Seeker of Truth

गीता-सम्बन्धी प्रश्नोत्तर

गीताभ्यासेन ये जाता: साधकेष्वपि संशया:।

अत्र तेषां समाधानं क्रियते हि समासत:॥

प्रश्न—कौरव-सेनाके तो शंख, भेरी, ढोल आदि कई बाजे बजे (१।१३), पर पाण्डव-सेनाके केवल शंख ही बजे (१।१५—१९), ऐसा क्यों?

उत्तर—युद्धमें विपक्षकी सेनापर विशेष व्यक्तियोंका ही असर पड़ता है, सामान्य व्यक्तियोंका नहीं। कौरव-सेनाके मुख्य व्यक्ति भीष्मजीके शंख बजानेके बाद सम्पूर्ण सैनिकोंने अपने-अपने (कई प्रकारके) बाजे बजाये, जिसका पाण्डव-सेनापर कोई असर नहीं पड़ा। परन्तु पाण्डव-सेनाके मुख्य व्यक्तियोंने अपने-अपने शंख बजाये, जिनकी तुमुल ध्वनिने कौरवोंके हृदयको विदीर्ण कर दिया।

प्रश्न—भगवान् तो जानते ही थे कि भीष्मजीने दुर्योधनको प्रसन्न करनेके लिये ही शंख बजाया है (१।१२), यह युद्धारम्भकी घोषणा नहीं है। फिर भी भगवान‍्ने शंख क्यों बजाया (१।१४)?

उत्तर—भीष्मजीका शंख बजते ही कौरव-सेनाके सब बाजे एक साथ बज उठे। अत: ऐसे समयपर अगर पाण्डव-सेनाके बाजे न बजते तो बुरा लगता, पाण्डव-सेनाकी हार सूचित होती और व्यवहार भी उचित नहीं लगता। अत: भक्तपक्षपाती भगवान‍्ने पाण्डव-सेनाके सेनापति धृष्टद्युम्नकी परवाह न करके सबसे पहले शंख बजाया।

प्रश्न—अर्जुनने पहले अध्यायमें धर्मकी बहुत-सी बातें कही हैं। जब वे धर्मकी इतनी बातें जानते थे, तो फिर उनको मोह क्यों हुआ?

उत्तर—कुटुम्बकी ममता विवेकको दबा देती है, उसकी मुख्यताको नहीं रहने देती और मनुष्यको मोह-ममतामें तल्लीन कर देती है। अर्जुनको भी कुटुम्बकी ममताके कारण मोह हो गया।

प्रश्न—जब अर्जुन पापके होनेमें लोभको कारण मानते थे (१।३८,४५), तो फिर उन्होंने ‘मनुष्य न चाहता हुआ भी पाप क्यों करता है’ (३।३६)—यह प्रश्न क्यों किया?

उत्तर—कौटुम्बिक मोहके कारण अर्जुन (पहले अध्यायमें) युद्धसे निवृत्त होनेको धर्म और युद्धमें प्रवृत्त होनेको अधर्म मानते थे अर्थात् शरीर आदिको लेकर उनकी दृष्टि केवल भौतिक थी। अत: वे युद्धमें स्वजनोंको मारनेमें लोभको हेतु मानते थे। परंतु आगे गीताका उपदेश सुनते-सुनते उनमें अपने कल्याणकी इच्छा जाग्रत् हो गयी (३।२)। अत: वे पूछते हैं कि मनुष्य न चाहता हुआ भी न करनेयोग्य काममें प्रवृत्त क्यों होता है? तात्पर्य है कि पहले अध्यायमें तो अर्जुन मोहाविष्ट होकर कह रहे हैं और तीसरे अध्यायमें वे साधककी दृष्टिसे पूछ रहे हैं।

प्रश्न—शरीरी (जीवात्मा) अविनाशी है, इसका विनाश कोई कर ही नहीं सकता (२।१७), यह न मारता है और न मारा जाता है (२।१९) तो फिर मनुष्यको प्राणियोंकी हत्याका पाप लगना ही नहीं चाहिये?

उत्तर—पाप तो पिण्ड-प्राणोंका वियोग करनेका लगता है; क्योंकि प्रत्येक प्राणी पिण्ड-प्राणमें रहना चाहता है, जीना चाहता है। यद्यपि महात्मा लोग जीना नहीं चाहते, फिर भी उन्हें मारनेका बड़ा भारी पाप लगता है; क्योंकि उनका जीना संसारमात्र चाहता है। उनके जीनेसे प्राणिमात्रका परम हित होता है, प्राणिमात्रको सदा रहनेवाली शान्ति मिलती है। जो वस्तुएँ प्राणियोंके लिये जितनी आवश्यक होती हैं, उनका नाश करनेका उतना ही अधिक पाप लगता है।

प्रश्न—आत्मा नित्य है, सर्वत्र परिपूर्ण है, स्थिर स्वभाववाला है (२।२४), तो फिर इसका पुराने शरीरोंको छोड़कर दूसरे नये शरीरोंमें चला जाना कैसे सम्भव है (२।२२)?

उत्तर—जब यह प्रकृतिके अंश शरीरको अपना मान लेता है, उसके साथ तादात्म्य कर लेता है, तब यह प्रकृतिके अंशके आने-जानेको, उसके जीने-मरनेको अपना आना-जाना, जीना-मरना मान लेता है। उसी दृष्टिसे इसका अन्य शरीरोंमें चला जाना कहा गया है। वास्तवमें तत्त्वसे इसका आना-जाना, जीना-मरना है ही नहीं।

प्रश्न—भगवान् कहते हैं कि क्षत्रियके लिये युद्धके सिवाय कल्याणका दूसरा कोई साधन है ही नहीं (२।३१), तो क्या लड़ाई करनेसे ही क्षत्रियका कल्याण होगा, दूसरे किसी साधनसे कल्याण नहीं होगा?

उत्तर—ऐसी बात नहीं है। उस समय युद्धका प्रसंग था और अर्जुन युद्धको छोड़कर भिक्षा माँगना श्रेष्ठ समझते थे; अत: भगवान‍्ने कहा कि ऐसा स्वत:प्राप्त धर्मयुद्ध शूरवीर क्षत्रियके लिये कल्याणका बहुत बढ़िया साधन है। अगर ऐसे मौकेपर शूरवीर क्षत्रिय युद्ध नहीं करता तो उसकी अपकीर्ति होती है; वह आदरणीय-पूजनीय मनुष्योंकी दृष्टिमें लघुताको प्राप्त हो जाता है; वैरीलोग उसको न कहनेयोग्य वचन कहने लग जाते हैं (२।३४—३६)। तात्पर्य है कि अर्जुनके सामने युद्धका प्रसंग था, इसीलिये भगवान‍्ने युद्धको श्रेष्ठ साधन बताया। युद्धके सिवाय दूसरे साधनसे क्षत्रिय अपना कल्याण नहीं कर सकता—यह बात नहीं है; क्योंकि पहले भी बहुत-से राजा लोग चौथे आश्रममें वनमें जाकर साधन-भजन करते थे और उनका कल्याण भी हुआ है।

प्रश्न—कर्मोंका आरम्भ न करना और कर्मोंका त्याग करना—ये दोनों बातें एक ही हुईं; क्योंकि दोनोंमें ही कर्मोंका अभाव है। अत: भगवान‍्को ‘कर्माभावसे सिद्धि नहीं होती’—ऐसा कहना चाहिये था। फिर भी भगवान‍्ने (३।४ में) उपर्युक्त दोनों बातें एक साथ क्यों कहीं?

उत्तर—भगवान‍्ने ये दोनों बातें कर्मयोग और ज्ञानयोगकी दृष्टिसे अलग-अलग कही हैं। कर्मयोगमें निष्कामभावसे कर्मोंको करनेसे ही समताका पता लगता है; क्योंकि मनुष्य कर्म करेगा ही नहीं तो ‘सिद्धि-असिद्धिमें मैं सम रहा या नहीं’—इसका पता कैसे लगेगा? अत: भगवान् कहते हैं कि कर्मोंका आरम्भ न करनेसे सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती। ज्ञानयोगमें विवेकसे समताकी प्राप्ति होती है, केवल कर्मोंका त्याग करनेसे नहीं। अत: भगवान् कहते हैं कि कर्मोंका त्याग करनेमात्रसे सिद्धिकी प्राप्ति नहीं होती। तात्पर्य है कि कर्मयोग और ज्ञानयोग—दोनों ही मार्गोंमें कर्म करना बाधक नहीं है।

प्रश्न—कोई भी मनुष्य हरदम कर्म नहीं करता और नींद लेने, श्वास लेने, आँखोंको खोलने-मीचने आदिको भी वह ‘मैं करता हूँ’—ऐसा नहीं मानता, तो फिर तीसरे अध्यायके पाँचवें श्लोकमें यह कैसे कहा गया कि कोई भी मनुष्य किसी भी अवस्थामें क्षणमात्र भी कर्म किये बिना नहीं रहता?

उत्तर—जबतक स्वयं प्रकृतिके साथ अपना सम्बन्ध मानता है, तबतक वह कोई क्रिया करे अथवा न करे, उसमें क्रियाशीलता रहती ही है। वह क्रिया दो प्रकारकी होती है—क्रियाको करना और क्रियाका होना। ये दोनों विभाग प्रकृतिके सम्बन्धसे ही होते हैं। परंतु जब प्रकृतिका सम्बन्ध नहीं रहता, तब ‘करना’ और ‘होना’ नहीं रहते, प्रत्युत ‘है’ ही रहता है। करनेमें कर्ता, होनेमें क्रिया और ‘है’ में तत्त्व रहता है। वास्तवमें कर्तृत्व रहनेपर भी ‘है’ रहता है और क्रिया रहनेपर भी ‘है’ रहता है अर्थात् कर्ता और क्रियामें तो ‘है’ का अभाव नहीं होता, पर ‘है’ में कर्ता और क्रिया—दोनोंका अभाव होता है।

प्रश्न—वर्षाके साथ तो हवनरूप यज्ञका सम्बन्ध है अर्थात् विधि-विधानसे हवनरूप यज्ञ किया जाय तो वर्षा हो जाती है, फिर भी तीसरे अध्यायके चौदहवें श्लोकमें ‘यज्ञाद्भवति पर्जन्य:’ पदोंमें आये ‘यज्ञ’ शब्दसे हवनरूप यज्ञ न लेकर कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ क्यों लिया गया?

उत्तर—वास्तवमें देखा जाय तो कर्तव्यच्युत होनेसे, अकर्तव्य करनेसे ही वर्षा नहीं होती और अकाल पड़ता है। कर्तव्य-कर्म करनेसे सृष्टिचक्र सुचारुरूपसे चलता है और कर्तव्य-कर्म न करनेसे सृष्टिचक्रके चलनेमें बाधा आती है। जैसे बैलगाड़ीके चक्‍के ठीक रहनेसे गाड़ी ठीक चलती है; परन्तु किसी एक भी चक्‍केका थोड़ा-सा टुकड़ा टूट जाय तो उससे पूरी गाड़ीको धक्‍का लगता है, ऐसे ही कोई अपने कर्तव्यसे च्युत होता है तो उससे पूरी सृष्टिको धक्‍का लगता है। वर्तमान समयमें मनुष्य अपने-अपने कर्तव्यका पालन नहीं कर रहे हैं, प्रत्युत अकर्तव्यका आचरण कर रहे हैं, इसी कारण अकाल पड़ रहा है, कलह-अशान्ति बढ़ रही है। अगर मनुष्य अपने-अपने कर्तव्यका पालन करें तो देवता भी अपने-अपने कर्तव्यका पालन करेंगे और वर्षा हो जायगी।

दूसरी बात, अर्जुनका प्रश्न (३।१-२) और भगवान‍्का उत्तर (३।७—९) तथा प्रकरण (३।१०—१३)-को देखा जाय तो कर्तव्य-कर्मका ही प्रवाह है; और आगेके श्लोकों (३।१४—१६)-में भी कर्तव्य-कर्मकी ही बात है। अत: यहाँ कर्तव्य-कर्मरूप यज्ञ लेना ही ठीक बैठता है।

प्रश्न—परमात्मा तो सर्वव्यापी हैं, फिर उनको (३।१५ में) केवल यज्ञमें नित्य प्रतिष्ठित क्यों कहा गया है? क्या वे दूसरी जगह नित्य प्रतिष्ठित नहीं हैं?

उत्तर—सर्वव्यापी परमात्माको यज्ञ अर्थात् कर्तव्य-कर्ममें नित्य प्रतिष्ठित कहनेका तात्पर्य है कि यज्ञ उनका उपलब्धि-स्थान है। जैसे जमीनमें सब जगह जल होनेपर भी वह कुएँसे प्राप्त होता है, ऐसे ही परमात्मा सब जगह परिपूर्ण होनेपर भी अपने कर्तव्य-कर्मका निष्कामभावपूर्वक पालन करनेसे प्राप्त होते हैं। तात्पर्य है कि अपने कर्तव्य-कर्मका पालन करनेसे सर्वव्यापी परमात्माका अनुभव हो जाता है।

प्रश्न—भगवान् कहते हैं कि मैं भी कर्तव्यका पालन करता हूँ; क्योंकि अगर मैं सावधानीपूर्वक कर्तव्यका पालन न करूँ तो लोग भी कर्तव्यच्युत हो जायँगे (३।२२—२४), तो फिर वर्तमानमें लोग कर्तव्यच्युत क्यों हो रहे हैं?

उत्तर—भगवान‍्के वचनों और आचरणोंका असर उन्हीं लोगोंपर पड़ता है, जो आस्तिक हैं, भगवान् पर श्रद्धा-विश्वास रखनेवाले हैं। जो भगवान् पर श्रद्धा-विश्वास नहीं रखते, उनपर भगवान‍्के वचनों और आचरणोंका असर नहीं पड़ता।

प्रश्न—ज्ञानवान् पुरुष अपनी प्रकृति (स्वभाव)-के अनुसार चेष्टा करता है (३।३३), पर वह बँधता नहीं। अन्य प्राणी भी अपनी प्रकृतिके अनुसार ही चेष्टा करते हैं, पर वे बँध जाते हैं। ऐसा क्यों?

उत्तर—ज्ञानी महापुरुषकी प्रकृति तो राग-द्वेषरहित, शुद्ध होती है; अत: वह प्रकृतिको अपने वशमें करके ही चेष्टा करता है, इसलिये वह कर्मोंसे बँधता नहीं। परंतु अन्य प्राणियोंकी प्रकृतिमें राग-द्वेष रहते हैं और वे प्रकृतिके वशमें होकर राग-द्वेषपूर्वक कार्य करते हैं, इसलिये वे कर्मोंसे बँध जाते हैं। अत: मनुष्यको अपनी प्रकृति, अपना स्वभाव शुद्ध—निर्मल बनाना चाहिये और अपने अशुद्ध स्वभावके वशमें होकर कोई कार्य नहीं करना चाहिये।

प्रश्न—चौथे अध्यायके सातवें श्लोकमें भगवान‍्ने कहा है कि मैं अपने-आपको साकाररूपसे प्रकट करता हूँ और फिर वे नवें अध्यायके चौथे श्लोकमें कहते हैं कि मैं अव्यक्तरूपसे सम्पूर्ण संसारमें व्याप्त हूँ, तो जो एक देशमें प्रकट हो जाते हैं, वे सब देशमें कैसे व्याप्त रह सकते हैं और जो सर्वव्यापक हैं, वे एक देशमें कैसे प्रकट हो जाते हैं?

उत्तर—जब एक प्राकृत अग्नि भी सब जगह व्यापक रहते हुए एक देशमें प्रकट हो जाती है और एक देशमें प्रकट होनेपर भी अग्निका सब देशमें अभाव नहीं होता, फिर भगवान् तो प्रकृतिसे अतीत हैं, अलौकिक हैं, सब कुछ करनेमें समर्थ हैं, वे अगर सब जगह व्यापक रहते हुए एक देशमें प्रकट हो जायँ तो इसमें कहना ही क्या है! तात्पर्य है कि अवतार लेनेपर भी भगवान‍्की सर्वव्यापकता ज्यों-की-त्यों बनी रहती है।

प्रश्न—‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’ (४।१२), पर यह बात देखनेमें नहीं आती। ऐसा क्यों?

उत्तर—कर्मजन्य सिद्धि, कर्मोंका फल दो प्रकारका होता है—तात्कालिक और कालान्तरिक। तात्कालिक फल शीघ्र देखनेमें आता है और कालान्तरिक फल समय पाकर देखनेमें आता है, शीघ्र देखनेमें नहीं आता। भोजन किया और भूख मिट गयी, जल पिया और प्यास मिट गयी, गरम कपड़ा ओढ़ा और जाड़ा दूर हो गया—यह तात्कालिक फल है। इसी तरह किसीको प्रसन्न करनेके लिये उसकी स्तुति-प्रार्थना करनेसे, उसकी सेवा करनेसे वह प्रसन्न हो जाता है; ग्रहोंकी सांगोपांग विधिपूर्वक पूजा करनेसे ग्रह शान्त हो जाते हैं; महामृत्युंजय मन्त्रका जप करनेसे रोग दूर हो जाते हैं; गयामें विधिपूर्वक श्राद्ध करनेसे जीव प्रेतयोनिसे छूट जाता है और उसकी सद‍्गति हो जाती है—यह सब कर्मोंका तात्कालिक फल है। इस तात्कालिक फलको दृष्टिमें रखकर ही लोग देवताओंकी उपासना करते हैं। अत: ‘मनुष्यलोकमें कर्मजन्य सिद्धि शीघ्र मिल जाती है’—ऐसा कहा गया है।

प्रश्न—ज्ञानिजन ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी, कुत्ते आदिमें समदर्शी होते हैं (५।१८), तो फिरवर्ण, आश्रम आदिका अड़ंगा क्यों?

उत्तर—ज्ञानी महापुरुषका व्यवहार तो ब्राह्मण, चाण्डाल, गाय, हाथी आदिके शरीरोंको लेकर यथायोग्य ही होता है। शरीर नित्य-निरन्तर बदलते हैं; अत: ऐसे परिवर्तनशील शरीरमें उनकी विषमता रहती है और रहनी ही चाहिये। कारण कि सभी प्राणियोंके साथ खान-पान आदि व्यवहारकी एकता, समानता तो कोई कर ही नहीं सकता अर्थात् सबके साथ व्यवहारमें विषमता तो रहेगी ही। ऐसी विषमतामें भी तत्त्वदर्शी पुरुष एक परमात्माको ही समानरूपसे देखते हैं। इसीलिये भगवान‍्ने तत्त्वज्ञ पुरुषोंके लिये ‘समदर्शिन:’ कहा है, न कि ‘समवर्तिन:’। समवर्ती (समान व्यवहार करनेवाला) तो यमराजका, मौतका नाम है,* जो कि सबको समानरूपसे मारती है।

* ‘समवर्ती परेतराट्’ (अमरकोष १। १।५८)।

प्रश्न—भगवान् प्राणिमात्रके सुहृद् हैं (५।२९), बिना किसी कारणके सबका हित चाहनेवाले हैं, तो फिर वे प्राणियोंको ऊँच-नीच गतियोंमें क्यों भेजते हैं?

उत्तर—सबके सुहृद् होनेसे ही तो भगवान् प्राणियोंको उनके कर्मोंके अनुसार ऊँच-नीच गतियोंमें भेजकर उनको पुण्य-पापोंसे शुद्ध करते हैं, पुण्य-पापरूप बन्धनसे ऊँचा उठाते हैं (९। २०-२१;१६।१९-२०)।

प्रश्न—गीतामें कहीं तो सात्त्विक, राजस और तामस गुणोंको भगवान‍्से उत्पन्न बताया गया है (७।१२), कहीं प्रकृतिसे उत्पन्न बताया गया है (१३।१९; १४।५) और कहीं स्वभावसे उत्पन्न बताया गया है (१८।४१), तो गुण भगवान‍्से उत्पन्न होते हैं या प्रकृतिसे उत्पन्न होते हैं अथवा स्वभावसे उत्पन्न होते हैं?

उत्तर—जहाँ भक्तिका प्रकरण है, वहाँ गुणोंको भगवान‍्से उत्पन्न बताया गया है; जहाँ ज्ञानका प्रकरण है, वहाँ गुणोंको प्रकृतिसे उत्पन्न बताया गया है और जहाँ कर्म-विभागका वर्णन है, वहाँ गुणोंको स्वभावसे उत्पन्न बताया गया है।

भगवान् सबके मालिक हैं। अत: मालिककी दृष्टिसे देखा जाय तो गुण भगवान‍्से पैदा होते हैं। सबकी उत्पत्तिका कारण प्रकृति है। अत: कारणकी दृष्टिसे देखा जाय तो गुण प्रकृतिसे पैदा होते हैं। व्यवहारकी दृष्टिसे देखा जाय तो गुण प्राणियोंके स्वभावसे पैदा होते हैं। तात्पर्य है कि ये गुण मालिककी दृष्टिसे भगवान‍्के हैं, कारणकी दृष्टिसे प्रकृतिके हैं और संसारमें अभिव्यक्तिकी दृष्टिसे व्यक्तियोंके हैं। अत: तीनों ही बातें ठीक हैं।

प्रश्न—जो अनेक जन्मोंसे सिद्ध हुआ है, अनेक जन्मोंसे साधन करता आया है, वही परमगतिको प्राप्त होता है (६।४५), तो फिर सभी मनुष्य अनेक जन्मसंसिद्ध न होनेसे इसी जन्ममें अपना उद्धार कैसे कर सकते हैं?

उत्तर—यह श्लोक योगभ्रष्टके प्रकरणमें आया है। पहले मनुष्य जन्ममें संसारसे उपराम होकर साधन करनेसे शुद्धि हुई, फिर अन्त समयमें साधनसे विचलित होनेसे वह स्वर्गादि लोकोंमें गया तो वहाँ भोगोंसे अरुचि होनेसे शुद्धि हुई और वहाँसे शुद्ध श्रीमानोंके घरमें जन्म लेकर परमात्मप्राप्तिके लिये यत्न करनेसे शुद्धि हुई। इस तरह उसका तीन जन्मोंमें शुद्ध होना ही अनेक जन्मसंसिद्ध होना है। परन्तु वास्तवमें देखा जाय तो मनुष्यमात्र अनेक जन्मसंसिद्ध है। अगर वह इस मनुष्य जन्मके पहले स्वर्गादि लोकोंमें गया है तो वहाँ स्वर्गप्रापक पुण्योंका फल भोगनेसे शुद्ध हुआ। अगर वह नरकोंमें गया है तो वहाँ नरकप्रापक पापोंका फल भोगनेसे शुद्ध हुआ। अगर वह चौरासी लाख योनियोंमें गया है तो वहाँ उन योनियोंके प्रापक पापोंका फल भोगनेसे शुद्ध हुआ। इस तरह शुद्ध होना ही प्रत्येक मनुष्यका अनेक जन्मसंसिद्ध होना है। अत: प्रत्येक मनुष्य अपना उद्धार, कल्याण कर सकता है। प्रत्येक मनुष्य भगवत्प्राप्तिका अधिकारी है। अगर वह अधिकारी नहीं होता तो भगवान् यह मनुष्य शरीर ही क्यों देते?

प्रश्न—बहुत जन्मोंके अन्तमें ‘सब कुछ वासुदेव ही है’—ऐसा ज्ञान होता है (७। १९), तो फिर इसी जन्ममें मनुष्य भगवत्प्राप्ति कैसे कर सकता है?

उत्तर—इस श्लोकमें आये ‘बहूनां जन्मनामन्ते’ पदोंका अर्थ ‘बहुत जन्मोंके अन्तमें’ नहीं है, प्रत्युत ‘बहुत जन्मोंके अन्तिम जन्म इस मनुष्य शरीरमें’—ऐसा अर्थ है। कारण कि यह मनुष्य जन्म सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम जन्म है। भगवान‍्ने मनुष्यके कल्याणके लिये अपनी तरफसे अन्तिम जन्म दिया है अर्थात् मनुष्यको अपना कल्याण करनेका पूरा अधिकार दिया है। अब इसके आगे यह नये जन्मकी तैयारी कर ले अथवा अपना उद्धार कर ले—इसमें यह सर्वथा स्वतन्त्र है।

गीतामें भगवान‍्ने कहा है कि ‘मनुष्य अन्तकालमें जिस-जिस भावका स्मरण करता हुआ शरीर छोड़कर जाता है, उस-उस भावको ही वह प्राप्त होता है’ (८।६); ‘जो-जो मनुष्य जिस-जिस देवताकी उपासना करना चाहता है, उस-उस देवताके प्रति मैं उसकी श्रद्धाको दृढ़ कर देता हूँ’ (७।२१)—इन भगवद्वचनोंसे मनुष्यजन्मकी स्वतन्त्रता सिद्ध होती है। मनुष्य सकामभावसे शुभ-कर्म करके स्वर्ग आदिमें भी जा सकता है; पाप-कर्म करके पशु-पक्षी, भूत-पिशाच आदि योनियोंमें तथा नरकोंमें भी जा सकता है; और पाप-पुण्योंसे रहित होकर भगवान‍्को भी प्राप्त कर सकता है। इस अन्तिम मनुष्य जन्ममें यह जो चाहे, वह कर सकता है।

जैसे यह मनुष्य जन्म सम्पूर्ण जन्मोंका अन्तिम जन्म है, ऐसे ही यह सम्पूर्ण जन्मोंका आदि जन्म भी है; क्योंकि इस मनुष्य जन्ममें किये हुए कर्मोंका ही फल स्वर्ग, नरक और चौरासी लाख योनियोंमें भोगना पड़ता है। इसी मनुष्य जन्ममें सम्पूर्ण जन्मोंके बीज बोये जाते हैं।

प्रश्न—भगवान् भूत, वर्तमान और भविष्यके सम्पूर्ण प्राणियोंको जानते हैं (७।२६); अत: कौन-सा प्राणी किस गतिमें जायगा—यह भी भगवान् जानते ही हैं अर्थात् भगवान् जिसकी जैसी गति जानते हैं, उसकी वैसी ही गति होगी, तो फिर मनुष्यको अपने उद्धारकी स्वतन्त्रता कहाँ रही?

उत्तर—भगवान‍्का भूत, वर्तमान और भविष्यके प्राणियोंको जो जानना है, वह उनकी गतियोंको निश्चित करनेमें नहीं है कि अमुक प्राणी अमुक गतिमें ही जायगा। भगवान् अपने अंश सम्पूर्ण प्राणियोंको स्वत: जानते हैं और सम्पूर्ण प्राणी भगवान‍्की जानकारीमें स्वत: हैं—इसीमें उपर्युक्त कथनका तात्पर्य है। अगर भगवान‍्का जानना प्राणियोंकी गति निश्चित करनेमें ही होता तो फिर भगवान् ‘ये मनुष्य मेरेको प्राप्त न करके मौतके रास्तेमें पड़ गये’ (९।३); ‘मेरेको प्राप्त न करके अधोगतिमें चले गये’ (१६।२०)—ऐसा पश्चात्ताप नहीं करते; क्योंकि अगर उन्होंने ही उनकी गतियोंको निश्चित किया है तो फिर पश्चात्ताप किस बातका? दूसरी बात, श्रुति और स्मृति भगवान‍्की ही आज्ञा है—‘श्रुतिस्मृती ममैवाज्ञे’। श्रुति और स्मृतिमें विधि-निषेध आया है कि शुभ कर्म करो, निषिद्ध कर्म मत करो; शुभ कर्म करनेसे तुम्हारी सद‍्गति होगी और निषिद्ध कर्म करनेसे तुम्हारी दुर्गति होगी। अगर भगवान‍्ने प्राणियोंकी गतियोंको पहले ही निश्चित कर रखा होता तो श्रुति और स्मृतिका विधि-निषेध किसपर लागू होता? तात्पर्य है कि मनुष्य अपना उद्धार करनेमें स्वतन्त्र है।

प्रश्न—नवें अध्यायके छठे श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि सम्पूर्ण प्राणी मेरेमें स्थित हैं और तेरहवें अध्यायके तीसवें श्लोकमें कहते हैं कि सम्पूर्ण भाव, प्राणी आदि एक प्रकृतिमें स्थित हैं, तो वास्तवमें प्राणी भगवान‍्में स्थित हैं या प्रकृतिमें?

उत्तर—भगवान‍्के अंश होनेसे सम्पूर्ण प्राणी तत्त्वत: भगवान‍्में ही स्थित हैं और वे भगवान‍्से कभी अलग हो सकते ही नहीं। परंतु उन प्राणियोंके जो शरीर हैं, वे प्रकृतिसे उत्पन्न होनेसे, प्रकृतिके अंश होनेसे प्रकृतिमें ही स्थित हैं।

प्रश्न—मैं सम्पूर्ण प्राणियोंमें समानरूपसे हूँ; परंतु जो मेरा भजन करते हैं, वे मेरेमें और मैं उनमें हूँ (९। २९)—भगवान‍्का यह पक्षपात क्यों? यदि पक्षपात है, तो ‘मैं सबमें सम हूँ’—यह कैसे?

उत्तर—यह पक्षपात ही तो समता है! अगर भगवान् भजन करनेवाले और भजन न करनेवालेके साथ एक समान भाव रखें तो यह समता कैसी हुई? और भजन करनेका क्या माहात्म्य हुआ! अत: भजन करनेवाले और न करनेवालेके साथ यथायोग्य बर्ताव करना ही भगवान‍्की समता है; और अगर भगवान् ऐसा नहीं करते तो यह भगवान‍्की विषमता है। वास्तवमें देखा जाय तो भगवान‍्में विषमता है ही नहीं। भगवान‍्में विषमता तो भजन करनेवालेके भावोंने पैदा की है अर्थात् जो संसारसे सम्बन्ध-विच्छेद करके केवल भगवान‍्में ही लग जाता है, उसके अनन्यभावके कारण भगवान‍्में ऐसी विषमता हो जाती है, भगवान् करते नहीं।

प्रश्न—भगवद्दर्शन होनेके बाद मोह नहीं रहता। अर्जुनने भगवान‍्के विराट्‍रूप, चतुर्भुजरूप और द्विभुजरूप—तीनोंके दर्शन कर लिये थे, फिर भी उनका मोह दूर क्यों नहीं हुआ?

उत्तर—दर्शन देनेके बाद भक्तका मोह दूर करने, तत्त्वज्ञान करानेकी जिम्मेदारी भगवान् पर ही रहती है। अर्जुनका मोह आगे चलकर नष्ट हो ही गया (१८। ७३), इससे सिद्ध होता है कि भगवद्दर्शन होनेके बाद मोह नष्ट होता ही है। अर्जुनने अपना मोह नष्ट होनेमें न तो गीतोपदेशको कारण माना और न दर्शनको, प्रत्युत भगवत्कृपाको ही कारण माना है—‘त्वत्प्रसादात्’ (१८।७३)।

प्रश्न—तेरहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें परमात्माको ज्ञेय कहा है और अठारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें संसारको ज्ञेय कहा है। इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर—ये दोनों विषय अलग-अलग हैं। तेरहवें अध्यायके बारहवें श्लोकमें बताया गया है कि परमात्माको जरूर जानना चाहिये; क्योंकि परमात्माको यथार्थरूपसे जान लेनेपर कल्याण हो जाता है; और अठारहवें अध्यायके अठारहवें श्लोकमें बताया गया है कि जाननेमें आनेवाला दृश्यमात्र संसार है, जिससे व्यवहारकी सिद्धि होती है।

प्रश्न—भगवान् सबके हृदयमें निवास करते हैं (१३। १७; १५। १५; १८। ६१); परन्तु आजकल, डॉक्टर लोग हृदयका प्रत्यारोपण कर देते हैं, तो फिर भगवान् कहाँ रहते हैं?

उत्तर—भगवान् तो सब जगह ही निवास करते हैं, पर हृदय उनका उपलब्धि स्थान है; क्योंकि हृदय शरीरका प्रधान अंग है और सभी श्रेष्ठ भाव हृदयमें ही पैदा होते हैं। जैसे गायके सम्पूर्ण शरीरमें दूध व्याप्त होनेपर भी वह उसके स्तनोंसे ही प्राप्त होता है अथवा पृथ्वीमें सब जगह जल रहनेपर भी वह कुएँ आदिसे ही प्राप्त होता है, ऐसे ही भगवान् सब जगह समानरूपसे परिपूर्ण होते हुए भी हृदयमें प्राप्त होते हैं।

डॉक्टर लोग जिस हृदयका प्रत्यारोपण करते हैं, वह हृत्पिण्ड कहलाता है। उस हृत्पिण्डमें जो हृदय-शक्ति है, उस शक्तिमें भगवान् निवास करते हैं। प्रत्यारोपण हृत्पिण्डका होता है, उसमें रहनेवाली शक्तिका नहीं। शक्ति तो अपने स्थानपर ज्यों-की-त्यों ही रहती है। जैसे नेत्र दीखते हैं, पर देखनेकी शक्ति (नेत्रेन्द्रिय) नहीं दीखती; क्योंकि वह सूक्ष्मशरीरमें रहती है, ऐसे ही हृत्पिण्ड दीखता है, पर उसमें रहनेवाली शक्ति नहीं दीखती।

प्रश्न—अपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही पुरुष (चेतन) भोक्ता बनता है; परन्तु तेरहवें अध्यायके इक्‍कीसवें श्लोकमें भगवान‍्ने प्रकृतिमें स्थित पुरुषको भोक्ता बताया है; ऐसा क्यों?

उत्तर—पुरुष (चेतन)-को प्रकृतिमें स्थित बतानेका तात्पर्य है कि जैसे विवाह होनेपर स्त्रीके सम्पूर्ण सम्बन्धियोंके साथ पुरुषका सम्बन्ध हो जाता है, ऐसे ही एक शरीरमें अपनी स्थिति माननेसे अर्थात् एक शरीरके साथ अपना सम्बन्ध माननेसे मात्र प्रकृतिके साथ, सम्पूर्ण शरीरोंके साथ सम्बन्ध हो जाता है।

प्रश्न—अपनेको शरीरमें स्थित माननेसे ही तो पुरुष कर्ता और भोक्ता बनता है; परन्तु तेरहवें अध्यायके इक्‍कीसवें श्लोकमें भगवान‍्ने कहा है कि यह पुरुष शरीरमें स्थित रहता हुआ भी कर्ता और भोक्ता नहीं है; यह कैसे?

उत्तर—यहाँ भगवान् प्राणिमात्रके वास्तविक स्वरूपको बता रहे हैं कि वास्तवमें अज्ञानी-से-अज्ञानी मनुष्य भी स्वरूपसे कभी कर्ता और भोक्ता नहीं बनता अर्थात् उसके स्वरूपमें कभी कर्तृत्व और भोक्तृत्व नहीं आता। परंतु अज्ञानके कारण मनुष्य अपनेको कर्ता और भोक्ता मान लेता है (३।२७; ५।१५) और वह कर्तृत्व-भोक्तृत्वभावमें बँध जाता है। अगर उसमें कर्तृत्व-भोक्तृत्वभाव न हो तो वह सम्पूर्ण प्राणियोंको मारकर भी न मारता है और न बँधता ही है (१८।१७)।

प्रश्न—रजोगुणकी तात्कालिक वृत्तिके बढ़नेपर और रजोगुणकी प्रधानतामें मरनेवाला प्राणी मनुष्यलोकमें जन्म लेता है (१४।१५, १८)—इन दोनों बातोंसे यही सिद्ध होता है कि इस मनुष्यलोकमें सभी मनुष्य रजोगुणवाले ही होते हैं, सत्त्वगुण और तमोगुणवाले नहीं। परंतु गीतामें जगह-जगह तीनों गुणोंकी बात भी आयी है (७। १३; १४। ६—१८; १८। २०—४० आदि)। इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर—ऊर्ध्वगति, मध्यगति और अधोगति—इन तीनोंमें तीनों गुण रहते हैं; परंतु ऊर्ध्वगतिमें सत्त्वगुणकी, मध्यगति (मनुष्यलोक)-में रजोगुणकी और अधोगतिमें तमोगुणकी प्रधानता रहती है। तभी तो तीनों गतियोंमें प्राणियोंके सात्त्विक, राजस और तामस स्वभाव होते हैं*।

* इस विषयको विस्तारसे समझनेके लिये गीताकी ‘साधक-संजीवनी’ हिंदी-टीकामें चौदहवें अध्यायके अठारहवें श्लोककी व्याख्या देखनी चाहिये।

प्रश्न—चौदहवें अध्यायके सत्रहवें श्लोकमें तमोगुणसे अज्ञानका पैदा होना बताया गया है और आठवें श्लोकमें अज्ञानसे तमोगुणका पैदा होना बताया गया है—इसका क्या तात्पर्य है?

उत्तर—जैसे वृक्षसे बीज पैदा होता है और उस बीजसे फिर बहुत-से वृक्ष पैदा होते हैं, ऐसे ही तमोगुणसे अज्ञान पैदा होता है और उस अज्ञानसे तमोगुण बढ़ता है, पुष्ट होता है।

प्रश्न—अश्वत्थ (पीपल)-के वृक्षको पूजनीय माना गया है, फिर भगवान‍्ने पन्द्रहवें अध्यायके तीसरे श्लोकमें संसाररूप अश्वत्थ-वृक्षका छेदन करनेकी बात क्यों कही है?

उत्तर—पीपल-वृक्ष सम्पूर्ण वृक्षोंमें श्रेष्ठ है। भगवान‍्ने उसको अपना स्वरूप बताया है (१०। २६)। औषधिके रूपमें भी उसकी बड़ी महिमा है। उसकी जटाको पीसकर पी लेनेसे बन्ध्याको भी पुत्र हो सकता है। पीपल सभीको आश्रय देता है। पीपलके नीचे सभी पेड़-पौधे पनप जाते हैं। पीपल किसीको बाधा नहीं देता, इसलिये पीपलको भी कोई बाधा नहीं देता, जिससे यह मकानकी दीवार और छतपर, कुएँ आदिमें, सब जगह उग जाता है। पीपल, बट, पाकर आदि वृक्ष यज्ञीय हैं अर्थात् इनकी लकड़ी यज्ञमें काम आती है। अत: भगवान‍्ने पीपलको संसारका रूपक बनाया है; क्योंकि संसार भी स्वयं किसीको बाधा नहीं देता। संसार भगवत्स्वरूप है। वास्तवमें अपने व्यक्तिगत राग-द्वेष, कामना, ममता, आसक्ति आदि ही बाधा देते हैं। अत: भगवान‍्ने संसार-रूप पीपल-वृक्षका छेदन करनेकी बात नहीं कही है, प्रत्युत इसमें जो कामना, ममता, आसक्ति आदि हैं, जिनसे मनुष्य जन्म-मरणमें जाता है, उनका वैराग्यरूप शस्त्रके द्वारा छेदन करनेकी बात कही है।

प्रश्न—पंद्रहवें अध्यायके चौथे श्लोकमें भगवान् कहते हैं कि ‘उस आदिपुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ’—‘तमेव चाद्यं पुरुषं प्रपद्ये,’ तो क्या भगवान् भी किसीके शरण होते हैं?

उत्तर—भगवान् किसीके भी शरण नहीं होते; क्योंकि वे सर्वोपरि हैं। केवल लोकशिक्षाके लिये भगवान् साधककी भाषामें बोलकर साधकको यह बताते हैं कि वह ‘उस आदिपुरुष परमात्माके ही मैं शरण हूँ—ऐसी भावना करे।’

प्रश्न—यह जीव परमात्माका अंश है (१५।७), तो क्या यह जीव परमात्मासे पैदा हुआ है? क्या यह जीव परमात्माका एक टुकड़ा है?

उत्तर—ऐसी बात नहीं है। यह जीव अनादि है, सनातन है और परमात्मा पूर्ण है; अत: जीव परमात्माका टुकड़ा कैसे हो सकता है? वास्तवमें यह जीव परमात्मस्वरूप ही है; परंतु जब यह प्रकृतिके अंशको अर्थात् शरीर-इन्द्रियाँ-मन बुद्धिको ‘मैं और मेरा’ मान लेता है, तब यह अंश हो जाता है। प्रकृतिके अंशको छोड़नेपर यह पूर्ण हो जाता है।

प्रश्न—सात्त्विक आहारमें पहले फल (परिणाम)- का वर्णन करके फिर आहारके पदार्थोंका वर्णन किया और राजस आहारमें पहले आहारके पदार्थोंका वर्णन करके फिर फलका वर्णन किया; परंतु तामस आहारके फलका वर्णन किया ही नहीं (१७।८—१०)—ऐसा क्यों?

उत्तर—सात्त्विक मनुष्य पहले फल (परिणाम)- की तरफ देखते हैं, फिर वे आहार आदिमें प्रवृत्त होते हैं, इसलिये पहले परिणामका और बादमें खाद्य पदार्थोंका वर्णन किया गया है। राजस मनुष्योंकी दृष्टि पहले खाद्य पदार्थोंकी तरफ, विषयेन्द्रिय-सम्बन्धकी तरफ जाती है, परिणामकी तरफ नहीं। अगर राजस मनुष्योंकी दृष्टि पहले परिणामकी ओर चली जाय तो वे राजस आहार आदिमें प्रवृत्त होंगे ही नहीं। अत: राजस आहारमें पहले खाद्य पदार्थोंका और बादमें परिणामका वर्णन किया गया है। तामस मनुष्योंमें मूढ़ता (बेहोशी) छायी हुई रहती है, इसलिये उनमें आहार और उसके परिणामका विचार होता ही नहीं। आहार न्याययुक्त है या नहीं, उसमें हमारा अधिकार है या नहीं, शास्त्रोंकी आज्ञा है या नहीं और उसका परिणाम हमारे लिये हितकर है या नहीं—इन बातोंपर तामस मनुष्य कुछ भी विचार नहीं करते, इसलिये तामस आहारके परिणामका वर्णन नहीं किया गया है।

प्रश्न—ईश्वर अपनी मायासे सम्पूर्ण प्राणियोंको घुमाता है (१८। ६१), तो क्या ईश्वर ही प्राणियोंसे पाप-पुण्य कराता है?

उत्तर—जैसे कोई मनुष्य रेलमें बैठ जाता है तो उसको परवश होकर रेलके अनुसार ही जाना पड़ता है, ऐसे ही जो प्राणी शरीररूपी यन्त्रपर आरूढ़ हो गये हैं अर्थात् जिन्होंने शरीररूपी यन्त्रके साथ मैं-मेरापनका सम्बन्ध जोड़ लिया है, उन्हीं प्राणियोंको ईश्वर उनके स्वभाव और कर्मोंके अनुसार घुमाता है, कर्मोंका फल भुगताता है, उनसे पाप-पुण्य नहीं कराता।

प्रश्न—भगवान‍्ने अर्जुनको पहले ‘तमेव शरणं गच्छ’ पदोंसे अन्तर्यामी परमात्माकी शरणमें जानेके लिये कहा (१८। ६२) और फिर ‘मामेकं शरणं व्रज’ पदोंसे अपनी शरणमें आनेके लिये कहा (१८।६६)। जब अर्जुनको अपनी ही शरणमें लेना था, तो फिर भगवान‍्ने उन्हें अन्तर्यामी परमात्माकी शरणमें जानेके लिये क्यों कहा?

उत्तर—भगवान‍्ने पहले कहा कि मेरा शरणागत भक्त मेरी कृपासे शाश्वत पदको प्राप्त हो जाता है (१८। ५६), फिर कहा कि मेरे परायण और मेरेमें चित्तवाला होकर तू सम्पूर्ण विघ्नोंसे तर जायगा (१८। ५७-५८)। भगवान‍्के ऐसा कहनेपर भी अर्जुन कुछ बोले नहीं, उन्होंने कुछ भी स्वीकार नहीं किया। तब भगवान‍्ने कहा कि अगर तू मेरी शरणमें नहीं आना चाहता तो तू उस अन्तर्यामी परमात्माकी शरणमें चला जा। मैंने यह गोपनीय-से-गोपनीय ज्ञान कह दिया, अब तेरी जैसी मरजी हो, वैसा कर (१८।६३)। यह बात सुनकर अर्जुन घबरा गये कि भगवान् तो मेरा त्याग कर रहे हैं! तब भगवान् अर्जुनको सर्वगुह्यतम बात बताते हैं कि तू केवल मेरी शरणमें आ जा।

प्रश्न—भगवान‍्ने गीतामें तीन जगह (३।३, १४।६ और १५।२०में) अर्जुनके लिये ‘अनघ’ सम्बोधनका प्रयोग किया है, जिससे सिद्ध होता है कि भगवान् अर्जुनको पापरहित मानते हैं, तो फिर ‘मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा’ (१८।६६)—यह कहना कैसे?

उत्तर—जो भगवान‍्के सम्मुख हो जाता है, उसके पाप समाप्त हो जाते हैं। अर्जुन (२।७ में) भगवान‍्के सम्मुख हुए थे, अत: वे पापरहित थे और भगवान‍्की दृष्टिमें भी अर्जुन पापरहित थे। परन्तु अर्जुन यह मानते थे कि युद्धमें कुटुम्बियोंको मारनेसे मेरेको पाप लगेगा (१। ३६, ३९, ४५)। अर्जुनकी इस मान्यताको लेकर ही भगवान् कहते हैं कि ‘मैं तेरेको सम्पूर्ण पापोंसे मुक्त कर दूँगा।’

प्रश्न—अर्जुनने जब पहले ही यह कह दिया था कि ‘मेरा मोह चला गया’—‘मोहोऽयं विगतो मम’ (११।१), तो फिर दुबारा यह कहनेकी क्या आवश्यकता थी कि ‘मेरा मोह नष्ट हो गया’—‘नष्टो मोह:’ (१८।७३)?

उत्तर—जब साधन करते-करते साधकको पारमार्थिक विलक्षणताका अनुभव होने लगता है, तब उसको यही मालूम देता है कि उस तत्त्वको मैं ठीक तरहसे जान गया हूँ; पर वास्तवमें पूर्णताकी प्राप्तिमें कमी रहती है। इसी तरह जब अर्जुनने दूसरे अध्यायसे दसवें अध्यायतक भगवान‍्के विलक्षण प्रभाव आदिकी बातें सुनीं, तब वे बहुत प्रसन्न हुए। उनको यही मालूम हुआ कि मेरा मोह चला गया; अत: उन्होंने अपनी दृष्टिसे ‘मोहोऽयं विगतो मम’ कह दिया। परंतु भगवान‍्ने इस बातको स्वीकार नहीं किया। आगे जब अर्जुन भगवान‍्के विश्वरूपको देखकर भयभीत हो गये, तब भगवान‍्ने कहा कि यह तेरा मूढ़भाव (मोह) है; अत: तेरेको मोहित नहीं होना चाहिये—‘मा च विमूढभाव:’ (११।४९)। भगवान‍्के इस वचनसे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका मोह सर्वथा नहीं गया था। परंतु आगे जब अर्जुनने सर्वगुह्यतमवाली बातको सुनकर कहा कि आपकी कृपासे मेरा मोह नष्ट हो गया और मुझे स्मृति प्राप्त हो गयी—‘नष्टो मोह: स्मृतिर्लब्धा त्वत्प्रसादान्मयाच्युत’ (१८।७३) तब भगवान् कुछ बोले नहीं, मौन रहे और उन्होंने आगे उपदेश देना समाप्त कर दिया। इससे सिद्ध होता है कि भगवान‍्ने अर्जुनके मोहनाशको स्वीकार कर लिया।

प्रश्न—गीताके अन्तमें संजयने केवल विराट्‍रूपका ही स्मरण क्यों किया (१८।७७)? चतुर्भुजरूपका स्मरण क्यों नहीं किया?

उत्तर—भगवान‍्का चतुर्भुजरूप तो प्रसिद्ध है, पर विराट्‍रूप उतना प्रसिद्ध नहीं है। चतुर्भुजरूप उतना दुर्लभ भी नहीं है, जितना विराट्‍रूप दुर्लभ है, क्योंकि भगवान‍्ने चतुर्भुजरूपको देखनेका उपाय बताया है (११।५४), पर विराट्‍रूपको देखनेका उपाय बताया ही नहीं। अत: संजय अत्यन्त अद्भुत विराट्‍रूपका ही स्मरण करते हैं।

प्रश्न—अर्जुनका मोह सर्वथा नष्ट हो गया था और मोह नष्ट होनेपर फिर मोह हो ही नहीं सकता—‘यज्ज्ञात्वा न पुनर्मोहमेवं यास्यसि’ (४।३५)। परंतु जब अभिमन्यु मारा गया, तब अर्जुनको कौटुम्बिक मोह क्यों हुआ?

उत्तर—वह मोह नहीं था, प्रत्युत शिक्षा थी। मोह नष्ट होनेके बाद महापुरुषोंके द्वारा जो कुछ आचरण होता है, वह संसारके लिये शिक्षा होती है, आदर्श होता है। अभिमन्युके मारे जानेपर कुन्ती, सुभद्रा, उत्तरा आदि बहुत दु:खी हो रही थीं; अत: उनका दु:ख दूर करनेके लिये अर्जुनके द्वारा मोह-शोकका नाटक हुआ था, लीला हुई थी। इसका प्रमाण यह है कि अभिमन्युके मारे जानेपर अर्जुनने जयद्रथको मारनेके लिये जो-जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, वे सब शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातोंको लेकर ही की गयी हैं (महाभारत, द्रोण० ७३।२५—४५)। अगर अर्जुनपर मोह, शोक ही छाया हुआ होता तो उनको शास्त्रों और स्मृतियोंकी बातें कैसे याद रहतीं? इतनी सावधानी कैसे रहती? कारण कि मोह होनेपर मनुष्यको पुरानी बातें याद नहीं रहतीं और आगे नया विचार भी नहीं होता (२। ६३), पर अर्जुनको सब बातें याद थीं, वे शोकमें नहीं बहे। इससे यही सिद्ध होता है कि अर्जुनका शोक करना नाटकमात्र, लीलामात्र ही था।

प्रश्न—मोह नष्ट होनेपर और स्मृति प्राप्त होनेपर फिर कभी उसकी विस्मृति नहीं होती, तो फिर अर्जुनने ‘अनुगीता’ में यह कैसे कह दिया कि मैं तो उस ज्ञानको भूल गया हूँ (महाभारत, आश्वमेधिक० १६।६)?

उत्तर—भगवान‍्ने गीतोपदेशके समय अर्जुनको भक्तियोग और कर्मयोगका अधिकारी माना था और मध्यम पुरुषसे प्राय: भक्तियोग और कर्मयोगका ही उपदेश दिया था। अत: अर्जुन भक्तियोग और कर्मयोगकी बातें नहीं भूले, प्रत्युत ज्ञानकी बातें ही भूले थे। इसलिये अनुगीतामें भगवान‍्ने ज्ञानका ही उपदेश दिया।

प्रश्न—अनुगीतामें भगवान‍्ने कहा है कि उस समय मैंने योगमें स्थित होकर गीता कही थी, पर अब मैं वैसी बातें नहीं कह सकता (महाभारत, आश्वमेधिक० १६।१२-१३), तो क्या भगवान् भी कभी योगमें स्थित रहते हैं और कभी योगमें स्थित नहीं रहते? क्या भगवान‍्का ज्ञान भी आगन्तुक है?

उत्तर—जैसे बछड़ा गायका दूध पीने लगता है तो गायके शरीरमें रहनेवाला दूध स्तनोंमें आ जाता है, ऐसे ही श्रोता उत्कण्ठित होकर जिज्ञासापूर्वक कोई बात पूछता है तो वक्ताके भीतर विशेष भाव स्फुरित होने लगते हैं। गीतामें अर्जुनने उत्कण्ठा और व्याकुलतापूर्वक अपने कल्याणकी बातें पूछी थीं, जिससे भगवान‍्के भीतर विशेषतासे भाव पैदा हुए थे। परंतु अनुगीतामें अर्जुनकी उतनी उत्कण्ठा, व्याकुलता नहीं थी। अत: गीतामें जैसा रसीला वर्णन आया है, वैसा वर्णन अनुगीतामें नहीं आया।

प्रश्न—जैसे गीतामें (दसवें अध्यायमें) भगवान‍्ने अर्जुनसे अपनी विभूतियाँ कही हैं, ऐसे ही श्रीमद्भागवतमें (ग्यारहवें स्कन्धके सोलहवें अध्यायमें) भगवान‍्ने उद्धवजीसे अपनी विभूतियाँ कही हैं। जब गीता और भागवत—दोनोंमें कही हुई विभूतियोंके वक्ता भगवान् श्रीकृष्ण ही हैं, तो फिर दोनोंमें कही हुई विभूतियोंमें अन्तर क्यों है?

उत्तर—वास्तवमें विभूतियाँ कहनेमें भगवान‍्का तात्पर्य किसी वस्तु, व्यक्ति आदिका महत्त्व बतानेमें नहीं है, प्रत्युत अपना चिन्तन करानेमें है। अत: गीता और भागवत—दोनों ही जगह कही हुई विभूतियोंमें भगवान‍्का चिन्तन करना ही मुख्य है। इस दृष्टिसे जहाँ-जहाँ विशेषता दिखायी दे, वहाँ-वहाँ वस्तु, व्यक्ति आदिकी विशेषता न देखकर केवल भगवान‍्की ही विशेषता देखनी चाहिये और भगवान‍्की ही तरफ वृत्ति जानी चाहिये। तात्पर्य है कि मन जहाँ-कहीं चला जाय, वहाँ भगवान‍्का ही चिन्तन होना चाहिये—इसके लिये ही भगवान‍्ने विभूतियोंका वर्णन किया है (१०।४१)।

प्रश्न—जैसे भागवतमें भगवान‍्ने उद्धवजीको जो उपदेश दिया, उसका नाम ‘उद्धवगीता’ है, ऐसे ही गीताका नाम भी ‘अर्जुनगीता’ होना चाहिये, फिर इसका नाम ‘भगवद‍्गीता’ क्यों हुआ है?

उत्तर—भागवतमें तो स्वयं उद्धवजीने भगवान‍्से जिज्ञासापूर्वक प्रश्न किये हैं; अत: उनके संवादका नाम ‘उद्धवगीता’ रखना ठीक ही है। परंतु गीता कहनेकी बात तो स्वयं भगवान‍्के ही मनमें आयी थी; क्योंकि अर्जुन तो युद्ध करनेके लिये ही आये थे, उपदेश सुननेके लिये नहीं। गीता कहनेकी बात मनमें होनेसे ही तो भगवान‍्ने अर्जुनका रथ पितामह भीष्म और गुरु द्रोणाचार्यके सामने खड़ा करके अर्जुनसे ‘हे पार्थ! इन कुरुवंशियोंको देख’—‘कुरून् पश्य’ (१। २५) ऐसा कहा। अगर भगवान् ऐसा न कहकर यह कहते हैं कि ‘धृतराष्ट्रके पुत्रोंको देख’ ‘धार्तराष्ट्रान् पश्य’, तो अर्जुनके भीतर मोह जाग्रत् न होकर युद्ध करनेका जोश ही आता, जिससे गीता कहनेका अवसर ही नहीं आता। गीता कहनेका अवसर तो ‘कुरुवंशियोंको देख’—ऐसा कहनेसे ही प्राप्त हुआ; क्योंकि कुरुवंशमें धृतराष्ट्रके पुत्र और पाण्डव—दोनों एक हो जाते हैं। अत: अपने ही सम्बन्धियोंको देखकर अर्जुनका सुप्त मोह जाग्रत् हो गया और वे कर्तव्य-अकर्तव्यका निर्णय करनेमें असमर्थ होकर तथा भगवान‍्की शरण होकर अपने कल्याणकी बातें पूछने लगे। इसलिये भगवान‍्के द्वारा दिये गये उपदेशका नाम ‘भगवद‍्गीता’ रखना युक्तियुक्त, उचित ही है।

प्रश्न—जब युद्धकी तैयारी हो चुकी थी, ऐसे थोड़े समयमें भगवान‍्ने इतना बड़ा गीतोपदेश कैसे दिया?

उत्तर—जब भगवान‍्की माया भी अघटित-घटना-पटीयसी है, तो फिर स्वयं भगवान् थोड़े समयमें बहुत कुछ कह दें, इसमें आश्चर्य ही क्या है?

महाभारतको देखनेसे मालूम होता है कि समय थोड़ा नहीं था। अर्जुनने भगवान‍्से दोनों सेनाओंके बीचमें अपना रथ खड़ा करनेके लिये कहा तो भगवान‍्ने अर्जुनके रथको दोनों सेनाओंके बीचमें खड़ा कर दिया। जब दोनों सेनाओंके बीचमें रथ खड़ा हो और उसमें दोनों मित्र आपसमें बातचीत कर रहे हों, तब दोनों सेनाओंमें युद्ध कैसे हो? अत: दोनों सेनाएँ बड़ी शान्तिसे खड़ी थीं।

गीताका उपदेश पूरा होनेके बाद युधिष्ठिर नि:शस्त्र होकर कौरव सेनामें गये। उनके साथ भीम, अर्जुन, नकुल, सहदेव और भगवान् श्रीकृष्ण भी थे। कौरव सेनामें जाकर वे भीष्म, द्रोणाचार्य, कृपाचार्य आदिसे मिले और उनके साथ बातचीत भी की। फिर वहाँसे लौटते समय युधिष्ठिरने घोषणा की कि यह सब कौरवसेना मरेगी, अगर कोई बचना चाहे तो वह हमारी सेनामें आ सकता है। युधिष्ठिरकी ऐसी घोषणा सुनकर दुर्योधनका भाई युयुत्सु नगाड़ा बजाते हुए पाण्डव सेनामें चला आया। इसके बाद ही युद्ध आरम्भ हुआ। इससे भी यही सिद्ध होता है कि गीतोपदेश देनेके लिये पर्याप्त समय था।

प्रश्न—भगवान‍्ने गीता गद्यात्मक कही थी या पद्यात्मक?

उत्तर—उस समय जो भाषा स्वाभाविक प्रचलित थी, उसी भाषामें अर्जुनने प्रश्न किये और उसी भाषामें भगवान‍्ने उत्तर दिया, उपदेश दिया। वास्तवमें जहाँ जिज्ञासा पूर्तिके लिये असली व्याकुलता होती है, वहाँ वक्ता और श्रोताका ध्यान भाषाकी तरफ नहीं जाता, प्रत्युत उनका ध्यान भावकी तरफ ही रहता है। बोलते समय वक्ताको कोई प्रमाण याद आ जाता है तो वह प्रमाण जिस भाषामें होता है, उसी भाषामें वह बोल देता है। इसी तरह भगवान‍्ने अर्जुनको गद्यमें उपदेश दिया और उसमें प्रमाणरूपसे जो श्रुतियाँ कहीं, वे ज्यों-की-त्यों पद्यमें ही कहीं; जैसे ‘यदक्षरं वेदविदो वदन्ति......’ (८। ११) आदि। तात्पर्य है कि भगवान‍्ने गीताका उपदेश उभयात्मक अर्थात् गद्यात्मक और पद्यात्मक—दोनों तरहसे दिया है। गद्यात्मक उपदेशको वेदव्यासजीने श्लोकबद्ध कर दिया।

प्रश्न—वेदव्यासजीके द्वारा श्लोकबद्ध की हुई होनेसे गीता भगवान‍्की वाणी कैसे हुई?

उत्तर—वेदव्यासजीकी कृति ऐसी विलक्षण है कि जहाँ जो वक्ता जैसा बोलता है, वहाँ वैसी ही भाषा देते हैं। जैसे, भागवतमें ब्रह्माजीके, ग्वालबालोंके, गोपियोंके और भगवान‍्के वचनोंको देखें तो ब्रह्माजीके वचन और तरहके लगेंगे, ग्वालबालोंके वचन ग्रामीण वचनों-जैसे ही लगेंगे, गोपियोंके वचन स्त्रियोंके वचनों-जैसे ही लगेंगे और भगवान‍्के वचन भी और तरहके लगेंगे। इसी तरह गीतामें भगवान‍्की वाणीको भी वेदव्यासजीने उसी तरहसे श्लोकोंका रूप दिया है। अत: गीता भगवान‍्की ही वाणी है—इसमें कोई संदेह नहीं है।

प्रश्न—गीताके अनुसार कर्मयोग ज्ञानयोगका साधन है या स्वतन्त्र है?

उत्तर—गीताने कर्मयोगको ज्ञानयोगका साधन भी बताया है और स्वतन्त्र भी बताया है; जैसे—‘कर्मयोगके बिना ज्ञानयोगकी प्राप्ति कठिनतासे होती है’ (५।६), ‘जिन्होंने कर्मयोगके द्वारा अपना अन्त:करण शुद्ध नहीं किया है, वे अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्वको नहीं जानते’ (१५। ११)—यहाँ भगवान‍्ने कर्मयोगको ज्ञानयोगका साधन बताया है।

‘ज्ञानयोग और कर्मयोग—ये दोनों ही परमात्माको प्राप्त करनेके लिये समकक्ष हैं’ (५। ५); ‘कर्मयोगके द्वारा मनुष्य अपने-आपमें स्थित परमात्मतत्त्वका अनुभव कर लेता है’ (१३। २४)—यहाँ भगवान‍्ने कर्मयोगको स्वतन्त्र बताया है। तात्पर्य है कि कर्मयोग ज्ञानयोगका साधन भी बनता है और स्वतन्त्रतासे भी कल्याण करता है।

प्रश्न—कर्मयोगके साधनोंमें सेवा करना मुख्य है, फिर गीतामें कर्मयोगके प्रकरणोंमें सेवाकी बात क्यों नहीं आयी?

उत्तर—गीतामें आये ‘यज्ञार्थ-कर्म’, ‘लोकसंग्रह’ आदि शब्दोंको सेवाके ही वाचक मानना चाहिये। कारण कि लोकमर्यादा सुरक्षित रखनेके लिये, मात्र दुनियाके हितके लिये अपने स्वार्थ और अभिमानका त्याग करके जो कर्म किये जायँ, वे सब ‘सेवा’ ही हैं।

- स्रोत : गीता दर्पण (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)