गीतामें धर्म
वर्णे तु यस्मिन् मनुज: प्रजात-
स्तत्रत्यकार्यं कथित: स्वधर्म:।
शास्त्रेण तस्मान्नियतं हि कर्म
कर्तव्यमित्यत्र विधानमस्ति॥
गीतामें धर्मका वर्णन मुख्य है। अगर गीताके आरम्भ और अन्तके अक्षरोंका प्रत्याहार बनाया जाय अर्थात् आरम्भके ‘धर्मक्षेत्रे’ (१।१) पदसे ‘धर्’ और अन्तके ‘मतिर्मम’ (१८।७८) पदसे ‘म’ लिया जाय, तो ‘धर्म’ प्रत्याहार बन जाता है। अत: पूरी गीता ही धर्मके अन्तर्गत आ जाती है।
गीताने ‘कुलधर्मा: सनातना:’ (१।४०), ‘जातिधर्मा:’ (१।४३) पदोंसे सदासे चलती आयी कुलकी मर्यादाओं, रीतियों, परम्पराओं और जातिकी रिवाजोंको भी ‘धर्म’ कहा है; ‘धर्मसम्मूढचेता:’ (२।७), ‘स्वधर्मम्, धर्म्यात् ’(२।३१), ‘धर्म्यम्, स्वधर्मम्’ (२।३३), ‘स्वधर्म:, (३।३५;१८। ४७) आदि पदोंसे अपने-अपने वर्णके अनुसार शास्त्रविहित कर्तव्य कर्मोंको भी ‘धर्म’ अथवा ‘स्वधर्म’ कहा है; और ‘त्रयीधर्मम्’ (९।२१) पदसे वैदिक अनुष्ठानोंको भी ‘धर्म’ कहा है। इन सभी धर्मोंको कर्तव्यमात्र समझकर निष्कामभावपूर्वक तत्परतासे किया जाय, तो परमात्मतत्त्वकी प्राप्ति हो जाती है (१८।४५)।
जो मनुष्य जिस वर्णमें पैदा हुआ है उस वर्णके अनुसार शास्त्रने उसके लिये कर्तव्यरूपसे जो कर्म नियत कर दिया है, वह कर्म उसके लिये ‘स्वधर्म’ है। परंतु शास्त्रने जिसके लिये जिस कर्मका निषेध कर दिया है, वह कर्म दूसरे वर्णवालेके लिये विहित होनेपर भी (जिसके लिये निषेध किया है) उसके लिये ‘परधर्म’ है। अच्छी तरहसे अनुष्ठानमें लाये हुए परधर्मकी अपेक्षा गुणोंकी कमीवाला भी अपना धर्म श्रेष्ठ है। अपने धर्मका पालन करते हुए मृत्यु भी हो जाय,तो भी अपना धर्म कल्याण करनेवाला है; परंतु परधर्मका आचरण करना भयको देनेवाला है (३।३५)।
वर्ण-आश्रमके कर्मके अतिरिक्त मनुष्यको परिस्थितिरूपसे जो कर्तव्य प्राप्त हो जाय, उस कर्तव्यका पालन करना भी मनुष्यका स्वधर्म है। जैसे—कोई विद्यार्थी है तो तत्परतासे विद्या पढ़ना उसका स्वधर्म है; कोई शिक्षक है तो विद्यार्थीको पढ़ाना उसका स्वधर्म है; कोई नौकर है तो अपने कर्तव्यका पालन करना उसका स्वधर्म है आदि-आदि। जो स्वीकार किये हुए कर्म (स्वधर्म)-का निष्कामभावसे पालन करता है, उसको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है (१८।४५)।
शम, दम, तप, क्षमा आदि ब्राह्मणके स्वधर्म हैं (१८।४२)। इनके अतिरिक्त पढ़ना-पढ़ाना, दान देना-लेना आदि भी ब्राह्मणके स्वधर्म हैं। शौर्य, तेज आदि क्षत्रियके स्वधर्म हैं (१८।४३)। इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त कर्तव्यका ठीक पालन करना भी क्षत्रियका ‘स्वधर्म’ है। खेती करना, गायोंका पालन करना और व्यापार करना वैश्यके ‘स्वधर्म’ हैं (१८।४ ४)। इनके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार कोई आवश्यक कार्य सामने आ जाय तो उसे सुचारुरूपसे करना भी वैश्यका ‘स्वधर्म’ है। सबकी सेवा करना शूद्रका ‘स्वधर्म’ है (१८।४ ४)। इसके अतिरिक्त परिस्थितिके अनुसार प्राप्त और भी कर्मोंको सांगोपांग करना शूद्रका ‘स्वधर्म’ है।
भगवान्ने कृपाके परवश होकर अर्जुनके माध्यमसे सभी मनुष्योंको एक विशेष बात बतायी है कि तुम (उपर्युक्त कहे हुए) सम्पूर्ण धर्मोंका आश्रय छोड़कर केवल एक मेरी शरणमें आ जाओ तो मैं तुम्हें सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तुम चिन्ता मत करो (१८।६६)। तात्पर्य यह है कि अपने-अपने वर्ण-आश्रमकी मर्यादामें रहनेके लिये, अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेके लिये उपर्युक्त सभी धर्मोंका पालन करना बहुत आवश्यक है और संसार-चक्रको दृष्टिमें रखकर इनका पालन करना ही चाहिये (३।१४—१६); परंतु इनका आश्रय नहीं लेना चाहिये। आश्रय केवल भगवान्का ही लेना चाहिये। कारण कि वास्तवमें ये स्वयंके धर्म नहीं हैं, प्रत्युत शरीरको लेकर होनेसे परधर्म ही हैं।
भगवान्ने ‘स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य’ (२।४०) पदोंसे समताको, ‘धर्मस्यास्य’ (९।३) पदसे ज्ञान-विज्ञानको और ‘धर्म्यामृतम्’ (१२।२०) पदसे सिद्ध भक्तोंके लक्षणोंको भी ‘धर्म’ कहा है। इनको धर्म कहनेका तात्पर्य यह है कि परमात्माका स्वरूप होनेसे समता सभी प्राणियोंका स्वधर्म (स्वयंका धर्म) है। परमात्माकी प्राप्ति करानेवाला होनेसे ज्ञान-विज्ञान भी साधकका स्वधर्म है और स्वत:सिद्ध होनेसे सिद्ध भक्तोंके लक्षण भी सबके स्वधर्म हैं।