गीतोक्त क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तम
सातवें अध्यायके चौथे, पाँचवें और छठे श्लोकोंमें ‘अपरा’, ‘परा’ और ‘अहम्’ के रूपमें जिस तत्त्वका वर्णन है, उसीका तेरहवें अध्यायके पहले और दूसरे श्लोकमें ‘क्षेत्र’, ‘क्षेत्रज्ञ’ और ‘माम्’ के नामसे एवं पंद्रहवें अध्यायके सोलह और सत्रहवें श्लोकमें ‘क्षर’, ‘अक्षर’ और ‘पुरुषोत्तम’ के नामसे है। इन तीनोंमें ‘अपरा’, ‘क्षेत्र’ और ‘क्षर’ प्रकृतिसहित इस जड जगयह रिवाचक हैं, ‘परा’, ‘क्षेत्रज्ञ’ और ‘अक्षर’ जीवके वाचक हैं तथा ‘अहम्’, ‘माम्’ और ‘पुरुषोत्तम’ परमेश्वरके वाचक हैं।
क्षर—प्रकृतिसहित विनाशी जड तत्त्वोंका विस्तार तेरहवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें है—
महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचरा:॥
आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवीके सूक्ष्म भावरूप पंच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, मूलप्रकृति अर्थात् त्रिगुणमयी माया, (श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, रसना, घ्राण, वाणी, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा) दस इन्द्रियाँ, एक मन और पंच ज्ञानेन्द्रियोंके पाँच विषय (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) इस प्रकार चौबीस क्षर तत्त्व हैं। सातवें अध्यायके चौथे श्लोकमें इन्हींका संक्षेप अष्टधा प्रकृतिके रूपमें किया गया है—
भूमिरापोऽनलो वायु: खं मनो बुद्धिरेव च।
अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा॥
और भूतोंसहित इसी प्रकृतिका और भी संक्षेप रूप पंद्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें ‘क्षर: सर्वाणि भूतानि’ है। या यों समझना चाहिये कि ‘क्षर: सर्वाणि भूतानि’ का विस्तार अष्टधा प्रकृति और उसका विस्तार चौबीस तत्त्व हैं। वास्तवमें तीनों एक ही वस्तु हैं। सातवें अध्यायके तीसवें और आठवें अध्यायके पहले तथा चौथे श्लोकमें ‘अधिभूत’ के नामसे, तेरहवें अध्यायके बीसवें श्लोकके पूर्वार्द्धमें (दस) कार्य, (तेरह) करण और (एक) प्रकृतिके नामसे (कार्यकरणकर्तृत्वे हेतु: प्रकृतिरुच्यते) एवं चौदहवें अध्यायके तीसरे और चौथे श्लोकमें ‘महद्ब्रह्म’ और ‘मूर्तय:’ शब्दोंसे भी इसी प्रकृतिसहित विनाशी जगत् का वर्णन किया गया है।
अक्षर—सातवें अध्यायके पाँचवें श्लोकमें ‘परा प्रकृति’ के नामसे, तेरहवें अध्यायके दूसरे श्लोकमें ‘क्षेत्रज्ञ’ के नामसे और पंद्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें ‘कूटस्थ’ और ‘अक्षर’ के नामसे जीवका वर्णन है। यह जीवात्मा प्रकृतिसे श्रेष्ठ है, ज्ञाता है, चेतन है तथा अक्षर होनेसे नित्य है। पंद्रहवें अध्यायके सोलहवें श्लोकमें ‘कूटस्थोऽक्षर उच्यते’ के अनुसार जीवका विशेषण ‘कूटस्थ’ होनेके कारण कुछ सज्जनोंने इसका अर्थ प्रकृति या भगवान् की मायाशक्ति किया है, परन्तु गीतामें ‘अक्षर’ और ‘कूटस्थ’ शब्द कहीं भी प्रकृतिके अर्थमें व्यवहृत नहीं हुए, बल्कि ये दोनों ही स्थान-स्थानमें जीवात्मा और परमात्माके वाचकरूपसे आये हैं। जैसे—
ज्ञानविज्ञानतृप्तात्मा कूटस्थो विजितेन्द्रिय:।
युक्त इत्युच्यते योगी समलोष्टाश्मकांचन:॥
(६।८)
ये त्वक्षरमनिर्देश्यमव्यक्तं पर्युपासते।
सर्वत्रगमचिन्त्यं च कूटस्थमचलं ध्रुवम्॥
(१२।३)
अव्यक्तोऽक्षर इत्युक्तस्तमाहु: परमां गतिम्।
(८।२१)
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
(३।१५)
दूसरी बात यह विचारणीय है कि आगे चलकर पंद्रहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि मैं ‘क्षर’ से अतीत हूँ और ‘अक्षर’ से भी उत्तम हूँ। यदि ‘अक्षर’ प्रकृतिका वाचक होता तो ‘क्षर’ की भाँति इससे भी भगवान् अतीत ही होते, क्योंकि प्रकृतिसे तो परमात्मा अतीत हैं। भगवान् ने कहा है—
त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभि: सर्वमिदं जगत्।
मोहितं नाभिजानाति मामेभ्य: परमव्ययम्॥
दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया।
(७।१३-१४)
इन श्लोकोंसे सिद्ध है कि प्रकृति गुणमयी है और भगवान् गुणोंसे अतीत हैं। कहीं भी ऐसा वचन नहीं मिलता, जहाँ ईश्वरको प्रकृतिसे उत्तम बतलाया गया हो। इससे यही समझमें आता है कि यहाँ ‘अक्षर’ शब्द जीवका वाचक है। मायाबद्ध चेतन जीवसे शुद्ध निर्विकार परमात्मा उत्तम हो सकते हैं, अतीत नहीं हो सकते। इसलिये यहाँ अक्षरका अर्थ प्रकृति न मानकर जीव मानना ही उत्तम और युक्तियुक्त है। स्वामी श्रीधरजीने भी यही माना है।
इसी जीवात्माका वर्णन सातवें अध्यायके उनतीसवें और आठवें अध्यायके पहले तथा तीसरे श्लोकमें ‘अध्यात्म’ के नामसे एवं तेरहवें अध्यायके श्लोक १९, २०, २१ में ‘पुरुष’ शब्दसे है। वहाँ सुख-दु:खोंके भोक्ता प्रकृतिमें स्थित और सदसद्योनिमें जन्म लेनेवाला बतलानेके कारण ‘पुरुष’ शब्दसे ‘जीवात्मा’ सिद्ध है। पंद्रहवें अध्यायके सातवें श्लोकमें ‘जीवभूत’ नामसे और आठवेंमें ‘ईश्वर’ नामसे, चौदहवें अध्यायके तीसरेमें ‘गर्भ’ और ‘बीज’ के नामसे भी जीवात्माका ही कथन है। जीवात्मा चेतन है, अचल है, ध्रुव है, नित्य है, भोक्ता है, इन सब भावोंको समझानेके लिये ही भगवान् ने विभिन्न नाम और भावोंसे वर्णन किया है।
पुरुषोत्तम—यह तत्त्व परम दुर्विज्ञेय है, इसीसे भगवान् ने अनेक भावोंसे इसका वर्णन किया है। कहीं सृष्टि-पालन और संहारकर्तारूपसे, कहीं शासकरूपसे, कहीं धारणकर्ता और पोषणकर्ताके भावसे, कहीं पुरुषोत्तम, परमेश्वर, परमात्मा, अव्यय और ईश्वर आदि नाना नामसे वर्णन है। ‘अहम्’, ‘माम्’ आदि शब्दोंसे जहाँ-तहाँ इसी परम अव्यक्त, पर,अविनाशी, नित्य, चेतन, आनन्द, बोधस्वरूपका वर्णन किया गया है। जैसे—
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा॥
(७।६)
उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहृत:।
यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर:।
(१५।१७)
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:॥
(१५।१८)
—वेदान्तकृद्वेदविदेव चाहम्॥
(१५।१५)
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
(१३।२७)
उपर्युक्त क्षर, अक्षर और पुरुषोत्तमके वर्णनमें क्षर प्रकृति तो जड और विनाशशील है। अक्षर जीवात्मा नित्य, चेतन, आनन्दरूप प्रकृतिसे अतीत और परमात्माका अंश होनेके कारण परमात्मासे अभिन्न होते हुए भी अविद्यासे सम्बन्ध होनेके कारण भिन्न-सा प्रतीत होता है। ज्ञानके द्वारा अविद्याका सम्बन्ध नाश हो जानेपर जब वह परमात्माके साथ एकीभावको प्राप्त हो जाता है, तब उसे परमात्मासे भिन्न नहीं कहा जाता, अतएव वास्तवमें वह परमात्मासे भिन्न नहीं है। पुरुषोत्तम परमात्मा नित्यमुक्त, प्रकृतिसे सदा अतीत, सबका महाकारण, अज, अविनाशी है। प्रकृतिके सम्बन्धसे उसे भर्ता, भोक्ता, महेश्वर आदि नामोंसे कहते हैं। प्रकृति और समस्त कार्य परमात्मामें केवल अध्यारोपित है। वस्तुत: परमात्माके सिवा अन्य कोई वस्तु है ही नहीं। इस रहस्यका तत्त्व जाननेको ही परम पदकी प्राप्ति और मुक्ति कहा जाता है। अत: इसको जाननेके लिये विशेष प्रयत्न करना चाहिये। भगवान् कहते हैं—
तं विद्याद्दु:खसंयोगवियोगं योगसंज्ञितम्।
स निश्चयेन योक्तव्यो योगोऽनिर्विण्णचेतसा॥
(६।२३)
‘जो दु:खरूप संसारके संयोगसे रहित है, जिसका नाम योग है उसको जानना चाहिये, वह परमात्माकी प्राप्तिरूप योग तत्पर-चित्तसे निश्चयपूर्वक ही करना चाहिये।