गीतामें मूर्तिपूजा
ये सनातनधर्मस्था: श्रद्धाप्रेमसमन्विता:।
मूर्तिपूजां न कुर्वन्ति मूर्तौ तु प्रभुपूजनम्॥
हमारे सनातन वैदिक सिद्धान्तमें भक्त-लोग मूर्तिका पूजन नहीं करते, प्रत्युत परमात्माका ही पूजन करते हैं। तात्पर्य है कि जो परमात्मा सब जगह परिपूर्ण है, उसका विशेष खयाल करनेके लिये मूर्ति बनाकर उस मूर्तिमें उस परमात्माका पूजन करते हैं, जिससे सुगमतापूर्वक परमात्माका ध्यान-चिन्तन होता रहे।
अगर मूर्तिकी ही पूजा होती है तो पूजकके भीतर पत्थरकी मूर्तिका ही भाव होना चाहिये कि ‘तुम अमुक पर्वतसे निकले हो, अमुक व्यक्तिने तुमको बनाया है, अमुक व्यक्तिने तुमको यहाँ लाकर रखा है; अत: हे पत्थरदेव! तुम मेरा कल्याण करो।’ परंतु ऐसा कोई कहता ही नहीं, तो फिर मूर्तिपूजा कहाँ हुई? अत: भक्तलोग मूर्तिकी पूजा नहीं करते; किंतु मूर्तिमें भगवान्की पूजा करते हैं अर्थात् मूर्तिभाव मिटाकर भगवद्भाव करते हैं। इस प्रकार मूर्तिमें भगवान्का पूजन करनेसे सब जगह भगवद्भाव हो जाता है। भगवत्पूजनसे भगवान्की भक्तिका आरम्भ होता है। भक्तके सिद्ध हो जानेपर भी भगवत्पूजन होता ही रहता है।
मूर्तिमें अपनी पूजाके विषयमें भगवान्ने गीतामें कहा है कि ‘भक्तलोग भक्तिपूर्वक मेरेको नमस्कार करते हुए मेरी उपासना करते हैं’ (९।१४); ‘जो भक्त श्रद्धा-प्रेमपूर्वक पत्र, पुष्प, फल, जल आदि मेरेको अर्पण करता है, उसके दिये हुए उपहारको मैं खा लेता हूँ’ (९।२६); देवताओं (विष्णु, शिव, शक्ति, गणेश और सूर्य—ये ईश्वरकोटिके पंचदेवता), ब्राह्मणों, आचार्य, माता-पिता आदि बड़े-बूढ़ों और ज्ञानी जीवन्मुक्त महात्माओंका पूजन करना शारीरिक तप है (१७। १४)। अगर सामने मूर्ति न हो तो किसको नमस्कार किया जायगा? किसको पत्र, पुष्प, फल, जल आदि चढ़ाये जायँगे और किसका पूजन किया जायगा? इससे यही सिद्ध होता है कि गीतामें मूर्तिपूजाकी बात भी आयी है।
इसी तरह गाय, तुलसी, पीपल, ब्राह्मण, तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त, गिरिराज गोवर्धन, गंगा, यमुना आदिका पूजन भी भगवत्पूजन है। इनका पूजन करनेसे ‘सब जगह परमात्मा हैं’ यह बात सुगमतासे अनुभवमें आ जाती है; अत: सब जगह परमात्माका अनुभव करनेमें गाय आदिका पूजन बहुत सहायक है। कारण कि पूजा करनेवालेने ‘सब जगह परमात्मा हैं’—ऐसा मानना तो शुरू कर दिया है। परंतु जो किसीका भी पूजन नहीं करता, केवल बातें ही बनाता है, उसको सब जगह परमात्मा हैं’—इसका अनुभव नहीं होगा। तात्पर्य है कि मूर्तिमें भगवान्का पूजन करना कल्याणका, श्रेयका साधन है।
भगवत्पूजनके सिवाय हाड़-मांसकी पूजा करना अर्थात् अपने शरीरको सुन्दर-सुन्दर गहनों-कपड़ोंसे सजाना, मकानको बढ़िया बनवाना तथा उसे सुन्दर-सुन्दर सामग्रीसे सजाना, शृंगार करना आदि मूर्तिपूजा ही है, जो कि पतनमें ले जानेवाली है।
भगवान् सब जगह परिपूर्ण हैं—ऐसा प्राय: सभी आस्तिक मानते हैं; परंतु वास्तवमें ऐसा मानना उन्हींका है, जिन्होंने मूर्ति, वेद, सूर्य, पीपल, तुलसी, गाय आदिमें भगवान्को मानकर उनका पूजन शुरू कर दिया है। कारण कि जो मूर्ति, वेद, सूर्य आदिमें भगवान्को मानते हैं, वे स्वत: सब जगह,सब प्राणियोंमें भगवान्को मानने लग जायँगे। जो केवल मूर्ति आदिमें ही भगवान्को मानते हैं, उनको ‘प्राकृत (आरम्भिक) भक्त’ कहा गया है* क्योंकि उन्होंने एक जगह भगवान्का पूजन शुरू कर दिया; अत: वे भगवान्के सम्मुख हो गये। परन्तु जो केवल ‘भगवान् सब जगह हैं’—ऐसा कहते हैं, पर उनका कहीं भी आदरभाव, पूज्यभाव, श्रेष्ठभाव नहीं है, उनको भक्त नहीं कहा गया है; क्योंकि वे ‘भगवान् सब जगह हैं’—ऐसा केवल कहते हैं, मानते नहीं; अत: वे भगवान्के सम्मुख नहीं हुए।
* अर्चायामेव हरये पूजां य: श्रद्धयेहते। न तद्भक्तेषु चान्येषु स भक्त: प्राकृत: स्मृत:॥ (श्रीमद्भा०११।२।४ ७)
मूर्तिमें भगवान्का पूजन श्रद्धाका विषय है, तर्कका विषय नहीं। जिनमें श्रद्धा है, उनके सामने भगवान्का महत्त्व प्रकट हो जाता है। उनके द्वारा की गयी पूजाको भगवान् ग्रहण करते हैं। उनके हाथसे भगवान् प्रसाद ग्रहण करते हैं। जैसे, करमाबाईसे भगवान्ने खिचड़ी खायी, धन्ना भक्तसे भगवान्ने टिक्कड़ खाये, मीराबाईसे भगवान्ने दूध पिया आदि-आदि। तात्पर्य है कि श्रद्धा-भक्तिसे भगवान् मूर्तिमें प्रकट हो जाते हैं।
प्रश्न—भक्तलोग भगवान्को भोग लगाते हैं तो भगवान् उसको ग्रहण करते हैं—इसका क्या पता?
उत्तर—भगवान्के दरबारमें वस्तुकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी प्रधानता है। भावके कारण ही भगवान् भक्तके द्वारा अर्पित वस्तुओं और क्रियाओंको ग्रहण कर लेते हैं। भक्तका भाव भगवान्को भोजन करानेका होता है तो भगवान्को भूख लग जाती है और वे प्रकट होकर भोजन कर लेते हैं। भक्तके भावके कारण भगवान् जिस वस्तुको ग्रहण करते हैं, वह वस्तु नाशवान् नहीं रहती, प्रत्युत दिव्य, चिन्मय हो जाती है। अगर वैसा भाव न हो, भावमें कमी हो, तो भी भगवान् भक्तके द्वारा भोजन अर्पण करनेमात्रसे सन्तुष्ट हो जाते हैं। भगवान्के सन्तुष्ट होनेमें वस्तु और क्रियाकी प्रधानता नहीं है, प्रत्युत भावकी ही प्रधानता है। सन्तोंने कहा है—
भाव भगत की राबड़ी, मीठी लागे ‘वीर’।
बिना भाव ‘कालू’ कहे, कड़वी लागे खीर॥
हमें एक सज्जन मिले थे। उनकी एक सन्तपर बड़ी श्रद्धा थी और वे उनकी सेवा किया करते थे। वे कहते थे कि जब महाराजको प्यास लगती तो मेरे मनमें आती कि महाराजको प्यास लगी है; अत: मैं जल ले जाता और वे पी लेते। ऐसे ही जो शुद्ध पतिव्रता होती है, उसको पतिकी भूख-प्यासका पता लग जाता है तथा पतिकी रुचि भोजनके किस पदार्थमें है—इसका भी पता लग जाता है। भोजन सामने आनेपर पति भी कह देता है कि आज मेरे मनमें इसी भोजनकी रुचि थी। इसी तरह जिसके मनमें भगवान्को भोग लगानेका भाव होता है, उसको भगवान्की रुचिका, भूख-प्यासका पता लग जाता है।
एक मन्दिरके पुजारी थे। उनके इष्ट भगवान् बालगोपाल थे। वे रोज छोटे-छोटे लड्डू बनाया करते और रातके समय जब बालगोपालको शयन कराते, तब उनके सिरहाने वे लड्डू रख दिया करते; क्योंकि बालकको रातमें भूख लग जाया करती है। एक दिन वे लड्डू रखना भूल गये तो रातमें बालगोपालने पुजारीको स्वप्नमें कहा कि मेरेको भूख लग रही है! ऐसे ही एक और घटना है। एक साधु थे। वे प्रतिवर्ष दीपावलीके बाद (ठण्डीके दिनोंमें) भगवान्को काजू, बादाम, पिस्ता, अखरोट आदिका भोग लगाया करते थे। एक वर्ष सूखा मेवा बहुत महँगा हो गया तो उन्होंने मूँगफलीका भोग लगाना शुरू कर दिया। एक दिन रातमें भगवान्ने स्वप्नमें कहा कि क्या तू मूँगफली ही खिलायेगा? उस दिनके बाद उन्होंने पुन: भगवान्को काजू आदिका भोग लगाना शुरू कर दिया। पहले उनके मनमें कुछ वहम था कि पता नहीं, भगवान् भोगको ग्रहण करते हैं या नहीं? जब भगवान्ने स्वप्नमें ऐसा कहा, तब उनका वहम मिट गया। तात्पर्य है कि कोई भगवान्को भावसे भोग लगाता है तो उनको भूख लग जाती है और वे उसको ग्रहण कर लेते हैं।
एक साधु थे। उनकी खुराक बहुत थी। एक बार उनके शरीरमें रोग हो गया। किसीने उनसे कहा कि महाराज! आप गायका दूध पिया करें, पर दूध वही पीयें, जो बछड़ेके पीनेपर बच जाय। उन्होंने ऐसा ही करना शुरू कर दिया। जब बछड़ा पेट भरकर अपनी माँका दूध पी लेता, तब वे गायका दूध निकालते। गायका पाव-डेढ़ पाव दूध निकलता, पर उतना ही दूध पीनेसे उनकी तृप्ति हो जाती। कुछ ही दिनोंमें उनका रोग मिट गया और वे स्वस्थ हो गये। जब न्याययुक्त वस्तुमें भी इतनी शक्ति है कि थोड़ी मात्रामें लेनेपर भी तृप्ति हो जाय और रोग मिट जाय, तो फिर जो वस्तु भावपूर्वक दी जाय, उसका तो कहना ही क्या है!
यह तो सबका ही अनुभव है कि कोई भावसे, प्रेमसे भोजन कराता है तो उस भोजनमें विचित्र स्वाद होता है और उस भोजनसे वृत्तियाँ भी बहुत अच्छी रहती हैं। केवल मनुष्यपर ही नहीं, पशुओंपर भी भावका असर पड़ता है। जिस बछड़ेकी माँ मर जाती है, उसको लोग दूसरी गायका दूध पिलाते हैं। इससे वह बछड़ा जी तो जाता है, पर पुष्ट नहीं होता। वही बछड़ा अगर अपनी माँका दूध पीता तो माँ उसको प्यारसे चाटती, दूध पिलाती, जिससे वह थोड़े ही दूधसे पुष्ट हो जाता। जब मनुष्य और पशुओंपर भी भावका असर पड़ता है, तो फिर अन्तर्यामी भगवान् पर भावका असर पड़ जाय, इसका तो कहना ही क्या है! विदुरानीके भावके कारण ही भगवान्ने उसके हाथसे केलेके छिलके खाये। गोपियोंके भावके कारण ही भगवान्ने उनके हाथसे छीनकर दही, मक्खन खाया। भगवान् ब्रह्माजीसे कहते हैं—
नैवेद्यं पुरतो न्यस्तं चक्षुषा गृह्यते मया।
रसं च दासजिह्वायामश्नामि कमलोद्भव॥
‘हे कमलोद्भव! मेरे सामने रखे हुए भोगोंको मैं नेत्रोंसे ग्रहण करता हूँ; परंतु उस भोगका रस मैं भक्तकी जिह्वाके द्वारा ही लेता हूँ।’
ऐसी बात भी सन्तोंसे सुनी है कि भावसे लगे हुए भोगको भगवान् कभी देख लेते हैं, कभी स्पर्श कर लेते हैं और कभी कुछ ग्रहण भी कर लेते हैं।
जैसे घुटनोंके बलपर चलनेवाला छोटा बालक कोई वस्तु उठाकर अपने पिताजीको देता है तो उसके पिताजी बहुत प्रसन्न हो जाते हैं और हाथ ऊँचा करके कहते हैं कि बेटा! तू इतना बड़ा हो जा अर्थात् मेरेसे भी बड़ा हो जा। क्या वह वस्तु अलभ्य थी? क्या बालकके देनेसे पिताजीको कोई विशेष चीज मिल गयी? नहीं। केवल बालकके देनेके भावसे ही पिताजी राजी हो गये। ऐसे ही भगवान्को किसी वस्तुकी कमी नहीं है और उनमें किसी वस्तुकी इच्छा भी नहीं है, फिर भी भक्तके देनेके भावसे वे प्रसन्न हो जाते हैं। परन्तु जो केवल लोगोंको दिखानेके लिये, लोगोंको ठगनेके लिये मन्दिरोंको सजाते हैं, ठाकुरजी (भगवान्के विग्रह)- का शृंगार करते हैं, उनको बढ़िया-बढ़िया पदार्थोंका भोग लगाते हैं तो उसको भगवान् ग्रहण नहीं करते; क्योंकि वह भगवान्का पूजन नहीं है, प्रत्युत रुपयोंका, व्यक्तिगत स्वार्थका ही पूजन है।
जो लोग किसी भी तरहसे ठाकुरजीको भोग लगानेवालेको, उनकी पूजा करनेवालेको पाखण्डी कहते हैं और खुद अभिमान करते हैं कि हम तो उनसे अच्छे हैं; क्योंकि हम पाखण्ड नहीं करते, ऐसे लोगोंका कल्याण नहीं होता। जो किसी भी तरहसे उत्तम कर्म करनेमें लगे हैं, उनका उतना अंश तो अच्छा है ही, उनके आचरणमें, रहन-सहनमें तो अच्छापन है ही। परन्तु जो अभिमानपूर्वक अच्छे आचरणोंका त्याग करते हैं, उसका परिणाम तो बुरा ही होगा।
प्रश्न—दुष्टलोग मूर्तियोंको तोड़ते हैं तो भगवान् उनको अपना प्रभाव, चमत्कार क्यों नहीं दिखाते?
उत्तर—जिनकी मूर्तिमें सद्भावना नहीं है, जिनका मूर्तिमें भगवत्पूजन करनेवालोंके साथ द्वेष है और द्वेषभावसे ही जो मूर्तिको तोड़ते हैं, उनके सामने भगवान्का प्रभाव, महत्त्व प्रकट होगा ही क्यों? कारण कि भगवान्का महत्त्व तो श्रद्धाभावसे ही प्रकट होता है।
मूर्तिपूजा करनेवालोंमें ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’—इस भावकी कमी होनेके कारण ही दुष्टलोगोंके द्वारा मूर्ति तोड़े जानेपर भगवान् अपना प्रभाव प्रकट नहीं करते। परन्तु जिन भक्तोंका ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’—ऐसा दृढ़ श्रद्धा-विश्वास है, वहाँ भगवान् अपना प्रभाव प्रकट कर देते हैं। जैसे, गुजरातमें सूरतके पास एक शिवजीका मन्दिर है। उसमें स्थित शिवलिंगमें छेद-ही-छेद हैं। इसका कारण यह था कि जब मुसलमान उस शिवलिंगको तोड़नेके लिये आये, तब उस शिवलिंगमेंसे असंख्य बड़े-बड़े भौंरे प्रकट हो गये और उन्होंने मुसलमानोंको भगा दिया।
जो परीक्षामें पास होना चाहते हैं, वे ही परीक्षकको आदर देते हैं परीक्षकके अधीन होते हैं; क्योंकि परीक्षक जिसको पास कर देता है, वह पास हो जाता है और जिसको फेल कर देता है, वह फेल हो जाता है। परन्तु भगवान्को किसीकी परीक्षामें पास होनेकी जरूरत ही नहीं है; क्योंकि परीक्षामें पास होनेसे भगवान्का महत्त्व बढ़ नहीं जाता और परीक्षामें फेल होनेसे भगवान्का महत्त्व घट नहीं जाता। जैसे, रावण भगवान् रामकी परीक्षा लेनेके लिये मारीचको मायामय स्वर्णमृग बनाकर भेजता है तो भगवान् स्वर्णमृगके पीछे दौड़ते हैं अर्थात् रावणकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं; क्योंकि भगवान्को पास होकर दुष्ट रावणसे कौन-सा सर्टिफिकेट लेना था! ऐसे ही दुष्ट लोग भगवान्की परीक्षा लेनेके लिये मन्दिरोंको तोड़ते हैं तो भगवान् उनकी परीक्षामें फेल हो जाते हैं, उनके सामने अपना प्रभाव प्रकट नहीं करते; क्योंकि वे दुष्टभावसे ही भगवान्के सामने आते हैं।
एक वस्तुगुण होता है और एक भावगुण होता है। ये दोनों गुण अलग-अलग हैं। जैसे, पत्नी, माता और बहन—इन तीनोंका शरीर एक ही है अर्थात् जैसा पत्नीका शरीर है, वैसा ही माता और बहनका शरीर है, अत: तीनोंमें ‘वस्तुगुण’ एक ही हुआ। परन्तु पत्नीसे मिलनेपर और भाव रहता है, मातासे मिलनेपर और भाव रहता है तथा बहनसे मिलनेपर और ही भाव रहता है; अत: वस्तु एक होनेपर भी ‘भावगुण’ अलग-अलग हुआ। संसारमें भिन्न-भिन्न स्वभावके व्यक्ति, वस्तु आदि हैं; अत: उनमें वस्तुगुण तो अलग-अलग है, पर सबमें भगवान् परिपूर्ण हैं—यह भावगुण एक ही है। ऐसे ही जिसकी मूर्तिपर श्रद्धा है, उसमें ‘मूर्तिमें भगवान् हैं’—ऐसा भावगुण रहता है। परन्तु जिसकी मूर्तिपर श्रद्धा नहीं है, उसमें ‘मूर्ति पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी है’—ऐसा वस्तुगुण रहता है। तात्पर्य है कि अगर मूर्तिमें पूजकका भाव भगवान्का है तो उसके लिये वह साक्षात् भगवान् ही है। अगर पूजकका भाव पत्थर, पीतल, चाँदी आदिकी मूर्तिका है तो उसके लिये वह साक्षात् पत्थर आदिकी मूर्ति ही है; क्योंकि भावमें ही भगवान् हैं—
न काष्ठे विद्यते देवो न शिलायां न मृत्सु च।
भावे ही विद्यते देवस्तस्माद् भावं समाचरेत्॥
(गरुड०, उत्तर० ३।१०)
‘देवता न तो काठमें रहते हैं, न पत्थरमें और न मिट्टीमें ही रहते हैं। भावमें ही देवताका निवास है, इसलिये भावको ही मुख्य मानना चाहिये।’
एक वैरागी बाबा थे। उनके पास सोनेकी दो मूर्तियाँ थीं—एक गणेशजीकी और एक चूहेकी। दोनों मूर्तियाँ तौलमें बराबर थीं। बाबाको रामेश्वर जाना था। अत: उन्होंने सुनारके पास जाकर कहा कि भैया! इन मूर्तियोंके बदले कितने रुपये दोगे? सुनारने दोनों मूर्तियोंको तौलकर दोनोंके पाँच-पाँच सौ रुपये बताये अर्थात् दोनोंकी बराबर कीमत बतायी। बाबा बोले—अरे! तू देखता नहीं, एक मालिक है और एक उनकी सवारी है। जितना मूल्य मालिक(गणेशजी)-का, उतना ही मूल्य सवारी (चूहे)-का—यह कैसे हो सकता है? सुनार बोला—बाबा!मैं गणेशजी और चूहेका मूल्य नहीं लगाता, मैं तो सोनेका मूल्य लगाता हूँ। तात्पर्य है कि बाबाकी दृष्टि गणेशजी और चूहेपर है और सुनारकी दृष्टि सोनेपर है अर्थात् बाबाको भावगुण दीखता है और सुनारको वस्तुगुण दीखता है। ऐसे ही जो मूर्तियोंको तोड़ते हैं, उनको वस्तुगुण ही दीखता है अर्थात् उनको पत्थर, पीतल आदि ही दीखता है। अत: भगवान् उनकी भावनाके अनुसार पत्थर आदिके रूपसे ही बने रहते हैं।
वास्तवमें देखा जाय तो स्थावर-जंगम आदि सब कुछ भगवत्स्वरूप ही है। जिनमें भावगुण अर्थात् भगवान्की भावना है, उनको सब कुछ भगवत्स्वरूप ही दीखता है; परंतु जिनमें वस्तुगुण अर्थात् संसारकी भावना है, उनको स्थावर-जंगम आदि सब कुछ अलग-अलग ही दीखता है। यही बात मूर्तिके विषयमें भी समझ लेनी चाहिये।
लोग श्रद्धाभावसे मूर्तिकी पूजा करते हैं, स्तुति एवं प्रार्थना करते हैं; क्योंकि उनको तो मूर्तिमें विशेषता दीखती है। जो मूर्तिको तोड़ते हैं, उनको भी मूर्तिमें विशेषता दीखती है। अगर विशेषता नहीं दीखती तो वे मूर्तिको ही क्यों तोड़ते हैं? दूसरे पत्थरोंको क्यों नहीं तोड़ते? अत: वे भी मूर्तिमें विशेषता मानते हैं। केवल मूर्तिमें श्रद्धा-विश्वास रखनेवालोंके साथ द्वेषभाव होनेसे, उनको दु:ख देनेके लिये ही वे मूर्तिको तोड़ते हैं।
जो लोग शास्त्र-मर्यादाके अनुसार बने हुए मन्दिरको, उसमें प्राणप्रतिष्ठा करके रखी गयी मूर्तियोंको तोड़ते हैं, वे तो अपना स्वार्थ सिद्ध करने, हिन्दुओंकी मर्यादाओंको भंग करने, अपने अहंकार एवं नामको स्थायी करने, भग्नावशेष मूर्तियोंको देखकर पीढ़ियोंतक हिन्दुओंके हृदयमें जलन पैदा करनेके लिये द्वेषभावसे मूर्तियोंको तोड़ते हैं। ऐसे लोगोंकी बड़ी भयानक दुर्गति होती है, वे घोर नरकोंमें जाते हैं; क्योंकि उनकी नीयत ही दूसरोंको दु:ख देने, दूसरोंका नाश करनेकी है। खराब नीयतका नतीजा भी खराब ही होता है। परन्तु जो लोग मन्दिरोंकी, मूर्तियोंकी रक्षा करनेके लिये अपनी पूरी शक्ति लगा देते हैं, अपने प्राणोंको लगा देते हैं, उनकी नीयत अच्छी होनेसे उनकी सद्गति ही होती है।
हम किसी विद्वान्का आदर करते हैं तो वास्तवमें हमारे द्वारा विद्याका ही आदर हुआ, हाड़-मांसके शरीरका नहीं। ऐसे ही जो मूर्तिमें भगवान्को मानता है, उसके द्वारा भगवान्का ही आदर हुआ, मूर्तिका नहीं। अत: जो मूर्तिमें भगवान्को नहीं मानता, उसके सामने भगवान्का प्रभाव प्रकट नहीं होता। परन्तु जो मूर्तिमें भगवान्को मानता है, उसके सामने भगवान्का प्रभाव प्रकट हो जाता है।
प्रश्न—हम मूर्तिपूजा क्यों करें? मूर्तिपूजा करनेकी क्या आवश्यकता है?
उत्तर—अपना भगवद्भाव बढ़ानेके लिये, भगवद्भावको जाग्रत् करनेके लिये, भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये मूर्तिपूजा करनी चाहिये। हमारे अन्त:करणमें सांसारिक पदार्थोंका जो महत्त्व अंकित है, उनमें हमारी जो ममता-आसक्ति है, उसको मिटानेके लिये ठाकुरजीका पूजन करना, पुष्पमाला चढ़ाना, अच्छे-अच्छे वस्त्र पहनाना, आरती उतारना, भोग लगाना आदि बहुत आवश्यक है। तात्पर्य है कि मूर्तिपूजा करनेसे हमें दो तरहसे लाभ होता है—भगवद्भाव जाग्रत् होता है तथा बढ़ता है और सांसारिक वस्तुओंमें ममता-आसक्तिका त्याग होता है।
मनुष्यके जीवनमें कम-से-कम एक जगह ऐसी होनी ही चाहिये, जिसके लिये मनुष्य अपना सब कुछ त्याग कर सके। वह जगह चाहे भगवान् हों, चाहे सन्त-महात्मा हों, चाहे माता-पिता हों, चाहे आचार्य हों। कारण कि इससे मनुष्यकी भौतिक भावना कम होती है और धार्मिक तथा आध्यात्मिक भावना बढ़ती है।
एक बार कुछ तीर्थयात्री काशीकी परिक्रमा कर रहे थे। वहाँका एक पण्डा उन यात्रियोंको मन्दिरोंका परिचय देता, शिवलिंगको प्रणाम करवाता और उसका पूजन करवाता। उन यात्रियोंमें कुछ आधुनिक विचारधाराके लड़के थे। उनको जगह-जगह प्रणाम आदि करना अच्छा नहीं लगा; अत: वे पण्डासे बोले—पण्डाजी! जगह-जगह पत्थरोंमें माथा रगड़नेसे क्या लाभ? वहाँ एक सन्त खड़े थे। वे उन लड़कोंसे बोले—भैया! जैसे इस हाड़-मांसके शरीरमें तुम हो, ऐसे ही मूर्तिमें भगवान् हैं। तुम्हारी आयु तो बहुत थोड़े वर्षोंकी है, पर ये शिवलिंग बहुत वर्षोंके हैं; अत: आयुकी दृष्टिसे शिवलिंग तुम्हारेसे बड़े हैं। शुद्धताकी दृष्टिसे देखा जाय तो हाड़-मांस अशुद्ध होते हैं और पत्थर शुद्ध होता है। मजबूतीकी दृष्टिसे देखा जाय तो हड्डीसे पत्थर मजबूत होता है। अगर परीक्षा करनी हो तो अपना सिर मूर्तिसे भिड़ाकर देख लो कि सिर फूटता है या मूर्ति! तुम्हारेमें कई दुर्गुण-दुराचार हैं, पर मूर्तिमें कोई दुर्गुण-दुराचार नहीं है। तात्पर्य है कि मूर्ति सब दृष्टियोंसे श्रेष्ठ है। अत: मूर्ति पूजनीय है। तुमलोग अपने नामकी निन्दासे अपनी निन्दा और नामकी प्रशंसासे अपनी प्रशंसा मानते हो, शरीरके अनादरसे अपना अनादर और शरीरके आदरसे अपना आदर मानते हो, तो क्या मूर्तिमें भगवान्का पूजन, स्तुति-प्रार्थना आदि करनेसे उसको भगवान् अपना पूजन, स्तुति-प्रार्थना नहीं मानेंगे? अरे भाई! लोग तुम्हारे जिस नाम-रूपका आदर करते हैं, वह तुम्हारा स्वरूप नहीं है, फिर भी तुम राजी होते हो। भगवान्का स्वरूप तो सर्वत्र व्यापक है; अत: इन मूर्तियोंमें भी भगवान्का स्वरूप है। हम इन मूर्तियोंमें भगवान्का पूजन करेंगे तो क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे? हम जितने अधिक भावसे भगवान्का पूजन करेंगे, भगवान् उतने ही अधिक प्रसन्न होंगे।
जो कोई भी आस्तिक पुरुष होता है, वह भले ही मूर्तिपूजासे परहेज रखे, पर उसके द्वारा मूर्तिपूजा होती ही है। कैसे? वह वेद आदि ग्रन्थोंको मानता है, उनके अनुसार चलता है तो यह मूर्तिपूजा ही है; क्योंकि वेद भी तो (लिखी हुई पुस्तक होनेसे) मूर्ति ही है। वेद आदिका आदर करना मूर्तिपूजा ही है। ऐसे ही मनुष्य गुरुका, माता-पिताका, अतिथिका आदर-सत्कार करता है, अन्न-जल-वस्त्र आदिसे उनकी सेवा करता है तो यह सब मूर्तिपूजा ही है। कारण कि गुरु, माता-पिता आदिके शरीर तो जड़ हैं, पर शरीरका आदर करनेसे उनका भी आदर होता है, जिससे वे प्रसन्न होते हैं। तात्पर्य है कि मनुष्य कहीं भी, जिस-किसीका, जिस-किसी रूपसे आदर-सत्कार करता है, वह सब मूर्तिपूजा ही है। अगर मनुष्य भावसे मूर्तिमें भगवान्का पूजन करता है तो वह भगवान्का ही पूजन होता है।
एक वैरागी बाबा थे। वे एक छातेके नीचे रहते थे और वहीं शालिग्रामका पूजन किया करते थे। जो लोग मूर्तिपूजाको नहीं मानते थे, उनको बाबाजीकी यह क्रिया (मूर्तिपूजा) बुरी लगती थी। उन दिनों वहाँ हुक साहब नामक एक अंग्रेज अफसर आया हुआ था। उस अफसरके सामने उन लोगोंने बाबाजीकी शिकायत कर दी कि यह मूर्तिकी पूजा करके सर्वव्यापक परमात्माका तिरस्कार करता है आदि-आदि। हुक साहबने कुपित होकर बाबाजीको बुलाया और उनको वहाँसे चले जानेका हुक्म दे दिया। दूसरे दिन बाबाजीने हुक साहबका एक पुतला बनाया और उसको लेकर वे शहरमें घूमने लगे। वे लोगोंको दिखा-दिखाकर उस पुतलेको जूता मारते और कहते कि यह हुक साहब बिलकुल बेअक्ल हैं, इसमें कुछ भी समझ नहीं है आदि-आदि। लोगोंने पुन: हुक साहबसे शिकायत कर दी कि यह बाबा आपका तिरस्कार करता है, आपका पुतला बनाकर उसको जूता मारता है। हुक साहबने बाबाजीको बुलाकर पूछा कि तुम मेरा अपमान क्यों करते हो? बाबाजीने कहा कि मैं आपका बिलकुल अपमान नहीं करता। मैं तो आपके इस पुतलेका अपमान करता हूँ; क्योंकि यह बड़ा ही मूर्ख है। ऐसा कहकर बाबाजीने पुतलेको जूता मारा। हुक साहब बोले कि मेरे पुतलेका अपमान करना मेरा ही अपमान करना है। बाबाजीने कहा कि आप इस पुतलेमें अर्थात् मूर्तिमें हैं ही नहीं, फिर भी केवल नाममात्रसे आपपर इतना असर पड़ता है। हमारे भगवान् तो सब देश, काल, वस्तु आदिमें हैं; अत: जो श्रद्धापूर्वक मूर्तिमें भगवान्का पूजन करता है, उससे क्या भगवान् प्रसन्न नहीं होंगे? मैं मूर्तिमें भगवान्का पूजन करता हूँ तो यह भगवान्का आदर हुआ या निरादर? हुक साहब बोले कि जाओ, अब तुम स्वतन्त्रतापूर्वक मूर्तिपूजा कर सकते हो। बाबाजी अपने स्थानपर चले गये।
प्रश्न—कुछ लोग मन्दिरमें अथवा मन्दिरके पास बैठकर मांस, मदिरा आदि निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, फिर भी भगवान् उनको क्यों नहीं रोकते?
उत्तर—माँ-बापके सामने बच्चे उद्दण्डता करते हैं तो माँ-बाप उनको दण्ड नहीं देते; क्योंकि वे यही समझते हैं कि अपने ही बच्चे हैं, अनजान हैं, समझते नहीं हैं। इसी तरह भगवान् भी यही समझते हैं कि ये अपने ही अनजान बच्चे हैं; अत: भगवान्की दृष्टि उनके आचरणोंकी तरफ जाती ही नहीं। परन्तु जो लोग मन्दिरमें निषिद्ध पदार्थोंका सेवन करते हैं, निषिद्ध आचरण करते हैं, उनको इस अपराधका दण्ड अवश्य ही भोगना पड़ेगा।
प्रश्न—पहले कबीरजी आदि कुछ सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन क्यों किया?
उत्तर—जिस समय जैसी आवश्यकता होती है, उस समय सन्त-महापुरुष प्रकट होकर वैसा ही कार्य करते हैं। जैसे, पहले जब शैवों और वैष्णवोंमें बहुत झगड़ा होने लगा, तब तुलसीदासजी महाराजने रामचरितमानसकी रचना की, जिससे दोनोंका झगड़ा मिट गया। गीतापर बहुत-सी टीकाएँ लिखी गयी हैं; क्योंकि समय-समयपर जैसी आवश्यकता पड़ी, महापुरुषोंके हृदयमें वैसी ही प्रेरणा हुई और उन्होंने गीतापर वैसी ही टीका लिखी। जिस समय बौद्धमत बहुत बढ़ गया था, उस समय शंकराचार्यजीने प्रकट होकर सनातन धर्मका प्रचार किया। ऐसे ही जब मुसलमानोंका राज्य था, तब वे मन्दिरोंको तोड़ते थे और मूर्तियोंको खण्डित करते थे। अत: उस समय कबीरजी आदि सन्तोंने कहा कि हमें मन्दिरोंकी, मूर्तिपूजाकी जरूरत नहीं है; क्योंकि हमारे परमात्मा केवल मन्दिरमें या मूर्तिमें ही नहीं हैं, प्रत्युत सब जगह व्यापक हैं। वास्तवमें उन सन्तोंका मूर्तिपूजाका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं था, प्रत्युत लोगोंको किसी तरह परमात्मामें लगानेमें ही तात्पर्य था।
प्रश्न—अभी तो वैसा समय नहीं है, मुसलमान मन्दिरोंको, मूर्तियोंको नहीं तोड़ रहे हैं, फिर भी उन सन्तोंके सम्प्रदायमें चलनेवाले मूर्तिपूजाका, साकार भगवान्का खण्डन क्यों करते हैं?
उत्तर—किसीका खण्डन करना अपने मतका आग्रह है; क्योंकि दूसरोंके मतका खण्डन करनेवाले अपने मतका प्रचार करना चाहते हैं, अपनी प्रतिष्ठा चाहते हैं। अभी जो मन्दिरोंका, मूर्तिपूजाका, दूसरोंके मतका खण्डन करते हैं, वे मतवादी वस्तुत: परमात्मतत्त्वको नहीं चाहते, अपना उद्धार नहीं चाहते, प्रत्युत अपनी व्यक्तिगत पूजा चाहते हैं, अपनी टोली बनाना चाहते हैं, अपने सम्प्रदायका प्रचार चाहते हैं। ऐसे मतवादियोंको परमात्माकी प्राप्ति नहीं होती। जो अपने मतका आग्रह रखते हैं, वे मतवाले होते हैं और मतवालोंकी बात मान्य (माननेयोग्य) नहीं होती—
बातुल भूत बिबस मतवारे। ते नहिं बोलहिं बचन बिचारे॥
(मानस १। ११५। ४)
ऐसे मतवाले लोग तत्त्वको नहीं जान सकते—
हरीया रत्ता तत्तका, मतका रत्ता नांहि।
मत का रत्ता से फिरै, तांह तत्त पाया नांहि॥
हरीया तत्त विचारियै, क्या मत सेती काम।
तत्त बसाया अमरपुर, मत का जमपुर धाम॥
निराकारको माननेवाले साकार मूर्तिका खण्डन करते हैं तो वे वास्तवमें अपने इष्ट निराकारको ही छोटा बनाते हैं; क्योंकि उनकी धारणासे ही यह सिद्ध होता है कि साकारकी जगह उनका निराकार नहीं है अर्थात् उनका निराकार एकदेशीय है! अगर वे साकार मूर्तिमें भी अपने निराकारको मानते तो फिर वे साकारका खण्डन ही क्यों करते? दूसरी बात, निराकारकी उपासना करनेवाले ‘परमात्मा साकार नहीं हैं, उनका अवतार भी नहीं होता, उनकी मूर्ति भी नहीं होती’—ऐसा मानते हैं; अत: उनका सर्वसमर्थ परमात्मा अवतार लेनेमें, साकार बननेमें असमर्थ (कमजोर) हुआ अर्थात् उनका परमात्मा सर्वसमर्थ नहीं रहा। वास्तवमें परमात्मा ऐसे नहीं हैं। वे साकार-निराकार आदि सब कुछ हैं—‘सदसच्चाहम्’ (९।१९)। अत: विचार करना चाहिये कि हमें अपना कल्याण करना है या साकार-निराकारको लेकर झगड़ा करना है? अगर हम अपनी रुचिके अनुसार साकारकी अथवा निराकारकी उपासना करें तो हमारा कल्याण हो जाय—
तेरे भावै जो करौ, भलौ बुरौ संसार।
‘नारायन’ तू बैठिके, अपनौ भुवन बुहार॥
अगर झगड़ा ही करना हो तो संसारमें झगड़ा करनेके बहुत-से स्थान हैं। धन, जमीन, मकान आदिको लेकर लोग झगड़ा करते ही हैं। परन्तु पारमार्थिक मार्गमें आकर झगड़ा क्यों छेड़ें? अगर हम साकार या निराकारकी उपासना करते हैं तो हमें दूसरोंके मतका खण्डन करनेके लिये समय कैसे मिला? दूसरोंका खण्डन करनेमें हमने जितना समय लगा दिया, उतना समय अगर अपने इष्टकी उपासना करनेमें लगाते तो हमें बहुत लाभ होता।
दूसरोंका खण्डन करनेसे हमारी हानि यह हुई कि हमने अपने इष्टका खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दे दिया! जैसे, हमने निराकारका खण्डन किया तो हमने अपने इष्ट (साकार)-का खण्डन करनेके लिये दूसरोंको निमन्त्रण दिया, अवकाश दिया कि अब तुम हमारे इष्टका खण्डन करो। अत: इस खण्डनसे न तो हमारेको कुछ लाभ हुआ और न दूसरोंको ही कुछ लाभ हुआ। दूसरी बात, दूसरोंका खण्डन करनेसे कल्याण होता है—यह उपाय किसीने भी नहीं लिखा। जिन लोगोंने दूसरोंका खण्डन किया है, उन्होंने भी यह नहीं कहा कि दूसरोंका खण्डन करनेसे तुम्हारा भला होगा, कल्याण होगा। अगर हम किसीके मतका, इष्टका खण्डन करेंगे तो इससे हमारा अन्त:करण मैला होगा, खण्डनके अनुसार ही द्वेषकी वृत्तियाँ बनेंगी, जिससे हमारी उपासनामें बाधा लगेगी और हम अपने इष्टसे विमुख हो जायँगे। अत: मनुष्यको किसीके मतका, किसीके इष्टका खण्डन नहीं करना चाहिये, किसीको नीचा नहीं समझना चाहिये, किसीका अपमान-तिरस्कार नहीं करना चाहिये; क्योंकि सभी अपनी-अपनी रुचिके अनुसार, भाव और श्रद्धा-विश्वाससे अपने इष्टकी उपासना करते हैं। परमात्मा साधकके भावसे, प्रेमसे, श्रद्धा-विश्वाससे ही मिलते हैं। अत: अपने मतपर, इष्टपर श्रद्धा-विश्वास करके उस मतके अनुसार तत्परतासे साधनमें लग जाना चाहिये। यही परमात्माको प्राप्त करनेका मार्ग है। दूसरोंका खण्डन करना, तिरस्कार करना परमात्मप्राप्तिका साधन नहीं है, प्रत्युत पतनका साधन है।
जिन सन्तोंने मूर्तिपूजाका खण्डन किया है, उन्होंने (मूर्तिपूजाके स्थानपर) नाम-जप, सत्संग, गुरुवाणी, भगवच्चिन्तन, ध्यान आदिपर विशेष जोर दिया है। अत: जिन लोगोंने मूर्तिपूजाका तो त्याग कर दिया, पर जो अपने मतके अनुसार नाम-जप आदिमें तत्परतासे नहीं लगे, वे तो दोनों तरफसे रीते ही रह गये! उनसे तो मूर्तिपूजा करनेवाले ही श्रेष्ठ हुए, जो अपने मतके अनुसार साधन तो करते हैं।
इसपर कोई यह कहे कि हमारा दूसरोंका खण्डन करनेमें तात्पर्य नहीं है, हम तो अपनी उपासनाको दृढ़ करते हैं, अपना अनन्यभाव बनाते हैं, तो इसका उत्तर यह है कि दूसरोंका खण्डन करनेसे अनन्यभाव नहीं बनता। अनन्यभाव तो यह है कि हमारे इष्टके सिवाय दूसरा कोई तत्त्व है ही नहीं। हमारे प्रभु सगुण भी हैं और निर्गुण भी। सब हमारे प्रभुके ही रूप हैं। दूसरे लोग हमारे प्रभुका चाहे दूसरा नाम रख दें, पर हैं हमारे प्रभु ही। हमारे प्रभुकी अनेक रूपोंमें तरह-तरहसे उपासना होती है। अत: जो निर्गुणको मानते हैं, वे हमारे सगुण प्रभुकी महिमा बढ़ा रहे हैं; क्योंकि हमारा सगुण ही तो वहाँ निर्गुण है। इसलिये निर्गुणकी उपासना करनेवाले हमारे आदरणीय हैं। ऐसा करनेसे ही अनन्यभाव होगा। किसीका खण्डन करना अनन्यभाव बननेका साधन नहीं है। जो मनुष्य श्रद्धा-विश्वासपूर्वक, सीधे-सरल भावसे अपने इष्टकी उपासनामें लगे हुए हैं, उनके इष्टका, उनकी उपासनाका खण्डन करनेसे उनके हृदयमें ठेस पहुँचेगी, उनको दु:ख होगा तो खण्डन करनेवालेको बड़ा भारी पाप लगेगा, जिससे उसकी उपासना सिद्ध नहीं होगी।
अनन्यताके नामपर दूसरोंका खण्डन करना अच्छाईके चोलेमें बुराई है। बुराईके रूपमें बुराई आ जाय तो उससे भला आदमी बच सकता है, पर जब अच्छाईके रूपमें बुराई आ जाय तो उससे बचना बड़ा कठिन होता है। जैसे, सीताजीके सामने रावण और हनुमान्जीके सामने कालनेमि साधुवेशमें आ गये तो सीताजी और हनुमान्जी भी धोखेमें आ गये। अर्जुनने भी हिंसाके बहाने अपने कर्तव्यसे च्युत होनेकी बात पकड़ ली कि दुर्योधनादि धर्मको नहीं जानते, उनपर लोभ सवार हुआ है, पर मैं धर्मको जानता हूँ, मेरेमें लोभ नहीं है, मैं अहिंसक हूँ आदि। इस प्रकार अर्जुनमें भी अच्छाईके चोलेमें बुराई आ गयी। उस बुराईको दूर करनेमें भगवान्को बड़ा जोर पड़ा, लम्बा उपदेश देना पड़ा। अगर अर्जुनमें बुराईके रूपमें ही बुराई आती तो उसको दूर करनेमें देरी नहीं लगती। ऐसे ही अनन्यभावके रूपमें खण्डनरूपी बुराई आयी और हमने अपना अमूल्य समय, सामर्थ्य, समझ आदिको दूसरोंका खण्डन करनेमें लगा दिया तो इससे हमारा ही पतन हुआ! अत: साधकको चाहिये कि वह बड़ी सावधानीके साथ अपने समय, योग्यता, सामर्थ्य आदिको अपने इष्टकी उपासनामें ही लगाये।
प्रश्न—भगवान् की स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है?
उत्तर—स्वयंभू मूर्ति बनती हो, तभी यह प्रश्न उठ सकता है कि स्वयंभू मूर्ति कैसे बनती है! स्वयंभू मूर्ति बनती ही नहीं। वह स्वयं प्रकट होती है, तभी उसका नाम स्वयंभू है, नहीं तो वह स्वयंभू कैसे?
प्रश्न—अमुक मूर्ति स्वयंभू है अथवा किसीके द्वारा बनायी हुई है—इसकी क्या पहचान?
उत्तर—इसकी पहचान हरेक आदमी नहीं कर सकता। जैसे किसी आदमीने किसी व्यक्तिको पहले देखा है और वह व्यक्ति फिर मिल जाय तो वह उसको पहचान लेता है, ऐसे ही जिसने भगवान्के साक्षात् दर्शन किये हुए हैं, वही स्वयंभू मूर्तिकी पहचान कर सकता है।
प्रश्न—स्वयंभू मूर्ति और बनायी हुई मूर्तिके दर्शन, पूजन आदिकी क्या महिमा है?
उत्तर—श्रद्धा-विश्वास हो तो ऋषियोंका दर्भमें और गणेशजीका सुपारीमें पूजन करनेसे भी लाभ होता है। ऐसे ही श्रद्धा-विश्वास हो, भगवद्भाव हो तो बनायी हुई मूर्तिके पूजन, दर्शन आदिसे भी लाभ होता है। परन्तु स्वयंभू मूर्तिमें श्रद्धा-विश्वास होनेसे विशेष और शीघ्र लाभ होता है जैसे—किसी सन्तकी लिखी पुस्तकको पढ़नेकी उपेक्षा उस सन्तके मुखसे साक्षात् सुननेसे अधिक लाभ होता है। संजयने भी गीता ग्रन्थके विषयमें कहा है कि मैंने इसको साक्षात् भगवान्के कहते-कहते सुना है (१८। ७५)।
प्रश्न—संसारके साथ जैसा सुगमतासे, सरलतासे, अनायास सम्बन्ध हो जाता है, वैसा भगवान्के साथ सम्बन्ध नहीं होता, इसमें क्या कारण है?
उत्तर—इसका कारण यह है कि मनुष्य अपनेको शरीर मानता है। अपनेको शरीर माननेसे उसका संसारके साथ सुगमतापूर्वक सम्बन्ध हो जाता है; क्योंकि शरीरकी संसारसे एकता है। जिससे एकता (सजातीयता) होती है, उसके साथ अनायास सम्बन्ध जुड़ जाता है। जैसे, जो अपनेको ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि मानता है, उसका ब्राह्मण, क्षत्रिय आदिके साथ और जो अपनेको विद्वान्, व्यापारी आदि मानता है, उसका विद्वान्, व्यापारी आदिके साथ सुगमतापूर्वक सम्बन्ध जुड़ जाता है—‘समानशीलव्यसनेषु सख्यम्’। भगवान् तो प्रत्यक्ष दीखते नहीं और स्वयं अपनेको मूर्ति (शरीर) मानता है, तो उसके लिये मूर्तिमें भगवान्का भाव करना ही सुगम है। अत: जबतक शरीरमें मैं-मेरापन है, तबतक मनुष्यको मूर्तिपूजा जरूर करनी चाहिये। भगवत्प्राप्ति होनेके बाद भी मूर्तिपूजाको नहीं छोड़ना चाहिये; क्योंकि जिस साधनसे लाभ हुआ है, उसके प्रति कृतज्ञ बने रहना चाहिये, उसका त्याग नहीं करना चाहिये।