभाषामें ‘प्रेतकर्म’ कहते हैं। जो पाप-कर्मोंके फलस्वरूप भूत, पिशाचकी योनिमें चले जाते हैं, उनको भी ‘प्रेत’ कहा जाता है; अत: यहाँ पापोंके कारण नीच योनियोंमें गये हुएका वाचक ही ‘प्रेत’ शब्द आया है।
उत्तर—भूत-प्रेतोंकी उपासना करनेवालोंके अन्त:करणमें भूत-प्रेतोंका ही महत्त्व होता है और भूत-प्रेत ही उनके इष्ट होते हैं; अत: अन्तकालमें उनको प्रेतोंका ही चिन्तन होता है और चिन्तनके अनुसार वे भूत-प्रेत बन जाते हैं (८।६)।
अगर कोई मनुष्य यह सोचे कि अभी तो मैं पाप कर लूँ, व्यभिचार, अत्याचार कर लूँ, फिर जब मरने लगूँगा, तब भगवान्का नाम ले लूँगा, भगवान्को याद कर लूँगा, तो उसका यह सोचना सर्वथा गलत है। कारण कि मनुष्य जीवनभर जैसा कर्म करता है, मनमें जैसा चिन्तन करता है, अन्तकालमें प्राय: वही सामने आता है। अत: दुराचारी मनुष्यको अन्तकालमें अपने दुराचारोंका ही चिन्तन होगा और वह अपने पाप-कर्मोंके फलस्वरूप नीच योनियोंमें ही जायगा, भूत-प्रेत ही बनेगा।
अगर कोई मनुष्य काशी, मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या आदि धामोंमें रहकर यह सोचता है कि धाममें रहनेसे, मरनेपर मेरी सद्गति होगी ही, दुर्गति तो हो नहीं सकती और ऐसा सोचकर वह पाप, दुराचार, व्यभिचार, झूठ-कपट, चोरी-डकैती आदि कर्मोंमें लग जाता है, तो मरनेपर उसकी भयंकर दुर्गति होगी। वह अन्तिम समयमें प्राय: किसी कारणसे धामके बाहर चला जायगा और वहीं मरकर भूत-प्रेत बन जायगा। अगर वह धाममें भी मर जाय, तो भी अपने पापोंके कारण वह भूत-प्रेत बन जायगा।
प्रश्न—भूत आदि योनि न मिले, इसके लिये मनुष्यको क्या करना चाहिये?
उत्तर—मनुष्यशरीर केवल परमात्मप्राप्तिके लिये ही मिला है। अत: मनुष्यको सांसारिक भोग और संग्रहकी आसक्तिमें न फँसकर परमात्माके शरण हो जाना चाहिये; इसीसे वह अधोगतिसे, भूत-प्रेतकी योनिसे बच सकता है।
प्रश्न—भूत-प्रेत और पितरमें क्या अन्तर है?
उत्तर—ऐसे तो भूत, प्रेत, पिशाच, पितर आदि सभी देवयोनि कहलाते हैं ††, पर उनमें भी कई भेद होते हैं। भूत-प्रेतोंका शरीर वायुप्रधान होता है; अत: वे हरेकको नहीं दीखते। हाँ, अगर वे स्वयं किसीको अपना रूप दिखाना चाहें तो दिखा सकते हैं। उनको मल-मूत्र आदि अशुद्ध चीजें खानी पड़ती हैं। वे शुद्ध अन्न-जल नहीं खा सकते; परंतु कोई उनके नामसे शुद्ध पदार्थ दे तो वे खा सकते हैं। भूत-प्रेतोंके शरीरोंसे दुर्गन्ध आती है।
†† विद्याधराऽप्सरोयक्षरक्षोगन्धर्वकिन्नरा:। पिशाचो गुह्यक: सिद्धो भूतोऽमी देवयोनय:॥ (अमरकोष १।१।११)
पितर भूत-प्रेतोंसे ऊँचे माने जाते हैं। पितर प्राय: अपने कुटुम्बके साथ ही सम्बन्ध रखते हैं और उसकी रक्षा, सहायता करते हैं। वे कुटुम्बियोंको व्यापार आदिकी बात बता देते हैं, उनको अच्छी सम्मति देते हैं, अगर घरवाले बँटवारा करना चाहें तो उनका बँटवारा कर देते हैं, आदि। पितर गायके दूधसे बनी गरम-गरम खीर खाते हैं, गंगाजल-जैसा ठंडा जल पीते हैं, शुद्ध पदार्थ ग्रहण करते हैं। कई पितर घरवालोंको दु:ख भी देते हैं, तंग भी करते हैं, तो यह उनके स्वभावका भेद है।
जैसे मनुष्योंमें चारों वर्णोंका, ऊँच-नीचका, स्वभावका भेद रहता है, ऐसे ही पितर, भूत, प्रेत, पिशाच आदिमें भी वर्ण, जाति आदिका भेद रहता है।
प्रश्न—कौन-से मनुष्य मरनेके बाद भूत-प्रेत बनते हैं?
उत्तर—जिन मनुष्योंका खान-पान अशुद्ध होता है, जिनके आचरण खराब होते हैं, जो दुर्गुण-दुराचारोंमें लगे रहते हैं, जिनका दूसरोंको दु:ख देनेका स्वभाव है, जो केवल अपनी ही जिद रखते हैं, ऐसे मनुष्य मरनेके बाद क्रूर स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं। ये जिनमें प्रविष्ट होते हैं, उनको बहुत दु:ख देते हैं और मन्त्र आदिसे भी जल्दी नहीं निकलते।
जिन मनुष्योंका स्वभाव सौम्य है, दूसरोंको दु:ख देनेका नहीं है; परन्तु सांसारिक वस्तु, स्त्री, पुत्र, धन, जमीन आदिमें जिनकी ममता-आसक्ति रहती है, ऐसे मनुष्य मरनेके बाद सौम्य स्वभाववाले भूत-प्रेत बनते हैं। ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं तो उसको दु:ख नहीं देते और अपनी गतिका उपाय भी बता देते हैं।
जिनको विद्या आदिका बहुत अभिमान, मद होता है; उस अभिमानके कारण जो दूसरोंको नीचा दिखाते हैं, दूसरोंका अपमान-तिरस्कार करते हैं, दूसरोंको कुछ भी नहीं समझते, ऐसे मनुष्य मरकर ‘ब्रह्मराक्षस’ (जिन्न) बनते हैं। ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं, किसीको पकड़ लेते हैं तो बिना अपनी इच्छाके उसको छोड़ते नहीं। इनपर कोई तन्त्र-मन्त्र नहीं चलता। दूसरा कोई इनपर मन्त्रोंका प्रयोग करता है तो उन मन्त्रोंको ये स्वयं बोल देते हैं।
एक सच्ची घटना है। दक्षिणमें मोरोजी पन्त नामक एक बहुत बड़े विद्वान् थे। उनको विद्याका बहुत अभिमान था। वे अपने समान किसीको विद्वान् मानते ही नहीं थे और सबको नीचा दिखाते थे। एक दिनकी बात है, दोपहरके समय वे अपने घरसे स्नान करनेके लिये नदीपर जा रहे थे। मार्गमें एक पेड़पर दो ब्रह्मराक्षस बैठे हुए थे। वे आपसमें बातचीत कर रहे थे। एक ब्रह्मराक्षस बोला—हम दोनों तो इस पेड़की दो डालियोंपर बैठे हैं, पर यह तीसरी डाली खाली है; इसपर कौन आयेगा बैठनेके लिये? दूसरा ब्रह्मराक्षस बोला—यह जो नीचेसे जा रहा है न? यह आकर यहाँ बैठेगा; क्योंकि इसको अपनी विद्वत्ताका बहुत अभिमान है। उन दोनोंके संवादको मोरोजी पन्तने सुना तो वे वहीं रुक गये और विचार करने लगे कि अरे! विद्याके अभिमानके कारण मेरेको ब्रह्मराक्षस बनना पड़ेगा, प्रेतयोनियोंमें जाना पड़ेगा! अपनी दुर्गतिसे वे घबरा गये और मन-ही-मन सन्त ज्ञानेश्वरजीके शरणमें गये कि मैं आपके शरणमें हूँ, आपके सिवाय मेरेको इस दुर्गतिसे बचानेवाला कोई नहीं है। ऐसा विचार करके वे वहींसे आलन्दीके लिये चल पड़े, जहाँ संत ज्ञानेश्वरजी जीवित समाधि ले चुके थे। फिर वे जीवनभर वहीं रहे, घर आये ही नहीं। सन्तकी शरणमें जानेसे उनका विद्याका अभिमान चला गया और सन्त-कृपासे वे भी सन्त बन गये!
जो स्त्री पर-पुरुषका चिन्तन करती रहती है तथा जिसकी पुरुषमें बहुत ज्यादा आसक्ति होती है, वह मरनेके बाद ‘चुड़ैल’ बन जाती है। भूत-प्रेतोंका प्राय: यह नियम रहता है कि पुरुष भूत-प्रेत पुरुषोंको ही पकड़ते हैं और स्त्री भूत-प्रेत स्त्रियोंको ही पकड़ते हैं; परन्तु चुड़ैल केवल पुरुषोंको ही पकड़ती है। चुड़ैल दो प्रकारकी होती है—एक तो पुरुषका शोषण करती रहती है अर्थात् उसका खून चूसती रहती है, उसकी शक्ति क्षीण करती है; और दूसरी पुरुषका पोषण करती है, उसको सुख-आराम देती है। ये दोनों ही प्रकारकी चुड़ैलें पुरुषको अपने वशमें रखती हैं।
एक सिपाही था। वह रातके समय कहींसे अपने घर आ रहा था। रास्तेमें उसने चन्द्रमाके प्रकाशमें एक वृक्षके नीचे एक सुन्दर स्त्री देखी। उसने उस स्त्रीसे बातचीत की तो उस स्त्रीने कहा—मैं आ जाऊँ क्या? सिपाहीने कहा—हाँ, आ जा। सिपाहीके ऐसा कहनेपर वह स्त्री, जो चुड़ैल थी, उसके पीछे आ गयी। अब वह रोज रातमें उस सिपाहीके पास आती, उसके साथ सोती, उसका संग करती और सबेरे चली जाती। इस तरह वह उस सिपाहीका शोषण करने लगी। एक बार रातमें वे दोनों लेट गये, पर बत्ती जलती रह गयी तो सिपाहीने उससे कहा कि तू बत्ती बन्द कर दे। उसने लेटे-लेटे ही अपना हाथ लम्बा करके बत्ती बन्द कर दी। अब सिपाहीको पता लगा कि यह कोई सामान्य स्त्री नहीं है, यह तो चुड़ैल है! वह बहुत घबराया। चुड़ैलने उसको धमकी दी कि अगर तू किसीको मेरे बारेमें बतायेगा तो मैं तेरेको मार डालूँगी। इस तरह वह रोज रातमें आती और सबेरे चली जाती। सिपाहीका शरीर दिन-प्रतिदिन सूखता जा रहा था। लोग उससे पूछते कि भैया! तुम इतने क्यों सूखते जा रहे हो? क्या बात है, बताओ तो सही। परन्तु चुड़ैलके डरके मारे वह किसीको कुछ बताता नहीं था। एक दिन वह दूकानसे दवाई लाने गया। दूकानदारने दवाईकी पुड़िया बाँधकर दे दी। सिपाही उस पुड़ियाको जेबमें डालकर घर चला आया। रातके समय जब वह चुड़ैल आयी, तब वह दूरसे ही खड़े-खड़े बोली कि तेरी जेबमें जो पुड़िया है, उसको निकालकर फेंक दे। सिपाहीको विश्वास हो गया कि इस पुड़ियामें जरूर कुछ करामात है, तभी तो आज यह चुड़ैल मेरे पास नहीं आ रही है! सिपाहीने उससे कहा कि मैं पुड़िया नहीं फेकूँगा। चुड़ैलने बहुत कहा, पर सिपाहीने उसकी बात मानी नहीं। जब चुड़ैलका उसपर वश नहीं चला, तब वह चली गयी। सिपाहीने जेबमेंसे पुड़ियाको निकालकर देखा तो वह गीताका फटा हुआ पन्ना था! इस तरह गीताका प्रभाव देखकर वह सिपाही हर समय अपनी जेबमें गीता रखने लगा। वह चुड़ैल फिर कभी उसके पास नहीं आयी।
जो लोग भगवान्के मन्दिरमें रहते हैं; गीता, रामायण, भागवत आदिका पाठ करते हैं; भगवान्की आरती, स्तुति, प्रार्थना करते हैं, भगवन्नामका जप करते हैं, पर साथ-ही-साथ लोगोंको ठगते हैं, भगवान्की भोग-सामग्री, वस्त्र आदिकी चोरी करते हैं, ठाकुरजीको पैसा कमानेका साधन मानते हैं, ऐसे मनुष्य भी मरनेके बाद भगवदपराधके कारण भूत-प्रेत बन सकते हैं। ये किसीमें प्रविष्ट हो जाते हैं तो उसको दु:ख नहीं देते। पूर्वजन्ममें भगवत्पूजा, आरती, स्तुति-प्रार्थना आदि करनेका स्वभाव पड़ा हुआ होनेसे ऐसे भूत-प्रेत भगवन्नामका जप करते हैं, हाथमें गोमुखी रखते हैं, मन्दिरमें जाते हैं, परिक्रमा करते हैं, भगवान्की स्तुति-प्रार्थना आदि भी करते हैं। परन्तु किसी मनुष्यमें प्रविष्ट हुए बिना ये भगवान्की स्तुति-प्रार्थना नहीं कर सकते। वृन्दावनमें बाँकेबिहारीजीके मन्दिरमें एक छोटा बालक आया करता था। वह संस्कृत जानता ही नहीं था, पर बिहारीजीके सामने खड़े होकर वह संस्कृतमें भगवान्के स्तोत्रोंका जोर-जोरसे पाठ किया करता था। पाठ करते समय उसकी आवाज भी बालक-जैसी नहीं रहती थी, प्रत्युत बड़े आदमी-जैसी आवाज सुनायी दिया करती थी। कारण यह था कि उसमें एक प्रेत प्रविष्ट होता था और भगवान्की स्तुति करता था, पर वह उस बालकको दु:ख नहीं देता था। भगवदपराधका फल भोगनेके बाद भगवत्कृपासे ऐसे भूत-प्रेतोंकी सद्गति हो जाती है, प्रेतयोनि छूट जाती है।
जैसे मनुष्योंमें जो अधिक पापी होते हैं, दुर्गुणी-दुराचारी होते हैं, हिंसात्मक कार्य करनेवाले होते हैं, वे भगवान्की कथा, कीर्तन, सत्संग आदिमें ठहर नहीं सकते, वहाँसे उठ जाते हैं, ऐसे ही भयंकर पापोंके कारण जो भूत-प्रेतकी नीच योनियोंमें जाते हैं, वे भगवन्नाम-जप, कथा-कीर्तन, सत्संग आदिके नजदीक नहीं आ सकते। जो लोग भगवन्नाम, कथा-कीर्तन, सत्संग आदिका विरोध करते हैं, निन्दा-तिरस्कार करते हैं, वे भी भूत-प्रेत बननेपर कथा-कीर्तन, सत्संग आदिके नजदीक नहीं आ सकते। अगर वे कथा-कीर्तन आदिके नजदीक आ जायँ तो उनके शरीरमें दाह होने लगता है।
अगर पुजारियोंके मनमें सांसारिक वस्तुओंका महत्त्व न हो, प्रत्युत ठाकुरजीका महत्त्व हो, ठाकुरजीके अर्पित चीजोंमें प्रसादकी भावना हो, भगवान्की वस्तु प्रसादरूपसे मिलनेपर वे गद्गद हो जाते हों और अपनेको बड़ा भाग्यशाली मानते हों कि हमें भगवान्की चीज मिल गयी, प्रसाद मिल गया—इस तरह वस्तुओंमें भगवान्के सम्बन्धका महत्त्व हो, तो भगवान्के अर्पित वस्तुओंको स्वीकार करनेपर भी उनको दोष, भगवदपराध नहीं लगता। अन्त:करणमें भगवान्का महत्त्व होनेके कारण वे कभी भूत-प्रेत बन ही नहीं सकते। परन्तु जिनके अन्त:करणमें वस्तुओंका महत्त्व है, वस्तुओंकी कामना, ममता, वासना है, वे तीर्थस्थानमें, मन्दिरमें रहनेपर भी मरनेके बाद वासना आदिके कारण भूत-प्रेत हो जाते हैं। उन्होंने क्रियारूपसे भगवान्की पूजा, आरती आदि की है, इस कारण वे उस तीर्थ-स्थानमें ही रहते हैं। इस प्रकार उनको भगवदपराधका फल (भूत-प्रेतयोनि) भी मिल जाता है और भगवत्सम्बन्धी क्रियाओंका फल (तीर्थ-स्थानमें निवास) भी मिल जाता है।
प्रश्न—जो भगवन्नामका जप, स्वाध्याय आदि करते हैं, वे भी मरनेके बाद क्या भूत-प्रेत बन सकते हैं?
उत्तर—प्राय: ऐसे मनुष्य भूत-प्रेत नहीं बनते। परन्तु नामजपकी रुचिकी अपेक्षा जिनकी सांसारिक पदार्थोंमें, अपनी सेवा करनेवालोंमें, अपने अनुकूल चलनेवालोंमें ज्यादा रुचि (आसक्ति) हो जाती है और अन्त समयमें साधनमें स्थिति न रहकर सांसारिक पदार्थोंकी, सेवा करनेवालोंकी याद आ जाती है, वे मरनेके बाद भूत-प्रेत बन सकते हैं। ऐसे भूत-प्रेत किसीको तंग नहीं करते, किसीको दु:ख नहीं देते।
कर्मोंकी गति बड़ी ही गहन है—‘गहना कर्मणो गति:’ (४।१७)। अत: पाप-पुण्य, भाव आदिमें तारतम्य रहनेसे भूत-प्रेत आदिकी योनि मिल जाती है। भगवान्ने स्वयं कहा है कि कर्म और अकर्म क्या है—इस विषयमें बड़े-बड़े विद्वान्लोग भी मोहित हो जाते हैं (४। १६)।
प्रश्न—दुर्घटनामें मरनेवाले एवं आत्महत्या करनेवाले प्राय: भूत-प्रेत क्यों बनते हैं?
उत्तर—बीमारीमें तो ‘मेरेको मरना है’—ऐसी सावधानी, होश रहता है; अत: बीमार व्यक्ति संसारसे उपराम होकर भगवान्में लग सकता है। परन्तु दुर्घटनाके समय मनमें कुछ-न-कुछ मनोरथ, चिन्तन रहता है, जिसके रहते हुए मनुष्य अचानक मर जाता है। अगर उस समय मनमें खराब चिन्तन हो, भगवान्का चिन्तन न हो तो वह आदमी भूत-प्रेत बन जाता है। दुर्घटनाके समय मारनेवालेकी तरफ मनोवृत्ति होनेसे उसीका चिन्तन होता है, इस कारण भी दुर्घटनामें मरनेवाला भूत-प्रेत बन जाता है। परन्तु जो संसारसे उपराम होकर पारमार्थिक मार्गमें लगा हुआ हो, वह दुर्घटना आदिमें अचानक मर भी जाय, तो भी वह भूत-प्रेत नहीं बनता। तात्पर्य है कि अन्त:करणमें सांसारिक राग, आसक्ति, कामना, ममता आदि रहनेसे ही मनुष्यकी अधोगति होती है। जिसके अन्त:करणमें सांसारिक राग आदि नहीं है, उसका शरीर किसी भी देशमें, किसी भी जगह, किसी भी समय छूट जाय तो वह भूत-प्रेत नहीं बनता; क्योंकि भूत-प्रेतयोनिमें ले जानेवाली सामग्री ही उसमें नहीं होती।
जो क्रोधमें आकर अथवा किसी बातसे दु:खी होकर आत्महत्या कर लेता है, वह दुर्गतिमें चला जाता है अर्थात् भूत-प्रेत-पिशाच बन जाता है। आत्महत्या करनेवाला महापापी होता है। कारण कि यह मनुष्य शरीर भगवत्प्राप्तिके लिये ही मिला है; अत: भगवत्प्राप्ति न करके अपने ही हाथसे मनुष्य शरीरको खो देना बड़ा भारी पाप है, अपराध है, दुराचार है। दुराचारीकी सद्गति कैसे होगी? अत: मनुष्यको कभी भी आत्महत्या करनेका विचार मनमें नहीं आने देना चाहिये।
मनुष्यपर कोई बड़ी भारी आफत आ जाय, कोई भयंकर रोग हो जाय, तो वह यही सोचता है कि अगर मैं मर जाऊँ तो सब कष्ट मिट जायँगे। परन्तु वास्तवमें आत्महत्या करनेपर कर्मोंका भोग (कष्ट) समाप्त नहीं होता, उसको तो किसी-न-किसी योनिमें भोगना ही पड़ेगा। आत्महत्या करके वह एक नया पापकर्म करता है, जिसके फलस्वरूप उसको नीच योनिमें जाना पड़ेगा, भूत-प्रेत बनना पड़ेगा और हजारों वर्षोंतक दु:ख पाना पड़ेगा।
प्रश्न—भूत-प्रेत कहाँ रहते हैं?
उत्तर—भूत-प्रेत प्राय: श्मशानमें, श्मशानके वृक्षोंमें रहते हैं। वे सरोवरके किनारे रहते हैं। वे सरोवरका पानी नहीं पी सकते, पर जलकी ठण्डी हवा उनको अच्छी लगती है, उससे उनको सुख मिलता है। पीपलके वृक्षका स्वभाव सबको आश्रय देनेका होनेसे उसकी छायामें भी भूत-प्रेत रहते हैं। कोई उनके नामसे छतरी बनवा देता है तो वे उसके भीतर रहते हैं। कोई मकान कई दिनसे सूना पड़ा हो तो उसमें भी भूत-प्रेत रहने लग जाते हैं।
प्रश्न—भूत-प्रेत किसी मनुष्यको पकड़ते हैं तो वे उसके शरीरमें किस द्वारसे प्रवेश करते हैं?
उत्तर—भूत-प्रेतोंका शरीर वायुप्रधान होता है; अत: वे मनुष्यशरीरमें किसी भी द्वारसे प्रवेश कर सकते हैं। वे आँख, कान, त्वचा आदि किसी भी इन्द्रियसे शरीरमें प्रविष्ट हो सकते हैं। परन्तु वे प्राय: मलिन द्वारसे अर्थात् मल-मूत्रके स्थानसे अथवा प्राणोंसे ही मनुष्य शरीरमें प्रविष्ट होते हैं।
प्रश्न—शरीरमें प्रविष्ट होनेपर भूत-प्रेत कहाँ रहते हैं?
उत्तर—शरीरमें प्रविष्ट होकर भूत-प्रेत अहंवृत्तिमें अर्थात् अन्त:करणमें रहते हैं।
‘अहम्’ दो प्रकारका होता है—(१) अहंकार और (२) अहंवृत्ति। अहंकार जीवात्मामें रहता है और अहंवृत्ति अन्त:करणमें रहती है। भूत-प्रेत श्वास आदिके द्वारा मनुष्यके शरीरमें प्रविष्ट होकर अहंवृत्तिमें रहकर इन्द्रियोंके स्थानोंको काममें लेते हैं।
प्रश्न—क्या शरीरमें एकसे अधिक भूत-प्रेत भी रह सकते हैं?
उत्तर—हाँ, रह सकते हैं। किसी-किसी व्यक्तिके शरीरमें एकसे अधिक भूत-प्रेत भी प्रविष्ट हो जाते हैं। जब वे उसके मुखसे बोलते हैं, तब सबकी अलग-अलग आवाज सुनायी पड़ती है।
प्रश्न—मनुष्य शरीरमें प्रविष्ट होनेके बाद भूत-प्रेत हरदम उसीमें रहते हैं क्या?
उत्तर—भूत-प्रेत उसमें प्राय: आते-जाते रहते हैं। वे उसके पासमें ही घूमते रहते हैं और उनकी वायुके समान तेज गति होनेसे वे दूर भी चले जाते हैं। कुछ ऐसे भूत-प्रेत भी होते हैं, जो हरदम उसीमें रहते हैं।
भूत-प्रेत हरेकको दु:ख देनेमें, हरेक शरीरमें प्रविष्ट होनेमें स्वतन्त्र नहीं होते। वे अपनी मनमानी नहीं कर सकते। वे जिनके शासनमें रहते हैं, उनकी आज्ञाके अनुसार ही वे कार्य करते हैं अर्थात् शासकके आज्ञानुसार ही वे किसीके शरीरमें प्रविष्ट होते हैं, किसीको दु:ख देते हैं। अगर शासक आज्ञा न दे तो वे हरेक व्यक्तिमें हरेक समयमें भी प्रविष्ट नहीं हो सकते। जैसे, शुभकर्मोंके फलस्वरूप जो स्वर्गादि लोकोंमें जाते हैं, वे अगर मृत्युलोकमें किसीके साथ सम्बन्ध करते हैं तो उन लोकोंके शासकोंकी आज्ञाके अनुसार ही करते हैं। स्वतन्त्ररूपसे वे मृत्युलोकमें किसीके साथ बातचीत भी नहीं कर सकते। इसी तरह भूत-प्रेतयोनिमें भी शासक रहते हैं, जिनकी आज्ञाके अनुसार ही भूत-प्रेत सब कार्य करते हैं।
जैसे, नरकोंमें प्राणियोंको उबलते हुए तेलमें डाल देते हैं, उनके शरीरके टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं, फिर भी जिन पापकर्मोंके कारण वे नरकोंमें गये हैं, उन कर्मोंके समाप्त होनेतक वे प्राणी मरते नहीं। ऐसे ही मनुष्यका कोई बुरे कर्मोंका भोग आ जाता है तो उनमें भूत-प्रेत प्रविष्ट हो जाते हैं। जबतक कर्मोंका भोग बाकी रहता है, तबतक कितने ही उपाय करनेपर, मन्त्र-यन्त्र आदिका प्रयोग करनेपर भी भूत-प्रेत निकलते नहीं। जब कर्मोंका भोग समाप्त हो जाता है, तब किसी निमित्तसे वे निकल जाते हैं। तात्पर्य यह है कि जिनको प्रारब्धके अनुसार दु:ख भोगना है, उन्हींमें प्रविष्ट होकर भूत-प्रेत उनको दु:ख देते हैं।
ऐसा देखा जाता है कि कुटुम्बका कोई व्यक्ति मरकर पितर बन जाता है तो वह जब आता है, तब किसी एक व्यक्तिमें ही आता है, हरेकमें नहीं आता। इससे पता लगता है कि जिसके साथ पुराना ऋणानुबन्ध होता है, उसीमें पितर आते हैं। इसी तरह भूत-प्रेत भी उसीमें आते हैं, जिनके साथ पुराना ऋणानुबन्ध होता है।
भूत-प्रेत मनुष्यकी आयु रहते हुए उसको मार नहीं सकते। उसकी आयु समाप्त होनेपर ही वे उसको मार सकते हैं। इस विषयमें हमने एक बात सुनी है। लगभग सौ वर्ष पुरानी राजस्थानकी घटना है। कुछ मुसलमान गायोंको कसाईखाने ले जा रहे थे। वहाँके राजाको इसकी खबर मिली तो उसने अपने सिपाहियोंको भेजा। सिपाहियोंने उन मुसलमानोंको मारकर गायें छुड़ा लीं। उनमेंसे एक मुसलमान मरकर जिन्न बन गया और वह राजाके पीछे लग गया। राजाने बहुत उपाय किये, पर उसने छोड़ा नहीं। जिन्न कहता कि मैं एक आदमीकी बलि लेकर ही जाऊँगा। आखिर एक ठाकुरने कहा कि मैं अपनी बलि देनेके लिये तैयार हूँ। जिन्नने राजाको छोड़ दिया और तुरन्त उस ठाकुरको मार दिया। ठाकुरके इच्छानुसार उसके शवको (श्मशान-भूमिमें ले जानेसे पहले) उसके गुरुके पास ले जाया गया। जब लोग ठाकुरके शवको उसके गुरुके चारों तरफ घुमाकर (परिक्रमा दिलाकर) ले जाने लगे, तब गुरुके पास बैठे एक दूसरे सन्तने कहा कि शव खाली जा रहा है, कुछ देना चाहिये। गुरु बोले कि कुछ कर नहीं सकते, इसकी आयु पूरी हो गयी है। फिर विचार करके दोनों सन्तोंने अपनी आयुमेंसे बारह वर्षकी आयु देकर ठाकुरको जीवित कर दिया। तात्पर्य है कि राजाकी आयु पूरी नहीं हुई थी, इसलिये जिन्न उसको मार नहीं सका। परन्तु ठाकुरकी आयु पूरी हो चुकी थी; अत: जिन्नने उसको मार दिया।
प्रश्न—मृगी रोगवाले और प्रेतबाधावाले मनुष्योंके लक्षण प्राय: एक समान दीखते हैं; अत: उन दोनोंकी अलग-अलग पहचान कैसे हो?
उत्तर—मृगीरोगवाले व्यक्तिको तो मूर्च्छा होती है, पर प्रेतबाधावाले व्यक्तिको प्राय: मूर्च्छा नहीं होती, वह कुछ-न-कुछ बकता रहता है। मृगी रोगवाले व्यक्तिमें तो एक ही जीवात्मा रहती है, पर प्रेतबाधावाले व्यक्तिमें जीवात्माके साथ प्रेतात्मा भी रहती है, जो उस व्यक्तिको कई तरहसे दु:ख देती है, तंग करती है। मृगी रोगवाला व्यक्ति तो दवासे ठीक हो जाता है, पर प्रेतबाधावाला व्यक्ति दवासे ठीक नहीं होता।
प्रश्न—जो भूत-प्रेतकी बाधाको दूर किया करते हैं, ऐसे तांत्रिकोंकी मरनेके बाद क्या गति होती है?
उत्तर—भूत-प्रेतकी बाधा दूर करनेवाले तांत्रिक भी मरनेके बाद प्राय: भूत-प्रेत ही बनते हैं; इसके अनेक कारण हैं; जैसे—
(१) भूत-प्रेत निकालनेवाले तांत्रिकोंकी विद्या प्राय: मलिन होती है। उनका खान-पान एवं चिन्तन भी मलिन होता है। उस मलिनताके कारण उनकी दुर्गति होती है अर्थात् वे मरनेके बाद प्रेतयोनिमें चले जाते हैं।
(२) भूत-प्रेत किसीके शरीरमें प्रविष्ट होते हैं तो उनको वहाँ सुख मिलता है, खाने-पीनेके लिये अच्छे पदार्थ मिलते हैं; अत: वे वहाँसे निकलना नहीं चाहते। परंतु तांत्रिकलोग मन्त्रोंके द्वारा उनको जबरदस्ती निकालते हैं और मदिराकी बोतलमें बन्द करके उनको जमीनमें गाड़ देते हैं अथवा किसी वृक्षमें कीलित कर देते हैं, जहाँ वे सैकड़ों वर्षोंतक भूखे-प्यासे रहकर महान् दु:ख पाते रहते हैं। उनको इस प्रकार दु:ख देना बड़ा भारी पाप है; क्योंकि किसी भी जीवको दु:ख देना पाप है। अत: उस पापके फलस्वरूप वे तांत्रिक मरनेके बाद प्रेतयोनिमें चले जाते हैं।
(३) भूत-प्रेतको निकालनेवाले तांत्रिकोंमें प्राय: दूसरोंके हितकी भावना नहीं होती। वे केवल पैसोंके लोभसे ही इस कार्यमें प्रवृत्त होते हैं। वे ठगाई और चालाकी भी करते हैं। इस कारण भी उनको मरनेके बाद भूत-प्रेत बनना पड़ता है।
अगर तांत्रिकोंमें नि:स्वार्थभावसे सबका हित करनेकी, उपकार करनेकी भावना हो अर्थात् जिसको भूत-प्रेतने पकड़ा है, उस व्यक्तिको सुखी करनेकी और भूत-प्रेतको निकालकर उसकी (गयाश्राद्ध आदिके द्वारा) सद्गति करनेकी भावना हो, चेष्टा हो तो वे भूत-प्रेत नहीं बन सकते। जिनमें सबके हितकी भावना है, उनकी कभी दुर्गति हो ही नहीं सकती।
भगवान्ने कहा है कि जो सम्पूर्ण प्राणियोंके हितमें रत रहते हैं, वे मेरेको ही प्राप्त होते हैं—‘ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:’ (१२।४)।
प्रश्न—भूत-प्रेतोंको बोतलमें बन्द करने, कीलित करने आदिमें उन भूत-प्रेतोंके कर्म कारण हैं या बन्द करनेवाले कारण हैं?
उत्तर—मुख्यरूपसे उनके कर्म ही कारण हैं। उनका कोई ऐसा पापकर्म आ जाता है, जिसके कारण वे पकड़में आ जाते हैं। अगर उनके कर्म न हों तो वे किसीकी पकड़में नहीं आ सकते। परन्तु जो उनको कीलित आदि करनेमें निमित्त बनते हैं, वे बड़ा भारी पाप करते हैं। अत: मनुष्यको भूत-प्रेतोंके बन्धन, कीलनमें निमित्त बनकर पापका भागी नहीं होना चाहिये। हाँ, उनके उद्धारके लिये उनके नामसे भागवत-सप्ताह, गयाश्राद्ध, भगवन्नाम-जप आदि करना चाहिये अथवा वे भूत-प्रेत अपनी मुक्तिका जो उपाय बतायें, उस उपायको करना चाहिये। जो इस प्रकार प्रेतात्माओंकी सद्गति करता एवं कराता है, उसको बड़ा भारी पुण्य होता है एवं वे दु:खी प्रेतात्मा भी प्रेतयोनिसे छूटनेपर उसको आशीर्वाद देते हैं।
प्रश्न—भूत-प्रेतोंको कीलित करनेवाले तांत्रिक तो उनके कर्मोंका फल भुगतानेमें सहायक ही बनते हैं, तो फिर उनको पाप क्यों लगता है?
उत्तर—वे जिनको कीलित कर देते हैं, जमीनमें गाड़ देते हैं, उन भूत-प्रेतोंका तो यह कर्मफल-भोग है, पर उनको कीलित करनेवालोंका यह नया पाप-कर्म है, जिसका दण्ड उनको आगे मिलेगा। जैसे, कोई जानवरको मारता है तो जानवर अपनी मृत्यु आनेसे ही मरता है। उसकी मृत्यु आये बिना उसको कोई मार ही नहीं सकता। परन्तु उसको मारनेवाला नया पाप करता है; क्योंकि वह लोभ, कामना, स्वार्थ आदिको लेकर ही उसको मारता है। जब कामना आदिको लेकर किया हुआ शुभ-कर्म भी बन्धनका कारण बन जाता है, तो फिर जो कामना आदिको लेकर अशुभ-कर्म करता है, वह तो पापसे बँधेगा ही।
तात्पर्य है कि किसीको दु:ख देना, तंग करना, मारना आदि मनुष्यका कर्तव्य नहीं है, प्रत्युत अकर्तव्य है। अकर्तव्यमें मनुष्य कामनाको लेकर ही प्रवृत्त होता है (३।३७)। अत: मनुष्यको कामना, स्वार्थ आदिका त्याग करके सबके हितके लिये ही उद्योग करते रहना चाहिये।
प्रश्न—जिन भूत-प्रेतोंको बोतलमें बंद कर दिया गया है, कीलित कर दिया गया है, वे कबतक वहाँ जकड़े रहते हैं?
उत्तर—मन्त्रोंकी शक्तिकी भी एक सीमा होती है, उम्र होती है। उम्र पूरी होनेपर जब मन्त्रोंकी शक्ति समाप्त हो जाती है अथवा प्रेतयोनिकी अवधि (उम्र) पूरी हो जाती है, तब वे भूत-प्रेत वहाँसे छूट जाते हैं। अगर उनकी उम्र बाकी रहनेपर भी कोई अनजानमें कील निकाल दे, जमीनको खोदते समय बोतल फूट जाय, पेड़के गिरनेसे बोतल फूट जाय तो वे भूत-प्रेत वहाँसे छूट जाते हैं और अपने स्वभावके अनुसार पुन: दूसरोंको दु:ख देने लग जाते हैं।
प्रश्न—अगर कोई पेड़में गड़ी हुई कीलको निकाल दे, जमीनमें गड़ी हुई बोतलको फोड़ दे तो उसमें बन्द भूत-प्रेत उसको पकड़ेंगे तो नहीं?
उत्तर—वहाँसे छूटनेपर भूत-प्रेत उसको पकड़ सकते हैं; अत: हरेक आदमीको ऐसा काम नहीं करना चाहिये। जो भगवान्के परायण हैं, जिनको भगवान्का सहारा है, हनुमान्जीका सहारा है, वे अगर भूत-प्रेतोंको वहाँसे मुक्त कर दें तो भूत-प्रेत उनका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकते, प्रत्युत उनके दर्शनसे उन भूत-प्रेतोंका उद्धार हो जाता है। सन्त-महापुरुषोंने बहुत-से भूत-प्रेतोंका उद्धार किया है।
प्रश्न—कुछ तांत्रिकलोग भूत-प्रेतोंको अपने वशमें करके उनसे अपने घरका, खेतका काम कराते हैं, तो ऐसा करना उचित है या अनुचित?
उत्तर—किसी भी जीवको परवश करना मनुष्यके लिये उचित नहीं है। हाँ, जैसे किसी मनुष्यको मजदूरी देकर उससे काम कराते हैं, ऐसे ही भूत-प्रेतोंको खुराक देकर, उनको प्रसन्न करके उनसे काम करानेमें कोई दोष नहीं है। परन्तु पारमार्थिक साधनामें लगे हुए साधकको ऐसा नहीं करना चाहिये। ऐसा काम वे ही लोग कर सकते हैं, जो संसारमें ही रचे-पचे रहना चाहते हैं।
प्रश्न—भूत-प्रेतोंको खुराक कैसे मिलती है? वे कैसे तृप्त होते हैं?
उत्तर—भूत-प्रेतोंका शरीर वायुप्रधान होता है; अत: इत्र आदि सुगन्धित वस्तुओंको सूँघकर उनको खुराक मिल जाती है और वे बड़े प्रसन्न हो जाते हैं। उनके निमित्त किसी ब्राह्मणको अथवा अपनी बहन, बेटी या भानजीको बढ़िया-बढ़िया मिठाई खिलानेसे उनको खुराक मिल जाती है।
दस-बारह वर्षका एक बालक जलमें डूबकर मर गया और प्रेत बन गया। वह अपनी बहनमें आया करता और अपना दु:ख सुनाया करता था। एक दिन वह अपनी बहनमें आकर बोला कि मैं बहुत भूखा हूँ। तब उसके परिवारवालोंने उसके नामसे एक ब्राह्मणको भोजन कराया। जब ब्राह्मण भोजन करने लगा, तब जैसे भोजन करते समय मनुष्यका मुख हिलता है, वैसे ही दूसरे कमरेमें बैठी उस प्रेतकी बहनका भी मुख हिलने लगा। जब ब्राह्मणने भोजन कर लिया, तब वह प्रेत बहनके मुखसे बोला कि मेरी तृप्ति हो गयी! अत: प्रेतात्माके नामसे शुद्ध-पवित्र ब्राह्मणको भोजन करानेसे वह भोजन उसको मिलता है।
पासमें ही तालाब है, नदी बह रही है और उसके जलको प्रेत देखते भी हैं, पर वे उस जलको पी नहीं सकते, प्यासे ही रहते हैं! स्नानके बाद प्रेतके नामसे अथवा ‘अज्ञात नामवाले प्रेतात्माओंको जल मिल जाय’—इस भावसे गीली धोतीको किसी स्थानपर निचोड़ दिया जाय तो प्रेत उस जलको पी लेते हैं। शौचसे बचा हुआ जल काँटेदार वृक्षपर अथवा आकके पौधेपर डाल दिया जाय तो उस जलको भी प्रेत पी लेते हैं और तृप्त हो जाते हैं।
तुलसीदासजी महाराज शौच जाते थे तो बचा हुआ जल प्रतिदिन यों ही एक काँटेवाले पेड़पर डाल दिया करते थे। उस पेड़में एक प्रेत रहता था, जो उस अशुद्ध जलको पी लेता था। एक दिन वह प्रेत तुलसीदासजीके सामने प्रकट होकर बोला—मैं बहुत प्यासा मरता था, तुम्हारे जलसे अब मैं बहुत तृप्त हो गया हूँ। तुम मेरेसे जो माँगना चाहो, माँग लो। तुलसीदासजी महाराजको भगवद्दर्शनकी लगन लगी हुई थी; अत: उन्होंने कहा—मेरेको भगवान् रामके दर्शन करा दो! प्रेतने कहा—दर्शन तो मैं नहीं करा सकता, पर दर्शनका उपाय बता सकता हूँ। तुलसीदासजीने कहा—उपाय ही सही, बता दो। उसने कहा—अमुक स्थानपर रातमें रामायणकी कथा होती है। वहाँपर कथाको सुननेके लिये हनुमान्जी आया करते हैं। तुम उनके पैर पकड़ लेना, वे तुमको भगवान्के दर्शन करा देंगे। तुलसीदासजीने कहा—वहाँ तो बहुत-से लोग आते होंगे, उनमेंसे मैं हनुमान्जीको कैसे पहचानूँ? प्रेतने कहा—हनुमान्जी कोढ़ीका रूप धारण करके और मैले-कुचैले कपड़े पहनकर आते हैं तथा कथा समाप्त होनेपर सबके चले जानेके बाद जाते हैं। तुलसीदासजी महाराजने वैसा ही किया तो उनको हनुमान्जीके दर्शन हुए और हनुमान्जीने उनको भगवान् रामके दर्शन करा दिये—
तुलसी नफा पिछानिये, भला बुरा क्या काम।
प्रेत से हनुमत मिले, हनुमत से श्री राम॥
प्रेतोंके नामसे पिण्ड-पानी दिया जाय, ब्राह्मणोंको छाता आदि दिया जाय तो वे वस्तुएँ प्रेतोंको मिल जाती हैं। परन्तु जिसके नामसे छाता आदि दिया जाय, उसके साथी प्रेत अगर प्रबल होते हैं तो वे बीचमें ही छाता आदि छीन लेते हैं, उसको मिलने ही नहीं देते। अत: बड़ी सावधानीसे, उसके नामसे ही उसके निमित्त ही पिण्ड-पानी आदि दे तो वह सामग्री उसको मिल जाती है।
प्रश्न—भूत-प्रेतकी बाधाको दूर करनेके क्या उपाय हैं?
उत्तर—प्रेतबाधाको दूर करनेके अनेक उपाय हैं; जैसे—
(१) शुद्ध पवित्र होकर, सामने धूप जलाकर पवित्र आसनपर बैठ जाय और हाथमें जलका लोटा लेकर ‘नारायणकवच’ (श्रीमद्भागवत, स्कन्ध ६, अध्याय ८ में आये)-का पूरा पाठ करके लोटेपर फूँक मारे। इस तरह कम-से-कम इक्कीस पाठ करे और प्रत्येक पाठके अन्तमें लोटेपर फूँक मारता रहे। फिर उस जलको प्रेतबाधावाले व्यक्तिको पिला दे और कुछ जल उसके शरीरपर छिड़क दे।
(२) पुस्तक ‘रामरक्षास्तोत्र’ को उसमें दी हुई विधिसे सिद्ध कर ले। फिर रामरक्षास्तोत्रका पाठ करते हुए प्रेतबाधावाले व्यक्तिको मोरपंखोंसे झाड़ा दे।
(३) शुद्ध-पवित्र होकर ‘हनुमानचालीसा’ के सात, इक्कीस या एक सौ आठ बार पाठ करके जलको अभिमन्त्रित करे। फिर उस जलको प्रेतबाधावाले व्यक्तिको पिला दे।
(४) गीताके ‘स्थाने हृषीकेश तव प्रकीर्त्या......’ (११।३६)—इस श्लोकके एक सौ आठ पाठोंसे अभिमन्त्रित जलको भूतबाधावाले व्यक्तिको पिला दे।
(५) प्रेतबाधावाले व्यक्तिको भागवतका सप्ताह-परायण सुनाना चाहिये।
(६) प्रेतसे उसका नाम आदि पूछकर किसी शुद्ध-पवित्र ब्राह्मणके द्वारा सांगोपांग विधि-विधानसे गया-श्राद्ध कराना चाहिये।
(७) प्रेतबाधावाले व्यक्तिके पास गीता, रामायण, भागवत रख दे और उसको ‘विष्णुसहस्रनाम’ का पाठ सुनाता रहे।
(८) जिस स्थानपर श्रद्धापूर्वक सांगोपांग विधिसे गायत्रीमन्त्रका पुरश्चरण, वेदोंका सस्वर पाठ, पुराणोंकी कथा हुई हो, वहाँ प्रेतबाधावाले व्यक्तिको ले जाना चाहिये। वहाँ जाते ही प्रेत शरीरसे बाहर निकल जाता है, क्योंकि भूत-प्रेत पवित्र स्थानोंमें नहीं जा सकते। प्रेतबाधावाले व्यक्तिको कुछ दिन वहीं रहकर भगवन्नामका जप, हनुमानचालीसाका पाठ, सुन्दरकाण्डका पाठ आदि करते रहना चाहिये, जिससे वह प्रेत पुन: प्रविष्ट न हो। अगर ऐसा नहीं करेंगे तो वह प्रेत बाहर ही घूमता रहेगा और उस व्यक्तिके बाहर आते ही उसको फिर पकड़ लेगा।
(९) सोलह कोष्ठकका ‘चौंतीसा यन्त्र’ सिद्ध कर ले।‡ फिर मंगलवार या शनिवारके दिन अग्निमें खोपरा, घी, जौ, तिल और सुगन्धित द्रव्योंकी १०८ आहुतियाँ दे। प्रत्येक आहुति ‘स्थाने हृषीकेश.......’ (११। ३६)—इस श्लोकसे डाले और प्रत्येक आहुतिके बाद चौंतीसा यन्त्रको अग्निपर घुमाये। इसके बाद उस यन्त्रको ताबीजमें डालकर प्रेतबाधावाले व्यक्तिके गलेमें लाल या काले धागेसे पहना दे।
‡ चौंतीसा यन्त्र और उसको लिखनेकी तथा सिद्ध करनेकी विधि इस प्रकार है—
९ १६ ५ ४
७ २ ११ १४
१२ १३ ८ १
६ ३ १० १५
इस यन्त्रको सफेद कागज या भोजपत्रपर अनारकी कलमसे अष्टगन्ध (सफेद चन्दन, लाल चन्दन, केसर, कुंकुम, कपूर, कस्तूरी, अगर एवं तगर)-के द्वारा लिखना चाहिये। इस यन्त्रमें एकसे लेकर सोलहतक अंक आये हैं; न तो कोई अंक छूटा है और न ही कोई अंक दो बार आया है। यन्त्र लिखते समय भी क्रमसे ही अंक लिखने चाहिये; जैसे—पहले १ लिखे, फिर २ लिखे, फिर ३ आदि।
इस चौंतीसा यन्त्रको सूर्यग्रहण, चन्द्रग्रहण या दीपावलीकी रात्रिको एक सौ आठ बार लिखनेसे यह सिद्ध हो जाता है। शीघ्र सिद्ध करना हो तो शनिवारके दिन धोबीघाटपर बैठकर उपर्युक्त प्रकारसे एक-एक यन्त्र लिखकर धोबीकी पानीसे भरी नाँदमें डालता जाय। इस तरह एक सौ आठ यन्त्र नाँदमें डालनेके बाद उन सभी यन्त्रोंको नाँदमेंसे निकालकर बहते हुए जलमें बहा दे। ऐसा करनेसे यन्त्र सिद्ध हो जाता है। यन्त्र सिद्ध करनेके बाद भी प्रत्येक ग्रहणके समय और दीपावली-होलीकी रात्रिमें यह यन्त्र एक सौ आठ या चौंतीस बार लिखकर नदीमें बहा देना चाहिये। [इस यन्त्रको ‘चौंतीसा यन्त्र’ इसलिये कहा गया है कि उसको ६४ प्रकारसे गिननेपर कुल संख्या ३४ आती है। यहाँ चौंतीसा यन्त्रका एक प्रकार दिया गया है। इस यन्त्रको ३८४ प्रकारसे बनाया जा सकता है।]
—श्रद्धा-विश्वासपूर्वक कोई एक उपाय करनेसे प्रेतबाधा दूर हो सकती है। इस तरहके अनुष्ठानोंमें प्रारब्धके बलाबलका भी प्रभाव पड़ता है। अगर प्रारब्धकी अपेक्षा अनुष्ठान बलवान् हो तो पूरा लाभ होता है अर्थात् कार्य सिद्ध हो जाता है, परन्तु अनुष्ठानकी अपेक्षा प्रारब्ध बलवान् हो तो थोड़ा ही लाभ होता है, पूरा लाभ नहीं होता।
प्रश्न—ब्रह्मराक्षस (जिन्न)-से छुटकारा पानेके क्या उपाय हैं?
उत्तर—(क) जो भगवान्के भजनमें तत्परतासे लगे हुए हैं, साधनमें जिनकी अच्छी स्थिति है, जिनमें भजन-स्मरणका जोर है, उन साधकोंके पास जानेसे ब्रह्मराक्षस भाग जाते हैं; क्योंकि भागवती शक्तिके सामने उनकी शक्ति काम नहीं करती।
(ख)—अगर ब्रह्मराक्षससे ग्रस्त व्यक्ति किसी सिद्ध महापुरुषके पास चला जाय तो वह व्यक्ति उस ब्रह्मराक्षससे छूट जाता है और उस ब्रह्मराक्षसका भी उद्धार हो जाता है।
(ग) अगर ब्रह्मराक्षस गयाश्राद्ध कराना स्वीकार कर ले तो उसके नामसे गयाश्राद्ध कराना चाहिये। इससे उसकी सद्गति हो जायगी।
प्रश्न—भूत-प्रेत किन लोगोंके पास नहीं आते?
उत्तर—भूत-प्रेतोंका बल उन्हीं मनुष्योंपर चलता है, जिनके साथ पूर्वजन्मका कोई लेन-देनका सम्बन्ध रहा है अथवा जिनका प्रारब्ध खराब आ गया है अथवा जो भगवान्के (पारमार्थिक) मार्गमें नहीं लगे हैं अथवा जिनका खान-पान अशुद्ध है और जो शौच-स्नान आदिमें शुद्धि नहीं रखते अथवा जिनके आचरण खराब हैं। जो भगवान्के परायण हैं, भगवन्नामका जप-कीर्तन करते हैं, भगवत्कथा सुनते हैं, खान-पान, शौच-स्नान आदिमें शुद्धि रखते हैं, जिनके आचरण शुद्ध हैं, उनके पास भूत-प्रेत प्राय: नहीं आ सकते।
जो नित्यप्रति श्रद्धासे गीता, भागवत, रामायण आदि सद्ग्रन्थोंका पाठ करते हैं, उनके पास भी भूत-प्रेत नहीं जाते। परन्तु कई भूत-प्रेत ऐसे होते हैं, जो स्वयं गीता, रामायण आदिका पाठ करते हैं। ऐसे भूत-प्रेत पाठ करनेवालोंके पास जा सकते हैं, पर उनको दु:ख नहीं दे सकते। अगर ऐसे भूत-प्रेत गीता आदिका पाठ करनेवालोंके पास आ जायँ तो उनका निरादर नहीं करना चाहिये; क्योंकि निरादर करनेसे वे चिढ़ जाते हैं।
जो रोज गंगाजलका चरणामृत लेता है, उसके पास भी भूत-प्रेत नहीं आते। हनुमानचालीसा अथवा विष्णुसहस्रनामका पाठ करनेवालेके पास भी भूत-प्रेत नहीं आते। एक बार दो सज्जन बैलगाड़ीपर बैठकर दूसरे गाँव जा रहे थे। रास्तेमें गाड़ीके पीछे एक पिशाच (प्रेत) लग गया। उसको देखकर वे दोनों सज्जन डर गये। उनमेंसे एक सज्जनने विष्णुसहस्रनामका पाठ शुरू कर दिया। जबतक दूसरे गाँवकी सीमा नहीं आयी, तबतक वह पिशाच गाड़ीके पीछे-पीछे ही चलता रहा। सीमा आते ही वह अदृश्य हो गया। इस तरह विष्णुसहस्रनामके प्रभावसे वह गाड़ीपर आक्रमण नहीं कर सका।
जिसके गलेमें तुलसी, रुद्राक्ष अथवा बद्ध पारदकी माला होती है, उसका भूत-प्रेत स्पर्श नहीं कर सकते। एक सज्जन प्रात: लगभग चार बजे घोड़ेपर बैठकर किसी आवश्यक कामके लिये दूसरे गाँव जा रहे थे। ठण्डीके दिन थे। सूर्योदय होनेमें लगभग डेढ़ घण्टेकी देरी थी। जाते-जाते वे ऐसे स्थानपर पहुँचे, जो इस बातके लिये प्रसिद्ध था कि वहाँ भूत-प्रेत रहते हैं। वहाँ पहुँचते ही उनके सामने अचानक एक प्रेत पेड़-जैसा लम्बा रूप धारण करके रास्तेमें खड़ा हो गया। घोड़ा बिचक जानेसे वे सज्जन घोड़ेसे गिर पड़े। उनके दोनों हाथोंमें मोच आ गयी। पर वे सज्जन बड़े निर्भय थे; अत: पिशाचसे डरे नहीं। जबतक सूर्योदय नहीं हुआ, तबतक वह पिशाच उनके सामने ही खड़ा रहा, पर उसने उनपर आक्रमण नहीं किया, उनका स्पर्श नहीं किया; क्योंकि उनके गलेमें तुलसीकी माला थी। सूर्योदय होनेपर पिशाच अदृश्य हो गया और वे सज्जन पुन: घोड़ेपर बैठकर अपने घर वापस आ गये।
सूर्यास्तसे लेकर आधी राततक तथा मध्याह्नके समय भूत-प्रेतोंमें ज्यादा बल रहता है, उनका ज्यादा जोर चलता है। यह सबके अनुभवमें भी आता है कि रात्रि और मध्याह्नके समय श्मशान आदि स्थानोंमें जानेसे जितना भय लगता है, उतना भय सबेरे और सन्ध्याके समय नहीं लगता। अगर रात्रि अथवा मध्याह्नके समय किसी एकान्त, निर्जन स्थानपर जाना पड़े और वहाँ पीछेसे कोई (प्रेत) पुकारे अथवा ‘मैं आ जाऊँ’—ऐसा कहे तो उत्तरमें कुछ नहीं बोलना चाहिये, प्रत्युत चलते-चलते भगवन्नाम-जप, कीर्तन, विष्णुसहस्रनाम, हनुमानचालीसा, गीता आदिका पाठ शुरू कर देना चाहिये। उत्तर न मिलनेसे वह प्रेत वहींपर रह जायगा। अगर हम उत्तर देंगे, ‘हाँ, आ जा’—ऐसा कहेंगे तो वह प्रेत हमारे पीछे लग जायगा।
जहाँ प्रेत रहते हैं, वहाँ पेशाब आदि करनेसे भी वे पकड़ लेते हैं; क्योंकि उनके स्थानपर पेशाब करना उनके प्रति अपराध है। अत: मनुष्यको जहाँ-कहीं भी पेशाब नहीं करना चाहिये।
हमें दुर्गतिमें, प्रेतयोनिमें न जाना पड़े—इस बातकी सावधानीके लिये और गयाश्राद्ध करके, पिण्ड-पानी देकर प्रेतात्माओंके उद्धारकी प्रेरणा करनेके लिये ही यहाँ प्रेतविषयक चर्चा की गयी है।