गीतामें भगवन्नाम
कृष्णेति नामानि च नि:सरन्ति रात्रन्दिवं वै प्रतिरोमकूपात्।
यस्यार्जुनस्य प्रति तं सुगीतगीते न नाम्नो महिमा भवेत्किम्॥
नाम और नामीमें अर्थात् भगवन्नाम और भगवान्में अभेद है; अत: दोनोंके स्मरणका एक ही माहात्म्य है। भगवन्नाम तीन तरहसे लिया जाता है—
(१) मनसे—मनसे नामका स्मरण होता है, जिसका वर्णन भगवान्ने ‘यो मां स्मरति नित्यश:’ (८।१४) पदोंसे किया है।
(२) वाणीसे—वाणीसे नामका जप होता है, जिसे भगवान्ने ‘यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि’ (१०। २५) पदोंसे अपना स्वरूप बताया है।
(३) कण्ठसे—कण्ठसे जोरसे उच्चारण करके कीर्तन किया जाता है, जिसका वर्णन भगवान्ने ‘कीर्तयन्त:’ (९।१४) पदसे किया है।
गीतामें भगवान्ने ॐ, तत् और सत् —ये तीन परमात्माके नाम बताये हैं—‘ॐ तत्सदिति निर्देशो ब्रह्मणस्त्रिविध: स्मृत:’ (१७।२३)। प्रणव(ओंकार)-को भगवान्ने अपना स्वरूप बताया है— ‘प्रणव: सर्ववेदेषु’ (७।८), ‘गिरामस्म्येकमक्षरम्’ (१०।२५)। भगवान् कहते हैं कि जो मनुष्य ‘ॐ’—इस एक अक्षर प्रणवका उच्चारण करके और मेरा स्मरण करके शरीर छोड़कर जाता है, वह परमगतिको प्राप्त होता है (८। १३)।
अर्जुनने भी भगवान्के विराट्रूपकी स्तुति करते हुए नामकी महिमा कही है; जैसे—‘हे प्रभो! कई देवता भयभीत होकर हाथ जोड़े हुए आपके नाम आदिका कीर्तन कर रहे हैं’ (११।२१); ‘हे अन्तर्यामी भगवन्! आपके नाम आदिका कीर्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् हर्षित हो रहा है और अनुराग (प्रेम)-को प्राप्त हो रहा है। आपके नाम आदिके कीर्तनसे भयभीत होकर राक्षसलोग दसों दिशाओंमें भागते हुए जा रहे हैं और सम्पूर्ण सिद्धगण आपको नमस्कार कर रहे हैं। यह सब होना उचित ही है’ (११।३६)।
सुषुप्ति (गाढ़ निद्रा)-के समय सम्पूर्ण इन्द्रियाँ मनमें, मन बुद्धिमें, बुद्धि अहम्में और अहम् अविद्यामें लीन हो जाता है अर्थात् सुषुप्तिमें अहंभावका भान नहीं होता। गाढ़ निद्रासे जगनेपर ही सबसे पहले अहंभावका भान होता है, फिर देश, काल, अवस्था आदिका भान होता है। परन्तु गाढ़ निद्रामें सोये हुए व्यक्तिके नामसे कोई आवाज देता है तो वह जग जाता है अर्थात् अविद्यामें लीन हुए, गाढ़ निद्रामें सोये हुए व्यक्तितक शब्द पहुँच जाता है। तात्पर्य है कि शब्दमें अचिन्त्य शक्ति है, जिससे वह अविद्याको भेदकर अहम्तक पहुँच जाता है। जैसे, अनादिकालसे अविद्यामें पड़े हुए, मूर्च्छित व्यक्तिकी तरह संसारमें मोहित हुए मनुष्यको गुरुमुखसे श्रवण करनेपर अपने स्वरूपका बोध हो जाता है अर्थात् अविद्यामें पड़े हुए मनुष्यको भी शब्द तत्त्वज्ञान करा देता है*। ऐसे ही जो तत्परतासे भगवन्नामका जप करता है, उसको वह नाम स्वरूपका बोध, भगवान्के दर्शन करा देता है।
* शब्दमें ऐसी विलक्षण शक्ति है कि वह जो इन्द्रियोंके सामने नहीं है, उस परोक्षका भी ज्ञान करा देता है।
तत्त्वज्ञ जीवन्मुक्त महापुरुषके मुखसे निकलेजो शब्द (उपदेश) होते हैं, उनको कोई आदरपूर्वक सुनता है तो उसके आचरण, भाव सुधर जाते हैं और अज्ञान मिटकर बोध हो जाता है। परन्तुजिसकी वाणीमें असत्य, कटुता, वृथा बकवाद, निन्दा, परचर्चा आदि दोष होते हैं, उसके शब्दोंका दूसरोंपर असर नहीं होता; क्योंकि उसके आचरणोंके कारण शब्दकी शक्ति कुण्ठित हो जाती है। ऐसे ही स्वयं वक्तामें भी भ्रम, प्रमाद, लिप्सा और करणापाटव—ये चार दोष होते हैं। वक्ता जिस विषयका विवेचन करता है, उसको वह ठीक तरहसे नहीं जानता अर्थात् कुछ जानता है और कुछ नहीं जानता—यह ‘भ्रम’ है। वह उपदेश देते हुए सावधानी नहीं रखता, बेपरवाह होकर कहता है और श्रोता किस दर्जेका है, कहाँतक समझ सकता है आदि बातोंको उपेक्षाके कारण नहीं जानता—यह ‘प्रमाद’ है। किसी तरहसे मेरी पूजा हो, आदर हो, श्रोताओंसे रुपये-पैसे मिल जायँ, मेरा स्वार्थ सिद्ध हो जाय, सुननेवाले किसी तरहसे मेरे चक्करमें आ जायँ, मेरे अनुकूल बन जायँ आदिकी इच्छा रखता है—यह ‘लिप्सा’ है। कहनेकी शैलीमें कुशलता नहीं है, वक्ता श्रोताकी भाषाको नहीं जानता, श्रोता किस तरह बातको समझ सकता है—वह युक्ति उसको नहीं आती—यह ‘करणापाटव’ है। ये चार दोष वक्तामें रहनेसे वक्ताके शब्दोंसे श्रोताको ज्ञान नहीं होता। इन दोषोंसे रहित शब्द श्रोताको ज्ञान करा देते हैं। श्रोता भी श्रद्धा, विश्वास, जिज्ञासा, तत्परता, संयतेन्द्रियता आदिसे युक्त हो और उसका परमात्मप्राप्तिका उद्देश्य हो तो उसको वक्ताके शब्दोंसे ज्ञान हो जाता है। तात्पर्य है कि वक्ताकी अयोग्यता होनेपर भी श्रोतापर उसकी वाणीका असर नहीं पड़ता और श्रोताकी अयोग्यता होनेपर भी उसपर वक्ताकी वाणीका असर नहीं पड़ता। दोनोंकी योग्यता होनेपर ही वक्ताके शब्दका श्रोतापर असर पड़ता है। परन्तु भगवान्के नाममें इतनी विलक्षण शक्ति है कि कोई भी मनुष्य किसी भी भावसे नाम ले, उसका मंगल ही होता है—
भायँ कुभायँ अनख आलसहूँ। नाम जपत मंगल दिसि दसहूँ॥
(मानस १।२८।१)
भगवान्का नाम, संकेत, परिहास, अवहेलना आदि किसी भी प्रकारसे लिया जाय, वह पापोंका नाश करता ही है—
साङ्केत्यं पारिहास्यं वा स्तोभं हेलनमेव वा।
वैकुण्ठनामग्रहणमशेषाघहरं विदु:॥
(श्रीमद्भा० ६।२।१४)
भगवान्ने अपने नामके विषयमें स्वयं कहा है कि जो जीव श्रद्धासे अथवा अवहेलनासे भी मेरा नाम लेते हैं, उनका नाम सदा मेरे हृदयमें रहता है—
श्रद्धया हेलया नाम रटन्ति मम जन्तव:।
तेषां नाम सदा पार्थ वर्तते हृदये मम॥
शंका—गुड़का नाम लेनेसे मुख मीठा नहीं होता, फिर भगवान्का नाम लेनेसे क्या होगा?
समाधान—जिस वस्तुका नाम गुड़ है, उसके नाममें गुड़ नामवाली वस्तुका अभाव है अर्थात् गुड़के नाममें गुड़ नहीं है; और जबतक गुड़का रसनेन्द्रिय (जीभ)-के साथ सम्बन्ध नहीं होता, तबतक मुख मीठा नहीं होता; क्योंकि जीभमें गुड़ मौजूद नहीं है। ऐसे ही धनीका नाम लेनेसे धन नहीं मिलता; क्योंकि धनीके नाममें धन मौजूद नहीं है।
परन्तु भगवान्के नाममें भगवान् मौजूद हैं। नामी (भगवान्)-से नाम अलग नहीं है और नामसे नामी अलग नहीं है। नामीमें नाम मौजूद है और नाममें नामी मौजूद है। अत: नामीका, भगवान्का नाम लेनेसे भगवान् मिल जाते हैं, नामी प्रकट हो जाता है।
शंका—नाम तो केवल शब्दमात्र है, उससे क्या कार्य सिद्ध होगा?
समाधान—ऐसे तो शब्दमात्रमें अचिन्त्य शक्ति है, पर नाममें भगवान्के साथ सम्बन्ध जोड़नेकी ही एक विशेष सामर्थ्य है। अत: नाम किसी भी तरहसे लिया जाय, वह मंगल ही करता है। नाम जपनेवालेका भाव विशेष हो तो बहुत जल्दी लाभ होता है—
सादर सुमिरन जे नर करहीं। भव बारिधि गोपद इव तरहीं॥
(मानस १। ११९। २)
नामजपमें भाव कम भी रहे तो भी नाम जपनेसे लाभ तो होगा ही, पर कब होगा—इसका पता नहीं। नामजपकी संख्या ज्यादा बढ़नेसे भी भाव बन जाता है, क्योंकि नामजप करनेवालेके भीतर सूक्ष्म भाव रहता ही है, वह भाव नामकी संख्या बढ़नेसे प्रकट हो जाता है।
नामजप क्रिया (कर्म) नहीं है, प्रत्युत उपासना है; क्योंकि नामजपमें जापकका लक्ष्य, सम्बन्ध भगवान्से रहता है। जैसे कर्मोंसे कल्याण नहीं होता। कर्म अपना फल देकर नष्ट हो जाते हैं; परन्तु कर्मोंके साथ निष्कामभावकी मुख्यता रहनेसे वे कर्म कल्याण करनेवाले हो जाते हैं। ऐसे ही नामजपके साथ भगवान्के लक्ष्यकी मुख्यता रहनेसे नामजप भगवत्साक्षात्कार करानेवाला हो जाता है। भगवान्का लक्ष्य मुख्य रहनेसे नाम चिन्मय हो जाता है, फिर उसमें क्रिया नहीं रहती। इतना ही नहीं, वह चिन्मयता जापकमें भी उतर आती है अर्थात् नाम जपनेवालेका शरीर भी चिन्मय हो जाता है। उसके शरीरकी जड़ता मिट जाती है। जैसे, तुकारामजी महाराज सशरीर वैकुण्ठ चले गये। मीराबाईका शरीर भगवान्के विग्रहमें समा गया। कबीरजीका शरीर अदृश्य हो गया और उसके स्थानपर लोगोंको पुष्प मिले। चोखामेलाकी हड्डियोंसे ‘विट्ठल’ नामकी ध्वनि सुनायी पड़ती थी।
प्रश्न—शास्त्रों, सन्तोंने भगवन्नामकी जो महिमा गायी है, वह कहाँतक सच्ची है?
उत्तर—शास्त्रों और सन्तोंने नामकी जो महिमा गायी है, वह पूरी सच्ची है। इतना ही नहीं, आजतक जितनी नाम-महिमा गायी गयी है, उससे नाम-महिमा पूरी नहीं हुई है, प्रत्युत अभी बहुत नाम-महिमा बाकी है। कारण कि भगवान् अनन्त हैं; अत: उनके नामकी महिमा भी अनन्त है—‘हरि अनंत हरिकथा अनंता’ (मानस १। १४०। ३)। नामकी पूरी महिमा स्वयं भगवान् भी नहीं कह सकते—‘रामु न सकहिं नाम गुन गाई’ (१। २६। ४)।
प्रश्न—नामकी जो महिमा गायी गयी है, वह नामजप करनेवाले व्यक्तियोंमें देखनेमें नहीं आती, इसमें क्या कारण है?
उत्तर—नामके माहात्म्यको स्वीकार न करनेसे नामका तिरस्कार, अपमान होता है; अत: वह नाम उतना असर नहीं करता। नामजपमें मन न लगानेसे, इष्टके ध्यानसहित नामजप न करनेसे, हृदयसे नामको महत्त्व न देनेसे, आदि-आदि दोषोंके कारण नामका माहात्म्य शीघ्र देखनेमें नहीं आता। हाँ, किसी प्रकारसे नामजप मुखसे चलता रहे तो उससे भी लाभ होता ही है, पर इसमें समय लगता है। मन लगे चाहे न लगे, पर नामजप निरन्तर चलता रहे, कभी छूटे नहीं तो नाम महाराजकी कृपासे सब काम हो जायगा अर्थात् मन लगने लग जायगा, नामपर श्रद्धा-विश्वास भी हो जायँगे, आदि-आदि।
अगर भगवन्नाममें अनन्यभाव हो और नामजप निरन्तर चलता रहे तो उससे वास्तविक लाभ हो ही जाता है; क्योंकि भगवान्का नाम सांसारिक नामोंकी तरह नहीं है। भगवान् चिन्मय हैं; अत: उनका नाम भी चिन्मय (चेतन) है। राजस्थानमें बुधारामजी नामक एक सन्त हुए हैं। वे जब नामजपमें लगे, तब उनको नामजपके बिना थोड़ा भी समय खाली जाना सुहाता नहीं था। जब भोजन तैयार हो जाता, तब माँ उनको भोजनके लिये बुलाती और वे भोजन करके पुन: नामजपमें लग जाते। एक दिन उन्होंने माँसे कहा कि माँ! रोटी खानेमें बहुत समय लगता है; अत: केवल दलिया बनाकर थालीमें परोस दिया कर और जब वह थोड़ा ठण्डा हो जाया करे, तब मेरेको बुलाया कर; माँने वैसा ही किया। एक दिन फिर उन्होंने कहा कि माँ! दलिया खानेमें भी समय लगता है; अत: केवल राबड़ी बना दिया कर और जब वह ठण्डी हो जाया करे, तब बुलाया कर। इस तरह लगनसे नामजप किया जाय तो उससे वास्तविक लाभ होता ही है।
शंका—अगर श्रद्धा-विश्वासपूर्वक किये हुए नामजपसे ही लाभ होता है, तो फिर नामकी महिमा क्या हुई? महिमा तो श्रद्धा-विश्वासकी ही हुई?
समाधान—जैसे, राजाको राजा न माननेसे राजासे होनेवाला लाभ नहीं होता; पण्डितको पण्डित न माननेसे पण्डितसे होनेवाला लाभ नहीं होता; सन्त-महात्माओंको सन्त-महात्मा न माननेसे उनसे होनेवाला लाभ नहीं होता; भगवान् अवतार लेते हैं तो उनको भगवान् न माननेसे उनसे होनेवाला लाभ नहीं होता; परंतु राजा आदिसे लाभ न होनेसे राजा आदिमें कमी थोड़े ही आ गयी? कमी तो न माननेवालेकी ही हुई। ऐसे ही जो नाममें श्रद्धा-विश्वास नहीं करता, उसको नामसे होनेवाला लाभ नहीं होता, पर इससे नामकी महिमामें कोई कमी नहीं आती। कमी तो नाममें श्रद्धा-विश्वास न करनेवालेकी ही है।
नाममें अनन्त शक्ति है। वह शक्ति नाममें श्रद्धा-विश्वास करनेसे तो बढ़ेगी और श्रद्धा-विश्वास न करनेसे घटेगी—यह बात है ही नहीं। हाँ, जो नाममें श्रद्धा-विश्वास करेगा, वह तो नामसे लाभ ले लेगा, पर जो श्रद्धा-विश्वास नहीं करेगा, वह नामसे लाभ नहीं ले सकेगा। दूसरी बात, जो नाममें श्रद्धा-विश्वास नहीं करता, उसके द्वारा नामका अपराध होता है। उस अपराधके कारण वह नामसे होनेवाले लाभको नहीं ले सकता।
प्रश्न—श्रद्धा-विश्वासके बिना भी अग्निको छूनेसे हाथ जल जाता है, फिर श्रद्धा-विश्वासके बिना नाम लेनेसे उसकी महिमा तत्काल प्रकट क्यों नहीं होती?
उत्तर—अग्नि भौतिक वस्तु है और वह भौतिक वस्तुओंको ही जलाती है; परन्तु भगवान्का नाम अलौकिक, दिव्य है। नामजप करनेवालेका नाममें ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों उसके सामने नामकी महिमा प्रकट होने लगती है, उसको नाम-महिमाकी अनुभूति होने लगती है, नाममें विचित्रता, अलौकिकता दीखने लगती है। नाममें एक विचित्रता है कि मनुष्य बिना भाव, श्रद्धाके भी हरदम नाम लेता रहे तो उसके सामने नामकी शक्ति प्रकट हो जायगी, पर उसमें समय लग सकता है।
प्रश्न—क्या एक बार नाम लेनेसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं?
उत्तर—हाँ, आर्तभावसे लिये हुए एक नामसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं। मनुष्यको अन्त समयमें मृत्युसे छुड़ानेवाला कोई भी नहीं दीखता, वह सब तरफसे निराश हो जाता है, उस समय आर्तभावसे उसके मुखसे एक नाम भी निकलता है तो वह एक ही नाम उसके सम्पूर्ण पापोंको नष्ट कर देता है। जैसे गजेन्द्रको ग्राह खींचकर जलमें ले जा रहा था। गजेन्द्रने देखा कि अब मुझे कोई छुड़ानेवाला नहीं है, अब तो मौत आ गयी है, तो उसने आर्तभावसे एक ही बार नाम लिया। नाम लेते ही भगवान् आ गये और उन्होंने ग्राहको मारकर गजेन्द्रको छुड़ा लिया।
जिसका भगवान्के नाममें अटूट श्रद्धा-विश्वास है, अनन्यभाव है, उसका एक ही नामसे कल्याण हो जाता है।
प्रश्न—जब एक ही नामसे सब पाप नष्ट हो जाते हैं, तो फिर बार-बार नाम लेनेकी क्या आवश्यकता है?
उत्तर—बार-बार नाम लेनेसे ही वह एक आर्तभाववाला नाम निकलता है। जैसे मोटरके इंजनको चालू करनेके लिये बार-बार हैण्डल घुमाते हैं तो हैण्डलको पहली बार घुमानेसे इंजन चालू होगा या पाँचवीं, दसवीं अथवा पंद्रहवीं बार घुमानेसे इंजन चालू होगा—इसका कोई पता नहीं रहता। परन्तु हैण्डलको बार-बार घुमाते रहनेसे किसी-न-किसी घुमावमें इंजन चालू हो जाता है। ऐसे ही बार-बार भगवन्नाम लेते रहनेसे कभी-न-कभी वह आर्तभाववाला एक नाम आ ही जाता है। अत: बार-बार नाम लेना बहुत जरूरी है।
प्रश्न—जो मनुष्य नामजप तो करता है, पर उसके द्वारा निषिद्ध कर्म भी होते हैं, उसका उद्धार होगा या नहीं?
उत्तर—समय पाकर उसका उद्धार तो होगा ही; क्योंकि किसी भी तरहसे लिया हुआ भगवन्नाम निष्फल नहीं जाता। परन्तु नामजपका जो प्रत्यक्ष प्रभाव है, वह उसके देखनेमें नहीं आयेगा। वास्तवमें देखा जाय तो जिसका एक परमात्माको ही प्राप्त करनेका ध्येय नहीं है, उसीके द्वारा निषिद्ध कर्म होते हैं। जिसका ध्येय एक परमात्मप्राप्तिका ही है, उसके द्वारा निषिद्ध कर्म हो ही नहीं सकते। जैसे, जिसका ध्येय पैसोंका हो जाता है, वह फिर ऐसा कोई काम नहीं करता, जिससे पैसे नष्ट होते हों। वह पैसोंका नुकसान नहीं सह सकता; और कभी किसी कारणवश पैसे नष्ट हो जायँ तो वह बेचैन हो जाता है। ऐसे ही जिसका ध्येय परमात्मप्राप्तिका बन जाता है, वह फिर साधनसे विपरीत काम नहीं कर सकता। अगर उसके द्वारा साधनसे विपरीत कर्म होते हैं तो इससे सिद्ध होता है कि अभी उसका ध्येय परमात्मप्राप्ति नहीं बना है।
साधकको चाहिये कि वह परमात्मप्राप्तिका ध्येय दृढ़ बनाये और नामजप करता रहे तो फिर उससे निषिद्ध क्रिया नहीं होगी। कभी निषिद्ध क्रिया हो भी जायगी तो उसका बहुत पश्चात्ताप होगा, जिससे वह फिर आगे कभी नहीं होगी।
प्रश्न—जिसके पाप बहुत हैं, वह भगवान्का नाम नहीं ले सकता; अत: वह क्या करे?
उत्तर—बात सच्ची है। जिसके अधिक पाप होते हैं, वह भगवान्का नाम नहीं ले सकता।
वैष्णवे भगवद्भक्तौ प्रसादे हरिनाम्नि च।
अल्पपुण्यवतां श्रद्धा यथावन्नैव जायते॥
अर्थात् जिसका पुण्य थोड़ा होता है, उसकी भक्तोंमें, भक्तिमें, भगवत्प्रसादमें और भगवन्नाममें श्रद्धा नहीं होती।
जैसे पित्तका जोर होनेपर रोगीको मिश्री भी कड़वी लगती है। परन्तु यदि वह मिश्रीका सेवन करता रहे तो पित्त शान्त हो जाता है और मिश्री मीठी लगने लग जाती है। ऐसे ही पाप अधिक होनेसे नाम अच्छा नहीं लगता; परन्तु नामजप करना शुरू कर दें तो पाप नष्ट हो जायँगे और नाम अच्छा, मीठा लगने लग जायगा तथा नामजपका प्रत्यक्ष लाभ भी दीखने लग जायगा।
प्रश्न—जिसके भाग्यमें नाम लेना लिखा है, वह तो नाम ले सकता है, उसके मुखसे नाम निकल सकता है; परंतु जिसके भाग्यमें नाम लेना लिखा ही नहीं, वह कैसे नाम ले सकता है?
उत्तर—एक ‘होना’ होता है और एक ‘करना’ होता है। भाग्य अर्थात् पुराने कर्मोंका फल होता है और नये कर्म किये जाते हैं, होते नहीं। जैसे व्यापार करते हैं और नफा-नुकसान होता है; खेती करते हैं और लाभ-हानि होती है; मन्त्रका सकामभावसे जप (अनुष्ठान) करते हैं और उसका नीरोगता आदि फल होता है। बदरीनारायण जाते हैं—यह ‘करना’ हुआ और चलते-चलते बदरीनारायण पहुँच जाते हैं—यह ‘होना’ हुआ। दवा लेते हैं—यह ‘करना’ हुआ और शरीर स्वस्थ या अस्वस्थ होता है—यह ‘होना’ हुआ। हानि-लाभ, जीना-मरना, यश-अपयश—ये सब होनेवाले हैं; क्योंकि ये पूर्वजन्ममें किये हुए कर्मोंके फल हैं**। परन्तु नामजप करना नया काम है। यह करनेका है, होनेका नहीं। इसको करनेमें सब स्वतन्त्र हैं। हाँ, इसमें इतनी बात होती है कि अगर किसीने पहले नामजप किया हुआ है तो नामजपकी महिमा सुनते ही उसकी नामजपमें रुचि हो जायगी और वह सुगमतासे होने लग जायगा। परन्तु पहले जिसका नामजप किया हुआ नहीं है, वह अगर नामकी महिमा सुने तो उसकी नामजपमें जल्दी रुचि नहीं होगी। अगर नामजपकी महिमा कहनेवाला अनुभवी हो तो सुननेवालेकी भी नाममें रुचि हो जायगी और उस अनुभवीके संगमें रहनेसे उसके लिये नामजप करना भी सुगम हो जायगा।
** सुनहु भरत भावी प्रबल बिलखि कहेउ मुनिनाथ। हानि लाभु जीवनु मरनु जसु अपजसु बिधि हाथ॥ (मानस २। १७१)
जो भाग्यमें लिखा है, वह फल होता है, नया कर्म नहीं। नामजप करना शुरू कर दें तो वह होने लग जायगा; क्योंकि नामजप करना नया कर्म, नयी उपासना है। अत: ‘हमारे भाग्यमें नामजप करना, सत्संग करना, शुभ-कर्म करना लिखा हुआ नहीं है’—ऐसा कहना बिलकुल बहानेबाजी है। ‘नामजप, सत्संग आदि हमारे भाग्यमें नहीं हैं’—ऐसा भाव रखना कुसंग है, जो नामजप आदि करनेके भावका नाश करनेवाला है।
प्रश्न—नामजपसे भाग्य (प्रारब्ध) पलट सकता है?
उत्तर—हाँ, भगवन्नामके जपसे, कीर्तनसे प्रारब्ध बदल जाता है, नया प्रारब्ध बन जाता है; जो वस्तु न मिलनेवाली हो वह मिल जाती है; जो असम्भव है, वह सम्भव हो जाता है—ऐसा सन्तोंका, महापुरुषोंका अनुभव है। जिसने कर्मोंके फलका विधान किया है, उसको कोई पुकारे, उसका नाम ले तो नाम लेनेवालेका प्रारब्ध बदलनेमें आश्चर्य ही क्या है? ये जो लोग भीख माँगते फिरते हैं, जिनको पेटभर खानेको भी नहीं मिलता, वे अगर सच्चे हृदयसे नामजपमें लग जायँ तो उनके पास रोटियोंका, कपड़ोंका ढेर लग जायगा; उनको किसी चीजकी कमी नहीं रहेगी। परन्तु नामजपको प्रारब्ध बदलनेमें, पापोंको काटनेमें नहीं लगाना चाहिये। जैसे अमूल्य रत्नके बदलेमें कोयला खरीदना बुद्धिमानी नहीं है, ऐसे ही अमूल्य भगवन्नामको तुच्छ कामनापूर्तिमें लगाना बुद्धिमानी नहीं है।
प्रश्न—जब केवल नामजपसे ही सब पाप नष्ट हो जाते हैं, तो फिर शास्त्रोंमें पापोंको दूर करनेके लिये तरह-तरहके प्रायश्चित्त क्यों बताये गये हैं?
उत्तर—नामजपसे ज्ञात, अज्ञात आदि सभी पापोंका प्रायश्चित्त हो जाता है, सभी पाप नष्ट हो जाते हैं; परन्तु नामपर श्रद्धा-विश्वास न होनेसे शास्त्रोंमें तरह-तरहके प्रायश्चित्त बताये गये हैं। अगर नामपर श्रद्धा-विश्वास हो जाय तो दूसरे प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है। नामजप करनेवाले भक्तसे अगर कोई पाप भी हो जाय, कोई गलती हो जाय तो उसको दूर करनेके लिये दूसरा प्रायश्चित्त करनेकी जरूरत नहीं है। वह नामजपको ही तत्परतासे करता रहे तो सब ठीक हो जायगा।
प्रश्न—अगर कोई सकामभावसे नामजप करे तो क्या वह नामजप फल देकर नष्ट हो जायगा?
उत्तर—यद्यपि सांसारिक तुच्छ कामनाओंकी पूर्तिके लिये नामको खर्च करना बुद्धिमानी नहीं है, तथापि अगर सकामभावसे भी नामजप किया जाय तो भी नामका माहात्म्य नष्ट नहीं होता। नामजप करनेवालेको पारमार्थिक लाभ होगा ही; क्योंकि नामका भगवान्के साथ साक्षात् सम्बन्ध है। हाँ, नामको सांसारिक कामनापूर्तिमें लगाकर उसने नामका जो तिरस्कार किया है, उससे उसको पारमार्थिक लाभ कम होगा। अगर वह तत्परतासे नाममें लगा रहेगा, नामके परायण रहेगा तो नामकी कृपासे उसका सकामभाव मिट जायगा। जैसे, ध्रुवजीने सकामभावसे, राज्यकी इच्छासे ही नामजप किया था। परन्तु जब उनको भगवान्के दर्शन हुए, तब राज्य एवं पद मिलनेपर भी वे प्रसन्न नहीं हुए, प्रत्युत उनको अपने सकामभावका दु:ख हुआ अर्थात् उनका सकामभाव मिट गया।
जो सकामभावसे नामजप किया करते हैं, उनको भी नाम महाराजकी कृपासे अन्त समयमें नाम याद आ सकता है और उनका कल्याण हो सकता है!
प्रश्न—शास्त्रों तथा सन्तोंने कहा है कि अमुक संख्यामें नामजप करनेसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं, क्या ऐसा होता है?
उत्तर—हाँ, ‘हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥’ —इस मन्त्रका साढ़े तीन करोड़ जप करनेसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं—ऐसा ‘कलिसंतरणोपनिषद्’ में आया है। ‘राम’-नामका तेरह करोड़ जप करनेसे भगवान्के दर्शन हो जाते हैं—ऐसा समर्थ रामदास बाबाने ‘दासबोध’ में लिखा है। परन्तु नाममें, भगवान्में श्रद्धा-विश्वास और प्रेम अधिक हो तो उपर्युक्त संख्यासे पहले भी भगवान्के दर्शन हो सकते हैं।
प्रश्न—‘नहिं कलि करम न भगति बिबेकू। राम नाम अवलंबन एकू॥’ (मानस १।२७।४)— ऐसा कहनेका क्या तात्पर्य है?
उत्तर—कलियुगमें यज्ञादि शुभ-कर्मोंका सांगोपांग होना बहुत कठिन है और उनके विधि-विधानको ठीक तरहसे जाननेवाले पुरुष भी बहुत कम रह गये हैं तथा शुद्ध गौघृत आदि सामग्री मिलनी भी कठिन हो रही है। अत: कलियुगमें शुभ-कर्मोंका अनुष्ठान सांगोपांग न होनेसे, उसमें विधि-विधानकी कमी रहनेसे कर्ताको दोष लगता है।
वैधी भक्ति विधि-विधानसे की जाती है। उसमें किस इष्टदेवका किस विधिसे पूजा-पाठ होना चाहिये—इसको जाननेवाले बहुत कम हैं। अत: वह भक्ति करना भी इस कलियुगमें कठिन है।
ज्ञानमार्ग कठिन है और ज्ञानमार्गकी साधना बतानेवाले अनुभवी पुरुषोंका मिलना भी बहुत कठिन है। अत: विवेकमार्गमें चलना कलियुगमें बहुत कठिन है। तात्पर्य है कि इस कलियुगमें कर्म, भक्ति और ज्ञान—इन तीनोंका होना बहुत कठिन है, पर भगवान्का नाम लेना कठिन नहीं है। भगवान्का नाम सभी ले सकते हैं; क्योंकि उसमें कोई विधि-विधान नहीं है। उसको बालक, स्त्री, पुरुष, वृद्ध, रोगी आदि सभी ले सकते हैं और हर समय, हर परिस्थितिमें, हर अवस्थामें ले सकते हैं।
नाम एक सम्बोधन है, पुकार है। उसमें आर्तभावकी ही मुख्यता है, विधिकी मुख्यता नहीं। अत: भगवान्का नाम लेकर हरेक मनुष्य आर्तभावसे भगवान्को पुकार सकता है।
शंका—नामजपमें मन नहीं लगता और मन लगे बिना नामजप करनेमें कुछ फायदा नहीं! कहा भी है—
माला तो कर में फिरे, जीभ फिरै मुख माहिं।
मनुवाँ तो चहुँ दिसि फिरै, यह तो सुमिरन नाहिं॥
समाधान—मन नहीं लगेगा तो ‘सुमिरन’ (स्मरण) नहीं होगा—यह बात सच्ची है, पर नामजप नहीं होगा—यह बात दोहेमें नहीं कही गयी है। मन नहीं लगनेसे सुमिरन नहीं होगा तो नहीं सही, पर नामजप तो हो ही जायगा! नामजप कभी व्यर्थ हो ही नहीं सकता; अत: मन लगे चाहे न लगे, नामजप करते रहना चाहिये।
जब मन लगेगा, तब नामजप करेंगे—ऐसा होना सम्भव नहीं है। हाँ, अगर हम नामजप करने लग जायँ तो मन भी लगने लग जायगा; क्योंकि मनका लगना नामजपका परिणाम है।
प्रश्न—शास्त्रमें आता है कि जो नाम नहीं लेना चाहता, जिसकी नामपर श्रद्धा नहीं है, उसको नाम नहीं सुनाना चाहिये; क्योंकि यह नामापराध है; फिर भी गौरांग महाप्रभु आदिने नामपर श्रद्धा न रखनेवालोंको भी नाम क्यों सुनाया?
उत्तर—जो नाम नहीं सुनना चाहता, मुखसे भी नहीं लेना चाहता, नामका तिरस्कार करता है, उसको नाम नहीं सुनाना चाहिये—यह विधि है, शास्त्रकी आज्ञा है; फिर भी सन्त-महापुरुष दया करके उसको नाम सुना देते हैं। उनकी दयामें विधि-निषेध लागू नहीं होता। विधि-निषेध ‘कर्म’- में लागू होता है और ‘दया’ कर्मसे अतीत है। दया अहैतुकी होती है, हेतुके बिना की जाती है। जैसे, कोई भगवत्प्राप्त सन्त-महापुरुष अपनी सामर्थ्यसे दूसरेको कोई चीज देता है तो यह चीज लेनेवालेके पूर्वकर्मका फल नहीं है, यह तो उस सन्त-महापुरुषकी दया है। ऐसे ही गौरांग महाप्रभु आदि सन्तोंने दया-परवश होकर दुष्ट, पापी व्यक्तियोंको भी भगवन्नाम सुनाया।
प्रश्न—अगर मरणासन्न पशु, पक्षी आदिको भगवन्नाम सुनाया जाय तो क्या उनका उद्धार हो सकता है?
उत्तर—पशु, पक्षी आदि भगवन्नामके प्रभावको नहीं समझते और अपने-आप प्रभाव आ जाय तो वे उसका विरोध भी नहीं करते। वे नामकी निन्दा, तिरस्कार नहीं करते, नामसे घृणा नहीं करते। अत: उनको मरणासन्न अवस्थामें नाम सुनाया जाय तो उनपर नामका प्रभाव काम करता है अर्थात् नामके प्रभावसे उनका उद्धार हो जाता है।
प्रश्न—अन्तसमयमें कोई अपने पुत्र आदिके रूपमें भी ‘नारायण’, ‘वासुदेव’ आदि नाम लेता है तो उसको भगवान् अपना ही नाम मान लेते हैं; ऐसा क्यों?
उत्तर—भगवान् बहुत दयालु हैं। उन्होंने यह विशेष छूट दी हुई है कि अगर मनुष्य अन्त समयमें किसी भी बहाने भगवान्का नाम ले ले, उनको याद कर ले तो उसका कल्याण हो जायगा। कारण कि भगवान्ने जीवका कल्याण करनेके लिये ही उसको मनुष्य शरीर दिया है और जीवने उस मनुष्य शरीरको स्वीकार किया है। अत: जीवका कल्याण हो जाय, तभी भगवान्का इस जीवको मनुष्य शरीर देना और जीवका मनुष्य शरीर लेना सार्थक होगा। परन्तु वह अपना कल्याण किये बिना ही मनुष्य शरीरको छोड़कर जा रहा है, इसलिये भगवान् उसको मौका देते हैं कि अब जाते-जाते तू किसी भी बहाने मेरा नाम ले ले, मेरेको याद कर ले तो तेरा कल्याण हो जायगा! जैसे अन्त समयमें भयानक यमदूत दीखनेपर अजामिलने अपने पुत्र नारायणको पुकारा तो भगवान्ने उसको अपना ही नाम मान लिया और अपने चार पार्षदोंको अजामिलके पास भेज दिया।
तात्पर्य है कि मनुष्यको रात-दिन, खाते-पीते, सोते-जागते, चलते-फिरते, सब समय भगवान्का नाम लेते ही रहना चाहिये।