Seeker of Truth

गीतामें भक्ति

श्रीमद्भगवद्गीता एक अद्वितीय आध्यात्मिक ग्रन्थ है, यह कर्म, उपासना और ज्ञानके तत्त्वोंका भण्डार है। इस बातको कोई नहीं कह सकता कि गीतामें प्रधानतासे केवल अमुक विषयका ही वर्णन है। यद्यपि यह छोटा-सा ग्रन्थ है और इसमें सब विषयोंका सूत्ररूपसे वर्णन है, परन्तु किसी भी विषयका वर्णन स्वल्प होनेपर भी अपूर्ण नहीं है, इसीलिये कहा गया है—

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥
(महा० भीष्म० ४३।१)

इस कथनसे दूसरे शास्त्रोंका निषेध नहीं है, यह तो गीताका सच्चा महत्त्व बतलानेके लिये है, वास्तवमें गीतोक्त ज्ञानकी उपलब्धि हो जानेपर और कुछ जानना शेष नहीं रह जाता। गीतामें अपने-अपने स्थानपर कर्म, उपासना और ज्ञान—तीनोंका विशद और पूर्ण वर्णन होनेके कारण यह नहीं कहा जा सकता कि इसमें कौन-सा विषय प्रधान और कौन-सा गौण है। सुतरां जिनको जो विषय प्रिय है—जो सिद्धान्त मान्य है, वही गीतामें भासने लगता है। इसीलिये भिन्न-भिन्न टीकाकारोंने अपनी-अपनी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न अर्थ किये हैं, पर उनमेंसे किसीको हम असत्य नहीं कह सकते। जैसे वेद परमात्माका नि:श्वास है इसी प्रकार गीता भी साक्षात् भगवान् के वचन होनेसे भगवत्-स्वरूप ही है। अतएव भगवान् की भाँति गीताका स्वरूप भी भक्तोंको अपनी भावनाके अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकारसे भासता है। कृपासिन्धु भगवान् ने अपने प्रिय सखा—भक्त अर्जुनको निमित्त बनाकर समस्त संसारके कल्याणार्थ इस अद्भुत गीता-शास्त्रका उपदेश किया है। ऐसे गीता-शास्त्रके किसी तत्त्वपर विवेचन करना मेरे सदृश साधारण मनुष्यके लिये बाल-चपलतामात्र है। मैं इस विषयमें कुछ कहनेका अपना अधिकार न समझता हुआ भी जो कुछ कह रहा हूँ सो केवल अपने मनोविनोदके लिये है। निवेदन है कि भक्त और विज्ञजन मेरी इस बालचेष्टापर क्षमा करें।

गीतामें कर्म, भक्ति और ज्ञान—तीनों सिद्धान्तोंकी ही अपनी-अपनी जगह प्रधानता है तथापि यह कहा जा सकता है कि गीता एक भक्तिप्रधान ग्रन्थ है, इसमें ऐसा कोई अध्याय नहीं जिसमें भक्तिका कुछ प्रसंग न हो। गीताका प्रारम्भ और पर्यवसान भक्तिमें ही है। आरम्भमें अर्जुन ‘शाधि मां त्वां प्रपन्नम्’(२।७) कहकर भगवान् की शरण ग्रहण करते हैं और अन्तमें भगवान् ‘सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।’ (१८। ६६) कहकर शरणागतिका ही पूर्ण समर्थन करते हैं—समर्थन ही नहीं, समस्त धर्मोंका आश्रय सर्वथा परित्याग कर केवल भगवदाश्रय—अपने आश्रय होनेके लिये आज्ञा करते हैं और साथ ही समस्त पापोंसे छुटकारा कर देनेका भी जिम्मा लेते हैं। यह मानी हुई बात है कि शरणागति भक्तिका ही एक स्वरूप है। अवश्य ही गीताकी भक्ति अविवेकपूर्वक की हुई अन्धभक्ति या अज्ञानप्रेरित आलस्यमय कर्मत्यागरूप जड़ता नहीं है, गीताकी भक्ति क्रियात्मक और विवेकपूर्ण है। गीताकी भक्ति पूर्णपुरुष परमात्माकी पूर्णताके समीप पहुँचे हुए साधकद्वारा की जाती है। गीताकी भक्तिके लक्षण बारहवें अध्यायमें भगवान् ने स्वयं बतलाये हैं। गीताकी भक्तिमें पापको स्थान नहीं है। वास्तवमें भगवान् का जो शरणागत अनन्य भक्त सब तरफ सबमें सर्वदा भगवान् को देखता है, वह छिपकर भी पाप कैसे कर सकता है? जो शरणागत भक्त अपने जीवनको परमात्माके हाथोंमें सौंपकर उसके इशारेपर नाचना चाहता है उसके द्वारा पाप कैसे बन सकते हैं? जो भक्त सब जगत् को परमात्माका स्वरूप समझकर सबकी सेवा करना अपना कर्तव्य समझता है, वह निष्क्रिय आलसी कैसे हो सकता है? एवं जिसके पास परमात्मस्वरूपके ज्ञानका प्रकाश है, वह अन्धतममें कैसे प्रवेश कर सकता है?

इसीसे भगवान् ने अर्जुनसे स्पष्ट कहा है—

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
(गीता ८। ७)

युद्ध करो, परन्तु सब समय मेरा (भगवान् का) स्मरण करते हुए और मेरेमें (भगवान् में) अर्पित मन-बुद्धिसे युक्त होकर करो। यही तो निष्कामकर्मसंयुक्त भक्तियोग है, इससे निस्सन्देह परमात्माकी प्राप्ति होती है। इसी प्रकारकी आज्ञा अ० ९।२७ और १८।५७ आदि श्लोकोंमें दी है।

इसका यह मतलब नहीं कि केवल कर्मयोग या केवल भक्तियोगके लिये भगवान् ने स्वतन्त्ररूपसे कहीं कुछ भी नहीं कहा है। ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ (२।४ ७) ‘योगस्थ: कुरु कर्माणि’ (२।४८) आदि श्लोकोंमें केवल कर्मका और ‘मन्मना भव’ (९।३४) आदिमें केवल भक्तिका वर्णन मिलता है, परन्तु इनमें भी कर्ममें भक्तिका और भक्तिमें कर्मका अन्योन्याश्रित सम्बन्ध प्रच्छन्न है। समत्वरूप योगमें स्थित होकर फलका अधिकार ईश्वरके जिम्मे समझकर जो कर्म करता है वह भी प्रकारान्तरसे ईश्वरस्मरणरूप भक्ति करता है और भक्ति, पूजा, नमस्कार आदि भगवद्भक्तिपरक क्रियाओंको करता हुआ भी साधक तत्तत् क्रियारूप कर्म करता ही है। साधारण सकामकर्मीमें और उसमें भेद इतना ही है कि सकामकर्मी कर्मका अनुष्ठान सांसारिक कामना-सिद्धिके लिये करता है और निष्कामकर्मी भगवत्प्रीत्यर्थ करता है। स्वरूपसे कर्मत्यागकी तो गीताने निन्दा की है और उसे तामसी त्याग बतलाया है। (१८।७) एवं अ० ३ श्लोक ४ में कर्मत्यागसे सिद्धिका नहीं प्राप्त होना कहकर अगले श्लोकमें स्वरूपसे कर्मत्यागको अशक्य भी बतलाया है। अतएव गीताके अनुसार प्रधानत: अनन्यभावसे भगवान् के स्वरूपमें स्थित होकर भगवान् की आज्ञा मानकर भगवान् के लिये मन, वाणी, शरीरसे स्ववर्णानुसार समस्त कर्मोंका आचरण करना ही भगवान् की भक्ति है और इसीसे परम सिद्धिरूप मोक्षकी प्राप्ति हो सकती है। भगवान् घोषणा करते हैं—

यत: प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्।
स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानव:॥
(गीता १८।४६)

जिस परमात्मासे सर्व भूतोंकी उत्पत्ति हुई है और जिससे यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त है, उस परमेश्वरको अपने स्वाभाविक कर्मद्वारा पूजकर मनुष्य परम सिद्धिको प्राप्त होता है।

इस प्रकारके कर्म बन्धनके कारण न होकर मुक्तिके कारण ही होते हैं, इनमें पतनका डर बिलकुल नहीं रहता है। भगवान् ने साधकको भगवत्प्राप्तिके लिये और साधनोत्तर सिद्धकालमें ज्ञानीको भी लोकसंग्रह यानी जनताको सन्मार्गपर लानेके लिये अपना उदाहरण पेशकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है, यद्यपि उसके लिये कोई कर्तव्य शेष नहीं है—‘तस्य कार्यं न विद्यते।’(३।१७)

इसके सिवा अर्जुन क्षत्रिय, गृहस्थ और कर्मशील पुरुष थे, इसलिये भी उन्हें कर्मसहित भक्ति करनेके लिये ही विशेषरूपसे कहा है और वास्तवमें सर्वसाधारणके हितके लिये भी यही आवश्यक है। संसारमें तमोगुण अधिक छाया हुआ है। तमोगुणके कारण लोग भगवत्तत्त्वसे अनभिज्ञ रहकर एकान्तवासमें भजन-ध्यानके बहाने नींद, आलस्य और अकर्मण्यताके शिकार हो जाते हैं। ऐसा देखा भी जाता है कि कुछ लोग ‘अब तो हम निरन्तर एकान्तमें रहकर भजन-ध्यान ही किया करेंगे’ कहकर कर्म छोड़ देते हैं, परंतु थोड़े ही दिनोंमें उनका मन एकान्तसे हट जाता है। कुछ लोग सोनेमें समय बिताते हैं, तो कोई कहने लगते हैं ‘क्या करें, ध्यानमें मन नहीं लगता।’ फलत: कुछ तो निकम्मे हो जाते हैं और कुछ प्रमादवश इन्द्रियोंको आराम देनेवाले भोगोंमें प्रवृत्त हो जाते हैं। सच्चे भजन-ध्यानमें लगनेवाले विरले ही निकलते हैं। एकान्तमें निवासकर भजन-ध्यान करना बुरा नहीं है। परंतु यह साधारण बात नहीं है। इसके लिये बहुत अभ्यासकी आवश्यकता है और यह अभ्यास कर्म करते हुए ही क्रमश: बढ़ाया और गाढ़ किया जा सकता है, इसीलिये भगवान् ने कहा है कि नित्य-निरन्तर मेरा स्मरण करते हुए फलासक्तिरहित होकर मेरी आज्ञासे मेरी प्रीतिके लिये कर्म करना चाहिये। परमेश्वरके ध्यानकी गाढ़ स्थिति प्राप्त होनेमें कर्मोंका संयोग-वियोग बाधक-साधक नहीं है। प्रीति और सच्ची श्रद्धा ही इसमें प्रधान कारण है। प्रीति और श्रद्धा होनेपर कर्म उसमें बाधक नहीं होते बल्कि उसका प्रत्येक कर्म भगवत्-प्रीतिके लिये ही अनुष्ठित होकर शुद्ध भक्तिके रूपमें परिणत हो जाता है। इससे भी कर्मत्यागकी आवश्यकता सिद्ध नहीं होती। परंतु इस कथनसे एकान्तमें निरन्तर भक्ति करनेका निषेध भी नहीं है।

अधिकारियोंके लिये ‘विविक्तदेशसेवित्वम्’ और ‘अरतिर्जनसंसदि’ (१३। १०) होना उचित ही है, परन्तु संसारमें प्राय: अधिकांश अधिकारी कर्मके ही मिलते हैं। एकान्तवासके वास्तविक अधिकारी वे हैं जो भगवान् की भक्तिमें तल्लीन हैं, जिनका हृदय अनन्यप्रेमसे परिपूर्ण है, जो क्षणभरके भगवान् के विस्मरणसे ही परम व्याकुल हो जाते हैं, भगवत्-प्रेमकी विह्वलतासे बाह्य ज्ञान लुप्तप्राय रहनेके कारण जिनके सांसारिक कार्य सुचारुरूपसे सम्पन्न नहीं हो सकते और जिनको संसारके ऐशो-आराम भोगके दर्शन-श्रवणमात्रसे ही ताप होने लगता है, ऐसे अधिकारियोंके लिये जनसमुदायसे अलग रहकर एकान्तदेशमें निरन्तर अटल साधन करना ही अधिक श्रेयस्कर होता है। ये लोग कर्मको नहीं छोड़ते। कर्म ही उन्हें छोड़कर अलग हो जाते हैं। ऐसे लोगोंको एकान्तमें कभी आलस्य या विषय-चिन्तन नहीं होता। इनके भगवत्प्रेमकी सरितामें एकान्तसे उत्तरोत्तर बाढ़ आती है और वह बहुत ही शीघ्र इन्हें परमात्मारूपी महासमुद्रमें मिलाकर इनका स्वतन्त्र अस्तित्व समुद्रके विशाल असीम अस्तित्वमें अभिन्नरूपसे मिला देती है। परन्तु जिन लोगोंको एकान्तमें सांसारिक विक्षेप सताते हैं, वे अधिक समयतक कर्मरहित होकर एकान्तवासके अधिकारी नहीं हैं। जगत् में ऐसे ही लोग अधिक हैं। अधिक संख्यक लोगोंके लिये जो उपाय उपयोगी होता है, प्राय: वही बतलाया जाता है, यही नीति है। इसलिये शास्त्रोक्त सांसारिक कर्मोंकी गति भगवत् की ओर मोड़ देनेका ही विशेष प्रयत्न करना चाहिये, कर्मोंको छोड़नेका नहीं।

ऊपर कहा गया है कि अर्जुन गृहस्थ, क्षत्रिय और कर्मशील था, इससे कर्मकी बात कही गयी है। इसका यह अर्थ नहीं है कि गीता केवल गृहस्थ, क्षत्रिय या कर्मियोंके लिये ही है। इसमें कोई सन्देह नहीं कि गीतारूपी दुग्धामृत अर्जुनरूप वत्सके व्याजसे ही विश्वको मिला परन्तु वह इतना सार्वभौम और सुमधुर है कि सभी देश, सभी जाति, सभी वर्ण और सभी आश्रमके लोग उसका अबाधितरूपसे पानकर अमरत्व प्राप्त कर सकते हैं। जैसे भगवत्प्राप्तिमें सबका अधिकार है वैसे ही गीताके भी सभी अधिकारी हैं। अवश्य ही सदाचार, श्रद्धा, भक्ति और प्रेमका होना आवश्यक है; क्योंकि भगवान् ने अश्रद्धालु, सुनना न चाहनेवाले, आचरणभ्रष्ट, भक्तिहीन मनुष्योंमें इनके प्रचारका निषेध किया है (गीता १८।६७) भगवान् का आश्रित जन कोई भी क्यों न हो, सभी इस अमृतपानके पात्र हैं। (१८।६८)

यदि यह कहा जाय कि गीतामें तो सांख्ययोग और कर्मयोग नामक दो ही निष्ठाओंका वर्णन है। भक्तिकी तीसरी कोई निष्ठा ही नहीं, तब गीताको भक्तिप्रधान कैसे कहा जा सकता है? इसका उत्तर यह है कि यद्यपि भक्तिकी भिन्न निष्ठा भगवान् ने नहीं कही है परन्तु पहले यह समझना चाहिये कि निष्ठा किसका नाम है और क्या योग और सांख्यनिष्ठा उपासना बिना सम्पन्न हो सकते हैं? उपासनारहित कर्म जड होनेसे कदापि मुक्तिदायक नहीं होते और न उपासनारहित ज्ञान ही प्रशंसनीय है। गीतामें भक्ति ज्ञान और कर्म दोनोंमें ओतप्रोत है। निष्ठाका अर्थ है—परमात्माके स्वरूपमें स्थिति। जो स्थिति परमेश्वरके स्वरूपमें भेदरूपसे होती है, यानी परमेश्वर अंशी और मैं उसका अंश हूँ, परमेश्वर सेव्य और मैं उसका सेवक हूँ। इस भावसे परमात्माकी प्रीतिके लिये उसके आज्ञानुसार फलासक्ति त्यागकर जो कर्म किये जाते हैं उसका नाम है निष्काम कर्मयोगनिष्ठा और जो सच्चिदानन्दघन ब्रह्ममें अभेदरूपसे स्थिति है यानी ब्रह्ममें स्थित रहकर प्रकृतिद्वारा होनेवाले समस्त कर्मोंको प्रकृतिका विस्तार और मायामात्र मानकर वास्तवमें एक सच्चिदानन्दघन ब्रह्मके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है यों निश्चय करके जो अभेद स्थिति होती है उसे सांख्यनिष्ठा कहते हैं। इन दोनों ही निष्ठाओंमें उपासना भरी है। अतएव भक्तिको तीसरी स्वतन्त्र निष्ठाके नामसे कथन करनेकी कोई आवश्यकता नहीं। इसपर यदि कोई कहे कि तब तो निष्काम कर्मयोग और ज्ञानयोगके बिना केवल भक्तिमार्गसे परमात्माकी प्राप्ति ही नहीं हो सकती तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि भगवान् ने केवल भक्तियोगसे स्थान-स्थानपर परमात्माकी प्राप्ति होना बतलाया है। साक्षात् दर्शनके लिये तो यहाँतक कह दिया है कि अनन्य भक्तिके अतिरिक्त अन्य किसी उपायसे नहीं हो सकता। (गीता ११।५४) ध्यानयोगरूपी भक्तिको (गीता १३।२४) ‘ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति’ कहकर भगवान् ने और भी स्पष्टीकरण कर दिया है। इस ध्यानयोगका प्रयोग उपर्युक्त दोनों साधनोंके साथ भी होता है और अलग भी। यह उपासना या भक्तिमार्ग बड़ा ही सुगम और महत्त्वपूर्ण है। इसमें ईश्वरका सहारा रहता है और उसका बल प्राप्त होता रहता है। अतएव हमलोगोंको इसी गीतोक्त निष्काम विशुद्ध अनन्यभक्तिका आश्रय लेकर अपने समस्त स्वाभाविक कर्म भगवत्प्रीत्यर्थ करने चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur