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गीता और योगदर्शन

योगदर्शन बड़े ही महत्त्वका शास्त्र है। इसके प्रणेता महर्षि श्रीपतंजलि महाराज हैं। योगदर्शनके सूत्रोंका भाव बहुत ही गम्भीर, उपादेय, सरस और लाभकारी है। कल्याणकामियोंको योगदर्शनका अध्ययन अवश्य करना चाहिये। पता नहीं, योगदर्शनकी रचना श्रीमद्भगवद्गीताके बाद हुई है या पहले। परन्तु इसमें कोई सन्देह नहीं कि दोनोंके कई स्थलोंमें समानता है। कहीं शब्दोंमें समानता है तो कहीं भाव या अर्थोंका सादृश्य है। उदाहरणार्थ यहाँ कुछ दिखलाये जाते हैं।

पातंजलयोगदर्शन

(१ ) अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:
(१।१२)
(२) स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमि:।
(१।१४)
(३) तस्यवाचक:प्रणव:। तज्जपस्तदर्थभावनम्।
(१।२७-२८)
(४) परिणामतापसंस्कारदु:खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिन:।
(२।१५)

श्रीमद्भगवद्गीता

(१) अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते।
(६।३५)
(२) अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
(८।१४)
(३) ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन्।
(८।१३)
(४) ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(५।२२)

इनके अतिरिक्त केवल भावमें सदृशतावाले स्थल भी हैं, जैसे योगदर्शन (२।१९) का सूत्र है ‘विशेषाविशेषलिंगमात्रालिंगानि गुणपर्वाणि’ अर्थात् ‘पाँच महाभूत, पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ और एक मन—इन सोलह विकारोंका समुदायरूप विशेष; अहंकार और पंचतन्मात्रा’—इन छ:का समुदायरूप अविशेष; समष्टि-बुद्धिरूपी लिंग और अव्याकृत प्रकृतिरूप अलिंग—ये चौबीस तत्त्व प्रकृतिकी अवस्थाविशेष हैं। इसी बातको बतलानेवाला गीताका तेरहवें अध्यायका ५ वाँ श्लोक है—

महाभूतान्यहंकारो बुद्धिरव्यक्तमेव च।
इन्द्रियाणि दशैकं च पंच चेन्द्रियगोचरा:॥

पाँच महाभूत, अहंकार, बुद्धि, मूलप्रकृति, दस इन्द्रियाँ, मन और पंचतन्मात्रा।

उपर्युक्त अवतरणोंके अनुसार दोनोंके कई स्थल मिलते-जुलते होनेके कारण कुछ लोगोंका मत है कि श्रीमद्भगवद्गीता पातंजलयोगदर्शनके बाद बनी है और इसमें यह सब भाव उसीसे लिये गये हैं। कुछ लोग तो गीताको योगदर्शनका रूपान्तर या उसीका प्रतिपादक ग्रन्थ मानते हैं। मेरी समझसे यह मत ठीक नहीं है। श्रीमद्भगवद्गीताकी रचना योगदर्शनके बाद हुई हो या पहले, इस विषयमें तो मैं कुछ भी नहीं कह सकता। परन्तु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि भगवद्गीताका सिद्धान्त योगदर्शनकी अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और सर्वदेशीय है।

योगदर्शनका योग केवल एक ही अर्थमें प्रयुक्त है, परन्तु गीताका योग शब्द अनन्त समुद्रकी भाँति विशाल है, उसमें सबका समावेश है। परमात्माकी प्राप्तितकको गीतामें योग कहा गया है। इसके सिवा निष्काम कर्म, भक्ति, ध्यान, ज्ञान आदिको भी योगके नामसे कहा गया है। योग शब्द किस-किस अर्थमें प्रयुक्त हुआ है, यह इसी पुस्तकमें अन्यत्र दिखाया गया है। योगदर्शनमें ईश्वरका स्वरूप है—

क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्ट: पुरुषविशेष ईश्वर:।
(१।२४)
तत्र निरतिशयं सर्वज्ञबीजम्।
(१।२५)
पूर्वेषामपि गुरु: कालेनानवच्छेदात्।
(१।२६)

जो अविद्या, अहंता, राग, द्वेष, भय, शुभाशुभ कर्म, कर्मोंके फलरूप सुख-दु:ख और वासनासे सर्वथा रहित है, पुरुषोंमें उत्तम है,जिसकी सर्वज्ञता निरतिशय है एवं जो कालकी अवधिसे रहित होनेके कारण पूर्वमें होनेवाले समस्त सृष्टिरचयिता ब्रह्मा आदिका स्वामी है, वह ईश्वर है।

अब गीताके ईश्वरका निरूपण संक्षेपसे कुछ श्लोकोंमें पढ़कर दोनोंकी तुलना कीजिये—

कविं पुराणमनुशासितार-
मणोरणीयांसमनुस्मरेद्य: ।
सर्वस्य धातारमचिन्त्यरूप-
मादित्यवर्णं तमस: परस्तात्॥
(८।९)
सर्वेन्द्रियगुणाभासं सर्वेन्द्रियविवर्जितम्।
असक्तं सर्वभृच्चैव निर्गुणं गुणभोक्तृ च॥
(१३।१४)
ब्रह्मणो हि प्रतिष्ठाहममृतस्याव्ययस्य च।
शाश्वतस्य च धर्मस्य सुखस्यैकान्तिकस्य च॥
(१४।२७)
यस्मात्क्षरमतीतोऽहमक्षरादपि चोत्तम:।
अतोऽस्मि लोके वेदे च प्रथित: पुरुषोत्तम:॥
(१५।१८)

इन श्लोकोंके अनुसार जो सर्वज्ञ, अनादि, सबका नियन्ता, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, सबका धारण-पोषण करनेवाला, अचिन्त्य-स्वरूप, नित्य चेतन, प्रकाशस्वरूप, अविद्यासे अति परे, शुद्ध सच्चिदानन्दघन, सम्पूर्ण इन्द्रियोंके विषयोंको जाननेवाला होनेपर भी सब इन्द्रियोंसे रहित, आसक्तिहीन, गुणातीत होनेपर भी सबका धारण-पोषण करनेवाला और गुणोंका भोक्ता, अविनाशी परब्रह्म, अमृत, नित्यधर्म और अखण्ड एकरस आनन्दका आश्रय, नाशवान् जडवर्ग क्षेत्रसे सर्वथा अतीत और मायास्थित अविनाशी जीवात्मासे भी उत्तम पुरुषोत्तम है वह ईश्वर है।*

* परमात्माका स्वरूप जाननेके लिये ‘कल्याण-प्राप्तिके उपाय’ में प्रकाशित ‘भगवान् क्या हैं?’ शीर्षक लेख पढ़ना चाहिये।

पातंजलयोग-दर्शनके अनुसार ईश्वर त्रिगुणोंके विकारसे रहित है, परन्तु गीताके अनुसार वह गुणोंसे अतीत ही है। योगदर्शनका ईश्वर क्लेश, शुभाशुभ कर्म, सुख-दु:ख और वासनारहित एवं पुरुषविशेष होनेसे पुरुषोत्तम है, पर गीताका ईश्वर जड जगत् से सर्वथा अतीत, सर्वव्यापी और मायास्थित जीवसे भी उत्तम होनेके कारण पुरुषोत्तम है। योगदर्शनका ईश्वर कालके अवच्छेदसे रहित होनेके कारण पूर्व-पूर्व सर्गमें होनेवाले सृष्टि-रचयिताओंका गुरु है; परन्तु गीताका ईश्वर अव्यय परब्रह्म, शाश्वतधर्म और ऐकान्तिक आनन्दका भी परम आश्रय है। गुणातीत होकर भी अपनी अचिन्त्य शक्तिसे गुणोंका भोक्ता और सबका भरण-पोषण करनेवाला है।

इसी प्रकार ‘ईश्वर-शरणागति’ के सिद्धान्तमें भी गीताका अभिप्राय बहुत उच्च है। योगदर्शनका ‘ईश्वर-प्रणिधान’ चित्तवृत्ति-निरोधके लिये किये जानेवाले अभ्यास और वैराग्य आदि अन्य साधनोंके समान एक साधन है, इसीसे ‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’ (१।२३) सूत्रमें ‘वा’ लगाया गया है। परन्तु गीतामें ईश्वर-शरणागतिका साधन समस्त साधनोंका सम्राट् है (गीता ९।३२; १८।६२, ६६ देखना चाहिये)।

गीताके ध्यानयोगका फल भी योगदर्शनसे महत्त्वका है। योगदर्शन कहता है—

ध्यानहेयास्तद्‍वृत्तय:।
(२।११)

अर्थात् ‘ध्यानसे क्लेशोंकी वृत्तियोंका नाश होता है।’ परन्तु गीता कहती है—

‘ध्यानेनात्मनि पश्यन्ति केचिदात्मानमात्मना।’
(१३।२४)

‘कितने ही मनुष्य शुद्ध हुई सूक्ष्म बुद्धिसे ध्यानके द्वारा हृदयमें परमात्माको देखते हैं। वहाँ केवल क्लेशोंकी वृत्तियोंका ही नाश है, पर यहाँ ध्यानसे परमात्म-साक्षात्कारतक होनेकी बात है।

इसी तरहसे अन्य कई स्थल हैं। इसके अतिरिक्त सबसे बड़ी बात यह है कि गीता साक्षात् सच्चिदानन्दघन परमात्माके श्रीमुखकी दिव्य वाणी है और योगदर्शन एक ज्ञानी महात्मा महर्षिके विचार हैं। भगवान् के साथ ज्ञानीकी अभिन्नता रहनेपर भी भगवान् भगवान् ही हैं।

इस विवेचनसे यह प्रतीत होता है कि गीताका महत्त्व सभी तरह ऊँचा है तथा गीताके प्रतिपाद्य विषय भी विशेष महत्त्वपूर्ण, भावमय, सर्वदेशीय, सुगम और परम आदर्श हैं।

इससे कोई यह न समझे कि मैं योगदर्शनको किसी तरहसे भी मामूली वस्तु समझता हूँ या उसमें किसी प्रकारकी त्रुटि मानता हूँ। योगदर्शन परम उपादेय और आदरणीय शास्त्र है। केवल गीताके साथ तारतम्यताकी दृष्टिसे ऐसा लिखा गया है।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)