गीतामें भगवान्का विविध रूपोंमें प्रकट होना
स्वभक्तभावेन परिप्लुतेन
भक्तस्य चाज्ञापरिपालकेन।
स्वकं हि कृष्णेन रथस्थितेन
विभिन्नरूपं प्रकटीकृतं च॥
अवतारके समय भगवान् गुप्तरूपसे रहते हैं और सबके सामने अपने-आपको भगवद्रूपसे प्रकट नहीं करते (७। २५)। परंतु अर्जुनके भावको देखते हुए उनके सामने भगवान् गीतामें कृपापूर्वक अनेक रूपोंमें प्रकट होते हैं; जैसे—
भक्त मेरेसे जो काम कराना चाहता है और मेरेको जिस रूपमें देखना चाहता है, मैं वही काम करता हूँ और उसके भावके अनुसार वैसा ही बन जाता हूँ—इस प्रकार अपनेको भक्तोंके अधीन बतानेके लिये भगवान् पहले अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सारथि’-रूपसे प्रकट होते हैं (१।२१—२४)।
जो मनुष्य कर्तव्य-अकर्तव्य, सत्-असत् आदिके विषयमें उलझा हो, स्वयं कोई निर्णय नहीं कर पा रहा हो, वह मेरी शरण होकर मेरेको पुकारे तो मैं उसको सब बता देता हूँ, उसकी उलझनको सुलझा देता हूँ—यह बात बतानेके लिये भगवान् दूसरे अध्यायमें किंकर्तव्यविमूढ़ और शरणापन्न अर्जुनके सामने ‘गुरु’-रूपसे प्रकट होते हैं (२।७)।
परिस्थितिके अनुसार मैं जिस वर्णमें प्रकट होता हूँ और जिस आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ आदि)-में रहता हूँ, उसीके अनुसार कर्तव्यका पालन करता हूँ—यह बात बतानेके लिये भगवान् तीसरे अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘आदर्श’-रूपसे प्रकट होते हैं (३। २२—२४)।
मैं चाहे गुणों और कर्मोंके अनुसार प्राणियोंकी रचना करूँ, चाहे सूर्य आदिको उपदेश देनेवाला बनूँ, चाहे अवतार लेकर धर्मकी स्थापना, दुष्टोंका विनाश और भक्तोंकी रक्षा करूँ, चाहे पुत्ररूपसे माता-पिताकी आज्ञाका पालन करूँ, चाहे मात्र प्राणियोंका मालिक बनूँ, पर मेरी ईश्वरतामें कुछ भी फर्क नहीं पड़ता—यह बात बतानेके लिये भगवान् चौथे अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘ईश्वर’-रूपसे प्रकट होते हैं (४।६)।
सभी यज्ञों और तपोंका भोक्ता मैं ही हूँ, सम्पूर्ण लोकोंका स्वामी मैं ही हूँ तथा प्राणियोंका बिना कारण हित करनेवाला भी मैं ही हूँ—इस प्रकार अपनी महत्ता बताकर अर्जुनका तथा मनुष्योंका हित करनेके लिये भगवान् पाँचवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सर्वलोकमहेश्वर’-रूपसे प्रकट होते हैं (५। २९)।
ध्यान करनेवाले साधकोंके लिये सबमें मेरेको और मेरेमें सबको देखना अर्थात् जहाँ-जहाँ मन जाय, वहाँ-वहाँ (सब जगह) मेरेको देखना बहुत जरूरी है। कारण कि ऐसा होनेपर ही मन मेरेमें तल्लीन हो सकता है—यह बात बतानेके लिये भगवान् छठे अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘व्यापक’-रूपसे प्रकट होते हैं (६। ३०)।
यह सम्पूर्ण संसार सूतके धागेमें पिरोयी हुई सूतकी मणियोंकी तरह मेरेमें ओत-प्रोत है; सम्पूर्ण प्राणियोंका सनातन बीज भी मैं ही हूँ; ब्रह्म, अध्यात्म, कर्म, अधिभूत, अधिदैव और अधियज्ञरूपसे भी मैं ही हूँ—इस प्रकार ‘वासुदेव: सर्वम्’ का बोध करानेके लिये भगवान् सातवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘समग्र’-रूपसे प्रकट होते हैं (७। २९-३०)।
सगुण-निराकार और निर्गुण-निराकारके ध्यानमें योगबलकी आवश्यकता होनेसे उन दोनोंके ध्यानमें कठिनता है; परंतु मैं अपने अनन्य भक्तोंको सुलभतासे प्राप्त हो जाता हूँ—यह बात बतानेके लिये भगवान् आठवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सुलभ’-रूपसे प्रकट होते हैं (८।१४)।
इस संसारका माता, पिता, धाता, पितामह, गति, भर्ता, निवास, बीज आदि मैं ही हूँ अर्थात् कार्य-कारण, सत्-असत्, नित्य आदि सब कुछ मैं ही हूँ—यह बात बतानेके लिये भगवान् नवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सत्-असत्’-रूपसे प्रकट होते हैं (९।१९)।
सम्पूर्ण प्राणियोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ; सर्गोंके आदि, मध्य और अन्तमें मैं ही हूँ; सम्पूर्ण प्राणियोंका बीज मैं ही हूँ; साधकको जहाँ- कहीं सुन्दरता, महत्ता, अलौकिकता दीखे, वह सब वास्तवमें मेरी ही है—यह बात बतानेके लिये भगवान् दसवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘सर्वैश्वर्य’-रूपसे प्रकट होते हैं (१०। ४१-४२)।
मैं अपने किसी एक अंशसे सम्पूर्ण संसारको व्याप्त करके स्थित हूँ—इसे बतानेके लिये भगवान् ग्यारहवें अध्यायमें अर्जुनको दिव्य चक्षु देकर उनके सामने ‘विश्वरूप’-से प्रकट होते हैं (११। ५—८)।
जो भक्त मेरे परायण होकर, सम्पूर्ण कर्मोंको मेरेमें अर्पण करके अनन्य भक्तियोगसे मुझ सगुण-साकार परमेश्वरका ध्यान करते हुए मेरी उपासना करते हैं, उनका मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार-समुद्रसे उद्धार करनेवाला बन जाता हूँ—इसे बतानेके लिये भगवान् बारहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘समुद्धर्ता’-रूपसे प्रकट होते हैं (१२। ७)।
जाननेके लिये जितने विषय हैं, उन सबमें अवश्य जाननेयोग्य तो एक परमात्मतत्त्व ही है। इस परमात्मतत्त्वके सिवा दूसरे जितने भी जाननेयोग्य विषय हैं, उन्हें मनुष्य कितना ही जान ले, पर उससे पूर्णता नहीं होगी। अगर वह परमात्मतत्त्वको जान ले तो फिर अपूर्णता रहेगी ही नहीं—यह बात जनानेके लिये भगवान् तेरहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘ज्ञेयतत्त्व’-रूपसे प्रकट होते हैं (१३।१२—१८)।
जिस प्रकृतिसे सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण उत्पन्न होते हैं, उसका अधिष्ठाता (स्वामी) मैं ही हूँ, महासर्गके आदिमें मैं ही संसारकी रचना करता हूँ; ब्रह्म, अविनाशी अमृत, सनातन धर्म तथा ऐकान्तिक सुखकी प्रतिष्ठा मैं ही हूँ—यह बात बतानेके लिये भगवान् चौदहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘आदिपुरुष’-रूपसे प्रकट होते हैं (१४।२७)।
इस संसारका मूल मैं ही हूँ; सूर्य, चन्द्र आदिमें मेरा ही तेज है; मैं ही अपने ओजसे पृथ्वीको धारण करता हूँ; वेदोंको जाननेवाला, वेदोंके तत्त्वका निर्णय करनेवाला तथा वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य भी मैं ही हूँ; मैं क्षर (संसार)-से अतीत एवं अक्षर (जीवात्मा)-से श्रेष्ठ हूँ; वेदोंमें और शास्त्रोंमें मैं ही श्रेष्ठ पुरुषके नामसे प्रसिद्ध हूँ—अपनी यह सर्वश्रेष्ठता बतानेके लिये भगवान् पन्द्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘पुरुषोत्तम’-रूपसे प्रकट होते हैं (१५। १७—१९)।
दम्भ, दर्प, अभिमान आदि जितने भी दुर्गुण हैं, वे सभी मनुष्योंके अपने बनाये हुए हैं अर्थात् ये मेरे नहीं हैं; परंतु अभय, अहिंसा, सत्य, दया, क्षमा आदि जितने भी उत्तम गुण हैं, वे सभी मेरे हैं और मेरी प्राप्ति करानेवाले हैं—यह बात बतानेके लिये भगवान् सोलहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘दैवी-सम्पत्ति’-रूपसे प्रकट होते हैं (१६। १—३)।
अगर कोई परमात्मप्राप्तिके उद्देश्यसे यज्ञ, तप, दान आदि शुभ कर्म करे और उनमें कोई कमी (अंगवैगुण्य) रह जाय तो जिस भगवान्से यज्ञ आदि रचे गये हैं, उस भगवान्का नाम लेनेसे उस कमीकी पूर्ति हो जाती है—यह बात बतानेके लिये भगवान् सत्रहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने ‘ॐ तत् सत्’ नामोंके रूपसे प्रकट होते हैं (१७।२३)।
सम्पूर्ण गीतोपदेशका सार अर्थात् कर्मयोग, ज्ञानयोग, ध्यानयोग आदि सभी साधनोंका सार मेरी शरणागति है—यह बतानेके लिये भगवान् अठारहवें अध्यायमें अर्जुनके सामने 'सर्वशरण्य'-रूपसे प्रकट होते हैं (१८। ६६)।
तात्पर्य है कि साधकका भगवान्के प्रति ज्यों-ज्यों भाव बढ़ता है, त्यों-त्यों भगवान् उसके भावके अनुसार अपनेको प्रकट करते हैं, जिससे साधक भक्तके भाव, श्रद्धा, विश्वास भी बढ़ते रहते हैं। इनके बढ़ते-बढ़ते अन्तमें भगवत्प्राप्ति हो जाती है। साधकको सावधानी इस बातकी रखनी है कि उसका अनन्यभाव कभी डिगे नहीं, अनन्यभावसे वह कभी विचलित न हो।