Seeker of Truth

गीताकी सर्वप्रियता

कुछ सज्जनोंने गीताके सम्बन्धमें कई प्रश्न किये हैं, उनके जो उत्तर उन्हें दिये गये हैं, वे सर्वोपयोगी होनेसे यहाँ लिखे जाते हैं।

प्रश्न—गीतापर अनेक आचार्योंकी टीकाएँ हैं, उनमेंसे आप किस आचार्यकी टीकाको उत्तम और यथार्थ मानते हैं?

उत्तर—जो भगवत्प्राप्त महापुरुष हैं, उन सभी आचार्योंकी टीकाओंको मैं उत्तम और यथार्थ मानता हूँ।

प्रश्न—आचार्य तो अनेक हुए हैं, उनमें परस्पर बहुत ही मतभेद है, यहाँतक कि आकाश-पातालका अन्तर है। स्वामी श्रीशंकराचार्यजी अद्वैतवादका प्रतिपादन करते हैं तो स्वामी श्रीरामानुजाचार्यजी विशिष्टाद्वैतका। इसी प्रकार अन्यान्य आचार्य विभिन्न तरहसे प्रतिपादन करते हुए ही टीका लिखते हैं तो सभी टीकाएँ यथार्थ कैसे हो सकती हैं? सत्य तो एक ही हुआ करता है।

उत्तर—तर्ककी दृष्टिसे जैसे आप कहते हैं, वह ठीक है। मान लें कि गीतापर एक सौ टीकाएँ हैं और सभी टीकाएँ एक-दूसरीसे भिन्न हैं तो उनमें प्रत्येक टीका शेष ९९ टीकाओंके विरुद्ध हो जाती है। इस न्यायसे तो इत्थम्भूत एक भी नहीं ठहरती। किन्तु किसी भी आचार्यकी टीकाके अनुसार उसका अनुयायी अच्छी प्रकार अनुष्ठान करे तो उससे उसे परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है—इस न्यायसे सभी टीकाएँ ठीक हैं।

प्रश्न—आप कौन-सी टीकाको सर्वोपरि मानते हैं और किसके अनुयायी हैं?

उत्तर—मैं तो सभीको उत्तम मानता हूँ और मैं अनुयायी किसी एकका नहीं, सभीका अनुयायी हूँ। क्योंकि मैं प्राय: सभीसे अच्छी बातें करता रहता हूँ और मैंने बहुत-सी टीकाओंसे मदद ली है तथा ले रहा हूँ। सभी हमारे पूज्य हैं, अत: मैं सभीको आदरकी दृष्टिसे देखता हूँ एवं किसी भी आचार्यकी की हुई टीकाके अनुसार अनुष्ठान करनेसे परमात्माकी प्राप्ति मानता हूँ। किन्तु टीकाओंकी अपेक्षा मूलको ही सर्वोत्तम मानता हूँ; क्योंकि कोई भी आचार्य मूलका विरोध नहीं करते, बल्कि भगवद्वाक्य होनेसे सब मूलका ही आदर और प्रशंसा करते हैं तथा मूलको आधार मानकर ही सब चलते हैं एवं उसीके अनुसार अन्य सभीको वे चलाना चाहते हैं। इसलिये आचार्योंकी टीकाओंकी अपेक्षा मूल ही सर्वोत्तम है।

प्रश्न—स्वामी श्रीशंकराचार्यजी गीताका अद्वैतपरक अर्थ करते हैं और भक्तिमार्गवाले द्वैतपरक तथा कर्ममार्गवाले कर्मयोगपरक, तो गीताका प्रतिपाद्य विषय ज्ञानयोग है या भक्तियोग अथवा कर्मयोग? एवं वे ऐसी खींचातानी करके प्रतिपादन ही करते हैं या उनकी ऐसी ही मान्यता है?

उत्तर—उनकी अपनी-अपनी खींचातानी बतलाना तो उनकी नीयतपर दोष लगाना है सो ऐसा कहना उचित नहीं। उनको गीताका जो अर्थ प्रतीत हुआ, वैसा ही उन्होंने लिखा है। यह गीताके लिये गौरव है कि सभी मत-मतान्तरवाले उसे अपनाते हैं। गीता ऐसा ही रहस्यमय ग्रन्थ है जो कि सभीको अपने ही भाव उसमें ओत-प्रोत दीखते हैं; क्योंकि वास्तवमें गीतामें ज्ञानयोग (अद्वैतवाद), भक्तियोग (द्वैतवाद) और कर्मयोग (निष्काम कर्म)—सभीका सांगोपांग प्रतिपादन किया गया है।

प्रश्न—सभी भगवत्प्राप्त पुरुषोंकी प्रापणीय वस्तु, गीतावक्ता तथा गीताग्रन्थके एक होनेपर भी भगवत्प्राप्त आचार्योंको गीताके अर्थकी प्रतीति भिन्न-भिन्न होनेमें क्या कारण है?

उत्तर—सबकी प्रापणीय वस्तु एक होनेपर भी सबके पूर्वके संस्कार, संग, साधन, स्वभाव और बुद्धि भिन्न-भिन्न होनेके कारण उनके कहने-समझानेकी शैली और पद्धति भिन्न-भिन्न हुआ करती है। तथा भगवान् को जिस समय जिस पुरुषके द्वारा जैसे भावोंका प्रचार कराना होता है, वही भाव उस आचार्यके हृदयमें उस समय प्रकट हो जाते हैं और उन्हें गीताका अर्थ और भाव वैसे ही प्रतीत होने लग जाता है।

प्रश्न—जब सबका कहना भिन्न-भिन्न है तो सभीका कथन यथार्थ कैसे हो सकता है?

उत्तर—एक दृष्टिसे सभीका कथन यथार्थ है और दूसरी दृष्टिसे किसीका कहना भी यथार्थ नहीं। भगवत्प्राप्तिरूप अन्तिम परिणाम सबका एक होनेपर भी सबका कथन अलग-अलग हो सकता है। जैसे द्वितीयाके चन्द्रमाका दर्शन करनेवाले व्यक्तियोंमेंसे कोई एक तो ऐसा बतलाते हैं कि चन्द्रमा उस वृक्षकी टहनीसे ठीक एक बित्ता ऊपर है। दूसरा व्यक्ति कहता है कि चन्द्रमा इस मकानके कोनेसे सटा हुआ है। तीसरा आदमी खड़ियामिट्टीसे लकीर खींचकर बतलाता है कि ऐसी ही आकृतिका चन्द्रमा है और उस उड़ते हुए पक्षीके दोनों पंजोंके ठीक बीचमें दीख रहा है। और चौथा व्यक्ति सिरकीके आकारका बतलाता हुआ इस प्रकार संकेत करता है कि चन्द्रमा मेरी अँगुलीके ठीक सामने दीख रहा है। जैसे इन सभी व्यक्तियोंका लक्ष्य चन्द्रमाका दर्शन करानेका है और वे अपनी शुभ नीयतसे ही अपनी-अपनी प्रक्रिया बतलाते हैं; पर एक-दूसरेके कथनमें परस्पर आकाश-पातालका अन्तर है। इसी प्रकार सभी आचार्योंका उद्देश्य एक है, सभी साधकोंको भगवत्प्राप्ति करानेके उद्देश्यसे कहते हैं; परन्तु उनके कथनमें परस्पर अत्यन्त भेद है। हाँ, अन्तिम परिणाम सबका एक होनेसे सभीका कहना ठीक है अर्थात् किसी भी आचार्यके कथनानुसार चलनेसे वास्तविक परमात्मप्राप्ति हो जाती है, इस न्यायसे सभीका कहना यथार्थ है। किन्तु शब्दोंका अर्थ लगाकर तर्क करें तो किसीका भी कहना ठीक नहीं ठहरता, क्योंकि वास्तवमें चन्द्रमा न तो वृक्षसे एक बित्ता ऊँचा है, न मकानसे ही सटा हुआ है, न पक्षीके पंजोंके बीचमें ही है और न अँगुलीके ठीक सामने ही है तथा न चन्द्रमाकी आकृति ही उन लोगोंके कहनेके अनुसार ही है। शब्दोंपर तर्क करनेसे तो कोई-सी भी बात कायम रह नहीं सकती।

प्रश्न—भगवद्वाक्यरूप गीताके मूलपर श्रद्धा रखनेवाला व्यक्ति गीताका यथार्थ अर्थ जानना चाहता है; किन्तु वह अनेकों टीकाओंको पढ़नेसे संशय-भ्रममें पड़ जाता है, तो उसे यथार्थत: गीताका ज्ञान हो, इसके लिये वह क्या उपाय करे?

उत्तर—जो भगवद्वाक्योंको इत्थम्भूत मानकर उनके अनुसार अपना जीवन बनानेके उद्देश्यसे भगवान् के ऊपर निर्भर होकर अपनी बुद्धिके अनुसार विशुद्ध नीयतसे मूल शब्दोंके अर्थका खयाल रखता हुआ उनमें प्रवेश होकर उनका स्वाध्याय और अनुशीलन करता रहता है तो भगवत्कृपासे उसके संशय-भ्रम आदि सबका नाश होकर गीताका इत्थम्भूत यथार्थ ज्ञान उसे स्वयमेव हो जाता है।

प्रश्न—जो भगवत्प्राप्त पुरुष नहीं हैं, ऐसे पुरुषोंके द्वारा भी गीतापर बहुत-सी टीकाएँ देखनेमें आती हैं, उन टीकाओंका अनुशीलन करके तदनुसार साधन करनेसे भी भगवत्प्राप्ति हो सकती है क्या?

उत्तर—जो गीताको इष्ट मानकर भगवद्वाक्योंको यथार्थ समझता हुआ अपना जीवन गीतामय बनानेके लिये गीतापर निर्भर होकर श्रद्धा और प्रेमपूर्वक अर्थसहित मूलका अथवा केवल टीकाओंका अनुशीलन करता रहता है, उसको गीता स्वयं उन टीकाओंके द्वारा हुई भ्रमित धारणाका निवारण करके यथार्थ बोध करा देती है।

प्रश्न—भगवत्प्राप्त महापुरुषकी ही यह टीका है अथवा किसी साधारण पुरुषकी की हुई है, इसका निर्णय कैसे हो?

उत्तर—जिस टीकाके अध्ययनसे परमात्माकी स्मृति हो, हृदयमें परमात्मा और गीतापर श्रद्धा-प्रेम बढ़े, सद्गुण-सद्भावोंकी जागृति हो और उस टीकाकी ओर आकर्षण हो, उसी टीकाको भगवत्प्राप्त महापुरुषके द्वारा की हुई मानना चाहिये।

प्रश्न—सभी मत-मतान्तरवाले, सभी सम्प्रदायके लोग गीताको अपनाते हैं और उनको अपने ही भाव उसमें दीखते हैं तो भगवान् ने भविष्यमें होनेवाले उन सब भावोंको ध्यानमें रखकर ही उस समय गीता कही थी क्या?

उत्तर—भगवान् भूत, भविष्य और वर्तमानमें होनेवाले सर्व भूतोंके सभी भावोंको तो जानते ही हैं। भगवान् ने गीतामें कहा है—

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन॥
(७। २६)

‘हे अर्जुन! पूर्वमें व्यतीत हुए और वर्तमानमें स्थित तथा आगे होनेवाले सब भूतोंको मैं जानता हूँ, परन्तु मुझको कोई भी श्रद्धा-भक्तिरहित पुरुष नहीं जानता।’

इसलिये भगवान् ने उन सब भावोंका ध्यान रखकर ही यदि गीता कही हो तो भी कोई असम्भव बात नहीं है। तथा गीताका सिद्धान्त ही ऐसा अलौकिक और यथार्थ है कि अच्छी नीयतसे त्यागपूर्वक प्रचार करनेवाले आचार्योंके हृदयमें स्वाभाविक गीताके ही यथार्थ भाव उत्पन्न हुआ करते हैं। इसलिये श्रद्धा और प्रेमसे देखनेपर उनको अपने-अपने भावोंके अनुसार ही गीता प्रतीत होने लगती है।

प्रश्न—गीतामें ऐसी क्या विलक्षण वस्तु है जिससे सनातनधर्मके अतिरिक्त दूसरे मतको माननेवाले भी गीताकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं?

उत्तर—गीतामें किसी व्यक्तिकी या किसी मतकी निन्दा नहीं की गयी। जो बात कही गयी वह युक्तियुक्त और न्यायसंगत कही गयी है। अच्छे-बुरे आदमीका निर्णय भाव और आचरणोंसे किया गया है, किसी जाति या बाहरी चिह्नविशेषसे नहीं। मनुष्यमात्रका आत्म-कल्याणमें अधिकार बतलाया गया है, सर्वप्रिय समताको ही विशेषता दी गयी एवं समताको ही साधक और सिद्धकी कसौटी माना गया है। अथ च गीताके सुनने-समझनेसे भी शान्तिकी प्राप्ति हो सकती है, फिर उसके अनुसार अनुष्ठान करनेवालेकी तो बात ही क्या है। गीताका भाषा, भाव, अर्थ, ज्ञान, उसकी पद्यरचना और उसका गायन बहुत ही सुमधुर, सुन्दर, सुगम और सुरुचिकर है। इसलिये सभी वर्गके लोग उसकी ओर आकृष्ट हो जाते हैं।

प्रश्न—गीताका पाठ करना उत्तम है या उसे गाना एवं अर्थ समझना उत्तम है या उसका भाव समझना?

उत्तर—पाठ करनेकी अपेक्षा प्रेमपूर्वक मधुर स्वरसे गायन करना उत्तम है। गायनके साथ-साथ अर्थका ज्ञान रहे तो वह और भी उत्तम है। गीताके भावोंको हृदयमें धारण करना उससे भी उत्तम है एवं उन भावोंके अनुसार अपना जीवन बनाना सर्वोत्तम है।

प्रश्न—गीतामें प्रथम कर्म, फिर उपासना और तदनन्तर ज्ञानके साधनसे मुक्ति होती है—इस प्रकार साधनकी प्रणाली है अथवा कर्मयोग, भक्तियोग, ज्ञानयोग—ये तीनों स्वतन्त्र मुक्तिदायक हैं?

उत्तर—प्रथम कर्म, फिर उपासना और उसके बाद ज्ञानके साधनसे मुक्ति होती है—यह क्रम भी है और इसके अतिरिक्त परस्पर स्वतन्त्र केवल कर्मयोगसे, केवल भक्तियोगसे अथवा केवल ज्ञानयोगसे भी मुक्ति बतलायी गयी है। जैसे—

ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।
अन्ये सांख्येन योगेन कर्मयोगेन चापरे॥
(गीता १३। २४)

‘उस परमात्माको कितने ही मनुष्य तो शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें देखते हैं; अन्य कितने ही ज्ञानयोगके द्वारा और दूसरे कितने ही कर्मयोगके द्वारा देखते हैं अर्थात् प्राप्त करते हैं।’

यदि कहें कि बिना ज्ञानके मुक्ति नहीं होती—(ऋते ज्ञानान्न मुक्ति:) तो ठीक ही है; किन्तु निष्कामकर्मसे अन्त:करण शुद्ध होकर साधकको अपने-आप तत्त्वज्ञान हो जाता है।

न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।
तत्स्वयं योगसंसिद्ध: कालेनात्मनि विन्दति॥
(गीता ४। ३८)

‘इस संसारमें ज्ञानके समान पवित्र करनेवाला नि:सन्देह कुछ भी नहीं है। उस ज्ञानको कितने ही कालसे कर्मयोगके द्वारा शुद्धान्त:करण हुआ मनुष्य अपने-आप ही आत्मामें पा लेता है।’

इसी प्रकार भेदोपासनासे भी भगवत्कृपाद्वारा तत्त्वज्ञान हो जाता है।

मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
(गीता १०। ९-११)

‘निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही निरन्तर सन्तुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं। उन निरन्तर मेरे ध्यान आदिमें लगे हुए और प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ, जिससे वे मुझको ही प्राप्त होते हैं। और हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये उनके अन्त:करणमें स्थित हुआ मैं स्वयं ही अज्ञानसे उत्पन्न हुए अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।’

इसी प्रकार ज्ञानयोगके साधनसे भी तत्त्वज्ञान हो जाता है तथा ज्ञान होनेपर मुक्ति अर्थात् परमात्माकी प्राप्ति हो ही जाती है।

प्रश्न—कर्मयोगके साथ भक्तियोग और ज्ञानयोग, भक्तियोगके साथ कर्मयोग और ज्ञानयोग तथा ज्ञानयोगके साथ कर्मयोग और भक्तियोग एक साथ रह सकते हैं या नहीं?

उत्तर—कर्मयोगके साथ भक्तियोग और परमात्माके स्वरूपका ज्ञान रह सकता है; किंतु अभेदोपासनारूप ज्ञानयोग उसके साथ एक कालमें नहीं रह सकता; क्योंकि कर्मयोगमें भेद-बुद्धि और संसारकी सत्ता रहती है तथा ज्ञानयोगमें इससे विपरीत अभेदबुद्धि और संसारका अभाव रहता है। इसलिये कर्मयोग और ज्ञानयोग परस्पर-विरुद्ध भावयुक्त साधन होनेसे एक कालमें एक साथ नहीं रह सकते।

भक्तियोग (भेदोपासना)के साथ कर्मयोग और परमात्माके स्वरूपका ज्ञान रह सकता है; किंतु अभेदोपासनारूप ज्ञानयोग नहीं रह सकता; क्योंकि एक ही पुरुषके द्वारा एक कालमें परस्पर-विरुद्ध भाव होनेसे भेदोपासना और अभेदोपासना एक साथ नहीं की जा सकती।

ज्ञानयोगके साथ शास्त्रविहित कर्म रह सकते हैं; परन्तु कर्मयोग और भक्तियोग नहीं रह सकते। क्योंकि ज्ञानयोगमें अद्वैतभाव है तथा कर्मयोग और भक्तियोगमें द्वैतभाव है—अत: एक पुरुषमें एक कालमें दो प्रकारके भावोंका अस्तित्व सम्भव नहीं। अर्थात् अभेद-ज्ञानके साथ भक्तियोग और कर्मयोग एक साथ नहीं रह सकते; परंतु भक्तियोग और कर्मयोग—दोनोंमें द्वैतभाव और संसारकी सत्ता समान होनेके कारण ये दोनों एक साथ रह सकते हैं।

प्रश्न—भगवत्प्राप्त आचार्योंमेंसे किन-किन आचार्योंका सिद्धान्त निर्दोष है?

उत्तर—भगवत्प्राप्त सभी आचार्योंकी जो मान्यता है, उसीको उनके अनुयायी सिद्धान्त कहते हैं; किन्तु वास्तवमें सिद्धान्त तो जो अन्तिम प्रापणीय वस्तु है, वही है और वह सबका एक है। उनकी मान्यताको सिद्धान्त इसलिये मानते हैं कि उसे सिद्धान्त माननेसे साधनमें तत्परता होती है। इसलिये उनकी मान्यताको सिद्धान्तका रूप देना उचित ही है और भगवत्प्राप्त आचार्योंके द्वारा चलाये हुए सभी मार्ग श्रद्धालुके लिये मुक्तिदायक होनेसे निर्दोष हैं; किन्तु तर्ककी कसौटीपर कसनेसे कोई भी निर्दोष नहीं ठहर सकता।

प्रश्न—आप द्वैत (भेदोपासना) और अद्वैत (अभेदोपासना)इनमें-से किसको उत्तम मानते हैं तथा साधकोंके लिये किसको उत्तम बतलाते हैं?

उत्तर—दोनोंको ही उत्तम मानता हूँ और जो जैसा अधिकारी होता है, उसके लिये उसीको उत्तम बतलाता हूँ।

प्रश्न—कौन किसका अधिकारी है—इसका आप किस प्रकार निर्णय करते हैं?

उत्तर—जिसकी श्रद्धा और रुचि भेदोपासनामें होती है, वह भेदोपासनाका और जिसकी अभेदोपासनामें होती है, वह अभेदोपासनाका अधिकारी है; किन्तु जबतक श्रद्धा और रुचिका निर्णय नहीं होता, तबतक परमात्माके नामका जप, उनके स्वरूपका ध्यान, सत्पुरुषोंका संग, सत्-शास्त्रोंका स्वाध्याय—इनको मैं सभी साधकोंके लिये उत्तम समझता हूँ।

प्रश्न—आप साधकके लिये किस नामका जप और किस रूपका ध्यान बतलाते हैं?

उत्तर—वह सदासे ॐ, शिव, राम, कृष्ण, नारायण, हरि आदिमें-से जिस नामका जप तथा जिस साकार-निराकार, सगुण-निर्गुण रूपका ध्यान करता आया है अथवा जिस नाम और जिस रूपमें उसकी श्रद्धा-रुचि होती है, उसीको करनेके लिये कहा जाता है या पूछनेके समय उसके भावोंके अनुसार मेरे हृदयमें जैसा भाव उत्पन्न होता है, उसके अनुसार भी बतलाया जाता है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur