Seeker of Truth

गीतामें आहारीका वर्णन

रस्यस्निग्धादिषु प्रीति: सात्त्विकानां स्वभावत:।

तीक्ष्णरूक्षादिषु प्रीती राजसानां सुदु:खदा॥

यातयामादिषु प्रीतिस्तामसानां स्वभावजा।

आहारिण: परीक्षार्थमाहारा वर्णितास्तत:॥

मनुष्योंकी जो स्वाभाविक वृत्ति, स्थिति, भाव बनता है, उसके बननेमें कई कारण होते हैं। उनमें आहार भी एक कारण है। कहावत भी है कि ‘जैसा खाये अन्न, वैसा बने मन’। अत: आहार जितना सात्त्विक होता है, मनुष्यकी वृत्ति उतनी ही सात्त्विक बनती है अर्थात् सात्त्विक वृत्तिके बननेमें सात्त्विक आहारसे सहायता मिलती है।

गीतामें आहारका स्वतन्त्ररूपसे वर्णन नहीं हुआ है, प्रत्युत आहारी (व्यक्ति)-का वर्णन होनेसे आहारका वर्णन हुआ है; जैसे—सात्त्विक व्यक्तिको प्रिय होनेसे सात्त्विक आहारका, राजस व्यक्तिको प्रिय होनेसे राजस आहारका और तामस व्यक्तिको प्रिय होनेसे तामस आहारका वर्णन हुआ है (१७।८—१०)। अत: गीतामें जहाँ-जहाँ आहारकी बात आयी है, वहाँ-वहाँ भगवान‍्ने आहारीका ही वर्णन किया है; जैसे—‘नियताहारा:’ (४।३०) पदमें नियमित आहार करनेवालेका, ‘नात्यश्नतस्तु योगोऽस्ति न चैकान्तमनश्नत:’ (६।१६) पदोंमें अधिक खानेवाले और बिलकुल न खानेवालेका, ‘युक्ताहारविहारस्य’ (६।१७) पदमें नियमित खानेवालेका, ‘यदश्नासि’ (९।२७) पदमें भोजनके पदार्थको भगवान‍्के अर्पण करनेवालेका और ‘लघ्वाशी’ (१८।५२) पदमें अल्प भोजन करनेवालेका वर्णन किया गया है।

गीतामें जो तीनों (सत्त्व, रज और तम) गुणोंका वर्णन हुआ है, उनमें भी तारतम्य रहता है। सात्त्विक मनुष्यमें सत्त्वगुणकी प्रधानता होनेपर भी साथमें राजस-तामस भाव रहते हैं। राजस मनुष्यमें रजोगुणकी प्रधानता होनेपर भी साथमें सात्त्विक- तामस भाव रहते हैं। तामस मनुष्यमें तमोगुणकी प्रधानता होनेपर भी साथमें सात्त्विक-राजस भाव रहते हैं। इसका कारण यह है कि सम्पूर्ण सृष्टि त्रिगुणात्मक है (१८। ४०)। दो गुणोंको दबाकर एक गुण प्रधान होता है (१४।१०)। अत: सात्त्विक मनुष्यको सात्त्विक पदार्थ स्वाभाविक प्रिय लगनेपर भी तीनों गुणोंका मिश्रण रहनेसे अथवा पहले राजस-तामस पदार्थोंके सेवनके अभ्याससे अथवा शरीरमें किसी पदार्थकी कमी होनेसे अथवा शरीर बीमार हो जानेसे कभी-कभी राजस-तामस भोजनकी इच्छा हो जाती है। जैसे, खूब नमक या नमकीन पदार्थ पानेकी मनमें आ जाती है अथवा अधपका साग आदि पदार्थ पानेकी मनमें आ जाती है।

राजस मनुष्यको राजस पदार्थ स्वाभाविक प्रिय लगनेपर भी तीनों गुणोंका मिश्रण रहनेसे अथवा पहले सात्त्विक-तामस पदार्थोंके सेवनके अभ्याससे अथवा अन्य किसी कारणसे कभी-कभी सात्त्विक-तामस पदार्थोंकी इच्छा हो जाती है। जैसे, पहले दूध, काजू, पिस्ता, बादाम आदिका सेवन किया है, तो बीमारीके कारण शरीर कमजोर होनेपर बल बढ़ानेके लिये उन सात्त्विक पदार्थोंकी इच्छा हो जाती है। ऐसे ही कभी-कभी लहसुन, प्याज आदि तामस पदार्थोंकी भी इच्छा हो जाती है।

तामस मनुष्यको तामस पदार्थ स्वाभाविक प्रिय लगनेपर भी शरीरमें कमजोरी आ जाने आदि कारणोंसे दूध, घी आदि सात्त्विक तथा खट्टे, नमकीन आदि राजस पदार्थोंकी इच्छा हो जाती है।

सात्त्विक मनुष्यकी पूर्वसंस्कार आदिके कारण राजस-तामस भोजनकी इच्छा हो जानेपर भी वह इच्छा राजस-तामस पदार्थोंका सेवन करनेके लिये बाध्य नहीं करती; क्योंकि उसमें सत्त्वगुणकी प्रधानता रहनेसे विवेक जाग्रत् रहता है। इतना ही नहीं, सात्त्विक पदार्थ स्वाभाविक प्रिय होनेपर भी उसमें सात्त्विक पदार्थोंकी प्रबल इच्छा नहीं रहती। तीव्र वैराग्य होनेपर तो सात्त्विक पदार्थोंकी भी उपेक्षा हो जाती है। राजस मनुष्यमें शरीरको पुष्ट एवं ठीक रखनेवाले सात्त्विक तथा तामस पदार्थोंकी इच्छा हो जाती है। रागकी प्रधानता होनेसे यह इच्छा उन पदार्थोंका सेवन करनेके लिये उसको बाध्य कर देती है। तामस मनुष्यमें भी सात्त्विक-राजस मनुष्योंके संगसे सात्त्विक-राजस पदार्थोंके सेवनकी इच्छा (रुचि) हो जाती है; परन्तु मोह-मूढ़ताकी प्रधानता होनेसे इस इच्छाका उसपर विशेष असर नहीं होता।

सात्त्विक मनुष्य भी अगर सात्त्विक पदार्थों (भोजन)-का रागपूर्वक अधिक मात्रामें सेवन करेगा, तो वह भोजन राजस हो जायगा, जो परिणाममें दु:ख, शोक एवं रोगोंको देनेवाला हो जायगा। अगर वह लोभमें आकर अधिक मात्रामें पदार्थोंका सेवन करेगा तो वह सात्त्विक भोजन भी तामस हो जायगा, जो अधिक निद्रा, आलस्यमें लगा देगा।

राजस मनुष्य भी अगर राजस भोजनको रागपूर्वक करेगा तो परिणाममें रोग, पेटमें जलन आदि होंगे। अगर वह उन्हीं पदार्थोंका सेवन अधिक मात्रामें करेगा तो जलन, दु:ख, रोग आदिके साथ-साथ निद्रा, आलस्य आदि भी बढ़ जायँगे। अगर वह विवेक-विचारसे उसी भोजनको थोड़ी मात्रामें करेगा तो उसका परिणाम राजस (दु:ख, शोक आदि) न होकर सात्त्विक होगा अर्थात् अन्त:करणमें निर्मलता, शरीरमें हलकापन, ताजगी आदि होंगे। निद्रा कम आयेगी, आलस्य नहीं आयेगा; क्योंकि उसने युक्ताहार किया है।

तामस मनुष्य अगर तामस भोजनको मोहपूर्वक करेगा तो तामसी वृत्तियाँ ज्यादा पैदा होंगी। अगर उसी भोजनको वह थोड़ी मात्रामें करेगा तो वैसी वृत्तियाँ पैदा नहीं होंगी, सामान्य वृत्तियाँ रहेंगी अर्थात् अधिक मोहित करनेवाली वृत्तियाँ नहीं होंगी।

भोजनके पदार्थ सात्त्विक होनेपर भी अगर वे न्याययुक्त एवं सच्ची कमाईके नहीं होंगे, प्रत्युत निषिद्ध रीतिसे पैदा किये होंगे, तो उनका नतीजा अच्छा नहीं होगा। वे कुछ-न-कुछ राजसी-तामसी वृत्तियाँ पैदा करेंगे, जिससे पदार्थोंमें राग बढ़ेगा, निद्रा-आलस्य भी ज्यादा होंगे। अत: भोजनके पदार्थ सात्त्विक हों, सच्ची कमाईके हों, पवित्रतापूर्वक बनाये जायँ और भगवान‍्को भोग लगाकर शान्तिपूर्वक थोड़ी मात्रामें पाये जायँ तो उनका नतीजा बहुत ही अच्छा होता है।

राजस भोजन न्याययुक्त और सच्ची कमाईका होनेपर भी तत्काल तो भोजनका ही असर होगा अर्थात् पेटमें जलन आदि होंगे। कारण कि भोज्य पदार्थोंका शरीरके साथ ज्यादा सम्बन्ध होता है। परन्तु भोजन सच्ची कमाईका होनेसे परिणाममें वृत्तियाँ अच्छी बनेंगी और राजसी वृत्तियाँ ज्यादा देर नहीं ठहरेंगी। वृत्तियोंमें शोक, चिन्ता आदिकी तीव्रता नहीं रहेगी, शान्ति रहेगी।

तामस भोजन सच्ची कमाईका होनेपर भी तामसी वृत्तियाँ तो बनेंगी ही। हाँ, सच्ची कमाईका होनेसे तामसी वृत्तियोंका स्थायित्व नहीं रहेगा, कभी-कभी सात्त्विक वृत्तियाँ भी आ जायँगी।

सात्त्विक मनुष्यमें विवेक जाग्रत् रहता है; अत: वह पहले भोजनके परिणामको देखता है अर्थात् उसकी दृष्टि पहले परिणामकी तरफ ही जाती है। इसलिये सात्त्विक आहारमें पहले फल (परिणाम)-का और पीछे भोजनके पदार्थोंका वर्णन हुआ है (१७। ८)। राजस मनुष्यमें राग रहता है, भोज्य पदार्थोंकी आसक्ति रहती है; अत: उसकी दृष्टि पहले भोजनके पदार्थोंकी तरफ ही जाती है। इसलिये राजस आहारमें पहले भोज्य पदार्थोंका और पीछे फल (परिणाम)-का वर्णन हुआ है (१७।९)। तामस मनुष्यमें मोह—मूढ़ता रहती है; अत: वह मोहपूर्वक ही भोजन करता है। इसलिये तामस आहारमें केवल तामस पदार्थोंका ही वर्णन आया है; फल (परिणाम)-का वर्णन आया ही नहीं (१७।१०)।

किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदायका मनुष्य क्यों न हो, अगर वह पारमार्थिक मार्गमें लगेगा, साधन करेगा तो उसकी रुचि (प्रियता) स्वाभाविक ही सात्त्विक आहारमें होगी, राजस-तामस आहारमें नहीं। सात्त्विक आहार करनेसे वृत्तियाँ सात्त्विक बनती हैं और सात्त्विक वृत्तियोंसे सात्त्विक आहारमें प्रियता होती है।

कर्मयोगीमें निष्कामभावकी, ज्ञानयोगीमें विवेकपूर्वक त्यागकी और भक्तियोगीमें भगवद्भावकी मुख्यता रहती है। उनके सामने भोजनके पदार्थ आनेपर भी उन पदार्थोंमें उनका खिंचाव, प्रियता पैदा नहीं होती। जैसे, कर्मयोगीके सामने भोजन आ जाय तो उसमें सुख एवं भोग-बुद्धि न रहनेसे वह रागपूर्वक भोजन नहीं करता; अत: भोजनमें सात्त्विकताकी कमी रहनेपर भी निष्कामभाव होनेसे भोजनमें सांगोपांग सात्त्विकता आ जाती है। ज्ञानयोगी सम्पूर्ण पदार्थोंसे विवेकपूर्वक सम्बन्ध-विच्छेद करता है; अत: भोज्य पदार्थोंसे सम्बन्ध न रहनेके कारण वह जो भोजन करता है, वह सात्त्विक हो जाता है। भक्तियोगी भोज्य पदार्थोंको पहले भगवान‍्के अर्पण करके फिर उनको प्रसादरूपसे ग्रहण करता है, अत: वह भोजन सात्त्विक हो जाता है।

प्रश्न—आयुर्वेद और धर्मशास्त्रमें विरोध क्यों है? जैसे, आयुर्वेद अरिष्ट, आसव, मदिरा, मांस आदिका विधान करता है और धर्मशास्त्र इनका निषेध करता है; ऐसा क्यों?

उत्तर—शास्त्र चार प्रकारके हैं—नीतिशास्त्र, आयुर्वेदशास्त्र, धर्मशास्त्र और मोक्षशास्त्र। ‘नीतिशास्त्र’- में धन-सम्पत्ति, जमीन-जायदाद, वैभव आदिको प्राप्त करनेका एवं रखनेका उद्देश्य ही मुख्य है। नीतिशास्त्रमें कूटनीतिका वर्णन भी आता है, जिसमें दूसरोंके साथ छल-कपट, विश्वासघात आदि करनेकी बात भी आती है, जो कि ग्राह्य नहीं है। ‘आयुर्वेदशास्त्र’ में शरीरकी ही मुख्यता है, अत: उसमें वही बात आती है, जिससे शरीर ठीक रहे। वह बात कहीं-कहीं धर्मशास्त्रसे विरुद्ध भी पड़ती है। ‘धर्मशास्त्र’- में सुखभोगकी मुख्यता है; अत: उसमें वही बात आती है, जिससे यहाँ भी सुख हो और परलोकमें भी (स्वर्गादि लोकोंमें) सुख हो। ‘मोक्षशास्त्र’ में जीवके कल्याणकी मुख्यता है; अत: उसमें वही बात आती है, जिससे जीवका कल्याण (उद्धार) हो जाय। मोक्षशास्त्रमें धर्मविरुद्ध बात नहीं आती। उसमें सकामभावका भी वर्णन आता है, पर उसकी उसमें महिमा नहीं कही गयी है, प्रत्युत निन्दा ही की गयी है। कारण कि साधकमें जबतक सकामभाव रहता है, तबतक परमात्मप्राप्तिमें देरी लगती ही है। इहलोक और परलोकके सुखकी कामनाका त्याग करनेपर धर्मशास्त्र भी मोक्षमें सहायक हो जाता है।

आयुर्वेदमें शरीरकी ही मुख्यता रहती है। अत: किसी भी तरहसे शरीर स्वस्थ, नीरोग रहे—इसके लिये आयुर्वेदमें जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयोंके तथा मांस, मदिरा, आसव आदिके सेवनका विधान आता है। धर्मशास्त्रमें सुखभोगकी मुख्यता रहती है; अत: उसमें भी स्वर्ग आदिकी प्राप्तिके लिये किये जानेवाले अश्वमेध आदि यज्ञोंमें पशुबलिका, हिंसाका वर्णन आता है। वैदिक मन्त्रोंके द्वारा विधि-विधानसे की हुई (वैदिकी) हिंसाको हिंसा नहीं माना जाता। हिंसा न माननेपर भी हिंसाका पाप तो लगता ही है।* इसके सिवा मांसका सेवन करते-करते मनुष्यका स्वभाव बिगड़ जाता है। फिर उसमें परलोककी प्रधानता न रहकर स्थूलशरीरकी प्रधानता हो जाती है और वह शास्त्रीय विधानके बिना भी मांसका सेवन करने लग जाता है।

* शतक्रतु इन्द्र (सौ यज्ञ करके इन्द्र बननेवाला) भी दु:खी होता है, उसपर भी आफत आती है। उसके मनमें भी ईर्ष्या, भय, अशान्ति आदि होते हैं कि मेरा पद कोई छीन न ले आदि। यह वैदिकी हिंसाके पापका ही फल है।

आयुर्वेदमें हिंसाकी सीमा नहीं होती; क्योंकि उसमें स्थूलशरीरको ठीक रखनेकी मुख्यता है। अत: उसमें परलोकके बिगड़नेकी परवाह नहीं होती। धर्मशास्त्रमें सीमित हिंसा होती है। जिससे परलोक बिगड़ जाय, ऐसी हिंसा नहीं होती। परंतु धर्मशास्त्रमें मनुष्यके कल्याण (मोक्ष)-की परवाह नहीं होती। तात्पर्य है कि आयुर्वेद और धर्मशास्त्र—दोनों ही प्रकृतिके राज्यमें हैं। जबतक अन्त:करणमें नाशवान् पदार्थोंका महत्त्व रहता है, तबतक मनुष्य पापसे, हिंसासे बच ही नहीं सकता। वह अपनी भी हिंसा (पतन) करता है और दूसरोंकी भी। परन्तु जिसमें सकामभाव नहीं है, उसके द्वारा हिंसा नहीं होती। अगर उसके द्वारा हिंसा हो भी जाय, तो भी उसको पाप नहीं लगता; क्योंकि पाप कामना (राग)-में ही है, क्रियामें नहीं।

लोगोंकी प्राय: ऐसी धारणा बन गयी है कि औषधरूपमें मांस आदि अशुद्ध चीज खाना बुरा नहीं है। परंतु ऐसा माननेवाले वे ही लोग हैं, जिनका केवल शरीरको ठीक रखनेका, सुख-आरामका ही लक्ष्य है; जो धर्मकी अथवा अपने कल्याणकी परवाह नहीं करते। औषधरूपमें भी अभक्ष्य-भक्षण करनेसे हिंसा और अपवित्रता तो आ ही जाती है। अत: औषधरूपमें भी अभक्ष्य-भक्षण नहीं करना चाहिये।

प्रश्न—अगर शरीर रहेगा तो मनुष्य साधन-भजन करेगा; अत: अभक्ष्य-भक्षण करनेसे अगर शरीर बच जाय तो क्या हानि है?

उत्तर—अभक्ष्य-भक्षण करनेसे शरीर बच जाय, मौत टल जाय—यह कोई नियम नहीं है। अगर आयु शेष होगी तो शरीर बच जायगा और आयु शेष नहीं होगी तो शरीर नहीं बचेगा; क्योंकि शरीरका बचना अथवा न बचना प्रारब्धके अधीन है, वर्तमानके कर्मोंके अधीन नहीं। अभक्ष्य-भक्षणसे शरीर बच नहीं सकता, केवल शरीरकी किंचित् पुष्टि हो सकती है, पर अभक्ष्य-भक्षणसे जो पाप होगा, उसका दण्ड तो भोगना ही पड़ेगा।

मनुष्य साधन-भजनका तो केवल बहाना बनाता है, वास्तवमें तो शरीरमें राग-आसक्ति रहनेसे ही वह अशुद्ध दवाइयोंका सेवन करता है। जिसका शरीरमें राग नहीं है, जिसका उद्देश्य अपना कल्याण करना है, वह प्रतिक्षण नष्ट होनेवाले शरीरके लिये अशुद्ध चीजोंका सेवन करके पाप क्यों करेगा?

प्रश्न—आजकल कई लोग जीवरहित अण्डा खानेमें दोष नहीं मानते; यह कहाँतक उचित है?

उत्तर—जीवरहित होनेपर भी वह साग-सब्जीकी तरह शुद्ध नहीं है, प्रत्युत महान् अशुद्ध है; क्योंकि वह अण्डा महान् अपवित्र रज (रक्त) और मांससे ही बनता है।

माताएँ-बहनें जब रजस्वला हो जाती हैं, तब उनको हम छूते भी नहीं, दूरसे ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि उनको छूनेसे अपवित्रता आती है। रजस्वला स्त्रीकी छाया पड़नेसे साँप अन्धे हो जाते हैं और पापड़ काले पड़ जाते हैं। जलाशयको छूनेसे उसमें जीव-जन्तु पैदा हो जाते हैं। अन्न, वस्त्र आदिको छूनेसे वे अपवित्र हो जाते हैं। कारण कि रजस्वला स्त्रीके शरीरसे जहर निकलता है, जिसके निकल जानेपर वह शुद्ध हो जाती है। इस प्रकार जिस रजको अपवित्र मानते हैं, उसी रजसे अण्डा बनता है। अत: अण्डा खानेवालेमें वह अपवित्रता आयेगी ही।

जो व्यक्ति जीवरहित अण्डा खाने लग जायगा, वह फिर जीववाला अण्डा भी खाने लगेगा। इसके सिवाय जीवरहित अण्डोंमें जीववाले अण्डोंकी मिलावट न हो—इसका भी क्या पता? अत: प्रत्येक दृष्टिसे अण्डा खाना निषिद्ध है, पाप है।

प्रश्न—जड़ी-बूटियाँ उखाड़नेमें भी हिंसा होती है। अत: उनसे बनी हुई दवाइयाँ लेनी चाहिये या नहीं?

उत्तर—चतुर्थाश्रमी संन्यासी, त्यागी अगर जड़ी-बूटियोंसे बनी शुद्ध दवाई भी न लें तो अच्छा है; क्योंकि उनमें त्याग ही मुख्य है। ऐसे तो त्याग सबके लिये ही अच्छा है, पर गृहस्थ आदि यदि जड़ी-बूटियोंसे बनी दवाइयाँ लें तो उनके लिये उतना दोष नहीं है। जैसे, जो खेती आदि करते हैं, उनके द्वारा अनेक जीव-जन्तुओंकी हिंसा होती है,पर उस हिंसाका उतना दोष नहीं लगता; क्योंकि खेतीसे उत्पन्न होनेवाले अन्न आदिके द्वारा प्राणियोंका जीवन चलता है। ऐसे ही जो लोग जड़ी-बूटियाँ उखाड़ते हैं, उनके द्वारा हिंसा तो होती है, पर उसका उतना दोष नहीं लगता, क्योंकि उस ओषधिके द्वारा लोगोंको नीरोगता प्राप्त होती है।

पद्मपुराणमें आता है कि मनुष्य किसी भी जलाशयका पानी पीये तो उस जलाशयमेंसे थोड़ी-सी मिट्टी निकालकर किनारेपर डाल दे। इसका तात्पर्य यह है कि वह जलाशय किसी दूसरे व्यक्तिने खुदवाया है। अत: उसमेंसे मिट्टी निकालनेसे जलाशयके खोदनेमें हमारा भी हिस्सा हो जायगा, जिससे उस जलाशयका पानी पीने (पराया हक लेने)-का दोष हमें नहीं लगेगा। ऐसे ही जो जड़ी-बूटियाँ औषध बनानेके काममें आती हों, उनको जल आदिसे पुष्ट करना चाहिये, उनकी विशेष रक्षा करनी चाहिये, उनको निरर्थक नहीं उखाड़ना चाहिये।

प्रश्न—रोग किस प्रकार पैदा होते हैं?

उत्तर—रोग दो प्रकारसे पैदा होते हैं—प्रारब्धसे और कुपथ्यसे। पुराने पापोंका फल भुगतानेके लिये शरीरमें जो रोग पैदा हो जाते हैं, वे ‘प्रारब्धजन्य’ हैं। जो रोग निषिद्ध खान-पानसे, आहार-विहारसे पैदा होते हैं, वे ‘कुपथ्यजन्य’ हैं।

प्रश्न—रोगकी हम कैसे पहचान करें कि यह रोग तो प्रारब्धजन्य है और यह रोग कुपथ्यजन्य है?

उत्तर—पथ्यका सेवन करनेसे, संयमपूर्वक रहनेसे और दवाई लेनेसे भी जो रोग मिटता नहीं, उसको ‘प्रारब्धजन्य’ जानना चाहिये। दवाई और पथ्यका सेवन करनेसे जो रोग मिट जाता है, उसको ‘कुपथ्यजन्य’ जानना चाहिये।

कुपथ्यजन्य रोग चार प्रकारके होते हैं—साध्य, कृच्छ्र-साध्य, याप्य और असाध्य। जो रोग दवाई लेनेसे मिट जाते हैं, वे ‘साध्य’ हैं। जो रोग कई दिनतक दवाई और पथ्यका विशेषतासे सेवन करनेपर दूर होते हैं, वे ‘कृच्छ्र-साध्य’ हैं। जो रोग पथ्य आदिका सेवन करते रहनेसे दबे रहते हैं, जड़से नहीं मिटते वे ‘याप्य’ हैं। जो रोग दवाई आदिका सेवन करनेपर भी मिटते नहीं, वे ‘असाध्य’ हैं।

प्रारब्धसे होनेवाला रोग तो असाध्य होता ही है, कुपथ्यसे होनेवाला रोग भी कभी-कभी असाध्य हो जाता है। ऐसे असाध्य रोग प्राय: दवाइयोंसे दूर नहीं होते। किसी सन्तके आशीर्वादसे, मन्त्रोंके प्रबल अनुष्ठानसे, भगवत्कृपासे ऐसे रोग दूर हो सकते हैं।

प्रश्न—कुपथ्यजन्य रोगके असाध्य होनेमें क्या कारण है?

उत्तर—इसमें कई कारण हो सकते हैं; जैसे—(१) रोग बहुत दिनका (पुराना) हो जाय, (२) तात्कालिक रुचिके कारण रोगी कुपथ्यका सेवन कर ले, (३) दवाइयोंके बनानेमें मात्रा आदिकी कमी रह जाय, (४) जिन जड़ी-बूटियों आदिसे दवाइयाँ बनायी जायँ, वे पुरानी हों, ताजी न हों, (५) रोगीका वैद्यपर और औषधपर विश्वास न हो, (६) रोगी खान-पान आदिमें संयम नहीं रखे, (७) रोगी ब्रह्मचर्यका पालन नहीं करे, आदि-आदि कारणोंसे कुपथ्यजन्य रोग भी जल्दी नहीं जाते।

जो रोगी बार-बार तरह-तरहकी दवाइयाँ लेता रहता है, दवाइयोंका अधिक मात्रामें सेवन करता है, उसको दवाइयोंसे विशेष लाभ नहीं होता; क्योंकि दवाइयाँ उसके लिये आहाररूप हो जाती हैं। देहातमें रहनेवाले प्राय: दवाई नहीं लेते, पर कभी वे दवाई ले लें तो उनपर दवाई बहुत जल्दी असर करती है। जो मदिरा, चाय आदि नशीली वस्तुओंका सेवन करते हैं, उनकी आँतें खराब हो जाती हैं, जिससे उनके शरीरपर दवाइयाँ असर नहीं करतीं। जो धर्मशास्त्र और आयुर्वेदशास्त्रके विरुद्ध खान-पान, आहार-विहार करता है, उसका कुपथ्यजन्य रोग दवाइयोंका सेवन करनेपर भी दूर नहीं होता।

कुपथ्यका त्याग और पथ्यका सेवन करना तथा संयमसे रहना—ये तीनों बातें दवाइयोंसे भी बढ़कर रोग दूर करनेवाली हैं।

रोगीके साथ खाने-पीनेसे, रोगीके पात्रमें भोजन करनेसे, रोगीके आसनपर बैठनेसे, रोगीके वस्त्र आदिको काममें लेने आदिसे ऐसे संकर (मिश्रित) रोग हो जाते हैं, जिनकी पहचान करना बड़ा कठिन हो जाता है। जब रोगकी पहचान ही नहीं होगी, तो फिर उसपर दवा कैसे काम करेगी?

युगके प्रभावसे जड़ी-बूटियोंकी शक्ति क्षीण हो गयी है। कई दिव्य जड़ी-बूटियाँ लुप्त हो गयी हैं। दवाइयाँ बनानेवाले ठीक ढंगसे दवाइयाँ नहीं बनाते और पैसोंके लोभमें आकर जिस दवाईमें जो चीज मिलानी चाहिये, उसे न मिलाकर दूसरी ही चीज मिला देते हैं। अत: उस दवाईका वैसा गुण नहीं होता।

देहातमें रहनेवाले मनुष्य खेतीका, परिश्रमका काम करते हैं तथा माताएँ-बहनें घरमें चक्‍की चलाती हैं, परिश्रमका काम करती हैं और उनको अन्न, जल, हवा आदि भी शुद्ध मिलते हैं; अत: उनको कुपथ्यजन्य रोग नहीं होते। परन्तु जो शहरमें रहनेवाले हैं, वे शारीरिक परिश्रम भी नहीं करते और उनको शुद्ध अन्न, जल, हवा आदि भी नहीं मिलते; अत: उनको कुपथ्यजन्य रोग होते हैं। हाँ, प्रारब्धजन्यरोग तो सबको ही होते हैं, चाहे वे देहाती हों, चाहे शहरी।

मनुष्यको शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार शुद्ध दवाइयोंका सेवन करना चाहिये। अगर कोई साधु, संन्यासी, गृहस्थ रोगी होनेपर भी दवाई न ले तो इससे भी रोग दूर हो जाता है; क्योंकि दवाई न लेना भी एक तप है, जिससे रोग दूर होते हैं। जो रोगोंके कारण दु:खी, अप्रसन्न रहता है, उसपर रोग ज्यादा असर करते हैं। परन्तु जो भजन-स्मरण करता है, संयमसे रहता है, प्रसन्न रहता है, उसपर रोग ज्यादा असर नहीं करते। चित्तकी प्रसन्नतासे उसके रोग नष्ट हो जाते हैं।

प्रारब्धजन्य रोगके मिटनेमें दवाई तो केवल निमित्तमात्र बनती है। मूलमें तो प्रारब्धकर्म समाप्त होनेसे ही रोग मिटता है। जिन कर्मोंके कारण रोग हुआ है, उन कर्मोंसे बढ़कर कोई पुण्यकर्म, प्रायश्चित्त, मन्त्र आदिका अनुष्ठान किया जाय तो प्रारब्धजन्य रोग मिट जाता है। परन्तु इसमें प्रारब्धके बलाबलका प्रभाव पड़ता है अर्थात् प्रारब्धकी अपेक्षा अनुष्ठान प्रबल हो तो रोग मिट जाता है और अनुष्ठानकी अपेक्षा प्रारब्ध प्रबल हो तो रोग नहीं मिटता अथवा थोड़ा ही लाभ होता है।

प्रश्न—गलितकुष्ठ, प्लेग आदिसे ग्रस्त रोगियोंके सम्पर्कमें आनेसे किसीको ये रोग हो जायँ तो इसमें उसका प्रारब्ध कारण है या कुछ और?

उत्तर—जिनका प्रारब्ध कच्चा है अर्थात् प्रारब्धकर्मके अनुसार जिनको रोग होनेवाला है, उन्हींको ये रोग होते हैं, सबको नहीं। प्रारब्धसे होनेवाले रोगोंमें गलितकुष्ठ आदिके रोगियोंका सम्पर्क केवल निमित्त बन जाता है।

प्रश्न—रोगोंको मिटानेके लिये कौन-सी चिकित्सा करनी चाहिये?

उत्तर—चिकित्सा पाँच प्रकारकी होती है—मानवीय, प्राकृतिक, यौगिक, दैवी और राक्षसी। जड़ी-बूटी आदिसे बनी औषधसे जो इलाज किया जाता है, वह ‘मानवीय चिकित्सा’ है। अन्न, जल, हवा, धूप, मिट्टी आदिके द्वारा जो इलाज किया जाता है, वह ‘प्राकृतिक चिकित्सा’ है। व्यायाम, आसन, प्राणायाम, संयम, ब्रह्मचर्य आदिके द्वारा रोगोंको दूर करना ‘यौगिक चिकित्सा’ है। मन्त्र, तन्त्र आदिसे तथा आशीर्वादके द्वारा रोगोंको दूर करना ‘दैवी चिकित्सा’ है। चीड़-फाड़ (ऑपरेशन) आदिसे जो इलाज किया जाता है, वह ‘राक्षसी चिकित्सा’ है। इन सबमें शरीरके लिये, रोगोंको हटानेके लिये ‘यौगिक चिकित्सा’ ही श्रेष्ठ है; क्योंकि इसमें खर्चा नहीं है, पराधीनता भी नहीं है और आसन, प्राणायाम, संयम आदि करनेसे शरीरमें रोग भी नहीं होते।

प्रश्न—व्यायाम, आसन, प्राणायाम आदि करनेसे कौनसे रोग नहीं होते—कुपथ्यजन्य या प्रारब्धजन्य?

उत्तर—आसन, प्राणायाम, संयम, ब्रह्मचर्यपालन आदिसे कुपथ्यजन्य रोग तो होते ही नहीं और प्रारब्धजन्य रोगोंमें भी उतनी तेजी नहीं रहती, उनका शरीरपर कम प्रभाव होता है। कारण कि आसन, प्राणायाम आदि भी कर्म हैं; अत: उनका भी फल होता है।

प्रश्न—व्यायाम और आसनमें क्या भेद है?

उत्तर—व्यायामके ही दो भेद हैं—(१) कुश्तीका व्यायाम; जैसे—दण्ड-बैठक आदि और (२) आसनोंका (यौगिक) व्यायाम; जैसे—शीर्षासन, सर्वांगासन, मत्स्यासन आदि।

जो लोग कुश्तीका व्यायाम करते हैं, उनकी मांसपेशियाँ मजबूत, कठोर हो जाती हैं; और जो लोग आसनोंका व्यायाम करते हैं, उनकी मांसपेशियाँ लचकदार, नरम हो जाती हैं। दूसरी बात, जो लोग कुश्तीका व्यायाम करते हैं, उनका शरीर जवानीमें तो अच्छा रहता है, पर वृद्धावस्थामें व्यायाम न करनेसे उनके शरीरमें, सन्धियोंमें पीड़ा होने लगती है। परन्तु जो लोग आसनोंका व्यायाम करते हैं, उनका शरीर जवानीमें तो ठीक रहता ही है, वृद्धावस्थामें अगर वे आसन न करें तो भी उनके शरीरमें पीड़ा नहीं होती।** इसके सिवा आसनोंका व्यायाम करनेसे नाड़ियोंमें रक्तप्रवाह अच्छी तरहसे होता है, जिससे शरीर नीरोग रहता है। ध्यान आदि करनेमें भी आसनोंका व्यायाम बहुत सहायक होता है। अत: आसनोंका व्यायाम करना ही उचित मालूम देता है।

**वृद्धावस्थामें भी आसनोंका सूक्ष्म (हलका) व्यायाम करना चाहिये, इससे शरीरमें स्फूर्ति, हलकापन रहेगा।

प्रश्न—लोगोंका कहना है कि आसन करनेसे शरीर कृश हो जाता है, क्या यह ठीक है?

उत्तर—हाँ, ठीक है; परन्तु आसनसे शरीर कृश होनेपर भी शरीरमें निर्बलता नहीं आती। आसन करनेसे शरीर नीरोग रहता है, शरीरमें स्फूर्ति आती है, शरीरमें हलकापन रहता है। आसन न करनेसे शरीर स्थूल हो सकता है, पर स्थूल होनेसे शरीरमें भारीपन रहता है, शरीरमें शिथिलता आती है, काम करनेमें उत्साह कम होता है, चलने-फिरने आदिमें परिश्रम होता है, उठने-बैठनेमें कठिनता होती है, बिस्तरपर पड़े रहनेका मन करता है, शरीरमें रोग भी ज्यादा होते हैं। अत: शरीरकी स्थूलता इतनी श्रेष्ठ नहीं है, जितनी कृशता श्रेष्ठ है। किसीका शरीर कृश है, पर नीरोग है और किसीका शरीर स्थूल है, पर रोगी है, तो दोनोंमें शरीरका कृश होना ही अच्छा है।

प्रश्न—आसनोंका व्यायाम करना किन लोगोंके लिये ज्यादा उपयोगी है?

उत्तर—जो लोग खेतीका, परिश्रमका काम करते हैं, उनका तो स्वाभाविक ही व्यायाम होता रहता है और उनको हवा भी शुद्ध मिल जाती है; अत: उनके लिये व्यायामकी जरूरत नहीं है। परन्तु जो लोग बौद्धिक काम करते हैं; दूकान, ऑफिस आदिमें बैठे रहनेका काम करते हैं, उनके लिये आसनोंका व्यायाम करना बहुत उपयोगी होता है।

प्रश्न—व्यायाम कितना करना चाहिये?

उत्तर—कुश्तीके व्यायाममें तो दण्ड-बैठक करते-करते शरीर गिर जाय, थक जाय तो वह व्यायाम अच्छा होता है। परन्तु आसनोंके व्यायाममें ज्यादा जोर नहीं लगाना चाहिये, प्रत्युत शरीरमें कुछ परिश्रम मालूम देनेपर आसन करना बन्द कर देना चाहिये। आसनोंका व्यायाम करते समय भी बीच-बीचमें शवासन करते रहना चाहिये।

प्रश्न—व्यायाम किस जगह करना चाहिये?

उत्तर—जहाँ शुद्ध हवा हो, जंगल हो, वहाँ व्यायाम करनेसे विशेष लाभ होता है। कुश्तीके व्यायाममें तो अगर शुद्ध हवा न मिले तो भी काम चल सकता है, पर आसनोंके व्यायाममें शुद्ध हवाका होना जरूरी है। जो लोग शहरोंमें रहते हैं, वे लोग मकानकी छतपर अथवा कमरेमें हलका-सा पंखा चलाकर आसन कर सकते हैं।

प्रश्न—व्यायाम करनेवालोंको किस वस्तुका सेवन करना चाहिये?

उत्तर—कुश्तीका व्यायाम करनेवालोंको दूध, घी आदिका खूब सेवन करना चाहिये। दूध, घी आदि लेते हुए अगर उल्टी हो जाय तो भी उसकी परवाह नहीं करनी चाहिये, पर जितना पचा सकें, उतना तो लेना ही चाहिये। परन्तु आसनोंके व्यायाममें शुद्ध, सात्त्विक तथा थोड़ा आहार करना चाहिये (६। १७)।

प्रश्न—शरीरमें शक्ति कम होनेपर ज्यादा रोग होते हैं—यह बात कहाँतक ठीक है?

उत्तर—इस विषयमें दो मत हैं—आयुर्वेदका मत और धर्मशास्त्रका मत। आयुर्वेदकी दृष्टि शरीरपर ही रहती है; अत: वह ‘शरीरमें शक्ति कम होनेपर रोग ज्यादा पैदा होते हैं’—ऐसा मानता है। परन्तु धर्मशास्त्रकी दृष्टि शुभ-अशुभ-कर्मोंपर रहती है; अत: वह रोगोंके होनेमें पाप-कर्मोंको ही कारण मानता है।

जब मनुष्योंके क्रियमाण (कुपथ्यजन्य)-कर्म अथवा प्रारब्ध (पाप)-कर्म अपना फल देनेके लिये आ जाते हैं, तब कफ, वात और पित्त—ये तीनों विकृत होकर रोगोंको पैदा करनेमें हेतु बन जाते हैं और तभी भूत-प्रेत भी शरीरमें प्रविष्ट होकर रोग पैदा कर सकते हैं; कहा भी है—

वैद्या वदन्ति कफपित्तमरुद्विकारान्

ज्योतिर्विदो ग्रहगतिं परिवर्तयन्ति।

भूता विशन्तीति भूतविदो वदन्ति

प्रारब्धकर्म बलवन्मुनयो वदन्ति॥

‘रोगोंके पैदा होनेमें वैद्यलोग कफ, पित्त और वातको कारण मानते हैं, ज्योतिषीलोग ग्रहोंकी गतिको कारण मानते हैं, प्रेतविद्यावाले भूत-प्रेतोंके प्रविष्ट होनेको कारण मानते हैं; परन्तु मुनिलोग प्रारब्धकर्मको ही बलवान् (कारण) मानते हैं।’

- स्रोत : गीता दर्पण (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)