Seeker of Truth

गीताका रहस्य

गीता सुगीता कर्तव्या किमन्यै: शास्त्रविस्तरै:।
या स्वयं पद्मनाभस्य मुखपद्माद्विनि:सृता॥
(महा० भीष्म० ४३।१)

‘गीता सुगीता करनेयोग्य है, अर्थात् श्रीगीताजीको भली प्रकार पढ़कर अर्थ और भावसहित अन्त:करणमें धारण कर लेना मुख्य कर्तव्य है, क्योंकि यह स्वयं श्रीपद्मनाभ (विष्णु) भगवान् के मुखारविन्दसे निकली हुई है। फिर अन्य शास्त्रोंके विस्तारसे क्या प्रयोजन है?’

ऐसा कहकर श्रीव्यासजीने अन्य शास्त्रोंकी निन्दा नहीं की; उनका तात्पर्य तो केवल गीताकी प्रशंसामें है। यहाँ एक बात विशेष विचारणीय है। इस श्लोकमें ‘पद्मनाभ’ और ‘मुखपद्म’—इन दो शब्दोंका प्रयोग क्यों किया गया है? ‘पद्मनाभ’ तो भगवान् विष्णुका नाम है और गीता भगवान् कृष्णके मुख-कमलसे निकली है। फिर उनके लिये ‘पद्मनाभ’ क्यों कहा गया? इसका तात्पर्य यह है कि भगवान् ने यह स्पष्टतया गीता (४।६)-में कहा है कि मैं अजन्मा और ईश्वर होनेपर भी संसारके उद्धारके लिये प्रकट होता हूँ। भगवान् विष्णु ही कृष्णके रूपमें प्रकट हुए हैं। अत: भगवान् विष्णु और कृष्णमें कोई अन्तर नहीं है।

यह गीता उन्हीं भगवान् के मुखकमलसे निकली है जिनकी नाभिसे कमल निकला था। उस कमलसे ब्रह्माजी उत्पन्न हुए। ब्रह्माजीसे चारों वेद प्रकट हुए और उनके आधारपर ही समस्त ऋषिगणोंने सम्पूर्ण शास्त्रोंकी रचना की है। अत: गीताको अच्छी प्रकार भावसहित समझकर धारण कर लेनेपर, अन्य सब शास्त्रोंकी आवश्यकता नहीं रह जाती, क्योंकि सारे शास्त्रोंका विस्तार तो भगवान् की नाभिसे हुआ और गीता स्वयं भगवान् के मुखकमलसे कही गयी है। यही नहीं, गीता सारे उपनिषदोंका सार है।

सर्वोपनिषदो गावो दोग्धा गोपालनन्दन:।

‘सारे उपनिषद् तो गाय हैं, भगवान् श्रीकृष्ण उनके दुहनेवाले हैं।’ तात्पर्य यह है—सारे उपनिषदोंका सार निकालकर गीताके रूपमें वर्णन किया है।

ऋषिभिर्बहुधा गीतं छन्दोभिर्विविधै: पृथक्।
ब्रह्मसूत्रपदैश्चैव हेतुमद्भिर्विनिश्चितै:॥
(गीता १३।४)

‘यह क्षेत्र और क्षेत्रज्ञका तत्त्व ऋषियोंद्वारा बहुत प्रकारसे कहा गया है और विविध वेदमन्त्रोंद्वारा भी विभागपूर्वक कहा गया है तथा भलीभाँति निश्चय किये हुए युक्तियुक्त ब्रह्मसूत्रके पदोंद्वारा भी कहा गया है।’ (वही तू मुझसे सुन।)

अब यह विचारना है कि गीताका सारभूत श्लोक कौन-सा है। विचार करनेपर १८ वें अध्यायका ६६ वाँ श्लोक ही उसका सार मालूम होता है, जो इस प्रकार है—

सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

‘सर्वधर्मोंको अर्थात् सम्पूर्ण कर्तव्यकर्मोंको मुझमें त्यागकर तू केवल एक मुझ सर्वशक्तिमान् सर्वाधार परमेश्वरकी ही शरणमें आ जा, मैं तुझे सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा, तू शोक मत कर।’ इस श्लोकमें ही गीताका उपसंहार हुआ है और यह नियम है कि किसी भी ग्रन्थके उपक्रम और उपसंहारमें जो बात रहती है वह उसका मुख्य तात्पर्य हुआ करता है। अत: गीताका उपसंहाररूप होनेके कारण यह श्लोक ही मुख्य सारभूत होना चाहिये।

अब यह देखना है कि यह श्लोक किस उपक्रमका उपसंहार है। गीताका उपक्रम इस प्रकार होता है।

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥
(२। ११)

‘हे अर्जुन! तू न शोक करनेयोग्य मनुष्योंके लिये शोक करता है और पण्डितोंके-से वचनोंको कहता है। परन्तु जिनके प्राण चले गये हैं, उनके लिये और जिनके प्राण नहीं गये हैं उनके लिये भी पण्डितजन शोक नहीं करते।’ इस श्लोकका प्रथम पद ‘अशोच्यान्’ है, उपसंहारमें भी अन्तिम पद ‘मा शुच:’ है। इससे सिद्ध होता है कि शोकनिवृत्ति ही गीताका प्रधान उद्देश्य है।

युद्धके ‘आरम्भमें अपने कुटुम्बियोंको ही अपने विरुद्ध खड़े हुए देखकर अर्जुन मोहग्रस्त हो गया था। उसकी मोहनिवृत्तिके लिये ही गीताका उपदेश किया गया। उस उपदेशका उपसंहार करते हुए भगवान् ने चार बातें कही हैं—

१-तू सारे धर्मोंको त्याग दे।

२-तू केवल एक मेरी शरण हो जा।

३-मैं तुझे पापोंसे छुड़ा दूँगा।

४-तू शोक न कर।

यहाँ ‘सर्वधर्मान् परित्यज्य’ का भाव किन्हीं-किन्हीं महानुभावोंने सर्वकर्मोंके फलका त्याग बतलाया है, परन्तु शब्दोंसे ऐसा भाव व्यक्त नहीं होता। दूसरे पक्षका कथन है कि ऐसा कहकर भगवान् ने स्वरूपसे समस्त धर्मोंका त्याग बतलाया है। किन्तु ऐसा अर्थ भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि अर्जुनने भगवान् की आज्ञासे युद्ध ही किया—एकान्तसेवन नहीं किया। तीसरा पक्ष कहता है कि अपने कर्तव्यकर्मोंको करता हुआ उसमें अकर्तृत्वबुद्धि रखे यही भगवान् का आशय है। यह भी ठीक नहीं, क्योंकि ऐसा कहना ज्ञानकी दृष्टिसे सम्भव है किन्तु यहाँ प्रकरण भक्तियोगका है।

अब हमें यह देखना है कि इसका अर्थ किस प्रकार करना चाहिये। सबसे पहले इस बातपर विचार करना है कि ‘शरण’ शब्दका अभिप्राय क्या है? हमें इसका वही अर्थ लेना चाहिये जो भगवान् ने गीतामें लिया हो। नवम अध्यायके अन्तमें भगवान् कहते हैं—

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥

इसके पूर्व बत्तीसवें और तैंतीसवें श्लोकोंमें भगवान् कहते हैं—‘हे अर्जुन! स्त्री, वैश्य, शूद्र तथा पापयोनि—चाण्डालादि जो कोई भी हों, वे भी मेरे शरण होकर परम गतिको ही प्राप्त होते हैं। फिर इसमें तो कहना ही क्या है, जो पुण्यशील ब्राह्मण तथा राजर्षि भक्तजन मेरी शरण होकर परम गतिको प्राप्त होते हैं। इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।’ इस प्रकार भगवदाश्रय अर्थात् शरणकी आवश्यकता बतलाकर उपर्युक्त श्लोकमें भगवान् ने शरणका स्वरूप बतलाया है। यहाँ भगवान् कहते हैं कि ‘मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन* करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर।

* गीता १८। ४६ तथा ९। २६-२७ के अनुसार यहाँ पूजा समझनी चाहिये।

इस प्रकार आत्माको मुझमें नियुक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।’ अत: भगवत्-स्मरण और भगवत्सेवा पूजा-नमस्कार आदिमें तत्पर रहते हुए भगवान् के आज्ञानुसार कर्म करना ही गीतोक्त ‘शरणागति’ है। जहाँ ईश्वराज्ञा और धर्मपालनमें विरोध-सा प्रतीत हो, वहाँ भगवत्-शरणापन्न भक्तका भगवदाज्ञा मानना ही मुख्य कर्तव्य है। इस विषयमें हमें महाभारतके कर्णवध-प्रसंगपर ध्यान देना चाहिये—

वीर कर्णके रथका पहिया पृथ्वीमें धँस गया है; वह उसे बाहर निकालनेमें व्यस्त है।

उस समय अर्जुनको अपने ऊपर बाण चलाते हुए देखकर कर्णने अर्जुनसे कहा—‘हे महाधनुषधारी अर्जुन! तुम जगत्प्रसिद्ध महावीर और महात्मा हो, सहस्रार्जुनके समान योद्धा हो, शस्त्र और शास्त्रोंके ज्ञाता हो, अतएव तुम क्षणभर ठहरो। जबतक मैं पहियेको न निकाल लूँ, तबतक तुम बाण न छोड़ो। क्योंकि यह धर्म नहीं है।’

(महा० कर्णपर्व ९०।१०८—११६)

तब श्रीकृष्णभगवान् ने कर्णसे कहा कि ‘हे राधापुत्र! तुमने आज प्रारब्धसे ही धर्मको याद किया, किन्तु तुमलोग अपने कर्मोंकी तरफ खयाल नहीं करते। हे कर्ण! तुमलोगोंने भीमको विष दिया,पाण्डवोंको लाक्षाभवनमें जलाया, द्रौपदीको सभामें बुलाकर नाना प्रकारके कुवचन कहे और उसको अपमानित किया, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?’

वनवासे व्यतीते च वर्षे कर्ण त्रयोदशे।
न प्रयच्छसि यद् राज्यं क्व ते धर्मस्तदा गत:॥
(महा० कर्णपर्व ९१।४)

‘हे कर्ण! जब तेरह वर्ष वनमें रहकर पाण्डव आये, तब भी तुमलोगोंने उनको राज्य न दिया; उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?’

यदाभिमन्युं बहवो युद्धे जघ्नुर्महारथा:।
परिवार्य रणे बालं क्व ते धर्मस्तदा गत:॥
(महा० कर्णपर्व ९१।११)

‘जब तुम अनेक महारथियोंने मिलकर बालक अभिमन्युको युद्धमें चारों तरफसे घेरकर मारा था, उस समय तुम्हारा धर्म कहाँ चला गया था?’

‘क्या इन सब प्रसंगोंमें धर्मकी आवश्यकता नहीं थी? इस समय ही तुम्हें धर्म याद आया है। विशेष बोलनेसे कुछ लाभ नहीं। अब तुम जीते न बचोगे।’

इस प्रकार श्रीकृष्णकी बातोंको सुनकर कर्णने लज्जासे सिर नीचा कर लिया। तब श्रीकृष्णने अर्जुनसे कहा कि इस समय तुम कर्णको दिव्य बाणसे मारो। यद्यपि उस समय शस्त्ररहित पृथ्वीपर खड़े हुए कर्णके धर्मयुक्त वचनोंको सुनकर अर्जुन बाण चलानेमें हिचकिचाते थे, किन्तु भगवान् के वचनोंको सुनकर उनका सारा संकोच निवृत्त हो गया और वह नि:शंक होकर कर्णपर बाण छोड़ने लगे।*

* वास्तवमें अर्जुनका कर्णपर बाण चलाना अधर्म नहीं था, क्योंकि आततायियोंको किसी प्रकार भी मारना, धर्मशास्त्रमें न्याय बताया गया है और कर्ण आततायी था, यह बात भगवान् के वचनोंसे सिद्ध हो चुकी है।

इसी प्रकार प्रत्येक भक्तका कर्तव्य भगवदाज्ञा-पालन ही है। इसीका नाम भगवच्छरणागति है। भगवदाज्ञाके सामने अन्य किसी धर्मका न मानना ‘सर्वधर्मपरित्याग’ है। ईश्वराज्ञा और धर्मशास्त्रमें विरोध-सा प्रतीत होनेपर भगवदाज्ञा ही माननीय है; क्योंकि धर्मका तत्त्व गहन है, साधारण पुरुष उसका निर्णय नहीं कर सकते।

दूसरे श्लोकार्द्धमें भगवान् कहते हैं—

अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥

यहाँ ‘मा शुच:’ यह पद उपक्रमका उपसंहार करनेके लिये है। अर्जुनको मोहवश भविष्यमें होनेवाले बन्धुवधका शोक था। अत: भगवान् ने उसकी शोकनिवृत्तिके लिये ही गीताशास्त्रका उपदेश दिया। उन्होंने अर्जुनको बतलाया कि आत्मा तो अशोच्य है ही, किन्तु यदि तू शरीरोंकी ओर विचार करे तो वे भी अशोच्य ही हैं। क्योंकि—

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
(गीता २। २८)

‘हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है?’

अत: स्वभावत: नाशवान् होनेके कारण शरीरके लिये शोक करना व्यर्थ है। आत्माकी दृष्टिसे विचार करें तो भी शोक करनेकी आवश्यकता नहीं है, क्योंकि भगवान् ने कहा है कि—

अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च।
नित्य: सर्वगत: स्थाणुरचलोऽयं सनातन:॥
(गीता २। २४)
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥
(गीता २। २५)

‘यह आत्मा अच्छेद्य है, यह आत्मा अदाह्य, अक्लेद्य और नि:सन्देह अशोष्य है। तथा यह आत्मा नित्य, सर्वव्यापक, अचल, स्थिर रहनेवाला और सनातन है। यह आत्मा अव्यक्त है, यह आत्मा अचिन्त्य है और यह आत्मा विकाररहित कहा जाता है। इससे हे अर्जुन! इस आत्माको उपर्युक्त प्रकारसे जानकर तू शोक करनेको योग्य नहीं है अर्थात् तुझे शोक करना उचित नहीं है।’

अत: आत्माके लिये भी चिन्ता करना सर्वथा अयुक्त है। यही उपदेश भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने ताराको दिया था—

छिति जल पावक गगन समीरा।
पंच रचित अति अधम सरीरा॥
प्रगट सो तनु तव आगें सोवा।
जीव नित्य केहि लगि तुम्ह रोवा॥
उपजा ग्यान चरन तब लागी।
लीन्हेसि परम भगति बर माँगी॥
(रा० च० मा०, कि० ११।४—६)

इससे यह बात सिद्ध हो गयी कि शरीर या आत्मा किसीके लिये भी शोक करनेकी आवश्यकता नहीं है। भगवान् कहते हैं—हे अर्जुन! यदि तू कहे कि शरीरसे आत्माका वियोग होनेके लिये मैं चिन्तित हूँ। तो यह भी ठीक नहीं, क्योंकि—

वासांसि जीर्णानि यथा विहाय
नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा-
न्यन्यानि संयाति नवानि देही॥
(गीता २।२२)

‘जैसे मनुष्य पुराने वस्त्रोंको त्यागकर दूसरे नये वस्त्रोंको ग्रहण करता है, वैसे ही जीवात्मा पुराने शरीरोंको त्यागकर दूसरे नये शरीरोंको प्राप्त होता है।’

इस श्लोकमें श्रीभगवान् ने पूर्व शरीरको त्यागकर दूसरे नवीन शरीरकी प्राप्तिके सम्बन्धमें वस्त्रोंके बदलनेका दृष्टान्त देकर अर्जुनको आत्माकी नित्यता समझायी है। वस्त्रोंके उदाहरणके विषयमें कई प्रकारकी शंकाएँ की जाती हैं, अत: यहाँ उनका समाधान किया जाता है।

शंका—पुराने वस्त्रोंके त्याग और नवीन वस्त्रोंके धारण करनेमें मनुष्यको सुख होता है, किन्तु पुराने शरीरके त्याग और नये शरीरके ग्रहणमें तो क्लेश होता है, अतएव यह उदाहरण समीचीन नहीं है।

समाधान—पुराने शरीरके त्याग और नये शरीरके ग्रहणमें यानी मृत्यु और जन्ममें अज्ञानीको ही दु:ख होता है और अज्ञानी तो बालकके समान है। धीर, विवेकी एवं भक्तको शरीरपरित्यागमें दु:ख नहीं होता। भगवान् ने कहा है—

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति॥
(गीता २। १३)

‘जैसे जीवात्माकी इस देहमें बालकपन, जवानी और वृद्धावस्था होती है, वैसे ही अन्य शरीरकी प्राप्ति होती है; उस विषयमें धीर पुरुष मोहित नहीं होता। रामायणमें भी लिखा है—श्रीरामचन्द्रजीके चरणोंमें दृढ़ प्रीति करके बालिने उसी प्रकार देहका त्याग कर दिया था जैसे हाथी अपने गलेसे फूलकी मालाका त्याग कर देता है। यानी मृत्युके दु:खका उसे पता ही नहीं लगा—

राम चरन दृढ़ प्रीति करि बालि कीन्ह तनु त्याग।
सुमन माल जिमि कंठ ते गिरत न जानइ नाग॥
(रा० च० मा०, कि० १०)

पुराने वस्त्रोंको त्यागने और नये वस्त्र धारण करनेमें भी हर्ष उन्हींको होता है जो नये-पुराने वस्त्रके तत्त्वको जानते हैं। छ: महीने या सालभरके बच्चेकी माँ जब उसके पुराने गंदे वस्त्रको उतारती है तब वह बालक रोता है और नया साफ-सुथरा वस्त्र पहनाती है तब भी वह रोता है। किन्तु माता उसके रोनेकी परवा न करके उसके हितके लिये वस्त्र बदल ही देती है। इसी प्रकार मातारूप भगवान् भी अपने प्रिय बालकरूप जीवके हितार्थ उसके रोनेकी कुछ भी परवा न करके उसकी देहको बदल देते हैं। अतएव यह उदाहरण सर्वथा समीचीन है।

शंका—भगवान् ने यहाँ शरीरोंके साथ ‘जीर्णानि’ पदका प्रयोग किया है, परन्तु यह कोई नियम नहीं है कि वृद्ध होनेपर या शरीर पुराना होनेपर ही मनुष्यकी मृत्यु होती हो। हम नवीन उम्रके जवान और बच्चोंको भी मरते हुए देखते हैं। अतएव यह उदाहरण भी युक्तियुक्त नहीं जँचता।

समाधान—यहाँ ‘जीर्णानि’ पदसे अस्सी या सौ वर्षकी आयुसे तात्पर्य नहीं है। प्रारब्धवश युवा या बाल जिस किसी अवस्थामें प्राणी मरता है वही उसकी आयु समझी जाती है और आयुकी समाप्तिका नाम ही जीर्णावस्था है। वस्त्रके दृष्टान्तसे यह बात भलीभाँति स्पष्ट हो जाती है। अमुक वस्त्र नया है या पुराना इस बातको हम दूरसे देखकर ही नहीं पहचान सकते। धोबीके यहाँसे धुलकर आया हुआ पुराना वस्त्र भी देखनेमें नया ही मालूम होता है, किन्तु वह अधिक दिन नहीं ठहरता। इसी प्रकार जिस मनुष्यकी आयु शेष हो चुकी है उसका शरीर देखनेमें बालक अथवा युवावस्थावाला होनेपर भी वास्तवमें जीर्ण ही है, क्योंकि वह देखनेमें नवीन होनेपर भी आयुकी दृष्टिसे अधिक दिन ठहरनेवाला नहीं है। यहाँ प्राय: सब योद्धाओंकी आयु शेष हो चुकी थी। भगवान् कहते हैं—

ऋतेऽपि त्वां न भविष्यन्ति सर्वे।
(गीता ११। ३२)
निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्॥
(गीता ११। ३३)
मया हतांस्त्वं जहि मा व्यथिष्ठा:।
(गीता ११। ३४)

वे तो मरनेवाले ही थे, इसलिये जवान भी जीर्ण ही थे। इस बातको भगवान् जानते थे और कोई नहीं जानता था। अतएव यह उदाहरण सर्वथा युक्तिसंगत है।

शंका—यहाँ ‘वासांसि’ और ‘शरीराणि’ दोनों ही पद बहुवचनान्त हैं। कपड़ा बदलनेवाला मनुष्य तो एक साथ भी तीन-चार पुराने वस्त्र त्यागकर नये धारण कर सकता है, परन्तु देही यानी जीवात्मा तो एक ही पुराने शरीरको छोड़कर दूसरे एक ही नये शरीरको प्राप्त होता है। एक साथ बहुत-से शरीरोंका त्याग या ग्रहण युक्तिसे सिद्ध नहीं है, अतएव यहाँ शरीरके लिये बहुवचनका प्रयोग अनुचित प्रतीत होता है।

समाधान—(क) यहाँ श्रीभगवान् का तात्पर्य यह है कि मनुष्य जैसे अपने जीवनमें अनेक बार अनेकों पुराने वस्त्रोंको छोड़ता और नये वस्त्रोंको धारण करता आया है इसी प्रकार जीवात्मा भी अबतक न जाने कितने शरीर छोड़ चुका है और कितने नये शरीर धारण कर चुका है और भविष्यमें भी जबतक उसे तत्त्वज्ञान नहीं होगा, तबतक न जाने कितने असंख्य पुराने शरीरोंका त्याग और नये शरीरोंको धारण करता रहेगा। इसलिये बहुवचनका प्रयोग किया गया है।

(ख) स्थूल, सूक्ष्म और कारणभेदसे शरीर तीन हैं, जब जीवात्मा इस शरीरको छोड़कर दूसरे शरीरमें जाता है तब यह तीनों ही शरीर बदल जाते हैं। मनुष्य जैसा कर्म करता है उसके अनुसार ही उसका स्वभाव (प्रकृति) बनता जाता है। कारण शरीरमें स्वभाव ही मुख्य है। प्राय: स्वभावके अनुसार ही अन्तकालमें स्फुरणा यानी संकल्प होता है और संकल्पके अनुसार ही उसका १७ तत्त्वोंवाला* सूक्ष्म शरीर बन जाता है।

* मन, बुद्धि, दस इन्द्रियाँ (श्रोत्र, चक्षु, रसना, त्वचा, नासिका, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा) तथा पंच-तन्मात्राएँ (शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध) ये सत्रह तत्त्व हैं। अहंकार बुद्धिके अन्तर्गत आ जाता है और प्रकृति सबमें व्यापक है ही। पंचप्राण सूक्ष्मवायुके अन्तर्गत होनेसे उन्हें तन्मात्राओंके अन्तर्गत ही समझ लेना चाहिये। कोई-कोई इन पंच-तन्मात्राओंको न लेकर बदलेमें प्राण, अपान, समान, व्यान, उदान—इन पाँच प्राणोंको ही लेते हैं।

कारण और सूक्ष्म शरीरके सहित ही यह जीवात्मा इस शरीरसे निकलकर अन्तकालके संकल्पके अनुसार ही स्थूल शरीरको प्राप्त होता है।

कर्मोंके अनुसार कारण और सूक्ष्म शरीर तो पहले ही बदल चुके और स्थूल शरीर तदनुसार ही यथायोग्य जाति, देश, कालमें बननेवाला है। इसलिये स्थूल-सूक्ष्म-कारण-भेदसे तीनों शरीरोंके परिवर्तन होनेके कारण ही भगवान् ने बहुवचनका प्रयोग किया है।

शंका—आत्मा तो अचल है, उसमें गमनागमन नहीं होता; फिर देहीके दूसरे शरीरमें जानेकी बात कैसे कही गयी?

समाधान—वास्तवमें आत्माका अचल और अक्रिय होनेके कारण किसी भी हालतमें गमनागमन नहीं होता; पर जैसे घड़ेको एक मकानसे दूसरे मकानमें ले जानेके समय, उसके भीतरसे आकाशका यानी घटाकाशका भी घटके सम्बन्धसे गमनागमन-सा प्रतीत होता है, वैसे ही सूक्ष्म शरीरका गमनागमन होनेसे उसके सम्बन्धसे आत्मामें भी गमनागमनकी प्रतीति होती है। अतएव लोगोंको समझानेके लिये आत्मामें गमनागमनकी औपचारिक कल्पना की जाती है। यहाँ ‘देही’ शब्द देहाभिमानी चेतनाका वाचक है, अत: देहके सम्बन्धसे उसमें भी गमनागमन होता-सा प्रतीत होता है। इसीलिये देहीके अन्य शरीरोंमें जानेकी बात कही गयी। देही यानी देहाभिमानी जैसे जीवनकालमें स्थूल शरीरके गमनागमनको ‘मैं जाता हूँ’, ‘मैं आता हूँ’ इस प्रकार अपने अंदर मानता है, उसी प्रकार स्थूल देहके वियोगके समय तथा देहान्तरकी प्राप्तिके समय, पहले देहको छोड़कर दूसरे स्थूल देहमें सूक्ष्म और कारण शरीरके जाने-आनेको देही यानी जीवात्मा अपना गमनागमन अज्ञानसे अनुभव करता है, इसलिये समझानेके लिये ही देहीका एक शरीरसे दूसरे शरीरमें जाना-आना बताया गया है।

शंका—इसमें क्रियाका प्रयोग भी ठीक नहीं हुआ है। वस्त्रोंके लिये ‘गृह्णाति’ तथा शरीरके लिये ‘संयाति’ कहा है। एक ही क्रियासे काम चल जाता क्योंकि दोनों समानार्थक हैं और ऐसा करनेमें छन्दोभंगकी भी कोई सम्भावना नहीं थी, फिर दो तरहका प्रयोग क्यों किया गया?

समाधान—यद्यपि दोनों क्रियाओंके फलमें कोई भेद नहीं है, तथापि ‘गृह्णाति’ क्रियाका मुख्य अर्थ ग्रहण करना और ‘संयाति’ का मुख्य अर्थ गमन करना है। वस्त्र ग्रहण किये जाते हैं इसलिये वहाँ ‘गृह्णाति’ क्रिया दी गयी और एक शरीरको छोड़कर दूसरेमें जाना प्रतीत होता है इसलिये नवीन शरीरमें जानेकी बात ‘संयाति’ क्रियाद्वारा व्यक्त की गयी। अतएव क्रियाभेद होनेपर भी फलमें अभेद होनेके कारण ऐसा करना सर्वथा युक्तिसंगत ही है।

प्रश्न—‘नर:’ और ‘देही’—इन दो पदोंका प्रयोग क्यों किया गया, एक-से भी काम चल सकता था?

उत्तर—‘नर:’ तथा ‘देही’ दोनों ही सार्थक हैं; क्योंकि वस्त्रका ग्रहण या त्याग ‘नर’ ही करता है, अन्य जीव नहीं। किन्तु एक शरीरसे दूसरे शरीरमें गमनागमन सभी जीवोंका होता है, इसलिये वस्त्रोंके साथ ‘नर:’ का तथा शरीरके साथ ‘देही’ शब्दका प्रयोग किया गया है।

इस प्रकार यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो यही कहना होगा कि संसारमें गीताके समान कोई दूसरा ग्रन्थ नहीं है। गीतामें प्रत्येक पदार्थ, भाव और क्रियाके तीन-तीन भेद किये गये हैं—सात्त्विक, राजस और तामस। जिस पदार्थ, भाव और क्रियामें यथार्थ ज्ञान निष्कामभाव हो और जो परिणाममें कल्याणकारी हो उसे सात्त्विक समझना चाहिये। जिस पदार्थ, भाव और क्रियामें आरम्भमें सुख-सा प्रतीत हो, सकाम भाव हो और जो परिणाममें दु:खदायी हो, उसे राजसी समझना चाहिये। जिस पदार्थ, भाव और क्रियामें हिंसा, अज्ञान, शास्त्रविपरीतता हो तथा जो दु:ख और मोहकारक हो उसे तामसी समझना चाहिये। इस प्रकार तत्त्व समझ लेनेपर गीताके मुख्य-मुख्य बहुत-से प्रकरण जाने जा सकते हैं।

गीतामें जितने सद्भाव यानी उत्तम गुण बतलाये गये हैं उन सबमें एक ऐसा गुण है जिस एकसे ही महापुरुषकी पहचान हो जाती है, उसका नाम है ‘समता’।

समदु:खसुख: स्वस्थ: समलोष्टाश्मकांचन:।
तुल्यप्रियाप्रियो धीरस्तुल्यनिन्दात्मसंस्तुति:॥
मानापमानयोस्तुल्यस्तुल्यो मित्रारिपक्षयो:।
सर्वारम्भपरित्यागी गुणातीत: स उच्यते॥
(गीता १४। २४-२५)

‘जो निरन्तर आत्मभावमें स्थित, दु:ख-सुखको समान समझनेवाला, मिट्टी, पत्थर और स्वर्णमें समान भाववाला, ज्ञानी, प्रिय तथा अप्रियको एक-सा माननेवाला और अपनी निन्दा-स्तुतिमें भी समान भाववाला है तथा जो मान और अपमानमें सम है एवं मित्र और वैरीके पक्षमें भी सम है, सम्पूर्ण आरम्भोंमें कर्तापनके अभिमानसे रहित वह पुरुष गुणातीत कहा जाता है।’

यहाँ सुख-दु:खकी समता भावविषयक समता है, निन्दा-स्तुति, मान-अपमानकी समता दूसरेकी क्रियासे सम्बन्ध रखनेवाली क्रियाविषयक समता है और प्रिय-अप्रिय एवं सोने-मिट्टी आदिमें समान दृष्टि रखना पदार्थ-विषयक समता है। समता ही ज्ञानीका प्रधान गुण है।*

* क्योंकि समता साक्षात् ब्रह्मका स्वरूप है इसलिये समतामें जिसकी स्थिति है उसकी ब्रह्ममें स्थिति बतलायी गयी है (गीता ५। १९)।

गीतामें जहाँ-जहाँ भी प्राप्त हुए योगी, भक्त और ज्ञानीके लक्षणोंका वर्णन है वहाँ कहीं-न-कहीं समताकी बात अवश्य आ जाती है। इसलिये महात्माओंके लक्षणोंमें समता ही सर्वोत्तम गुण है।

गीताके समान संसारमें कोई ग्रन्थ नहीं है। सभी मत इसकी उत्कृष्टता स्वीकार करते हैं। अत: हमें गीताका इतना अभ्यास करना चाहिये कि हमारी आत्मा गीतामय हो जाय। हमें उसे अपने हृदयमें बसाना चाहिये। गीता गंगासे भी बढ़कर है, क्योंकि गंगा भगवान् के चरणोंसे निकली है और गीता भगवान् के मुखकमलसे निकली है; गंगा तो अपनेमें स्नान करनेवालोंको ही पवित्र करती है किन्तु गीता धारण करनेसे, घर बैठे हुएको पवित्र कर देती है। गंगामें स्नान करनेवाला स्वयं मुक्त हो सकता है पर गीतामें अवगाहन करनेवाला तो दूसरोंको भी मुक्त कर सकता है।

अतएव यह सिद्ध हुआ कि गीता गंगासे भी बढ़कर है। गीताका पाठमात्र करनेवालेकी अपेक्षा उसके अर्थ और भावको समझनेवाला श्रेष्ठ है और गीताके अनुसार आचरण करनेवाला तो उससे भी श्रेष्ठ है।

इसलिये सबको अर्थ और भावसहित गीताका अध्ययन करते हुए उसके अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur