गीता मायावाद मानती है या परिणामवाद?
श्रीमद्भगवद्गीतामें दोनों ही वादोंके समर्थक शब्द मिलते हैं, इससे निश्चयरूपसे यह नहीं कहा जा सकता कि गीताको वास्तवमें कौन-सा वाद स्वीकार है। मेरी समझसे गीताका प्रतिपाद्य विषय कोई वादविशेषको लेकर नहीं है। सच्चिदानन्दघन सर्वशक्तिमान् परमात्माको प्राप्त करना गीताका उद्देश्य है। जिसके उपायस्वरूप कई प्रकारके मार्ग बतलाये गये हैं, जिसमें परिणामवाद और मायावाद दोनों ही आ जाते हैं। जैसे—
अव्यक्ताद्व्यक्तय: सर्वा: प्रभवन्त्यहरागमे।
रात्र्यागमे प्रलीयन्ते तत्रैवाव्यक्तसंज्ञके॥
भूतग्राम: स एवायं भूत्वा भूत्वा प्रलीयते।
रात्र्यागमेऽवश: पार्थ प्रभवत्यहरागमे॥
(८।१८-१९)
‘इसलिये वे यह भी जानते हैं कि सम्पूर्ण दृश्यमात्र भूतगण ब्रह्माके दिनके प्रवेशकालमें अव्यक्तसे अर्थात् ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरसे उत्पन्न होते हैं और ब्रह्माकी रात्रिके प्रवेशकालमें उस अव्यक्त नामक ब्रह्माके सूक्ष्म शरीरमें ही लय होते हैं। और वह ही यह भूतसमुदाय उत्पन्न हो-होकर, प्रकृतिके वशमें हुआ, रात्रिके प्रवेशकालमें लय होता है और दिनके प्रवेशकालमें फिर उत्पन्न होता है, हे अर्जुन! इस प्रकार ब्रह्माके एक सौ वर्ष पूर्ण होनेसे अपने लोकसहित ब्रह्मा भी शान्त हो जाता है।’
इन श्लोकोंसे यह स्पष्ट प्रकट है कि समस्त व्यक्त जड पदार्थ अव्यक्त समष्टि-शरीरसे उत्पन्न होते हैं और अन्तमें उसीमें लय हो जाते हैं। यहाँ यह नहीं कहा कि उत्पन्न या लय होते हुए-से प्रतीत होते हैं, वास्तवमें नहीं होते, परन्तु स्पष्ट उत्पन्न होना अर्थात् उस अव्यक्तका ही व्यक्तरूपमें परिणामको प्राप्त होना और दूसरा परिणाम व्यक्तसे पुन: अव्यक्तरूप होना बतलाया है। इन अव्यक्त तत्त्वोंका संघात (सूक्ष्म समष्टि) भी महाप्रलयके अन्तमें मूल अव्यक्तमें विलीन हो जाता है और उसीसे उसकी उत्पत्ति होती है। उस मूल अव्यक्त प्रकृतिको ही भगवान् ने चौदहवें अध्यायके श्लोक ३, ४ में ‘महद्ब्रह्म’ कहा है। महासर्गके आदिमें सम्पूर्ण मूर्तियों (शरीरों)-की उत्पत्तिमें महद्ब्रह्मको ही कारण बतलाया है। अर्थात् जडवर्गके विस्तारमें इस प्रकृतिको ही हेतु माना है। अध्याय १३।१९-२० में भी कार्यकरणरूप तेईस तत्त्वोंको ही प्रकृतिका विस्तार बतलाया है।*
*आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवीरूप पाँच सूक्ष्मभूत एवं शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध—ये पाँच विषय—इन दसको कार्य कहते हैं। बुद्धि, अहंकार, मन (अन्त:करण), श्रोत्र, त्वक्, रसना, नेत्र, घ्राण (ज्ञानेन्द्रियाँ) एवं वाणी, हाथ, पैर, उपस्थ, गुदा (कर्मेन्द्रियाँ)—इन तेरहके समुदायका नाम करण है। सांख्यकारिका ३ में कहा है—मूलप्रकृतिरविकृतिर्महदाद्या: प्रकृतिविकृतय: सप्त। षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृति: पुरुष:॥ मूल प्रकृति-विकृति नहीं है, महत् आदि सात प्रकृति-विकृति हैं, सोलह विकार हैं और पुरुष न प्रकृति है, न विकृति।
अव्याकृत मायाका नाम मूल-प्रकृति है। वह किसीका विकार न होनेके कारण किसीकी विकृति नहीं है, ऐसा कहा जाता है। महत्तत्त्व (समष्टि-बुद्धि), अहंकार, भूतोंकी सूक्ष्म पंच तन्मात्राएँ—ये सात प्रकृति-विकृति हैं। मूल-प्रकृतिका विकार होनेसे इनको विकृति कहते हैं एवं इनसे अन्य विकारोंकी उत्पत्ति होती है, इसीसे इन्हें ही प्रकृति कहते हैं, अतएव दोनों मिलकर इनका नाम प्रकृति-विकृति है। पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ, एक मन और पाँच स्थूल भूत—ये सोलह विकृति हैं। सात प्रकृति-विकृति अहंकार और तन्मात्रासे इनकी उत्पत्ति होनेके कारण इन्हें विकृति कहते हैं। इनसे आगे अन्य किसीकी उत्पत्ति नहीं है इससे ये किसीकी प्रकृति नहीं हैं विकृतिमात्र हैं। सांख्यके अनुसार मूल-प्रकृतिसे महत्तत्त्व, महत्तत्त्वसे अहंकार, अहंकारसे पंच तन्मात्रा, फिर अहंकारसे ११ मनेन्द्रियाँ और पंच तन्मात्रासे पंच स्थूल भूत। गीताके १३वें अध्यायके ५वें श्लोकमें भी प्राय: ऐसा ही वर्णन है।
इससे यह सिद्ध होता है कि जो कुछ देखनेमें आता है, सो सब प्रकृतिका कार्य है। यानी प्रकृति ही परिणामको प्राप्त हुई है। जीवात्मासहित जो चतुर्विध देहोंकी उत्पत्ति होती है, वह प्रकृति और उस पुरुषके संयोगसे होती है। इनमें जितने देह—शरीर हैं, वे सब प्रकृतिका परिणाम हैं और उन सबमें जो चेतन है सो परमेश्वरका अंश है। चेतनरूप बीज देनेवाला पिता भगवान् हैं।
भगवान् कहते हैं—
सर्वयोनिषु कौन्तेय मूर्तय: सम्भवन्ति या:।
तासां ब्रह्म महद्योनिरहं बीजप्रद: पिता॥
(१४।४)
‘हे अर्जुन! नाना प्रकारकी सब योनियोंमें जितनी मूर्तियाँ अर्थात् शरीर उत्पन्न होते हैं, उन सबकी त्रिगुणमयी माया तो गर्भको धारण करनेवाली माता है और मैं बीजको स्थापन करनेवाला पिता हूँ।’ गीतामें इस प्रकार समस्त प्राणियोंकी उत्पत्तिमें प्रकृतिसहित पुरुषका कथन जगह-जगह मिलता है, कहीं परमेश्वरकी अध्यक्षतासे प्रकृति उत्पन्न करती है, ऐसा कहा गया है (९।१०) तो कहीं मैं उत्पन्न करता हूँ (९।८) ऐसे वचन मिलते हैं। सिद्धान्त एक ही है।
उपर्युक्त विवेचनसे यह सिद्ध हो जाता है कि यह सारा चराचर जगत् प्रकृतिका परिणाम है। परमेश्वर अपरिणामी है, गुणोंसे अतीत है। इस संसारके परिणाममें परमेश्वर प्रकृतिको सत्ता-स्फूर्ति प्रदान करता है, सहायता करता है; परन्तु उसके परिणामसे परिणामी नहीं होता। आठवें अध्यायके बीसवें श्लोकमें यह स्पष्ट कहा है कि ‘अव्यक्त प्रकृतिसे परे जो एक सनातन अव्यक्त परमात्मा है, उसका कभी नाश नहीं होता अर्थात् वह परिणामरहित एकरस रहता है।’ इसीलिये गीताने उसीका समझना यथार्थ बतलाया है जो सम्पूर्ण भूतोंके नाश होनेपर भी परमात्माको अविनाशी एकरस समझता है—
समं सर्वेषु भूतेषु तिष्ठन्तं परमेश्वरम्।
विनश्यत्स्वविनश्यन्तं य: पश्यति स पश्यति॥
(१३।२७)
इससे सिद्ध होता है कि नित्य शुद्ध बोधस्वरूप परमात्मामें कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। वास्तवमें इस परिवर्तनशील संसारका ही परिवर्तन होता है। इस प्रकारके परिणामवादका गीतामें समर्थन किया गया है।
इसके विपरीत गीतामें ऐसे श्लोक भी बहुत हैं जिनके आधारपर अद्वैत-मतके अनुसार व्याख्या करनेवाले विद्वान् मायावाद सिद्ध करते हैं। भगवान् ने कहा है—‘मेरी योगमायाका आश्चर्यजनक कार्य देख, जिससे बिना ही हुआ जगत् मुझसे परिणामको प्राप्त हुआ-सा दीखता है (न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम् ९।५) यानी वास्तवमें संसार मुझ (परमात्मा) -में है नहीं। पर दीखता है, इस न्यायसे है भी। अत: यह सब मेरी मायाका खेल है। जैसे रज्जुमें बिना ही हुए सर्प दीखता है वैसे ही बिना ही हुए अज्ञानसे संसार भी भासता है। आगे चलकर भगवान् ने जो यह कहा है कि जैसे आकाशसे उत्पन्न हुआ सर्वत्र विचरनेवाला महान् वायु सदा ही आकाशमें स्थित है, वैसे ही मेरे संकल्पद्वारा उत्पत्तिवाले होनेसे सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसे जान।’ इससे यह नहीं समझना चाहिये कि आकाशसे उत्पन्न होकर उसीमें रहनेवाले वायुके समान संसार भगवान् में है। यह दृष्टान्त केवल समझानेके लिये है। सातवें अध्यायमें भगवान् ने कहा है कि सात्त्विक, राजस, तामस-भाव मुझसे उत्पन्न होते हैं परन्तु वास्तवमें उनमें मैं और वे मुझमें नहीं हैं (न त्वहं तेषु ते मयि ७।१२)।
‘मेरे अतिरिक्त किंचिन्मात्र भी दूसरी वस्तु नहीं है’ (मत्त: परतरं नान्यत् किंचिंदस्ति धनंजय ७।७); ‘सब कुछ वासुदेव ही है’ (वासुदेव: सर्वमिति ७।१९); ‘इस संसार-वृक्षका जैसा स्वरूप कहा है, वैसा यहाँ (विचारकालमें) पाया नहीं जाता’ (न रूपमस्येह तथोपलभ्यते १५।३) आदि वचनोंसे मायावादकी पुष्टि होती है। एक परमात्माके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। जो कुछ प्रतीत होता है सो केवल मायामात्र है।
इस तरह दोनों प्रकारके वादोंको न्यूनाधिकरूपसे समर्थन करनेवाले वचन गीतामें मिलते हैं। मेरी समझसे गीता किसी वादविशेषका प्रतिपादन नहीं करती, वह किसी वादके तत्त्वको समझानेके लिये अवतरित नहीं हुई, वह तो सब वादोंको समन्वय करके ईश्वर-प्राप्तिके भिन्न-भिन्न मार्ग बतलाती है। गीतामें दोनों ही वादोंके माननेवालोंके लिये पर्याप्त वचन मिलते हैं, इससे गीता सभीके लिये उपयोगी है। अपने-अपने मत और अधिकारके अनुसार गीताका अनुसरणकर भगवत्प्राप्तिके मार्गपर आरूढ़ होना चाहिये।