गीतामें भगवान्की उदारता
उदारा ये सृष्टौ सहितममतापाशनिहता
अतस्ते संयाता जनिमरणदु:खेषु सततम्।
विना स्वार्थं कामं स्वसकलजनानां हितकरो
भवानेक: कृष्णस्त्रिभुवनयुदारो वरतम:॥
अर्जुनने भगवान्के ऐश्वर्य (सशस्त्र एक अक्षौहिणी नारायणी सेना)-को छोड़कर भगवान्को स्वीकार किया तो उनको भगवान् भी मिले और साथ-ही-साथ ऐश्वर्य भी मिला। भगवान्ने अर्जुनके लिये छोटे-से-छोटा काम किया अर्थात् पाण्डवोंकी सात अक्षौहिणी सेनामें भगवान् अर्जुनके सारथि बने (१।२१)। यह भगवान्की कितनी उदारता है! जो अनन्त सृष्टियोंको धारण करनेवाले हैं, सबका पालन-पोषण करनेवाले हैं, वे भक्तोंके लिये मनुष्यरूप धारण कर लेते हैं (४।६)—यह उनकी कितनी उदारता है!
जो समताका जिज्ञासु है अर्थात् समता प्राप्त करना चाहता है, वह भी वेदोंमें कहे हुए सकाम अनुष्ठानोंका, बड़े-बड़े भोगोंका अतिक्रमण कर जाता है (६।४४)। समतावाला योगी वेदोंमें, यज्ञोंमें, तपोंमें और दानमें जितने पुण्यफल कहे गये हैं, उन सबका अतिक्रमण कर जाता है (८।२८)। समताका उद्देश्य होनेमात्रसे भगवान् उसको कितना ऊँचा पद देते हैं! भगवान्के विधानमें कितनी उदारता भरी हुई है!
वास्तवमें आर्त और अर्थार्थी भक्त उदार नहीं हैं; परन्तु भगवान्की यह विशेष उदारता है कि जो जिस-किसी भावसे भगवान्में लग जाता है,भगवान्के सम्मुख हो जाता है, उसको भगवान् उदार मानते हैं—‘उदारा: सर्व एवैते’ (७। १८)।
प्राय: लोग दूसरोंकी श्रद्धा अपनेमें करानेके लिये कई तरहका नाटक करते हैं, दूसरोंको अपना ही दास, शिष्य बनानेके चक्करमें रहते हैं, पर भगवान्की यह विचित्र उदारता है कि जो अपनी कामना-पूर्तिके लिये जिस देवताकी श्रद्धापूर्वक उपासना करना चाहता है, भगवान् उसकी श्रद्धाको उसी देवताके प्रति दृढ़ कर देते हैं, और उसकी उपासनाका फल भी दे देते हैं (७। २१-२२)
अन्त समयमें मनुष्य जिस-जिसका चिन्तन करता है, शरीर छोड़नेके बाद उस-उसको प्राप्त हो जाता है (८। ६)। इस विधानमें भगवान्की कितनी उदारता भरी हुई है कि अन्त समयमें जैसे हरिणका चिन्तन होनेसे भरतमुनिको हरिणकी योनि प्राप्त हो गयी, ऐसे ही भगवान्का चिन्तन होनेसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। तात्पर्य है कि जिस अन्तिम चिन्तनसे हरिण आदि योनियोंकी प्राप्ति होती है, उसी चिन्तनसे भगवान्की प्राप्ति हो जाती है। भगवान्की इस उदारताका कोई पारावार नहीं है!
ब्रह्मलोकतक जितने भी लोक हैं, उनमें जानेपर फिर लौटकर आना पड़ता है, जन्म-मरणके चक्करमें जाना पड़ता है; परन्तु भगवान्की प्राप्ति होनेपर फिर लौटकर संसारमें नहीं आना पड़ता (८।१६)—यह भगवान्की कितनी महती उदारता है!
जो अनन्यभावसे भगवान्की उपासनामें लग जाते हैं, उनको भगवान् अप्राप्तकी प्राप्ति करा देते हैं (९।२२), चाहे वह प्राप्ति लौकिक हो अथवा पारलौकिक। लौकिक प्राप्तिमें भगवान् उनके शरीर तथा कुटुम्ब-परिवारके निर्वाहका प्रबन्ध करा देते हैं, उनकी तथा उनके कुटुम्बकी रक्षा करते हैं। परन्तु इसमें एक विलक्षण बात है कि जिनकी प्राप्ति करा देनेसे उनका हित होता हो, वे संसारमें न फँसते हों, उन चीजोंकी प्राप्ति तो भगवान् करा देते हैं; पर जिनकी प्राप्ति करा देनेसे उनका हित न होता हो, वे संसारमें फँसते हों, उन चीजोंकी प्राप्ति भगवान् नहीं कराते। जैसे, नारदजीके मनमें विवाह करनेकी आयी तो भगवान्ने उनका विवाह नहीं होने दिया; क्योंकि इसमें उनका हित नहीं था। अगर लौकिक प्राप्ति करानेसे उनका पतन न होता हो तो उनकी लौकिक चाहना न होनेपर भी भगवान् लौकिक प्राप्ति करा देते हैं। जैसे, ध्रुवजीने पहले सकामभावसे भगवान्की उपासना की। उस उपासनासे उनके मनका सकामभाव मिट गया, तो भी भगवान्ने उनको छत्तीस हजार वर्षके लिये राज्य दे दिया तथा ध्रुवलोक बना दिया। तात्पर्य है कि उनको अलौकिक (पारलौकिक) चीज तो भगवान् देते ही हैं, पर लौकिक चीजसे उनका भला होता हो तो लौकिक चीजकी प्राप्ति भी भगवान् करा देते हैं।
जो भक्त भक्तिभावसे पत्र, पुष्प, फल, जल आदिको भगवान्के अर्पण कर देता है, उसको भगवान् खा लेते हैं, यह विचार नहीं करते कि यह फल है या फूल अथवा पत्ता (९। २६)। उदारभावके कारण भगवान् भक्तके भावमें कितने बह जाते हैं! इतना ही नहीं, भक्तोंके भावमें बहकर भगवान् अपनी बिक्री भी कर देते हैं—
तुलसीदलमात्रेण जलस्य चुलुकेन वा।
विक्रीणीते स्वमात्मानं भक्तेभ्यो भक्तवत्सल:॥
—यह भगवान्की उदारताकी हद हो गयी!
संसारके पद, अधिकार आदि सबको समानरूपसे नहीं मिलते, प्रत्युत योग्यता आदिके अनुसार ही मिलते हैं। परन्तु भगवान्ने अपनी प्राप्तिके लिये इतनी उदारता कर रखी है कि पापी-से-पापी, दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवान्का भजन कर सकता है, भगवान्को अपना मान सकता है, भगवान्की तरफ चल सकता है, भगवान्को प्राप्त कर सकता है (९। ३०-३१)।
जो केवल भगवान्के भजनमें ही मस्त रहते हैं, भगवान्की लीला आदिमें ही रमण करते हैं, उनकी कोई इच्छा न होनेपर भी भगवान् अपनी तरफसे उनको वह ज्ञान देते हैं, जो ज्ञान जिज्ञासुओंको भी बड़ी कठिनतासे मिलता है (१०।११)। यह भगवान्की कितनी उदारता है!
गीतामें अर्जुन भगवान्से थोड़ी बात पूछते हैं, तो भगवान् उसका विस्तारसे उत्तर देते हैं अर्थात् अर्जुनके प्रश्नका उत्तर तो देते ही हैं, पर अपनी ओरसे और भी बातें बता देते हैं। अर्जुनने भगवान्से प्रार्थना की कि हे भगवन्! मैं आपका अविनाशी रूप देखना चाहता हूँ (११। ३), तो भगवान्ने देवरूप, उग्ररूप, अत्युग्ररूप आदि अनेक स्तरोंसे अपना अक्षय-अविनाशी विश्वरूप दिखा दिया। अगर अर्जुन भगवान्के विश्वरूपको देखकर भयभीत नहीं होते तो भगवान् न जाने अपने कितने रूप दिखाते चले जाते! यह भगवान्की कितनी उदारता है!
निर्गुण उपासना करनेवाले तो पराभक्तिसे भगवान्को तत्त्वसे जानकर भगवान्में प्रविष्ट होते हैं (१८।५५); परन्तु जो सगुण उपासना करनेवाले हैं, उन भक्तोंको भगवान् ज्ञान भी देते हैं, दर्शन भी देते हैं और अपनी प्राप्ति भी करा देते हैं (११।५४)। भगवान्में आविष्ट चित्तवाले भक्तोंका भगवान् स्वयं संसार-सागरसे शीघ्र उद्धार करनेवाले बन जाते हैं (१२।७)। यह भगवान्की भक्तोंके प्रति कितनी उदारता है!
जो अविनाशी शाश्वत पद लम्बे समयतक एकान्तमें रहकर धारणा-ध्यान-समाधि करनेसे प्राप्त होता है, वही पद भक्त सांसारिक सब काम करता हुआ भी भगवान्की कृपासे अनायास ही पा लेता है (१८।५१—५६)। जो केवल भगवान्के शरण हो जाता है, उसको भगवान् सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं (१८।६६)। यह भगवान्की कितनी उदारता है!
जो भगवद्भक्तोंमें गीताका प्रचार करता है, वह भगवान्को ही प्राप्त होता है। उसके समान भगवान्को और कोई प्यारा नहीं है। अगर कोई प्रचार नहीं कर सकता, पर गीताका अध्ययन, पठन-पाठन करता है, उसके द्वारा भगवान् ज्ञानयज्ञसे पूजित होते हैं। जो गीताका अध्ययन भी नहीं कर सकता, केवल दोषदृष्टिरहित होकर श्रद्धापूर्वक गीताका श्रवण करता है, वह भी शरीर छूटनेके बाद भगवद्धाममें चला जाता है (१८।६८—७१)। भगवान्की इस उदारताको क्या कहा जाय?
कोई भगवान्को माने चाहे न माने, भगवान्का मण्डन करे चाहे खण्डन करे, भगवान्का त्रिलोकीसे अस्तित्व ही उठा देना चाहे, तो भी भगवान्की बनायी हुई पृथ्वी सबको समानरूपसे आश्रय देती है। पृथ्वीपर सभी बैठते हैं, चलते हैं, टट्टी करते हैं, पेशाब करते हैं, लातों आदिसे मारते हैं, तो भी पृथ्वी उनकी गलतियोंकी तरफ खयाल नहीं करती। भगवान्के बनाये हुए जलमें कोई स्नान करे, कपड़े धोये, आचमन करे अथवा कुल्ला करे, तो भी जल समान रीतिसे सबकी प्यास मिटाता है। भगवान्की बनायी हुई अग्नि सबको समान रीतिसे प्रकाश देती है, प्राणियोंके द्वारा खाये हुए चार प्रकारके अन्नको पचाती है, प्रकाश देकर सबका भय दूर करती है। भगवान्की बनायी हुई वायु सबको समान रूपसे श्वास लेने देती है, जीने देती है, सबको समानरीतिसे बल देती है। भगवान्का बनाया हुआ आकाश सबको समान रूपसे अवकाश देता है, दसों दिशाओंमें सबको समान रूपसे फलने-फूलने और बढ़नेके लिये अवकाश देता है। इस प्रकार जिसकी बनायी हुई चीजें भी इतनी उदार हैं, वह खुद कितना उदार होगा!
कोई अपने घरमें नगरपालिकाके जलकी टोंटी लगाता है तो उसका टैक्स देना पड़ता है, पर भगवान्ने कई नदियाँ बना दी हैं, जिनका कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। ऐसे ही कोई अपने घरमें बिजलीका तार लेता है तो उसका टैक्स देना पड़ता है, पर भगवान्ने सूर्य, चन्द्र, अग्नि आदि बना दिये हैं, जिनका कोई टैक्स नहीं देना पड़ता। सभी मुफ्तमें प्रकाश पाते हैं। यह भगवान्की असीम उदारता नहीं तो और क्या है?
भगवान्ने मनुष्यको शरीरादि वस्तुएँ इतनी उदारतापूर्वक और इस ढंगसे दी हैं कि मनुष्यको ये वस्तुएँ अपनी ही दीखने लगती हैं। इन वस्तुओंको अपनी ही मान लेना भगवान्की उदारताका दुरुपयोग करना है।
भगवान्में यह बात है ही नहीं कि मनुष्य मेरेको माने, तभी उसका उद्धार होगा। यह भगवान्की बड़ी भारी उदारता है! मनुष्य भगवान्को माने या न माने, इसमें भगवान्का कोई आग्रह नहीं है। परन्तु उसको भगवान्के विधानका पालन जरूर करना चाहिये, इसमें भगवान्का आग्रह है; क्योंकि अगर वह भगवान्के विधानका पालन नहीं करेगा तो उसका पतन हो जायगा (३।३२)। अत: मनुष्य अगर विधाता (भगवान्)-को न मानकर केवल विधानको माने तो भी उसका कल्याण हो जायगा। हाँ, अगर मनुष्य विधाताको मानकर उनके विधानको मानेगा तो भगवान् उसे अपने-आपको दे देंगे; परन्तु अगर वह विधाताको न मानकर उनके विधानको मानेगा तो भगवान् उसका उद्धार कर देंगे। तात्पर्य है कि विधाताको माननेवालेको प्रेमकी प्राप्ति और विधानको माननेवालेको मुक्तिकी प्राप्ति होती है।
वास्तवमें देखा जाय तो विधानको मानना और विधाता (भगवान्)-को न मानना कृतघ्नता है। कारण कि मनुष्य जो भी साधन करता है, उसकी सिद्धि भगवत्कृपासे ही होती है। वह जो भी साधन करता है, उसमें भगवान्का सम्बन्ध रहता ही है। संसार भगवान् का, जीव भगवान् का, शास्त्र भगवान्के, विधान भगवान् का—सबमें भगवान्का ही सम्बन्ध रहता है।