Seeker of Truth

गीतामें भगवान‍्की न्यायकारिता और दयालुता

संसारे यो दयालुश्च न्यायकारी भवेन्न स:।

कृष्णे दयालुता चैव वर्तेते न्यायकारिता॥

जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ दया नहीं हो सकती और जहाँ दया की जाती है, वहाँ न्याय नहीं हो सकता। कारण कि जहाँ न्याय किया जाता है, वहाँ शुभ-अशुभ कर्मोंके अनुसार पुरस्कार अथवा दण्ड दिया जाता है और जहाँ दया की जाती है, वहाँ दोषीके अपराधको माफ कर दिया जाता है, उसको दण्ड नहीं दिया जाता। तात्पर्य है कि न्याय करना और दया करना—ये दोनों आपसमें विरोधी हैं। ये दोनों एक जगह रह नहीं सकते। जब ऐसी ही बात है तो फिर भगवान‍्में न्यायकारिता और दयालुता—दोनों कैसे हो सकते हैं? परन्तु यह अड़चन वहाँ आती है, जहाँ कानून (विधान) बनानेवाला निर्दयी हो। जो दयालु हो, उसके बनाये गये कानूनमें न्याय और दया—दोनों रहते हैं। उसके द्वारा किये गये न्यायमें भी दयालुता रहती है और उसके द्वारा की गयी दयामें भी न्यायकारिता रहती है। भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंके सुहृद् हैं—‘सुहृदं सर्वभूतानाम्’ (५।२९); अत: उनके बनाये हुए विधानमें दयालुता और न्यायकारिता—दोनों रहती हैं।

भगवान‍्ने गीतामें कहा है कि मनुष्य अन्त समयमें जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह उसी भावको प्राप्त होता है अर्थात् अन्तिम स्मरणके अनुसार ही उसकी गति होती है (८। ६)। यह भगवान‍्का न्याय है, जिसमें कोई पक्षपात नहीं है। इस न्यायमें भी भगवान‍्की दया भरी हुई है। जैसे, अन्त समयमें अगर कोई कुत्तेका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह कुत्तेकी योनिको प्राप्त हो जाता है अगर कोई भगवान‍्का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो वह भगवान‍्को प्राप्त हो जाता है। तात्पर्य है कि जितने मूल्यमें कुत्तेकी योनि मिलती है, उतने ही मूल्यमें भगवान‍्की प्राप्ति हो जाती है! इस प्रकार भगवान‍्के कानूनमें न्यायकारिता होते हुए भी महती दयालुता भरी हुई है।

सदाचारी-से-सदाचारी साधनपरायण मनुष्य अन्त समयमें भगवान‍्का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भगवत्प्राप्ति हो जाती है, ऐसे ही दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी किसी विशेष कारणसे अन्त समयमें भगवान‍्का स्मरण करता हुआ शरीर छोड़ता है तो उसको भी भगवत्प्राप्ति हो जाती है (८।५)। यह भगवान‍्की कितनी दयालुता और न्यायकारिता है!

भगवान‍्ने कहा है कि दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी अगर मेरी तरफ चलनेका दृढ़ निश्चय करके अनन्यभावसे मेरा स्मरण करता है तो उसको साधु ही मानना चाहिये। वह बहुत जल्दी धर्मात्मा बन जाता है और सदा रहनेवाली शान्तिको प्राप्त हो जाता है (९।३०-३१)। जब दुराचारी-से-दुराचारी मनुष्य भी भगवद्भक्त हो सकता है और शाश्वती शान्तिको प्राप्त हो सकता है, तो फिर भगवद्भक्त भी दुराचारी, पापात्मा बन सकता है और उसका भी पतन हो सकता है; परन्तु भगवान‍्का कानून ऐसा नहीं है। भगवान‍्के कानूनमें बहुत ही दया भरी हुई है कि दुराचारीका तो कल्याण हो सकता है, पर भक्तका कभी पतन नहीं हो सकता—‘न मे भक्त: प्रणश्यति’ (९।३१)। इसमें भगवान‍्की न्यायकारिता और दयालुता—दोनों ही हैं।

यहाँ एक शंका हो सकती है कि अगर भक्तका कभी पतन नहीं होता, तो फिर भगवान‍्ने अर्जुनको अपना भक्त स्वीकार करते हुए ऐसा क्यों कहा कि अगर तू अहंकारके कारण मेरी बात नहीं मानेगा तो तेरा पतन हो जायगा (१८।५८)? इसका समाधान यह है कि जब भक्त अभिमानके कारण भगवान‍्की बात नहीं मानेगा, तब वह भक्त नहीं रहेगा और उसका पतन हो जायगा; परन्तु यह सम्भव ही नहीं है कि भक्त भगवान‍्की बात न माने। अर्जुनको तो भगवान‍्ने केवल धमकाया है, डराया है। वास्तवमें अर्जुनने भगवान‍्की बात मानी है और उनका पतन नहीं हुआ है (१८।७३)।

जो सकामभावसे शुभ-कर्म करता है, उसको शुभ-कर्मके अनुसार स्वर्ग आदिमें भेजना—यह भगवान‍्का न्याय है; और वहाँ पुण्यकर्मोंका फल भुगताकर उसको शुद्ध करना—यह दया है। ऐसे ही जो अशुभ-कर्म करता है, उसको नरकों और चौरासी लाख योनियोंमें भेजना—यह न्याय है; और वहाँ पापकर्मोंका फल भुगताकर उसको शुद्ध करना, उसको अपनी ओर खींचना—यह दया है। जैसे, किसीको लम्बे समयतक कोई कष्टदायक बीमारी आती है तो जब वह ठीक हो जाती है, तब उस व्यक्तिको भगवान‍्की कथा, भगवन्नाम आदि अच्छा लगता है। इस प्रकार कर्मोंके अनुसार बीमारी आना तो न्यायकारिता है और उसके फलस्वरूप भगवान‍्में रुचिका बढ़ना दयालुता है।

मनुष्य पाप, अन्याय आदि तो स्वेच्छासे करते हैं और उनके फलस्वरूप कैद, जुर्माना, दण्ड आदि परेच्छासे भोगते हैं। इसमें कर्मोंके अनुसार दण्ड आदि भोगना तो न्यायकारिता है और समय-समयपर ‘मैंने गलती की, जिससे मुझे दण्ड भोगना पड़ रहा है। अगर मैं गलती न करता तो मुझे दण्ड क्यों भोगना पड़ता?’—इस तरहका जो विचार आता है, होश आता है—यह भगवान‍्की दयालुता है।

कर्मोंके अनुसार अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति भेजना—यह भगवान‍्की न्यायकारिता है; और अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितिमें सुखी-दु:खी न होनेसे मनुष्यका कल्याण हो जाता है—यह भगवान‍्की दयालुता है।

शंका—श्रुतिमें आता है कि यह ईश्वर जिसको ऊर्ध्वगतिमें ले जाना चाहता है, उससे शुभ-कर्म कराता है और जिसको अधोगतिमें ले जाना चाहता है, उससे अशुभ-कर्म कराता है—‘एष ह्येव साधु कर्म कारयति तं यमेभ्यो लोकेभ्य उन्निनीषते एष ह्येवासाधु कर्म कारयति तं यमधो निनीषते’ (कौषीतकि० ३।८)। अत: इसमें भगवान‍्की न्यायकारिता और दयालुता क्या हुई? केवल पक्षपात, विषमता ही हुई!

समाधान—इस श्रुतिका तात्पर्य शुभ-कर्म करवाकर ऊर्ध्वगति और अशुभ-कर्म करवाकर अधोगति करनेमें नहीं है, प्रत्युत प्रारब्धके अनुसार कर्मफल भुगताकर उसको शुद्ध करनेमें है अर्थात् जीव अपने शुभ-अशुभ कर्मोंका फल जिस तरहसे भोग सके, उसी तरहसे परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं। जैसे, शुभ-कर्मोंके अनुसार किसी व्यापारीको मुनाफा होनेवाला है तो उस समय भगवान् वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं, जिससे वह सस्ते दामोंमें चीजें खरीदेगा और महँगे दामोंमें बेचेगा; अत: उसको खरीद और बिक्री—दोनोंमें मुनाफा-ही-मुनाफा होगा। ऐसे ही अशुभ कर्मोंके अनुसार किसी व्यापारीको घाटा लगनेवाला है तो उस समय भगवान् वैसी ही परिस्थिति और बुद्धि बना देते हैं, जिससे वह महँगे दामोंमें चीजें खरीदेगा और भाव गिरनेसे सस्ते दामोंमें बेचेगा; अत: उसको खरीद और बिक्री—दोनोंमें घाटा-ही-घाटा लगेगा। इस तरह कर्मोंके अनुसार मुनाफा और घाटा होना तो भगवान‍्की न्यायकारिता है और जिससे मुनाफा और घाटा हो सके, वैसी परिस्थिति और बुद्धि बना देना, जिससे शुभ-अशुभ कर्मबन्धन कट जाय—यह भगवान‍्की दयालुता है।

अगर श्रुतिका अर्थ शुभ-अशुभ कर्म करवाकर मनुष्यकी ऊर्ध्व-अधोगति करनेमें ही लिया जाय तो भगवान् न्यायकारी और दयालु हैं—यह बात सिद्ध नहीं होगी। भगवान् सम्पूर्ण प्राणियोंमें सम हैं, उनका किसी भी प्राणीके साथ राग-द्वेष नहीं है—यह बात भी सिद्ध नहीं होगी। ऐसा काम करो और ऐसा काम मत करो—शास्त्रोंका यह विधि-निषेध भी मनुष्यके लिये लागू नहीं होगा। गुरुकी शिक्षा, सन्त-महापुरुषोंके उपदेश आदि सब व्यर्थ हो जायँगे। जिससे मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्यका विचार करता है, वह विवेक व्यर्थ हो जायगा। मनुष्य जन्मकी विशेषता, स्वतन्त्रता भी खत्म हो जायगी और मनुष्य पशु-पक्षियोंकी तरह ही हो जायगा अर्थात् वह अपनी तरफसे कोई नया काम नहीं कर सकेगा, अपनी उन्नति, उद्धार भी नहीं कर सकेगा!

- स्रोत : गीता दर्पण (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)