गीताके प्रत्येक अध्यायका तात्पर्य
गीताध्यायस्य निष्कर्षं ज्ञातुमिच्छन्ति ये जना:।
तै: सुखपूर्वकं ग्राह्यस्तत: सारोऽत्र लिख्यते॥
पहला अध्याय
मोहके कारण ही मनुष्य ‘मैं क्या करूँ और क्या नहीं करूँ’—इस दुविधामें फँसकर कर्तव्यच्युत हो जाता है। अगर वह मोहके वशीभूत न हो तो वह कर्तव्यच्युत नहीं हो सकता।
भगवान्, धर्म, परलोक आदिपर श्रद्धा रखनेवाले मनुष्योंके भीतर प्राय: इन बातोंको लेकर हलचल, दुविधा रहती है कि अगर हम कर्तव्यरूपसे प्राप्त कर्मको नहीं करेंगे तो हमारा पतन हो जायगा; अगर हम केवल सांसारिक कार्यमें ही लग जायँगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; व्यवहारमें लगनेसे परमार्थ ठीक नहीं होगा और परमार्थमें लगनेसे व्यवहार ठीक नहीं होगा; अगर हम कुटुम्बको छोड़ देंगे तो हमें पाप लगेगा और अगर कुटुम्बमें ही बैठे रहेंगे तो हमारी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होगी; आदि-आदि। तात्पर्य है कि अपना कल्याण तो चाहते हैं, पर मोह, सुखासक्तिके कारण संसार छूटता नहीं। इसी तरहकी हलचल अर्जुनके मनमें भी होती है कि अगर मैं युद्ध करूँगा तो कुलका नाश होनेसे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी और अगर मैं युद्ध नहीं करूँगा तो कर्तव्यच्युत होनेसे मेरे कल्याणमें बाधा लगेगी।
दूसरा अध्याय
अपने विवेकको महत्त्व देना और अपने कर्तव्यका पालन करना—इन दोनों उपायोंमेंसे किसी भी एक उपायको मनुष्य दृढ़तासे काममें लाये तो शोक-चिन्ता मिट जाते हैं।
जितने शरीर दीखते हैं, वे सभी नष्ट होनेवाले हैं, मरनेवाले हैं, पर उनमें रहनेवाला कभी मरता नहीं। जैसे शरीर बाल्यावस्थाको छोड़कर युवावस्थाको और युवावस्थाको छोड़कर वृद्धावस्थाको धारण कर लेता है, ऐसे ही शरीरमें रहनेवाला एक शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरको धारण कर लेता है। मनुष्य जैसे पुराने वस्त्रोंको छोड़कर नये वस्त्रोंको पहन लेता है, ऐसे ही शरीरमें रहनेवाला शरीररूपी एक चोलेको छोड़कर दूसरा चोला पहन लेता है। जितनी अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं, वे पहले नहीं थीं और पीछे भी नहीं रहेंगी तथा बीचमें भी उनसे प्रतिक्षण वियोग हो रहा है। तात्पर्य है कि वे परिस्थितियाँ आने-जानेवाली हैं, सदा रहनेवाली नहीं हैं। इस प्रकार स्पष्ट विवेक हो जाय तो हलचल, शोक-चिन्ता नहीं रह सकती। शास्त्रकी आज्ञाके अनुसार जो कर्तव्य-कर्म प्राप्त हो जाय, उसका पालन कार्यकी पूर्ति-अपूर्ति और फलकी प्राप्ति-अप्राप्तिमें सम (निर्विकार) रहकर किया जाय तो भी हलचल नहीं रह सकती।
तीसरा अध्याय
इस मनुष्यलोकमें सभीको निष्कामभावपूर्वक अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करना चाहिये, चाहे वह ज्ञानी हो या अज्ञानी हो, चाहे वह भगवान्का अवतार ही क्यों न हो! कारण कि सृष्टिचक्र अपने-अपने कर्तव्यका पालन करनेसे ही चलता है।
मनुष्य न तो कर्मोंका आरम्भ किये बिना सिद्धिको प्राप्त होता है और न कर्मोंके त्यागसे सिद्धिको प्राप्त होता है। ब्रह्माजीने सृष्टि-रचनाके समय प्रजासे कहा कि तुम लोग अपने-अपने कर्तव्य-कर्मके द्वारा एक-दूसरेकी सहायता करो, एक-दूसरेको उन्नत करो तो तुमलोग परमश्रेयको प्राप्त हो जाओगे। जो सृष्टिचक्रकी मर्यादाके अनुसार अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, उसका इस संसारमें जीना व्यर्थ है। यद्यपि मनुष्यरूपमें अवतरित भगवान्के लिये इस त्रिलोकीमें कोई कर्तव्य नहीं है, फिर भी वे लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करते हैं। ज्ञानी महापुरुषको भी लोकसंग्रहके लिये अपने कर्तव्यका तत्परतासे पालन करना चाहिये। अपने कर्तव्यका निष्कामभावपूर्वक पालन करते हुए मनुष्य मर भी जाय, तो भी उसका कल्याण है।
चौथा अध्याय
सम्पूर्ण कर्मोंको लीन करनेके, सम्पूर्ण कर्मोंके बन्धनसे रहित होनेके दो उपाय हैं—कर्मोंके तत्त्वको जानना और तत्त्वज्ञानको प्राप्त करना।
भगवान् सृष्टिकी रचना तो करते हैं, पर उस कर्ममें और उसके फलमें कर्तृत्वाभिमान एवं आसक्ति न होनेसे वे बँधते नहीं। कर्म करते हुए जो मनुष्य कर्मफलकी आसक्ति, कामना, ममता आदि नहीं रखते अर्थात् कर्मफलसे सर्वथा निर्लिप्त रहते हैं और निर्लिप्त रहते हुए कर्म करते हैं, वे सम्पूर्ण कर्मोंको काट देते हैं। जिसके सम्पूर्ण कर्म संकल्प और कामनासे रहित होते हैं, उसके सम्पूर्ण कर्म जल जाते हैं। जो कर्म और कर्मफलकी आसक्ति नहीं रखता, वह कर्मोंमें सांगोपांग प्रवृत्त होता हुआ भी कर्मोंसे नहीं बँधता। जो केवल शरीर-निर्वाहके लिये ही कर्म करता है तथा जो कर्मोंकी सिद्धि-असिद्धिमें सम रहता है, वह कर्म करके भी नहीं बँधता। जो केवल कर्तव्य परम्परा सुरक्षित रखनेके लिये ही कर्म करता है, उसके सम्पूर्ण कर्म लीन हो जाते हैं। इस तरह कर्मोंके तत्त्वको ठीक तरहसे जाननेसे मनुष्य कर्म-बन्धनसे रहित हो जाता है।
जड़तासे सर्वथा सम्बन्ध-विच्छेद हो जाना ही तत्त्वज्ञान है। यह तत्त्वज्ञान पदार्थोंसे होनेवाले यज्ञोंसे श्रेष्ठ है। इस तत्त्वज्ञानमें सम्पूर्ण कर्म समाप्त हो जाते हैं। तत्त्वज्ञानके प्राप्त होनेपर फिर कभी मोह नहीं होता। पापी-से-पापी मनुष्य भी ज्ञानसे सम्पूर्ण पापोंको तर जाता है। जैसे अग्नि सम्पूर्ण ईंधनको जला देती है, ऐसे ही ज्ञानरूपी अग्नि सम्पूर्ण कर्मोंको भस्म कर देती है।
पाँचवाँ अध्याय
मनुष्यको अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर सुखी-दु:खी, राजी-नाराज नहीं होना चाहिये; क्योंकि इन सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंमें फँसा हुआ मनुष्य संसारसे ऊँचा नहीं उठ सकता।
स्त्री, पुत्र, परिवार, धन-सम्पत्तिका केवल स्वरूपसे त्याग करनेवाला संन्यासी नहीं है, प्रत्युत जो अपने कर्तव्यका पालन करते हुए राग-द्वेष नहीं करता, वही सच्चा संन्यासी है। जो अनुकूल परिस्थितिके आनेपर हर्षित नहीं होता और प्रतिकूल परिस्थितिके आनेपर उद्विग्न नहीं होता, ऐसा वह द्वन्द्वोंसे रहित मनुष्यपरमात्मामें ही स्थित रहता है। सांसारिक सुख-दु:ख, अनुकूलता-प्रतिकूलता आदि द्वन्द्व दु:खोंके ही कारण हैं। अत: बुद्धिमान् मनुष्यको उनमें नहीं फँसना चाहिये।
छठा अध्याय
किसी भी साधनसे अन्त:करणमें समता आनी चाहिये; क्योंकि समताके बिना मनुष्य अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, मान-अपमानमें सम (निर्विकार) नहीं रह सकता और अगर वह परमात्माका ध्यान करना चाहे तो ध्यान भी नहीं कर सकता। तात्पर्य है कि अन्त:करणमें समता आये बिना सुख-दु:ख आदि द्वन्द्वोंका असर नहीं मिटेगा और मन भी ध्यानमें नहीं लगेगा।
जो मनुष्य प्रारब्धके अनुसार प्राप्त अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंमें, वर्तमानमें किये जानेवाले कर्मोंकी पूर्ति-अपूर्तिमें, सिद्धि-असिद्धिमें, दूसरोंके द्वारा किये गये मान-अपमानमें, धन-सम्पत्ति आदिमें, अच्छे-बुरे मनुष्योंमें सम रहता है, वह श्रेष्ठ है। जो साध्यरूप समताका उद्देश्य रखकर मन-इन्द्रियोंके संयमपूर्वक परमात्माका ध्यान करता है, उसकी सम्पूर्ण प्राणियोंमें और उनके सुख-दु:खमें समबुद्धि हो जाती है। समता प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाला मनुष्य वेदोंमें कहे हुए सकाम कर्मोंका अतिक्रमण कर जाता है। समतावाला मनुष्य सकामभाववाले तपस्वी, ज्ञानी और कर्मी मनुष्योंसे श्रेष्ठ है।
सातवाँ अध्याय
सब कुछ वासुदेव ही है, भगवद्रूप ही है—इसका मनुष्यको अनुभव कर लेना चाहिये।
सूतके मणियोंसे बनी हुई मालामें सूतकी तरह भगवान् ही सब संसारमें ओत-प्रोत हैं। पृथ्वी, जल, तेज आदि तत्त्वोंमें; चन्द्र, सूर्य आदि रूपोंमें; सात्त्विक, राजस और तामस भाव, क्रिया आदिमें भगवान् ही परिपूर्ण हैं। ब्रह्म, जीव, क्रिया, संसार, ब्रह्मा और विष्णुरूपसे भगवान् ही हैं। इस तरह तत्त्वसे सब कुछ भगवान्-ही-भगवान् हैं।
आठवाँ अध्याय
अन्तकालीन चिन्तनके अनुसार ही जीवकी गति होती है, इसलिये मनुष्यको हरदम सावधान रहना चाहिये, जिससे अन्तकालमें भगवत्स्मृति बनी रहे।
अन्त समयमें शरीर छूटते समय मनुष्य जिस वस्तु, व्यक्ति आदिका चिन्तन करता है, उसीके अनुसार उसको आगेका शरीर मिलता है। जो अन्त समयमें भगवान्का चिन्तन करता हुआ शरीर छोड़ता है, वह भगवान्को ही प्राप्त होता है। उसका फिर जन्म-मरण नहीं होता। अत: मनुष्यको सब समयमें, सभी अवस्थाओंमें और शास्त्रविहित सब काम करते हुए भगवान्को याद रखना चाहिये, जिससे अन्त समयमें भगवान् ही याद आयें। जीवनभर रागपूर्वक जो कुछ किया जाता है, प्राय: वही अन्त समयमें याद आता है।
नवाँ अध्याय
सभी मनुष्य भगवत्प्राप्तिके अधिकारी हैं, चाहे वे किसी भी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, देश, वेश आदिके क्यों न हों। वे सभी भगवान्की तरफ चल सकते हैं, भगवान्का आश्रय लेकर भगवान्को प्राप्त कर सकते हैं।
भगवान्को इस बातका दु:ख है, खेद है, पश्चात्ताप है कि ये जीव मनुष्य शरीर पाकर, मेरी प्राप्तिका अधिकार पाकर भी मेरेको प्राप्त न करके, मेरे पास न आकर मौत (जन्म-मरण)-में जा रहे हैं। मेरेसे विमुख होकर कोई तो मेरी अवहेलना करके, कोई आसुरी-सम्पत्तिका आश्रय लेकर और कोई सकामभावसे यज्ञ आदिका अनुष्ठान करके जन्म-मरणके चक्करमें जा रहे हैं। वे पापी-से-पापी हों, किसी नीच योनिमें पैदा हुए हों और किसी भी वर्ण, आश्रम, देश, वेश आदिके हों, वे सभी मेरा आश्रय लेकर मेरी प्राप्ति कर सकते हैं। अत: इस मनुष्य शरीरको पाकर जीवको मेरा भजन करना चाहिये।
दसवाँ अध्याय
मनुष्यके पास चिन्तन करनेकी जो शक्ति है, उसको भगवान्के चिन्तनमें ही लगाना चाहिये।
संसारमें जिस-किसीमें, जहाँ-कहीं विलक्षणता, विशेषता, महत्ता, अलौकिकता, सुन्दरता आदि दीखती है, उसमें मन खिंचता है, वह विलक्षणता आदि सब वास्तवमें भगवान्की ही है। अत: वहाँ भगवान्का ही चिन्तन होना चाहिये, उस वस्तु, व्यक्ति आदिका नहीं। यही विभूतियोंके वर्णनका तात्पर्य है।
ग्यारहवाँ अध्याय
अर्जुनने भगवान्की कृपासे जिस दिव्य विश्वरूपके दर्शन किये, उसको तो हरेक मनुष्य नहीं देख सकता; परन्तु आदि-अवताररूपसे प्रकट हुए इस संसारको श्रद्धापूर्वक भगवान्का रूप मानकर तो हरेक मनुष्य विश्वरूपके दर्शन कर सकता है।
अर्जुनने विश्वरूप दिखानेके लिये भगवान्से नम्रतापूर्वक प्रार्थना की तो भगवान्ने दिव्य नेत्र प्रदान करके अर्जुनको अपना दिव्य विश्वरूप दिखा दिया। उसमें अर्जुनने भगवान्के अनेक मुख, नेत्र, हाथ आदि देखे; ब्रह्मा, विष्णु और शंकरको देखा; देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों, सर्पों आदिको देखा। उन्होंने विश्वरूपके सौम्य, उग्र, अत्युग्र आदि कई स्तर देखे। इस दिव्य विश्वरूपको हम सब नहीं देख सकते, पर नेत्रोंसे दीखनेवाले इस संसारको भगवान्का स्वरूप मानकर अपना उद्धार तो हम कर ही सकते हैं। कारण कि यह संसार भगवान्से ही प्रकट हुआ है, भगवान् ही सब कुछ बने हुए हैं।
बारहवाँ अध्याय
भक्त भगवान्का अत्यन्त प्यारा होता है; क्योंकि वह शरीर-इन्द्रियाँ-मन-बुद्धिसहित अपने-आपको भगवान्के अर्पण कर देता है।
जो परम श्रद्धापूर्वक अपने मनको भगवान्में लगाते हैं, वे भक्त सर्वश्रेष्ठ हैं। भगवान्के परायण हुए जो भक्त सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करके अनन्यभावसे भगवान्की उपासना करते हैं, भगवान् स्वयं उनका संसार-सागरसे शीघ्र उद्धार करनेवाले बन जाते हैं। जो अपने मन-बुद्धिको भगवान्में लगा देता है, वह भगवान्में ही निवास करता है। जिनका प्राणिमात्रके साथ मित्रता एवं करुणाका बर्ताव है, जो अहंता-ममतासे रहित हैं, जिनसे कोई भी प्राणी उद्विग्न नहीं होता तथा जो स्वयं किसी प्राणीसे उद्विग्न नहीं होते, जो नये कर्मोंके आरम्भोंके त्यागी हैं, जो अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियोंके आनेपर हर्षित एवं उद्विग्न नहीं होते, जो मान-अपमान आदिमें सम रहते हैं, जो जिस-किसी भी परिस्थितिमें निरन्तर सन्तुष्ट रहते हैं, वे भक्त भगवान्को प्यारे हैं। अगर मनुष्य भगवान्के ही होकर रहें, भगवान्में ही अपनापन रखें, तो सभी भगवान्के प्यारे बन सकते हैं।
तेरहवाँ अध्याय
संसारमें एक परमात्मतत्त्व ही जाननेयोग्य है। उसको जरूर जान लेना चाहिये। उसको तत्त्वसे जाननेपर जाननेवालेकी परमात्मतत्त्वके साथ अभिन्नता हो जाती है।
जिस परमात्माको जाननेसे अमरताकी प्राप्ति हो जाती है, उस परमात्माके हाथ, पैर, सिर, नेत्र, कान सब जगह हैं। वह सम्पूर्ण इन्द्रियोंसे रहित होनेपर भी सम्पूर्ण विषयोंको प्रकाशित करता है, सम्पूर्ण गुणोंसे रहित होनेपर भी सम्पूर्ण गुणोंका भोक्ता है और आसक्तिरहित होनेपर भी सबका पालन-पोषण करता है। वह सम्पूर्ण प्राणियोंके बाहर भी है और भीतर भी है तथा चर-अचर प्राणियोंके रूपमें भी वही है। सम्पूर्ण प्राणियोंमें विभक्त रहता हुआ भी वह विभागरहित है। वह सम्पूर्ण ज्ञानोंका प्रकाशक है। वह सम्पूर्ण विषम प्राणियोंमें सम रहता है, गतिशील प्राणियोंमें गतिरहित रहता है, नष्ट होते हुए प्राणियोंमें अविनाशी रहता है। इस तरह परमात्माको यथार्थ जान लेनेपर परमात्माको प्राप्त हो जाता है।
चौदहवाँ अध्याय
सम्पूर्ण संसार त्रिगुणात्मक है। इससे अतीत होनेके लिये गुणोंको और उनकी वृत्तियोंको जरूर जानना चाहिये।
प्रकृतिसे उत्पन्न सत्त्व, रज और तम—ये तीनों गुण शरीर-संसारमें आसक्ति, ममता आदि करके जीवात्माको बाँध देते हैं। सत्त्वगुण सुख और ज्ञानकी आसक्तिसे, रजोगुण कर्मोंकी आसक्तिसे और तमोगुण प्रमाद, आलस्य एवं निद्रासे मनुष्यको बन्धनमें डालता है। रजोगुण और तमोगुणको दबाकर जब सत्त्वगुण बढ़ता है, तब अन्त:करणमें रज-तमके विरुद्ध प्रकाश हो जाता है। सत्त्वगुण और तमोगुणको दबाकर जब रजोगुण बढ़ता है, तब अन्त:करणमें लोभ; क्रियाशीलता आदि सत्त्व-तमके विरुद्ध वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं। सत्त्वगुण और रजोगुणको दबाकर जब तमोगुण बढ़ता है, तब अन्त:करणमें अविवेक, कर्म करनेमें अरुचि, प्रमाद, मोह आदि सत्त्व-रजके विरुद्ध वृत्तियाँ बढ़ जाती हैं। इन गुणोंकी वृत्तियोंके बढ़नेपर मरनेवाला प्राणी क्रमश: ऊँचे, मध्य और नीचेके लोकोंमें जाता है। परन्तु जो इन गुणोंके सिवाय अन्यको कर्ता नहीं मानता अर्थात् सम्पूर्ण क्रियाएँ गुणोंमें ही हो रही हैं, स्वयंमें नहीं—ऐसा अनुभव करता है, वह गुणोंसे अतीत होकर भगवद्भावको प्राप्त हो जाता है। अनन्यभक्तिसे भी मनुष्य गुणोंसे अतीत हो जाता है।
पन्द्रहवाँ अध्याय
इस संसारका मूल आधार और इस संसारमें अत्यन्त श्रेष्ठ परमपुरुष एक परमात्मा ही है—इसको दृढ़तापूर्वक मान लेनेसे मनुष्य सर्ववित् हो जाता है, कृतकृत्य हो जाता है।
जिससे यह संसार अनादिकालसे चला आ रहा है और जिसको प्राप्त होनेपर यह जीव फिर लौटकर संसारमें नहीं आता, उस परमात्माकी खोज करनी चाहिये। ज्ञान-नेत्रवाले साधक अपने-आपमें उस परमात्माका अनुभव कर लेते हैं। वह परमात्मा ही सूर्य, चन्द्रमा और अग्निमें तेजरूपसे रहकर संसारमें प्रकाश करता है। वही पृथ्वीमें प्रवेश करके पृथ्वीको धारण करता है। वही रसमय चन्द्रमा होकर पेड़, पौधे, लता आदिको पुष्ट करता है। वही जठराग्नि बनकर प्राणियोंके द्वारा खाये गये अन्नको पचाता है। वही सबके हृदयमें रहनेवाला, वेदोंको बनानेवाला, वेदोंको जाननेवाला और वेदोंके द्वारा जाननेयोग्य है। वह सम्पूर्ण संसारका पालन-पोषण करता है। वह नाशवान् संसारसे अतीत और अविनाशी जीवात्मासे उत्तम है। वही लोकमें और वेदमें पुरुषोत्तम नामसे प्रसिद्ध है। उसको सर्वश्रेष्ठ मानकर अनन्यभावसे उसका भजन करना चाहिये।
सोलहवाँ अध्याय
दुर्गुण-दुराचारोंसे ही मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाता है। अत: मनुष्यको सद्गुण-सदाचारोंको धारण करके संसारके बन्धनसे, जन्म-मरणके चक्करसे रहित हो जाना चाहिये।
जो दम्भ, दर्प, अभिमान, काम, क्रोध, लोभ आदि आसुरी-सम्पत्तिके गुणोंका त्याग करके अभय, अहिंसा, सत्य, अक्रोध, दया, यज्ञ, दान, तप आदि दैवी-सम्पत्तिके गुणोंको धारण करते हैं, वे संसारके बन्धनसे रहित हो जाते हैं। परन्तु जो केवल दुर्गुण-दुराचारोंका, काम, क्रोध, लोभ, चिन्ता, अहंकार आदिका आश्रय रखते हैं, उनमें ही रचे-पचे रहते हैं, ऐसे वे आसुरी-सम्पदावाले मनुष्य चौरासी लाख योनियों एवं नरकोंमें जाते हैं।
सत्रहवाँ अध्याय
शास्त्रविधिको जाननेवाले अथवा न जाननेवाले मनुष्योंको चाहिये कि वे श्रद्धापूर्वक जो कुछ शुभ कार्य करते हैं, उस कार्यको भगवान्को याद करके, भगवन्नामका उच्चारण करके आरम्भ करें।
जो शास्त्रविधिको तो नहीं जानते, पर श्रद्धापूर्वक यजन-पूजन करते हैं, उनकी श्रद्धा (निष्ठा, स्थिति) तीन प्रकारकी होती है—सात्त्विकी, राजसी और तामसी। श्रद्धाके अनुसार ही उनके द्वारा पूजे जानेवाले देवता भी तीन तरहके होते हैं। जो यजन-पूजन नहीं करते, उनकी श्रद्धाकी पहचान आहारसे हो जाती है, क्योंकि आहार (भोजन) तो सभी करते ही हैं।
अठारहवाँ अध्याय
मनुष्यमात्रके उद्धारके लिये उनकी रुचि, योग्यता और श्रद्धाके अनुसार तीन साधन बताये गये हैं—कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग (शरणागति)। इनमेंसे किसी भी एक साधनमें मनुष्य लग जाय तो उसका उद्धार हो जाता है।
जो मनुष्य यज्ञ, तप और दान तथा नियत कर्तव्य-कर्मोंको आसक्ति और फलेच्छाका त्याग करके करता है एवं जो कुशल-अकुशल कर्मोंमें राग-द्वेष नहीं करता, वही वास्तवमें त्यागी है। नियत कर्मोंको करते हुए भी उसको पाप नहीं लगता और उसको कहीं भी कर्म-फल प्राप्त नहीं होता। उसके सम्पूर्ण संशय-सन्देह मिट जाते हैं और वह अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है। यह कर्मयोग है।
जो मनुष्य सात्त्विक ज्ञान, कर्म, बुद्धि, धृति और सुखको धारण करके कर्तृत्व-भोक्तृत्वसे रहित हो जाता है, वह अगर सम्पूर्ण प्राणियोंको मार दे, तो भी उसको पाप नहीं लगता। अपने स्वरूपमें स्थित होनेपर उसको पराभक्तिकी प्राप्ति हो जाती है और उससे वह परमात्म-तत्त्वको यथार्थ जानकर उसमें प्रविष्ट हो जाता है। यह ज्ञानयोग है।
मनुष्य भगवान्का आश्रय लेकर सम्पूर्ण कर्तव्य-कर्मोंको सदा सांगोपांग करता हुआ भी भगवत्कृपासे अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है। जो मनुष्य भगवान्के परायण होकर सम्पूर्ण कर्मोंको भगवान्के अर्पण करता है, वह भगवत्कृपासे सम्पूर्ण विघ्न-बाधाओंसे तर जाता है। जो अपने सहित शरीर-मन-इन्द्रियोंको भगवान्में ही लगा देता है, वह भगवान्को ही प्राप्त होता है। जो सम्पूर्ण धर्मोंके आश्रयका त्याग करके अनन्यभावसे केवल भगवान्के ही शरण हो जाता है, उसको भगवान् सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर देते हैं। यह भक्तियोग है।