Seeker of Truth

गीतामें ईश्वरवाद

षट्स्वेव दर्शनेष्वीशो न तथापेक्षितो मत:।

कल्याणार्थं तु जीवानां गीयते गीतयेश्वर:॥

अन्य दर्शनोंकी अपेक्षा गीतामें ईश्वरवाद विशेषरूपसे आया है। न्याय, वैशेषिक, योग, सांख्य, पूर्वमीमांसा और उत्तरमीमांसा—ये छहों दर्शन केवल जीवके कल्याणके लिये ही हैं; परंतु इनमें ईश्वरका वर्णन मुख्यतासे नहीं हुआ है। इनमेंसे ‘न्यायदर्शन’ में ‘जो कुछ होता है, वह सब ईश्वरकी इच्छासे ही होता है’—इस तरह ईश्वरका आदर तो किया गया है, पर मुक्तिमें वह ईश्वरकी आवश्यकता नहीं मानता। वह इक्‍कीस प्रकारके दु:खोंके ध्वंसको ही मुक्ति बताता है। ‘वैशेषिकदर्शन’ में भी जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी आवश्यकता न बताकर आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक—इन तीनों तापोंका नाश बताया गया है। ‘योगदर्शन’ में मुख्यरूपसे चित्तवृत्तियोंके निरोधकी बात आयी है। चित्तवृत्तियोंके निरोधसे स्वरूपमें स्थिति हो जाती है। हाँ, चित्तवृत्ति-निरोधमें ईश्वरप्रणिधान (शरणागति)-को भी एक उपाय बताया गया है, पर इस उपायकी प्रधानता नहीं है। ‘सांख्यदर्शन’ और ‘पूर्वमीमांसादर्शन’ तो जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी कोई आवश्यकता ही नहीं समझते। ‘उत्तरमीमांसा (वेदान्तदर्शन)-में ईश्वरकी बात विशेषरूपसे नहीं आयी है, प्रत्युत जीव और ब्रह्मकी एकताकी बात ही विशेषरूपसे आयी है। वैष्णवाचार्योंने भी ईश्वरकी विशेषता तो बतायी है, पर जैसी गीताने बतायी है, वैसी नहीं बतायी।

गीतामें ईश्वर-भक्तिकी बात मुख्यरूपसे आयी है। अर्जुन जबतक भगवान‍्के शरण नहीं हुए, तबतक भगवान‍्ने उपदेश नहीं दिया। जब अर्जुनने भगवान‍्के शरण होकर अपने कल्याणकी बात पूछी, तब भगवान‍्ने गीताका उपदेश आरम्भ किया। उपदेशके अन्तमें भी भगवान‍्ने ‘मामेकं शरणं व्रज’ (१८। ६६) कहकर अपनी शरणागतिको अत्यन्त गोपनीय और श्रेष्ठ बताया और अर्जुनने भी ‘करिष्ये वचनं तव’ (१८। ७३) कहकर पूर्ण शरणागतिको स्वीकार किया।

गीतोक्त कर्मयोगमें भी ईश्वरकी आज्ञारूपसे ईश्वरकी मुख्यता आयी है; जैसे ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ (२।४७); ‘योगस्थ: कुरु कर्माणि’ (२।४८); ‘नियतं कुरु कर्म त्वम्’ (३।८); ‘कुरु कर्मैव तस्मात्त्वम्’ (४।१५) आदि-आदि। ऐसे ही गीतोक्त ज्ञानयोगमें भी ईश्वरकी अव्यभिचारिणी भक्तिको ज्ञानप्राप्तिका साधन बताया गया है (१३।१०; १४।२६)।

गीताके मूल पाठका अध्ययन करनेसे ही पता चलता है कि जीवके कल्याणके लिये ईश्वरकी अत्यधिक आवश्यकता है!

प्रश्न—ईश्वरको हम क्यों मानें?

उत्तर—ईश्वर है, इसलिये मानें।

प्रश्न—ईश्वर है या नहीं—इसका क्या पता?

उत्तर—संसारमें जो भी वस्तु दीखती है, उसका कोई-न-कोई निर्माणकर्ता होता है; क्योंकि निर्माणकर्ताके बिना कोई भी वस्तु निर्मित नहीं होती। ऐसे ही समुद्र, पृथ्वी, चन्द्र, सूर्य, वायु, तारे आदि हमें दीखते हैं तो इनका भी कोई रचयिता जरूर होना चाहिये। इनका रचयिता हमलोगोंकी तरह कोई सामान्य मनुष्य नहीं हो सकता, जो इनको बना सके। इनका निर्माता, रचयिता सर्वसमर्थ ईश्वर ही हो सकता है। दूसरी बात, समुद्र अपनी मर्यादामें रहता है, चन्द्र-सूर्य नियमित समयपर उदित और अस्त होते हैं। आदि-आदि, तो इनका नियमन, संचालन करनेवाला कोई होना चाहिये। इनका नियामक सर्वसमर्थ ईश्वर ही हो सकता है।

प्रश्न—समुद्र, पृथ्वी, चन्द्र आदिकी रचना और नियमन तो प्रकृति करती है। सब कुछ प्रकृतिसे ही होता है। अत: ईश्वरको ही रचयिता और नियामक क्यों मानें?

उत्तर—हम आपसे पूछते हैं कि प्रकृति जड़ है या चेतन अर्थात् उसमें ज्ञान है या नहीं? अगर आप प्रकृतिको ज्ञानवाली मानते हैं तो हम उसीको ईश्वर कहते हैं। हमारे शास्त्रोंमें ईश्वररूपसे शक्तिका भी वर्णन है। अत: आपकी और हमारी मान्यतामें शब्दमात्रका ही भेद हुआ, तत्त्वमें कोई भेद नहीं हुआ। अगर आप मानते हैं कि प्रकृति जड़ है तो जड़ प्रकृतिके द्वारा ज्ञानपूर्वक क्रिया नहीं हो सकती। प्राणियोंकी रचना करना, उनके शुभाशुभ कर्मोंका फल देना आदि क्रियाएँ जड़ प्रकृतिके द्वारा नहीं हो सकतीं; क्योंकि ज्ञानपूर्वक क्रियाके बिना संसारके जीवोंकी व्यवस्था नहीं हो सकती। जड़ प्रकृतिमें परिवर्तन जरूर होता है, पर उसमें ज्ञानपूर्वक क्रिया करनेकी शक्ति नहीं है। इसलिये ‘ईश्वर है’—ऐसा हमें मानना ही पड़ेगा।

एक पक्ष कहता है कि ईश्वर नहीं है और दूसरा पक्ष कहता है कि ईश्वर है। अगर ‘ईश्वर नहीं है’—यह बात ही सच्ची निकली तो ईश्वरको न माननेवाले और ईश्वरको माननेवाले—दोनों बराबर ही रहेंगे अर्थात् ईश्वरको माननेवालेकी कोई हानि नहीं होगी। परन्तु ‘ईश्वर है’—यह बात ही सच्ची निकली तो ईश्वरको माननेवालेको तो ईश्वरकी प्राप्ति हो जायगी, पर ईश्वरको न माननेवाला सर्वथा रीता रह जायगा। अत: ‘ईश्वर है’—यह मानना ही सबके लिये ठीक है। परन्तु केवल ईश्वरको माननेमें ही सन्तोष नहीं करना चाहिये, प्रत्युत उसको तो प्राप्त ही कर लेना चाहिये; क्योंकि ईश्वरको प्राप्त करनेकी सामर्थ्य मनुष्यमात्रमें है।

किसी वस्तुकी प्राप्ति होनेपर ही उसका निषेध किया जाता है—‘प्राप्तौ सत्यां निषेध:’। यह कोई नहीं कहता कि ‘घोड़ीका अण्डा नहीं होता’; क्योंकि जो होता ही नहीं, उसका निषेध करना बनता ही नहीं। ऐसे ही अगर ईश्वर है ही नहीं तो फिर ‘ईश्वर नहीं है’—ऐसा कहना बनता ही नहीं। ऐसा कहना तभी बनता है, जब ईश्वर हो। अत: ‘ईश्वर नहीं है’—ऐसा कहनेसे भी ईश्वरका होना सिद्ध होता है।

जो मनुष्य अंग्रेजी भाषाको मानता है, वह उसको सीखनेका अभ्यास करेगा, पढ़ाई करेगा तो उसको अंग्रेजी भाषा आ जायगी। परन्तु जो मनुष्य अंग्रेजी भाषाको मानता ही नहीं, वह उसको सीखनेका अभ्यास भी क्यों करेगा? जैसे, किसीका अंग्रेजी भाषामें तार आया तो अंग्रेजी भाषाके जानकार व्यक्तिने उस तारको पढ़ा कि अमुक व्यक्ति ज्यादा बीमार है। वहाँ जाकर देखा तो बात सच्ची निकली, आदमी ज्यादा बीमार था। अत: मानना पड़ेगा कि अंग्रेजी भाषा है, तभी तो तारमें लिखी बात सच्ची निकली। ऐसे ही जो ईश्वरकी प्राप्तिमें सच्चे हृदयसे लगे हुए हैं, उनमें सामान्य (जो ईश्वरकी प्राप्तिमें नहीं लगे, ऐसे) मनुष्योंसे विशेषता दीखती है। उनके संगसे, भाषणसे शान्ति मिलती है। केवल मनुष्योंको ही नहीं, प्रत्युत पशु-पक्षी आदिको भी उनसे शान्ति मिलती है। जिनको ईश्वरकी प्राप्ति हो गयी है, उनमें बहुत विलक्षणता आ जाती है, जो कि सामान्य मनुष्योंमें नहीं होती। अगर ईश्वर नहीं है तो उनमें विलक्षणता कहाँसे आयी? अत: मानना ही पड़ेगा कि ईश्वर है।

मनुष्यमात्र अपनेमें एक कमीका, अपूर्णताका अनुभव करता है। अगर इस अपूर्णताकी पूर्तिकी कोई चीज नहीं होती तो मनुष्यको अपूर्णताका अनुभव होता ही नहीं। जैसे, मनुष्यको भूख लगती है तो सिद्ध होता है कि कोई खाद्य वस्तु है। अगर खाद्य वस्तु नहीं होती तो मनुष्यको भूख लगती ही नहीं। प्यास लगती है तो सिद्ध होता है कि कोई पेय वस्तु है। अगर पेय वस्तु नहीं होती तो मनुष्यको प्यास लगती ही नहीं। ऐसे ही मनुष्यको अपूर्णताका अनुभव होता है तो इससे सिद्ध होता है कि कोई पूर्ण तत्त्व है। अगर पूर्ण तत्त्व नहीं होता तो मनुष्यको अपूर्णताका अनुभव होता ही नहीं। उस पूर्ण तत्त्वको ही ईश्वर कहते हैं।

जो वस्तु होती है, उसीको प्राप्त करनेकी इच्छा होती है। जो वस्तु नहीं होती, उसको प्राप्त करनेकी इच्छा होती ही नहीं। जैसे, किसीके मनमें यह इच्छा नहीं होती कि मैं आकाशके फल खाऊँ, आकाशके फूल सूँघूँ; क्योंकि आकाशमें फल-फूल लगते ही नहीं। मनुष्यमात्रमें यह इच्छा रहती है कि मैं सदा जीता रहूँ (कभी मरूँ नहीं); सब कुछ जान लूँ (कभी अज्ञानी न रहूँ) और सदा सुखी रहूँ (कभी दु:खी न होऊँ)। मैं सदा जीता रहूँ—यह ‘सत्’ की इच्छा है; मैं सब कुछ जान लूँ—यह ‘चित्’ की इच्छा है; और मैं सदा सुखी रहूँ—यह ‘आनन्द’ की इच्छा है। इससे सिद्ध हुआ कि ऐसा कोई सच्चिदानन्द-स्वरूप तत्त्व है, जिसको प्राप्त करनेकी इच्छा मनुष्यमात्रमें है। उसी तत्त्वको ईश्वर कहते हैं।

कोई भी मनुष्य अपनेसे किसीको बड़ा मानता है तो उसने वास्तवमें ईश्वरवादको स्वीकार कर लिया; क्योंकि बड़प्पनकी परम्परा जहाँ समाप्त होती है, वही ईश्वर है—‘पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्’ (पातंजलयोगदर्शन १।२६)। कोई व्यक्ति होता है तो उसका पिता होता है और उसके पिताका भी कोई पिता होता है। यह परम्परा जहाँ समाप्त होती है, उसका नाम ईश्वर है—‘पितासि लोकस्य चराचरस्य’ (११।४३)। कोई बलवान् होता है तो उससे भी अधिक कोई बलवान् होता है। यह बलवत्ताकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, उसका नाम ईश्वर है; क्योंकि उसके समान बलवान् कोई नहीं। कोई विद्वान् होता है तो उससे भी अधिक कोई विद्वान् होता है। यह विद्वत्ताकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, उसका नाम ईश्वर है; क्योंकि उसके समान विद्वान् कोई नहीं—‘गुरुर्गरीयान्’ (११।४३)। तात्पर्य है कि बल, बुद्धि, विद्या, योग्यता, ऐश्वर्य, शोभा आदि गुणोंकी अवधि जहाँ समाप्त होती है, वही ईश्वर है; क्योंकि उसके समान कोई नहीं है—‘न त्वत्समोऽस्त्यभ्यधिक: कुतोऽन्य:’ (११।४३)।

वास्तवमें ईश्वर माननेका ही विषय है, विचारका विषय नहीं। विचारका विषय वही होता है, जिसमें जिज्ञासा होती है, और जिज्ञासा उसीमें होती है, जिसके विषयमें हम कुछ जानते हैं और कुछ नहीं जानते। परन्तु जिसके विषयमें हम कुछ भी नहीं जानते, उसके विषयमें जिज्ञासा नहीं होती, उसपर विचार नहीं होता। उसको तो हम मानें या न मानें—इसमें हम स्वतन्त्र हैं। जैसे, जगत् हमारे देखनेमें आता है, पर जगत् तत्त्वसे क्या है—इसको हम नहीं जानते; अत: जगत् विचारका विषय है। ऐसे ही जीवात्मा स्थावर-जंगमरूपसे शरीरधारी दीखता है, पर जीवात्मा तत्त्वसे क्या है—इसको हम नहीं जानते; अत: जीवात्मा विचारका विषय है। परन्तु ईश्वरके विषयमें हम कुछ भी नहीं जानते; अत: ईश्वर विचारका (तर्कका) विषय नहीं है, प्रत्युत माननेका (श्रद्धाका) विषय है। शास्त्रोंसे और ईश्वरको प्राप्त हुए, ईश्वरका साक्षात्कार किये हुए सन्त-महापुरुषोंसे सुनकर ही ईश्वरको माना जाता है। शास्त्र और सन्त—ये भी माननेके विषय हैं। जैसे वेद, पुराण आदिको हिन्दू मानते हैं, पर मुसलमान नहीं मानते। ऐसे ही सन्त-महापुरुषोंको कुछ लोग मानते हैं, पर कुछ लोग नहीं मानते, प्रत्युत उनको साधारण मनुष्य ही समझते हैं।

प्रश्न—क्या ईश्वरको माने बिना भी मनुष्य अपना उद्धार कर सकता है, संसारके बन्धनसे मुक्त हो सकता है?

उत्तर—हाँ, हो सकता है। ऐसे भी सम्प्रदाय हैं, जो ईश्वरको नहीं मानते। उन सम्प्रदायोंमें बताये गये साधनमें तत्परतासे लगे हुए मनुष्य संसारसे मुक्त हो सकते हैं, सांसारिक दु:खोंसे छूट सकते हैं, पर उनको प्रतिक्षण वर्धमान परमानन्द (भगवत्प्रेम)-की प्राप्ति नहीं हो सकती। हाँ, अगर उनमें ईश्वरके साथ विरोध, द्वेष और अपने मतका आग्रह न हो तो उनको भगवत्प्रेमकी प्राप्ति भी हो सकती है, चाहे वे ईश्वरको मानें या न मानें। तात्पर्य है कि जिसका अपने सिद्धान्तमें प्रेम है, पर दूसरेके सिद्धान्तसे द्वेष न करके तटस्थ रहता है, उसको मुक्त होनेके बाद भगवान‍्की, उनके प्रेमकी प्राप्ति हो सकती है। भगवान‍्में इस बातकी सम्भावना ही नहीं है कि मनुष्य उनको माने, तभी वे मिलें, अन्यथा नहीं मिलें।

वास्तवमें उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंका आकर्षण ही मुक्तिमें मुख्य बाधक है। अगर मनुष्य उत्पत्ति-विनाशशील पदार्थोंसे सर्वथा असंग, रागरहित हो जाय, तो वह मुक्त हो जायगा अर्थात् उसकी परतन्त्रता मिट जायगी।

प्रश्न—गीतामें ईश्वरका कितने रूपोंमें वर्णन है?

उत्तर—गीतामें ईश्वरका तीन रूपोंमें वर्णन हुआ है—सगुण-साकार, सगुण-निराकार और निर्गुण- निराकार। तात्पर्य है कि अगर ईश्वरको ‘सगुण-निर्गुण’ मानें तो ‘सगुण’ के दो भेद होंगे—सगुण-साकार और सगुण-निराकार तथा ‘निर्गुण’ का एक भेद होगा—निर्गुण-निराकार। अगर ईश्वरको ‘साकार-निराकार’ मानें तो ‘साकार’ का एक भेद होगा—सगुण-साकार तथा ‘निराकार’ के दो भेद होंगे—सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार। गीतामें सातवें अध्यायके उनतीसवें-तीसवें श्लोकोंमें, आठवें अध्यायके आठवें श्लोकसे सोलहवें श्लोकतक और ग्यारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें ईश्वरके सगुण-साकार, सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकार—इन तीनों रूपोंका वर्णन हुआ है।

प्रश्न—कुछ लोग ईश्वरको मायामय मानते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि मायासे रहित एक निर्गुण-निराकार ब्रह्म ही है, ईश्वर तो मायासे युक्त है। ऐसा मानना कहाँतक उचित है?

उत्तर—गीता ऐसा नहीं मानती। गीता ईश्वरको मायाका अधिपति मानती है। माया ईश्वरके वशमें रहती है। भगवान‍्ने कहा है कि मैं अपनी प्रकृतिको वशमें करके अपनी योगमायासे प्रकट होता हूँ (४। ६)। तात्पर्य है कि जो जीव मायामें पड़े हुए हैं, उनको शिक्षा देनेके लिये ईश्वर मायाको स्वीकार करके अपनी इच्छासे अवतार लेता है। जैसे कोई अंग्रेज हिन्दी नहीं जानता तो अंग्रेजी एवं हिन्दी—दोनों भाषाएँ जाननेवाला व्यक्ति उसको हिन्दीमें लिखी बात अंग्रेजीमें समझाता है; अत: वह समझानेवाला व्यक्ति अंग्रेजीके अधीन (आश्रित) नहीं हुआ; क्योंकि वह दूसरोंको समझानेके लिये अंग्रेजीको काममें लेता है। अपने लिये उसको अंग्रेजीकी कोई जरूरत नहीं है। ऐसे ही मायामें पड़े हुए जीवोंको शिक्षा देनेके लिये ईश्वर प्रकृतिको वशमें करके अवतार लेता है, जीवोंके सामने आता है।

ईश्वर मायाका अधिपति (मालिक) है—यह बात गीताने स्पष्टरूपसे और बार-बार कही है, जैसे—ईश्वर जीवोंका मालिक होते हुए ही अवतार लेता है (४। ६); ईश्वर गुणों और कर्मोंके अनुसार चारों वर्णोंकी रचना करता है (४। १३); जो मनुष्य सकामभावसे देवताओंकी उपासना करते हैं, उनको फल देनेकी व्यवस्था ईश्वर ही करता है (७। २२); महाप्रलयमें सम्पूर्ण जीव प्रकृतिमें लीन होते हैं और फिर महासर्गके आदिमें ईश्वर उनकी रचना करता है (९।७-८); सब योनियोंमें जितने शरीर पैदा होते हैं, उसमें प्रकृति माँकी तरह है और ईश्वर पिताकी तरह है (१४।३-४); ईश्वर सम्पूर्ण प्राणियोंके हृदयमें रहता है और जीवोंको उनके स्वभावके अनुसार घुमाता है (१८। ६१)। जैसे सुनार औजारोंसे गहने बनाता है तो वह औजारोंके अधीन नहीं होता; क्योंकि वह गहनोंके लिये ही औजारोंको काममें लेता है। ऐसे ही ईश्वर संसारकी रचना करनेके लिये ही प्रकृतिको स्वीकार करता है।

जो खुद ही बन्धनमें पड़ा हुआ हो, वह दूसरोंको बन्धनसे मुक्त कैसे कर सकता है? नहीं कर सकता। जीव खुद ही बन्धनमें पड़ा हुआ है; अत: वह दूसरोंको बन्धनसे मुक्त कैसे कर सकता है? परन्तु ईश्वर बन्धनसे रहित है; अत: वह बन्धनमें पड़े हुए जीवोंको (यदि वे चाहें तो) बन्धनसे, पापोंसे मुक्त कर सकता है (१८।६६)। मायाके बन्धनमें पड़े हुए जीवकी उपासना करनेसे उपासकको बन्धनसे मुक्ति नहीं मिलती, पर ईश्वरकी उपासना करनेसे जीव बन्धनसे मुक्त हो जाता है। तात्पर्य है कि ईश्वर जीव नहीं हो सकता और जीव ईश्वर नहीं हो सकता। हाँ, जीव अनन्यभक्तिके द्वारा ईश्वरसे अभिन्न हो सकता है, ईश्वरमें मिल सकता है, पर ईश्वर नहीं हो सकता।

प्रश्न—ईश्वरका नमूना क्या है?

उत्तर—ईश्वरका नमूना जीवात्मा है; क्योंकि ईश्वर भी नित्य एवं निर्विकार है और जीवात्मा भी नित्य एवं निर्विकार है। परन्तु जीवात्मा प्रकृतिके वशमें हो जाता है और ईश्वर प्रकृतिके वशमें कभी हुआ नहीं, है नहीं और होगा भी नहीं।

सबको अपनी सत्ताका अनुभव होता है कि ‘मैं हूँ’। इसमें न तो कभी सन्देह होता है कि ‘मैं हूँ या नहीं हूँ’, न कभी परीक्षा करते हैं और न कभी अपनी सत्ताके अभावका अनुभव होता है। शरीर पहले भी नहीं था और बादमें भी नहीं रहेगा, पर अपनी सत्ताकी तरफ ध्यान देनेसे ऐसा अनुभव नहीं होता कि मैं नहीं था। हाँ, इस विषयमें ‘पता नहीं है’—ऐसा तो कह सकते हैं, पर ‘मैं नहीं था’—ऐसा नहीं कह सकते; क्योंकि अपनी सत्ताके (अपने-आपके) अभावका अनुभव किसीको भी नहीं होता। वर्तमानमें भी शरीर प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है, मिट रहा है, अपनेसे अलग हो रहा है, पर ‘मैं अभावमें जा रहा हूँ’—ऐसा अनुभव किसीको भी नहीं होता, प्रत्युत यही अनुभव होता है कि शरीर अभावमें जा रहा है। शरीरके अभावका अनुभव वही कर सकता है जो भावरूप हो। ‘नहीं’ को जाननेवाला ‘है’-रूप ही हो सकता है। अत: सिद्ध हुआ कि शरीरके अभावको जाननेवाला स्वयं (जीवात्मा) भावरूप है, सत्-रूप है।

देखने-सुनने-समझनेमें जो कुछ संसार आता है, वह पहले नहीं था, बादमें नहीं रहेगा और वर्तमानमें भी निरन्तर अभावमें जा रहा है। संसार जैसा कल था, वैसा आज नहीं है और आज भी एक घण्टे पहले जैसा था, वैसा अभी नहीं है। अत: संसार प्रतिक्षण अभावमें जा रहा है, ‘नहीं’ में जा रहा है। परन्तु जिसके आधारपर यह परिवर्तनशील संसार टिका हुआ है, ऐसा कोई प्रकाशक, आधार, रचयिता, सर्वसमर्थ तत्त्व है, जिसमें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। संसारमें देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति आदिका जो कुछ परिवर्तन होता है, वह सब उस परिवर्तनरहित तत्त्वमें ही होता है। जैसे स्वच्छ आकाशमें बादल बन जाते हैं, बादलोंकी घटा बन जाती है, घटाके वर्षोन्मुख होनेपर उसमें गर्जना होने लगती है, बिजली चमकने लगती है, जलकी बूँदें बरसने लगती हैं, कभी-कभी ओले भी पड़ने लगते हैं; परन्तु यह सब होनेपर भी आकाश ज्यों-का-त्यों रहता है। आकाशमें कोई परिवर्तन नहीं होता। ऐसे ही ईश्वर आकाशकी तरह है। उसमें संसारका उत्पन्न और लीन होना, देश, काल, वस्तु, व्यक्ति, घटना, परिस्थिति आदिमें परिवर्तन होना आदि विविध क्रियाएँ होती हैं, पर वह (ईश्वर) ज्यों-का-त्यों निर्विकार, परिवर्तनरहित रहता है।

- स्रोत : गीता दर्पण (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)