Seeker of Truth

गीताका उपदेश

एक सज्जनने कुछ प्रश्न किये हैं। प्रश्नोंका सुधारा हुआ स्वरूप यह है—

(१) भगवान् श्रीकृष्ण पूर्ण ब्रह्म हैं, उनके लिये ‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्’ कहा गया है। ऐसे साक्षात् ज्ञानस्वरूप परमात्माने उपनिषद् रूपी गायोंसे तत्त्वरूपी दूध किसलिये दोहन किया? और क्यों उनका आश्रय लिया?

(२) क्या वर्तमान समयके गीता-भक्तोंकी भाँति अर्जुन श्रद्धासम्पन्न नहीं थे? यदि श्रद्धालु थे तो श्रीभगवान् को उन्हें समझानेके लिये शब्दप्रमाणका क्यों प्रयोग करना पड़ा और अन्तमें क्यों विश्वरूप दिखलानेकी आवश्यकता हुई?

(३) अर्जुनको ‘गीताका ज्ञान हो गया था’ फिर आगे चलकर उन्होंने ऐसा क्यों कहा कि ‘हे भगवन्! आपने सख्यभावसे मुझे जो कुछ कहा था, उसे मैं भूल गया?’ तो क्या अर्जुन प्राप्त-ज्ञानको भूल गये थे?

(४) भगवान् श्रीकृष्णने इसके उत्तरमें कहा कि ‘हे धनंजय! मैंने उस समय योगयुक्त होकर तुमसे वह ज्ञान कहा था, अब पुन: मैं उसे कहनेमें असमर्थ हूँ। तो क्या सर्वज्ञ भगवान् भी आत्मविस्मृत हो गये थे, जिससे उन्होंने पुन: वह ज्ञान कहनेमें अपनी असमर्थता प्रकट की और योगयुक्त होनेका क्या अर्थ है?

(५)यदि यह मान लिया जाय कि भगवान् गीताज्ञान अर्जुनको फिरसे नहीं सुना सके, तब फिर व्यासजीने अनेक दिनों बाद उसे कैसे दुहरा दिया?

(६) अगर गीता भगवान् श्रीकृष्णके श्रीमुखकी वाणी है तो भगवान् व्यासके इन शब्दोंका क्या अर्थ है जो उन्होंने श्रीगणेशजीके प्रति कहे हैं—

लेखको भारतस्यास्य भव त्वं गणनायक।
मयैव प्रोच्यमानस्य मनसा कल्पितस्य च॥
(महा०, आदि० १। ७७)

‘हे गणनायक! तुम मेरे मन:कल्पित और वक्तव्यरूप इस भारतके लेखक बनो’ गीता महाभारतके अन्तर्गत है, इससे यह भी क्या व्यासजीकी मन:कल्पना है और क्या सारे श्लोक उन्हींके रचे हुए हैं?

उपर्युक्त प्रश्नोंका क्रमश: उत्तर इस प्रकार है—

(१) भगवान् के नि:श्वासरूप वेदका अंग होनेसे उपनिषद् भी भगवान् के ही अनादि और नित्य उपदेश माने गये हैं। उनके आश्रयकी कोई बात नहीं, भगवान् ने संसारमें उनकी विशेष महिमा बढ़ानेके लिये ही उनका प्रयोग किया। इसके सिवा उपनिषद्की भाषा और वर्णनशैली जटिल होनेसे उनको अधिकांश लोग समझनेमें भी असमर्थ हैं, इसलिये लोककल्याणार्थ भगवान् ने उपनिषदोंका सार निकालकर गीतारूपी अमृतका दोहन किया। वास्तवमें उपनिषद् और गीता एक ही वस्तु है।

(२) आजकलके लोगोंके साथ अर्जुनकी तुलना नहीं की जा सकती। अर्जुन तो महान् श्रद्धासम्पन्न, परम विश्वासी प्रिय भक्त थे। भगवान् ने स्वयं श्रीमुखसे स्वीकार किया है—

‘भक्तोऽसि मे सखा चेति’
(गीता४।३)
‘इष्टोऽसि मे दृढमिति’
(गीता१८।६४)
‘प्रियोऽसि मे’
(गीता१८।६५)

‘तू मेरा भक्त है, मित्र है, दृढ़ इष्ट है, प्रिय है आदि। ऐसे अपने प्रिय सखा अर्जुनके प्रेमके कारण ही भगवान् सदा उसके साथ रहे, यहाँतक कि उसके रथके घोड़े स्वयं हाँके। आजके भक्तोंकी पुकारसे तो भगवान् पूजामें भी नहीं आते। अतएव यह नहीं मानना चाहिये कि अर्जुन श्रद्धालु नहीं था। भगवान् ने शब्द-प्रमाण तो वेदोंकी सार्थकता और उनका आदर बढ़ानेके लिये दिया। विश्वरूप-दर्शन करानेमें तो अर्जुनकी श्रद्धा प्रधान है ही। गीताके दशम अध्यायमें अर्जुनने जो कुछ कहा है वही उसकी श्रद्धाका पूरा प्रमाण है। अर्जुन कहता है—

परं ब्रह्म परं धाम पवित्रं परमं भवान्।
पुरुषं शाश्वतं दिव्यमादिदेवमजं विभुम्॥१२॥
सर्वमेतदृतं मन्ये यन्मां वदसि केशव।
न हि ते भगवन् व्यक्तिं विदुर्देवा न दानवा:॥१४॥
स्वयमेवात्मनात्मानं वेत्थ त्वं पुरुषोत्तम।
भूतभावन भूतेश देवदेव जगत्पते॥१५॥

‘आप परम ब्रह्म, परम धाम और परम पवित्र हैं; सनातन दिव्य पुरुष एवं देवोंके भी आदिदेव, अजन्मा और सर्वव्यापी हैं, हे केशव! आप मेरे प्रति जो कुछ भी कहते हैं, उस समस्तको मैं सत्य मानता हूँ। हे भगवन्! आपके लीलामय स्वरूपको न दानव जानते हैं और न देवता ही जानते हैं। हे भूतोंके उत्पन्न करनेवाले, हे भूतोंके ईश्वर, हे देवोंके देव, हे जगत् के स्वामी, हे पुरुषोत्तम! आप स्वयं ही अपनेसे अपनेको जानते हैं।’

इन शब्दोंमें अर्जुनकी श्रद्धा छलकी पड़ती है। इस प्रकार भगवान् की महिमाको जानने और बखाननेवाला अर्जुन जब (एकादश अध्यायमें) यह प्रार्थना करता है कि ‘नाथ! आप अपनेको जैसा कहते हैं (यानी दशम अध्यायमें जैसा कह आये हैं) ठीक वैसे ही हैं, परन्तु हे पुरुषोत्तम! मैं आपके ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, वीर्य और तेजयुक्त रूपको प्रत्यक्ष देखना चाहता हूँ— ‘द्रष्टुमिच्छामि ते रूपम्’ अर्जुन परम विश्वासी था, भगवान् के प्रभावको जानता और मानता था। इसीलिये भगवान् की परम दयासे उनके दिव्य विराट्‍रूपके दर्शन करना चाहता है, भक्तकी इच्छा पूर्ण करना भगवान् की बान है। इसलिये भगवान् ने कृपा करके उसे विश्वरूप दिखलाया। यह विश्वरूप श्रद्धासे ही दिखाया गया, श्रद्धा या विश्वास करवानेके हेतुसे नहीं। भगवान् ने स्वयं ही कहा है कि ‘अनन्य भक्तके सिवा किसी दूसरेको यह रूप मैं नहीं दिखा सकता। मेरा यह स्वरूप वेदाध्ययन, यज्ञ, दान, क्रिया और उग्र तपोंसे नहीं दीख सकता।’ इससे यह सिद्ध है कि अर्जुन परम श्रद्धालु, भगवत्परायण और महान् भक्त था। भगवान् ने अनन्यभक्तिका स्वरूप और फल यह बतलाया है—

मत्कर्मकृन्मत्परमो मद्भक्त: संगवर्जित:।
निर्वैर: सर्वभूतेषु य: स मामेति पाण्डव॥
(गीता ११। ५५)

‘हे अर्जुन! जो पुरुष केवल मेरे ही लिये, सब कुछ मेरा समझता हुआ—यज्ञ, दान और तप आदि सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको करनेवाला है और मेरे परायण है अर्थात् मुझको परम आश्रय और परम गति मानकर मेरी प्राप्तिके लिये तत्पर है तथा मेरा भक्त है अर्थात् मेरे नाम, गुण, प्रभाव और रहस्यके श्रवण, मनन, ध्यान और पठन-पाठनका प्रेमसहित निष्काम-भावसे निरन्तर अभ्यास करनेवाला है और आसक्तिरहित है अर्थात् स्त्री, पुत्र और धनादि सम्पूर्ण सांसारिक पदार्थोंमें स्नेहरहित है और सम्पूर्ण भूतप्राणियोंमें वैरभावसे रहित है। ऐसा वह अनन्य भक्तिवाला पुरुष मुझको ही प्राप्त होता है।’

(३) अर्जुनने ‘निष्काम कर्मयोगसहित शरणागतिरूप भक्ति’ को ही अपने लिये प्रधान उपदेश समझकर उसीको विशेष स्मरण रखा था। भगवान् के कथनानुसार इसीको ‘सर्वगुह्यतम’ माना था। ज्ञानके उपदेशको शरणागतिकी अपेक्षा गौण समझकर उसकी इतनी परवा नहीं की थी। इस प्रसंगमें भी अर्जुन उस ‘सर्वगुह्यतम’ शरणागतिके लिये कुछ नहीं पूछता। यह भक्तिसहित तत्त्वज्ञान तो उसे स्मरण ही है। इसीलिये भगवान् ने भी उससे कहा कि मैंने उस समय तुम्हें ‘गुह्य’ सनातन ज्ञान सुनाया था—

श्रावितस्त्वं मया गुह्यं ज्ञापितश्च सनातनम्।
(महा०, आश्व० १६। ९)

इस ‘गुह्य’ शब्दसे भी यही सिद्ध होता है। उलाहना देनेके बाद भगवान् ने अर्जुनको जो कुछ सुनाया, उसमें भी गीताकी भाँति निष्काम कर्मयोग और शरणागतिके सम्बन्धमें कुछ नहीं कहा। केवल वही ज्ञानभाग सुनाया, जिनको कि अर्जुन भूल गया था।

(४) भगवान् के अपनेको असमर्थ बतलानेका यह अर्थ नहीं कि आप उस ज्ञानको पुन: सुना नहीं सकते थे या वे उसको भूल गये थे। सच्चिदानन्दघन भगवान् के लिये ऐसी कल्पना करना सर्वथा अनुचित है। भगवान् के कहनेका अभिप्राय ज्ञानयोगका सम्मान बढ़ाना है। गुरु अपने शिष्यसे कहता है कि ‘तुझको मैंने बड़ा ऊँचा उपदेश दिया था, उसे तूने याद नहीं रखा। आत्मज्ञानका उपदेश कोई बाजारू बात नहीं है जो जब चाहे तभी कह दी जाय।’ इस प्रकार यहाँ ‘असमर्थता’ का अर्थ यही है, मैं इतनी ऊँची बात इस तरह लापरवाही रखनेवालेको नहीं कह सकता। उद्दालक, दधीचि, सत्यकाम आदि ऋषियोंका ब्रह्मविद्याके सम्बन्धमें एक ही बार कहना माना जाता है। ब्रह्मविद्या एक ऐसी वस्तु है जो एक ही बार पात्रके प्रति कहनी पड़ती है, दुबारा नहीं। इसीलिये भगवान् कहते हैं कि ‘ब्रह्मविद्याका उपदेश तुमने भुला दिया, यह बड़ी भूल की।’ इसके बाद अर्जुनकी तीव्र इच्छा देखकर भगवान् ने पुन: ब्रह्मविद्याका उपदेश किया। भगवान् न जानते तो उपदेश कैसे करते? ‘योगयुक्त’ का अर्थ यही है कि ‘उस समय मैंने बहुत मन लगाकर तुमको वह ज्ञान सुनाया था।’ इससे अर्जुनको एक तरहकी धमकी भी दी गयी कि ‘मैं बार-बार वैसे मन लगाकर तुमसे नहीं कह सकता, इतना निकम्मा नहीं बैठा हूँ जो बार-बार तुमसे कहूँ और तुम उसे फिर भुला दो। तुम-सरीखे पुरुषके लिये ऐसा उचित नहीं है, क्योंकि ऐसा करना पवित्र ब्रह्मविद्याका तिरस्कार करना है।’ यहाँ भगवान् ने अर्जुनके बहाने सबको शिक्षा दी है कि ब्रह्मविद्याको बड़े ध्यानसे सुनना चाहिये और वक्ताको भी उसका ऐसे अधिकारी पुरुषके प्रति कथन करना चाहिये जो सुननेके साथ ही उसे धारण कर ले।

यद्यपि अर्जुन ब्रह्मविद्याका अधिकारी नहीं था, निष्काम कर्मयोगयुक्त शरणागतिका अधिकारी था, इसीसे उसे ‘सर्वगुह्यतम’ शरणागतिका ही अन्तिम उपदेश दिया गया था तथापि भगवान् का यह उलाहना देना तो सार्थक ही था कि तुम मेरी कही हुई बातोंको क्यों भूल गये। शरणागतको अपने इष्टकी बात कभी नहीं भूलनी चाहिये। परन्तु यह नहीं समझना चाहिये कि ज्ञानका अधिकार ऊँची श्रेणीका है और निष्काम कर्मयोगयुक्त शरणागति भक्तिका नीची श्रेणीका। जब दोनोंका फल एक है तब इनमें कोई भी छोटा-बड़ा नहीं है। अर्जुन कर्मी और भक्त था, अत: उसके लिये वही मार्ग उपयुक्त था।

(५) भगवान् सब सुना सकते थे, यह बात तो ऊपरके विवेचनसे सिद्ध है। भगवान् व्यास महान् योगी थे, उन्होंने योगबलसे सारी बातें जानकर सुना दी। जिनकी योगशक्तिसे संजय दिव्य दृष्टि प्राप्त करनेमें समर्थ हो गया, उनके लिये यह कौन बड़ी बात थी?

(६) व्यासजीके कहनेका मतलब यह है कि उन्होंने कुछ तो संवाद ज्यों-के-त्यों रख दिये, कुछ संवादोंको संग्रह करके उन्हें सजा दिया। भगवान् ने अर्जुनको जो उपदेश दिया था उसमेंसे बहुत-से श्लोक तो ज्यों-के-त्यों रख दिये गये, कुछ गद्य भागके पद्य बना दिये और कुछ इतिहास कहा। दुर्योधन, संजय, अर्जुन और धृतराष्ट्र आदिकी दशाका वर्णन व्यासजीकी रचना है। इससे यह नहीं मानना चाहिये कि यह मन:कल्पित उपन्यासमात्र है। वास्तवमें व्यासजीने अपने योगबलसे सारी बातें जानकर ही सच्चा इतिहास लिखा है।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur