गीतोक्त संन्यास या सांख्ययोग
एक सज्जनका प्रश्न है कि—
‘‘गीतामें वर्णन किये हुए संन्यासका स्वरूप क्या है?’’
गीताका मर्म बतलाना बड़ा कठिन कार्य है। गीता ऐसा गहन ग्रन्थ है कि इसपर अबतक अनेक बड़े-बड़े विद्वान् साधु-महात्माओंने अपनी बुद्धिका उपयोग किया है और अपने-अपने विचार प्रकट किये हैं, इतना होते हुए भी इस गीता-शास्त्रके अंदर गोता लगानेवालोंको इसमें नये-नये अमूल्य रत्न मिलते ही चले जा रहे हैं, ऐसे शास्त्रका रहस्य क्या बतलाया जाय? यद्यपि गीता-शास्त्रपर विवेचन करना मेरी बुद्धिसे बाहरकी बात है तथापि मैं अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार अपने मनमें समझे हुए साधारण भावोंको आपलोगोंकी सेवामें उपस्थित करता हूँ। मेरा उद्देश्य किसी वर्ण, आश्रम, सम्प्रदाय, मत या किसी टीकाकारपर कुछ भी आक्षेप करना नहीं है। केवल मनके भावोंको बतला देनामात्र ही मेरा उद्देश्य है।
गीतोक्त संन्यासके सम्बन्धमें बड़ा मतभेद है—
(१) एक पक्ष कहता है कि गीतामें संन्यास और कर्मयोग नामक दो निष्ठाओंका वर्णन है, जिनमें केवल संन्यास ही मुक्तिका प्रधान और प्रत्यक्ष हेतु है और वह संन्यास ‘सम्यक् ज्ञानपूर्वक सम्पूर्ण कर्मोंको स्वरूपसे त्याग करना है’ अर्थात् शास्त्रोक्त संन्यासाश्रमका ग्रहण करना है।
(२) दूसरा पक्ष कहता है कि यद्यपि शास्त्रोक्त संन्यासाश्रम अर्थात् ज्ञानपूर्वक सम्पूर्ण कर्मोंके स्वरूपसे त्यागसे भी भगवत्-प्राप्ति हो सकती है परन्तु गीतामें इसका प्रतिपादन नहीं है, यदि कहीं है तो वह अत्यन्त गौणरूपसे है। गीता तो केवल एकमात्र निष्काम कर्मयोगका ही प्रतिपादन करती है एवं गीतामें आये हुए संन्यास शब्दका समावेश भी प्राय: निष्काम कर्मयोगमें ही है।
(३) एक तीसरा पक्ष है जो कर्मोंके स्वरूपसे त्याग किये जानेवाले शास्त्रोक्त संन्यास-आश्रमको मानता हुआ भी गीतामें कथित सांख्य और कर्मयोग नामक दोनों भिन्न-भिन्न निष्ठाओंको भगवत्-प्राप्तिके दो सर्वथा स्वतन्त्र साधन समझता है और सांख्य या संन्यास शब्दसे संन्यास-आश्रम नहीं समझता। परन्तु सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मामें एकीभावसे स्थित रहनेको ही संन्यास कहता है।
गौणरूपसे और भी कितने ही पक्ष हैं परन्तु उन सबका समावेश प्राय: उपर्युक्त तीन पक्षोंके अन्तर्गत हो जाता है। अब इस बातपर विचार करना है कि इनमेंसे कौन-सा पक्ष अधिक युक्तियुक्त और हृदयग्राही है। इसपर क्रमश: विचार किया जाता है।
(१) पहले पक्षके सिद्धान्तानुसार यदि संन्यासको ही मुक्तिका एकमात्र हेतु मान लेते हैं तो गीतामें जहाँपर भगवान् ने कहा है—
‘यत्सांख्यै: प्राप्यते स्थानं तद्योगैरपि गम्यते।’
(५।५)
‘जो स्थान ज्ञानयोगियोंद्वारा प्राप्त किया जाता है वही निष्काम कर्मयोगियोंद्वारा भी प्राप्त किया जाता है’ इन वाक्योंका कोई मूल्य नहीं रहता। यहाँ भगवान् ने स्पष्टरूपसे सांख्ययोगके समान ही निष्काम कर्मयोगको भी स्वतन्त्र साधन स्वीकार किया है।
इसके सिवा इसी अध्यायके द्वितीय श्लोकमें संन्यास और कर्मयोग दोनोंको परम कल्याण करनेवाले कहा है और कर्मयोगको संन्यासकी अपेक्षा उत्तम बतलाया है, इस अवस्थामें यह कैसे माना जा सकता है कि निष्काम कर्मयोग मुक्तिका स्वतन्त्र साधन नहीं है? अवश्य ही दोनों साधनोंके स्वरूपमें बड़ा भारी अन्तर है और दोनोंके अधिकारी भी दो प्रकारके साधक होते हैं, एक साथ दोनों साधनोंका प्रयोग नहीं किया जा सकता। भिन्न-भिन्न समयपर दोनों साधनोंका प्रयोग एक साधक भी कर सकता है, इससे यह तो सिद्ध हो गया कि दोनों ही साधन मोक्षके भिन्न-भिन्न मार्ग हैं, अब विचारना यह है कि यहाँ संन्यास शब्दसे शास्त्रोक्त संन्यास-आश्रम विवक्षित है या और कुछ? अर्जुनके इस प्रश्नसे कि—
संन्यासं कर्मणां कृष्ण पुनर्योगं च शंससि।
यच्छ्रेय एतयोरेकं तन्मे ब्रूहि सुनिश्चितम्॥
(गीता ५।१)
‘हे कृष्ण! आप कर्मोंके संन्यासकी और कर्मयोगकी भी प्रशंसा करते हैं इसलिये इन दोनोंमें जो एक निश्चित कल्याणकारक साधन हो उसको मुझे बतलाइये।’ यदि यह मान लिया जाय कि गीतामें संन्यास शब्दसे शास्त्रोक्त संन्यास-आश्रम या नियत कर्मोंका स्वरूपसे त्याग विवक्षित है तो यह बात युक्तियुक्त नहीं जँचती; क्योंकि इसके पहले भगवान् ने ऐसे किसी आश्रमविशेषकी या कर्मोंके स्वरूपसे त्याग करनेकी कहीं प्रशंसा नहीं की है, जिसके आधारपर अर्जुनके प्रश्नका यह अभिप्राय माना जा सके। भगवान् ने तो इससे पहले स्थान-स्थानपर ज्ञानकी और वैराग्यादि सात्त्विक भावोंकी एवं शरीर, इन्द्रिय और मनद्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें कर्तृत्व-अभिमानके त्यागकी ही प्रशंसा की है, इतना ही नहीं, इसके साथ-ही-साथ ज्ञानीके शरीरद्वारा नियतकर्म किये जानेकी भी आवश्यकता दिखलायी है (अ० ३। २०—२३, २५—२७,२९,३३; अ०४।१५)।
सम्यक् ज्ञानपूर्वक संन्यास-आश्रमसे सुगमताके साथ मुक्ति होती है इसमें कोई सन्देह नहीं परन्तु मेरी समझमें उस मुक्तिमें संन्यास-आश्रम हेतु नहीं, उसमें हेतु है सम्यक् ज्ञान जो सभी वर्ण और आश्रमोंमें उपलब्ध हो सकता है (गीता ६।१-२)।
इसके सिवा यह भी गीतामें निर्विवाद सिद्ध है कि सम्पूर्ण कर्मोंका सर्वथा स्वरूपसे त्याग कभी हो भी नहीं सकता।
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै:॥
(गीता ३। ५)
यदि कोई कुछ त्याग भी करे तो गीताने उसे तामसी त्याग माना है।
नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोपपद्यते।
मोहात्तस्य परित्यागस्तामस: परिकीर्तित:॥
(१८।७)
और केवल उस स्वरूपसे बाहरी कर्मोंके त्यागसे सिद्धिकी प्राप्ति भी नहीं बतलायी।
न च संन्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति॥
(३।४)
बल्कि इसीके अगले श्लोकमें वाणी और इन्द्रियोंसे भी हठपूर्वक कर्म न कर मनसे विषयचिन्तनकी निन्दा की है और उसे मिथ्याचार बतलाया है (अ०३।६)। आगे चलकर वशमें की हुई इन्द्रियोंसे अनासक्त होकर कर्मयोगके आचरण करनेवालेको श्रेष्ठ बतलाया है (अ०३।७)।
ऐसी अवस्थामें बाहरी कर्मोंके स्वरूपसे त्यागको ही संन्यास मान लेनेपर उसमें मुक्तिकी सम्भावना नहीं रहती और यदि मुक्ति नहीं होती तो भगवान् नेजो पाँचवें अध्यायमें कहा है—
संन्यास: कर्मयोगश्च नि:श्रेयसकरावुभौ।
(५।२)
‘कर्मोंका संन्यास और निष्काम कर्मयोग यह दोनों ही परम कल्याणप्रद हैं’ इस सिद्धान्तमें बाधा आती है। क्योंकि केवल बाहरी कर्मोंका स्वरूपसे त्यागी तो उपर्युक्त सिद्धान्तके अनुसार तामस त्यागी कहा गया है।
यहाँका यह ‘नि:श्रेयस’ और तीसरे अध्यायके चतुर्थ श्लोकका ‘सिद्धिम्’ शब्द दोनों ही कल्याणवाची हैं। यदि उस सिद्धिको मुक्तिका वाचक न मानकर नीची अवस्थाका मानते हैं तो केवल कर्मत्यागसे कल्याण न होनेका पक्ष और भी पुष्ट होता है; जब नीची श्रेणीकी सिद्धि ही कर्मत्यागसे नहीं मिलती, तब मोक्षरूप परम सिद्धि तो कैसे मिल सकती है? इन सब बातोंका विचार करनेसे यही प्रतीत होता है कि गीतामें संन्यास शब्द ज्ञानयोगका वाचक है और इसका सम्बन्ध अन्त:करणके भावोंसे ही है किसी बाहरी अवस्थाविशेषसे नहीं। न किसी वर्ण या आश्रमसे ही इसका सम्बन्ध सिद्ध होता है, यह तो भगवत्-प्राप्तिका एक परम साधन है, जो सभी वर्ण और सभी आश्रमोंमें काममें लाया जा सकता है।
लोगोंकी यह मान्यता है कि सांख्यनिष्ठाका अधिकार केवल संन्यास-आश्रममें ही है, किन्तु यह मान्यता ठीक नहीं मालूम होती। यदि ऐसा होता तो भगवान् के द्वारा दिये हुए सांख्यनिष्ठाके विस्तृत उपदेशमें जो गीताके द्वितीय अध्यायमें श्लोक ११ से ३० तक है, युद्धके लिये अर्जुनको उत्साहित नहीं किया जाता (देखो गीता २।१८)। तथा अष्टादश अध्यायमें जब त्याग और संन्यासका स्वरूप जाननेकी जिज्ञासासे अर्जुनने भगवाने से स्पष्टरूपसे प्रश्न किया तब भगवान् ने पहले त्यागका स्वरूप ‘फलासक्ति-त्याग’ बतलाकर (देखो अ० १८ श्लोक ९ से ११) फिर सांख्य यानी संन्यासका सिद्धान्त सुननेके लिये अर्जुनको आज्ञा देते हुए आगे चलकर यह स्पष्ट कहा है कि पाँच कारणोंसे होनेवाले प्राकृतिक कर्मोंमें जो अशुद्ध बुद्धि होनेके कारण केवल (शुद्ध) आत्माको कर्ता मानता है वह दुर्मति आत्मस्वरूपको यथार्थ नहीं देखता यानी कर्तापनका अहंकार रखनेवाला सांख्ययोगी नहीं है। सांख्ययोगी वही है—
यस्य नाहंकृतो भावो बुद्धिर्यस्य न लिप्यते।
(१८।१७)
‘जिसके ‘मैं कर्ता हूँ’ ऐसा भाव नहीं रहता और जिसकी बुद्धि सांसारिक पदार्थोंमें और कर्मोंमें कभी लिप्त नहीं होती’ अतएव अहंकारका त्याग ही संन्यास है। स्वरूपसे कर्मोंके त्यागको भगवान् संन्यास मानते तो मनसे त्याग करनेकी बात नहीं कहते (देखो अ०५।१३)।
इससे यह सिद्ध होता है कि सांख्य अथवा संन्यास कर्मोंके स्वरूपसे त्यागका नाम नहीं है और संन्यासके समान ही निष्काम कर्मयोग भी मुक्तिका प्रत्यक्ष हेतु है।
(२) द्वितीय पक्षके अनुसार यदि यह माना जाय कि गीतामें केवल निष्काम कर्मयोगका ही वर्णन है और संन्यास शब्दका भी समावेश इसीमें होता है तो यह बात भी ठीक नहीं जँचती; क्योंकि अर्जुनकी शंकाओंका निराकरण करते हुए भगवान् ने दोनों निष्ठाओंका अधिकारी-भेदसे स्वतन्त्र वर्णन किया है।
लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ।
ज्ञानयोगेन सांख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्॥
(गीता ३।३)
दूसरे अध्यायमें तो इन दोनों निष्ठाओंका सविभाग पृथक्-पृथक् वर्णन है। सांख्ययोगका वर्णन कर चुकनेके बाद भगवान् ने कहा है—
एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।
(गीता २। ३९)
‘यह बुद्धि तेरे लिये ज्ञानयोगके विषयमें कही गयी और इसीको (अब) निष्काम कर्मयोगके विषयमें सुन।’ ऐसे और भी अनेक वचन हैं जिनसे दोनों निष्ठाओंका स्वतन्त्र वर्णन सिद्ध होता है (देखो गीता अ०५ श्लोक १ से ५)। इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनों निष्ठाओंका फलरूपसे पर्यवसान एक परमात्मामें ही है परन्तु दोनोंका स्वरूप सर्वथा भिन्न है, दोनों निष्ठाओंके साधकोंकी कार्य और विचारशैली तथा दोनोंके भाव और पथ सर्वथा भिन्न हैं। निष्काम कर्मयोगी साधन-कालमें कर्म, कर्मफल, परमात्मा और अपनेको भिन्न-भिन्न मानता हुआ कर्मोंके फल और आसक्तिको त्यागकर ईश्वरपरायण हो ईश्वरार्पणबुद्धिसे ही सब कर्म करता है (देखो गी० ३। ३०; ४। २०; ५। १०; ९। २७-२८; १२। ११-१२; १८। ५६-५७)।
परन्तु सांख्ययोगी मायासे उत्पन्न हुए सम्पूर्ण गुण ही गुणोंमें बर्तते हैं ऐसे समझकर मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर केवल सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अनन्यभावसे निरन्तर स्थित रहता है (देखो गीता ३।२८; ५।८-९, १३; ६।३१; १३।२९-३०; १४।१९-२०; १८।१७, ४९—५५)।
निष्काम कर्मयोगी अपनेको कर्मोंका कर्ता मानता है (५।११), सांख्ययोगी अपनेको कर्ता नहीं मानता (५।८-९)। निष्काम कर्मयोगी अपनेद्वारा किये कर्मोंके फलको भगवदर्पण करता है (९।२७-२८), सांख्ययोगी मन और इन्द्रियोंद्वारा होनेवाली क्रियाओंको कर्म ही नहीं मानता (१८।१७)। निष्काम कर्मयोगी परमात्माको अपनेसे भिन्न मानता है (१२।६-७), सांख्ययोगी सदा अभेद मानता है (६।२९—३१; ७।१९; १८।२०)। निष्काम कर्मयोगी प्रकृति और प्रकृतिके पदार्थोंकी सत्ता स्वीकार करता है (१८।९, ६१)। सांख्ययोगी एक ब्रह्मके सिवा अन्य किसी भी सत्ताको नहीं मानता (१३।३०), यदि कहीं कुछ मानता हुआ देखा जाता है तो वह केवल दूसरोंको समझानेके लिये अध्यारोपसे, यथार्थमें नहीं। वह प्रकृतिको मायामात्र मानता है, वस्तुत: कुछ भी नहीं मानता, निष्काम कर्मयोगी कर्मोंसे फल उत्पन्न हुआ करता है ऐसा समझता हुआ अपनेको फल और आसक्तिका त्यागी समझता है, फल और कर्मकी अलग-अलग सत्ता मानता है, सांख्ययोगी न तो कर्म और फलोंकी सत्ता ही मानता है और न उनसे अपना कोई सम्बन्ध ही समझता है, निष्काम कर्मयोगी कर्म करता है, सांख्ययोगीके अन्त:करण और शरीरद्वारा कर्म स्वभावसे ही होते हैं वह करता नहीं (५।१४)। निष्काम कर्मयोगीकी मुक्तिमें हेतु उसका विशुद्ध निष्कामभाव, भगवत्-शरणागति और भगवत्कृपा है (२।५१; १८।५६), सांख्ययोगीकी मुक्तिमें हेतु एक सच्चिदानन्दघन परमात्माके स्वरूपमें अभिन्न भावसे निरन्तर गाढ़ स्थिति है (५।१७, २४)। इसलिये फलमें अविरोध होते हुए भी दोनों साधनोंमें परस्पर बड़ा भेद है और दोनों सर्वथा स्वतन्त्र हैं। इसमें कोई सन्देह नहीं कि श्रीभगवान् ने अर्जुनके प्रति उसके उपयुक्त समझकर भक्तियुक्त निष्काम कर्मयोगके लिये ही आज्ञा दी है; परन्तु गीतामें सांख्यनिष्ठाका वर्णन भी कम विस्तारसे नहीं है, स्थान-स्थानपर भगवान् नेसांख्यनिष्ठाकी बड़ी प्रशंसा की है। कर्मयोगका विशेषत्व इसीलिये बतलाया है कि वह सुगम है और उसका साधन देहाभिमानी भी कर सकता है परन्तु सांख्ययोग इसकी अपेक्षा बड़ा कठिन है (देखो गीता अ० ५। ६)। इससे यह सिद्ध होता है कि गीतामें दोनों ही निष्ठाओंका वर्णन है। न केवल कर्मयोगका ही प्रतिपादन किया गया है और न केवल सांख्ययोगका ही और न संन्यास शब्दका समावेश कर्मयोगमें ही होता है।
इस विवेचनसे यह पता लग जाता है कि गीतामें दोनों निष्ठाओंका वर्णन है और उनमें सांख्य या संन्यासका अर्थ कर्मोंका स्वरूपसे त्याग नहीं है।
(३) अब तीसरे पक्षके सिद्धान्तोंपर विचार करनेसे यह विश्वास होता है कि इसके सिद्धान्त अधिक युक्तियुक्त और हृदयग्राही हैं। वास्तवमें संन्यास शब्दका अर्थ गीतामें सांख्य या ज्ञानयोग ही माना गया है। संन्यास, सांख्ययोग, ज्ञानयोग आदि शब्दोंसे एक ही निष्ठाका वर्णन है। गीताके अध्याय १८ में ४९ से ५५ वें श्लोकतक इसी ज्ञाननिष्ठाका विस्तृत वर्णन है। ४९वें श्लोकमें ‘परमां नैष्कर्म्यसिद्धिम्’ का प्राप्त होना जिस संन्याससे बतलाया गया है वह संन्यास ज्ञानयोग ही है। इन श्लोकोंके विवेचनसे पता लगता है कि अभेदरूपसे परब्रह्म परमात्माका जो ध्यान किया जाता है और उस ध्यानका जो फल होता है उसीको परा भक्ति कहते हैं और वही इस ज्ञानयोगकी परा निष्ठा है। इस प्रकारके ज्ञानयोगका साधक सम्पूर्ण संसारके पदार्थों और कर्मोंको त्रिगुणमयी मायाका ही विस्तार समझता हुआ अपनेको द्रष्टा साक्षी मानता है (१४।१९-२०)। और वह ब्रह्मसे नित्य अभिन्न होकर ब्रह्ममें ही विचरता है (५। २६; ६। ३१)। वह सम्पूर्ण कर्मोंका विस्तार मायामें ही देखता है (देखो गीता ३। २७-२८)। वह शरीर और मन-इन्द्रियोंद्वारा होनेवाली सम्पूर्ण क्रियाओंमें कर्तापनका अत्यन्त अभाव समझता है। इन्द्रियाँ ही अपने विषयोंमें विचरती हैं, आत्मा इनसे अत्यन्त परे और भिन्न है। इस तरह समझकर साधनकालमें भी वह अपनेमें कर्तृत्व भावको नहीं देखता परन्तु मायाकी जगह भी वह एक ब्रह्मका ही विस्तार समझता है और यों समझनेसे उसकी दृष्टिमें एक ब्रह्मसे भिन्न और कोई भी वस्तु नहीं रह जाती। सम्पूर्ण संसारको वह एक ब्रह्मका ही कार्यरूप देखता है। साधन-कालमें प्रकृति और उसके कार्योंको आत्मासे भिन्न, अनित्य और क्षणिक देखता हुआ तथा अपनेको अकर्ता, अभोक्ता मानकर एक आत्माको ही सब जगह व्यापक समझकर साधनमें रत रहता है और अन्तमें जब एक ब्रह्मसत्ताके सिवाय और सबका अत्यन्त अभाव हो जाता है तब वह उस अनिर्वचनीय परमपदको प्राप्त हो जाता है, उसकी दृष्टिमें एक ब्रह्मसत्ताके अतिरिक्त और कुछ रहता ही नहीं। मन, बुद्धि, अन्त:करणादि भी ब्रह्मस्वरूप हो जाते हैं। एक वासुदेवके भिन्न कोई वस्तु शेष नहीं रह जाती (गीता ५।१७; ७।१९)।
वह इस चराचर संसारके बाहर-भीतर और चराचरको भी परब्रह्म परमात्माका रूप ही समझता है (देखो गीता १३। १५)।
ऐसे पुरुषके द्वारा साधन और सिद्धकालमें लोकदृष्टिसे कर्म तो बन सकते हैं परन्तु उन सर्व कर्मोंमें और संसारके सम्पूर्ण पदार्थोंमें एक ब्रह्मसे भिन्न दृष्टि न रहनेके कारण तथा कर्तापनके अभावसे उसके वे कर्म कर्म नहीं समझे जाते (देखो गीता १८। १७)।
उपर्युक्त विवेचनसे यही सिद्ध होता है कि तीसरे पक्षके सिद्धान्तानुसार गीताका संन्यास, संन्यास-आश्रम नहीं है परन्तु सम्पूर्ण कर्मोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित होकर एक सर्वव्यापी सच्चिदानन्दघन परमात्मामें ऐक्यभावसे नित्य स्थित रहना ही है और इसीलिये उसका उपयोग सभी वर्ण और आश्रमोंमें किया जा सकता है। इसीका नाम ज्ञानयोग है। इसीको सांख्ययोग कहते हैं और यही गीतोक्त संन्यास है।
इसीके साथ-साथ यह भी ठीक है कि गीतामें कर्मयोग नामक एक दूसरे स्वतन्त्र साधनका भी विस्तृत वर्णन है, जिसमें साधक फल और आसक्तिको त्यागकर भगवत्-आज्ञानुसार केवल भगवत्-अर्थ समत्व-बुद्धिसे कर्म करता है। यही कर्मयोग गीतामें समत्वयोग, बुद्धियोग, कर्मयोग, तदर्थकर्म, मदर्थकर्म और मत्कर्म आदि नामोंसे कहा गया है। इस निष्काम कर्मयोगमें भी भक्तिप्रधान कर्मयोग मुख्य है और इसीसे साधकको शीघ्र सिद्धि मिलती है (६।४। ७)।
इस प्रकार दोनों निष्ठाओंकी सिद्धि होती है। इससे कोई यह न समझे कि मैं शास्त्रोक्त संन्यास-आश्रमका विरोध करता हूँ या संन्यास-आश्रममें स्थित पुरुषकी सम्यक् ज्ञानके द्वारा मुक्ति नहीं मानता, परन्तु मेरी समझसे गीताका संन्यास किसी आश्रमविशेषपर लक्ष्य नहीं रखकर केवल ज्ञानपर अवलम्बित है अतएव गीतामें सबका ही अधिकार है।
मैं तो यह भी मानता हूँ कि सांख्यनिष्ठाके साधकको संन्यास-आश्रममें अधिक सुविधाएँ हैं। अस्तु।
कुछ लोगोंके मतमें गीताका सांख्य शब्द महर्षि कपिलप्रणीत सांख्यदर्शनका वाचक है, परन्तु विचार करनेपर वह बात उचित नहीं मालूम होती। गीताका सांख्य कपिलजीका सांख्यदर्शन नहीं है, इसका सम्बन्ध ज्ञानसे है। गीता अ० १३। १९-२०में प्रकृति-पुरुष शब्द आते हैं जो सांख्यदर्शनसे मिलते-जुलते-से लगते हैं, परन्तु वास्तवमें इनमें बड़ा अन्तर है।
सांख्यदर्शन पुरुष नाना और उनकी सत्ता भिन्न-भिन्न मानता है परन्तु गीता एक ही पुरुषके अनेक रूप मानती है (देखो गीता अध्याय १३। २२; १८।२०)। गीतामें भूतोंके पृथक्-पृथक् भाव एक ही पुरुषके भाव हैं। सांख्यदर्शन सृष्टिकर्ता ईश्वरको स्वीकार नहीं करता। परन्तु गीता सृष्टिकर्ता ईश्वरको मुक्तकण्ठसे स्वीकार करती है। इससे यही सिद्ध होता है कि गीताका सांख्य महर्षि कपिलके सांख्यसे भिन्न है।
एक बात और है। गीताका ध्यानयोग दोनों निष्ठाओंके साथ रहता है। इसीलिये भगवान् नेध्यानयोगको पृथक् निष्ठाके रूपमें नहीं कहा। ध्यानयोग निष्काम कर्मके साथ भेदरूपसे रहता है और सांख्ययोगके साथ अभेदरूपसे रहता है। सांख्ययोग तो निरन्तर सच्चिदानन्दघन परमात्माका अनन्य भावसे ध्यान हुए बिना सिद्ध ही नहीं होता।
इन दोनों निष्ठाओंके बिना केवल ध्यानयोगसे भी परमपदकी प्राप्ति हो सकती है।
ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
(गीता १३।२४)
(इसके सिवा देखो ९।४-५, ६; १२।८)
उस परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं; अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं॥२४॥
परन्तु यह निष्ठा भिन्न नहीं समझी जाती, क्योंकि अभेदरूपका ध्यान सांख्ययोग और भेदरूपका ध्यान कर्मयोगविषयक समझा जा सकता है। ध्यानयोगका साधन अलग इसीलिये बतलाया गया है कि यह कर्मोंकी और कर्मोंके त्यागकी अपेक्षा नहीं रखता, परन्तु दोनोंका सहायक हो सकता है! कर्मोंके आश्रय या त्याग किये बिना भी केवल ध्यानयोगसे ही मुक्ति हो सकती है।
यह साधन परमोपयोगी और स्वतन्त्र होते हुए भी निष्ठारूपसे अलग नहीं माना गया है। अतएव साधकोंको चाहिये कि वे अपने-अपने अधिकारानुसार ध्यानयोगसहित दोनों निष्ठाओंमेंसे किसी एकका अवलम्बन कर भगवत्प्राप्तिके लिये प्रयत्न करें।