Seeker of Truth

दिनचर्याका सुधार

मनुष्यको अपना एक क्षण भी व्यर्थ नहीं बिताना चाहिये। आलस्य, प्रमाद, भोग, पाप और अति निद्राको विषके समान समझकर इनका सर्वथा त्याग कर देना चाहिये। मनुष्य-जीवनका अमूल्य समय इन सबमें बितानेके लिये कदापि नहीं है। करनेयोग्य काममें विलम्ब करना ‘आलस्य’ है; शास्त्रविहित कर्तव्यकर्मकी अवहेलना तथा मन, वाणी, शरीरसे व्यर्थ चेष्टा करना ‘प्रमाद’ है; स्वाद-शौकीनी, ऐश-आराम, भोग-विलासिता और विषयोंमें रमण करना ‘भोग’ है; झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि ‘पाप’ हैं और छ: घंटेसे अधिक शयन करना ‘अतिनिद्रा’ है। कल्याणकामी मनुष्यको चाहिये कि वह इनसे बचकर अपने सारे समयको साधनमय बना ले और एक क्षण भी व्यर्थ न बिताकर प्राणपर्यन्त साधनके लिये ही कटिबद्ध होकर प्रयत्न करे।

बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि वह अपने अमूल्य समयको सदा कर्ममें लगावे। एक क्षण भी व्यर्थ न खोवे और कर्म भी उच्च-से-उच्च कोटिका करे। जो कर्म शास्त्रविहित और युक्तियुक्त हो, वही कर्तव्य है। गीतामें भगवान् ने कहा है—

युक्ताहारविहारस्य युक्तचेष्टस्य कर्मसु।
युक्तस्वप्नावबोधस्य योगो भवति दु:खहा॥
(६। १७)

‘दु:खोंका नाश करनेवाला योग तो यथायोग्य आहार-विहार करनेवालेका, कर्मोंमें यथायोग्य चेष्टा करनेवालेका और यथायोग्य सोने तथा जागनेवालेका ही सिद्ध होता है।’

तात्पर्य यह है कि हमारे पास दिन-रातमें कुल चौबीस घंटे हैं, उनमेंसे छ: घंटे तो सोना चाहिये और छ: घंटे परमात्माकी प्राप्तिके लिये विशेषरूपसे साधनरूप योग करना चाहिये; इसके लिये प्रात:काल तीन घंटे और सायंकाल तीन घंटेका समय निकाल लेना चाहिये। शेष बारह घंटोंमें मन, इन्द्रिय और शरीरद्वारा शास्त्रानुकूल क्रिया करनी चाहिये, जिसमेंसे छ: घंटे जीविका-निर्वाहके लिये न्याययुक्त धनोपार्जनके काममें और छ: घंटे स्वास्थ्यरक्षाके लिये शास्त्रविहित शौच-स्नान, आहार-विहार, व्यायाम आदिमें लगाने चाहिये; अथवा यदि छ: घंटेमें न्याययुक्त धनोपार्जन करके जीविकाका निर्वाह न हो तो आठ घंटे धनोपार्जनमें लगाकर चार घंटे स्वास्थ्यरक्षा आदिके काममें लगाने चाहिये।

समयका विभाग करके देश, काल, वर्ण, आश्रम, परिस्थिति और अपनी सुविधाके अनुसार अपना कार्यक्रम बना लेना चाहिये। साधारणतया निम्नलिखित कार्यक्रम बनाया जा सकता है—

रात्रिमें दस बजे शयन करके चार बजे उठ जाना, उठते ही प्रात:स्मरण करते हुए चारसे पाँचतक शौच-स्नान, व्यायाम आदि करना; पाँचसे आठतक सन्ध्या-गायत्री, ध्यान, नाम-जप, पूजा-पाठ और श्रुति, स्मृति, गीता, रामायण, भागवत आदि शास्त्रोंका एवं उनके अर्थका विवेकपूर्वक अनुशीलन करते हुए स्वाध्याय करना; आठसे दसतक स्वास्थ्यरक्षाके साधन और भोजन आदि करना, दससे चारतक धनोपार्जनके लिये न्याययुक्त प्रयत्न करना, चारसे पाँचतक पुन: स्वास्थ्यरक्षार्थ घूमना-फिरना, व्यायाम और शौच-स्नान आदि करना, पाँचसे आठतक पुन: सन्ध्या, गायत्री, ध्यान, नाम-जप, पूजा-पाठ और श्रुति, स्मृति, गीता, रामायण, भागवत आदि शास्त्रोंका, उनके अर्थका विवेकपूर्वक अनुशीलन करते हुए स्वाध्याय करना एवं आठसे दसतक भोजन तथा वार्तालाप, परामर्श और सत्संग आदि करना—इस प्रकार दिन-रातके चौबीस घंटोंको बाँटा जा सकता है। इस कार्यक्रममें अपनी सुविधाके अनुसार हेर-फेर कर सकते हैं; किंतु भगवान् के नाम और स्वरूपकी स्मृति हर समय ही रहनी चाहिये; क्योंकि भगवान् की सहज प्राप्तिके लिये एकमात्र यही परम साधन है। भगवान् ने गीतामें कहा है कि ‘जो पुरुष नित्य-निरन्तर मुझमें अनन्यचित्त होकर सदा ही निरन्तर मुझ पुरुषोत्तमको स्मरण करता है, उस नित्य-निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् उसे सहज ही प्राप्त हो जाता हूँ’—

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(८। १४)

यदि कहो कि काम करते हुए भगवान् के नाम-रूपकी स्मृति सम्भव नहीं तो यह कहना ठीक नहीं; क्योंकि भगवान् ने कहा है—

तस्मात्सर्वेषु कालेषु मामनुस्मर युध्य च।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्मामेवैष्यस्यसंशयम् ॥
(गीता ८। ७)

‘इसलिये हे अुर्जन! तू सब समयमें निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर। इस प्रकार मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिसे युक्त होकर तू नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा।’

जब युद्ध करते हुए भी निरन्तर भगवान् की स्मृति रह सकती है तो दूसरे व्यवहार करते समय भगवत्स्मृति रहना कोई असम्भव नहीं। यदि यह असम्भव होती तो भगवान् अर्जुनको ऐसा आदेश कभी नहीं देते। यदि कहो कि हमसे तो ऐसा नहीं होता तो इसका कारण है श्रद्धा तथा प्रेमके साथ होनेवाले अभ्यासकी कमी। श्रद्धा- प्रेमकी उत्पत्तिके लिये भगवान् के नाम, रूप, लीला, धाम, गुण और प्रभावके तत्त्व-रहस्यको समझना चाहिये तथा भगवान् से स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये। भगवान् के नाम-रूपकी स्मृति निरन्तर बनी रहे, इसके लिये विवेक-वैराग्यपूर्वक सदा-सर्वदा प्रयत्न भी करते रहना चाहिये। सत्पुरुषोंका संग इसके लिये विशेष लाभकर है। अत: सत्संगके लिये विशेष चेष्टा करनी चाहिये। सत्संग न मिले तो भगवान् के मार्गमें चलनेवाले साधक पुरुषोंका संग भी सत्संग ही है और उनके अभावमें सत्-ग्रन्थोंका अनुशीलन भी सत्संग ही है।

मनुष्य अपने समयका यदि विवेकपूर्वक सदुपयोग करे तो वह थोड़े ही समयमें अपने आत्माका उद्धार कर सकता है; मनुष्यके लिये कोई भी काम असम्भव नहीं है। संसारमें ऐसा कोई भी पुरुष-प्रयत्नसाध्य कार्य नहीं, जो पुरुषार्थ करनेपर सिद्ध न हो सके। फिर भगवत्कृपाका आश्रय रखनेवाले पुरुषके लिये तो बात ही क्या है!

भगवान् के नाम-रूपकी स्मृति चौबीसों घंटे ही बनी रहे और वह भी महत्त्वपूर्ण हो, इसका ध्यान अवश्य रखना चाहिये। जिह्वाद्वारा नाम-जप करनेकी अपेक्षा श्वासके द्वारा नाम-जप करना श्रेष्ठ है और मानसिक जप उससे भी उत्तम है। वह भी नामके अर्थरूप भगवत्स्वरूपकी स्मृतिसे युक्त हो तो और भी अधिक मूल्यवान् (महत्त्वपूर्ण) चीज है और वह फिर श्रद्धापूर्वक निष्काम-प्रेमभावसे किया जाय तो उसका तो कहना ही क्या है। सच्चिदानन्दघन परमात्मा सर्वत्र समानभावसे आकाशकी भाँति व्यापक हैं, वे ही निर्गुण-निराकार परमात्मा स्वयं भक्तोंके कल्याणार्थ सगुण-साकार रूपमें प्रकट होते हैं। इसलिये निर्गुण-सगुण, निराकार-साकार—किसी भी स्वरूपका ध्यान किया जाय, सभी कल्याणकारक हैं; किंतु निर्गुण-सगुण, निराकार-साकारके तत्त्व, रहस्य, गुण, प्रभावको समझते हुए स्वरूपका स्मरण किया जाय तो वह सर्वोत्तम है।

संसारमें अधिकांश मनुष्योंका समय तो प्राय: व्यर्थ जाता है और उनमेंसे कोई यदि अपना श्रेष्ठ ध्येय बनाते भी हैं, तो उसके अनुसार चल नहीं पाते। इसका प्रधान कारण विषयासक्ति, अज्ञता और श्रद्धा-प्रेमकी कमी तो है ही; परंतु साथ ही प्रयत्नकी भी शिथिलता है। इसी कारण वे अपने लक्ष्यतक पहुँचनेमें सफल नहीं होते। अत: लक्ष्यप्राप्तिके लिये हर समय भगवान् को स्मरण करते हुए समयका सदुपयोग करना चाहिये, फिर भगवान् की कृपासे सहज ही लक्ष्यतक पहुँचा जा सकता है।

चौबीसों घंटे भगवान् की स्मृति किस प्रकार हो, इसके लिये उपर्युक्त छ: घंटे साधनकाल, बारह घंटे व्यवहारकाल और छ: घंटे शयनकाल—इस प्रकार समयके तीन विभाग करके उसका निम्नलिखित रूपसे सदुपयोग करना चाहिये।

(१) मनुष्य प्रात:काल और सायंकाल नियमितरूपसे जो साधन करते हैं, वह साधन इसीलिये उच्चकोटिका नहीं होता कि वे उसे मन लगाकर विवेक और भावपूर्वक नहीं करते। ऊपरसे क्रिया कुछ ही होती है और मन कहीं अन्यत्र रहता है। ऐसा नहीं होना चाहिये। साधनके समय मनका भी उसीमें लगना परमावश्यक है। जैसे—सन्ध्या करनेके समय मन्त्रोंके ऋषि, छन्द, देवता और प्रयोजनका लक्ष्य करते हुए विधि और मन्त्रके अर्थका ध्यान रहना चाहिये। गायत्रीमन्त्र बहुत ही उच्चकोटिकी वस्तु है, उसमें परमात्माकी स्तुति, ध्यान और प्रार्थना है। अत: गायत्री-जपके समय उसके अर्थकी ओर ध्यान रखना चाहिये। यह न हो सके तो गायत्री-जपके समय भगवान् का ध्यान तो अवश्य ही होना चाहिये। इसी प्रकार गीता, रामायण, भागवत आदिका पाठ भी अर्थसहित या विवेकपूर्वक अर्थका ध्यान रखते हुए करना चाहिये। भगवान् की मूर्ति-पूजा या मानस-पूजा करते समय भगवान् के स्वरूप और गुण-प्रभावको स्मरण रखते हुए श्रद्धा-प्रेमके साथ विधिपूर्वक पूजा करनी चाहिये। शास्त्र-ज्ञानकी कमीके कारण विधिमें कहीं कमी भी रह जाय तो कोई हर्ज नहीं, किंतु श्रद्धा-प्रेममें कमी नहीं होनी चाहिये। किसी भी मन्त्र या नामका जप हो, उच्चभाव तथा मन:संयोगके द्वारा उसे उच्च-से-उच्च कोटिका बना लेना चाहिये एवं ध्यान करते समय तो संसारको ऐसे भुला देना चाहिये कि जिसमें भगवान् के सिवा अपना या संसारका किसीका भी ज्ञान ही न रहे।

हम प्रात:-सायं जितना नित्य-नियमितरूपसे साधनमें लगाते हैं, उसे यदि उपर्युक्त प्रकारसे लगाया जाय तो उतने ही समयके साधनसे छ: महीनोंमें वह लाभ हो सकता है जो बिना भावके करनेके कारण पचास वर्षोंमें भी नहीं होता। वस्तुत: जिस समय हम साधनके लिये बैठते हैं, उस समय तो हमारा प्रत्येक क्षण केवल साधनमें ही बीतना चाहिये। हम यदि अपने पारमार्थिक साधनके समयको ही समुचितरूपसे साधनमय नहीं बना लेंगे और उसे शीघ्र सफल बनानेके लिये तत्पर नहीं होंगे तो फिर अन्य समयमें भगवच्चिन्तन करते हुए कार्य करना तो और भी कठिन है। अतएव हमें इसके लिये कटिबद्ध होकर प्रयत्न करना चाहिये। इस बातका पता लगाना चाहिये कि वे कौन-सी अड़चनें हैं जिनके कारण नियमितरूपसे साधन करनेके लिये दिये हुए समयमें भी मन उसमें नहीं लगता और समय यों ही बीत जाता है तथा प्रयत्न करनेपर भी उसमें कोई सुधार नहीं होता एवं पता लगनेपर उन अड़चनोंको तुरंत दूर करनेका सफल प्रयास करना चाहिये। मनको समझाना चाहिये कि ‘तुम ऐसे अपने परम हितके कार्यमें भी साथ नहीं दोगे तो इसका परिणाम तुम्हारे लिये बहुत ही भयानक होगा। हजार काम छोड़कर पहले इस कामको करना चाहिये। यह काम तुम्हारे बिना और किसीसे सम्भव नहीं। इसके सामने दूसरे-दूसरे कामोंमें हानि भी हो तो उसकी परवा नहीं करनी चाहिये; क्योंकि वे तो तुम्हारे न रहनेपर भी हो सकते हैं, उन्हें दूसरे भी कर सकते हैं, किंतु तुम्हारे कल्याणका काम तो दूसरे किसीसे सम्भव नहीं।’ इसपर भी यदि दुष्ट मन दूसरे कामकी आवश्यकता बतलावे तो उसे फिर समझाना चाहिये कि इससे बढ़कर और कोई आवश्यक काम है ही नहीं।

(२) आलस्य, प्रमाद, भोग, पाप और अतिनिद्रामें जीवनके एक क्षणको भी नहीं बिताना चाहिये। समाजिक, धार्मिक, शरीर-निर्वाह-सम्बन्धी एवं स्वास्थ्यरक्षा आदिके जो भी व्यवहार हों, सभी शास्त्रानुकूल और न्याययुक्त ही होने चाहिये। प्रत्येक क्रियामें निष्कामभाव और भगवदर्पण या भगवदर्थबुद्धि रहनी चाहिये। इस प्रकार किये जानेपर मनुष्य समस्त बन्धनोंसे मुक्त होकर परमात्माको प्राप्त हो सकता है। भगवान् ने गीतामें कहा है—

यत्करोषि यदश्नासि यज्जुहोषि ददासि यत्।
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम्॥
शुभाशुभफलैरेवं मोक्ष्यसे कर्मबन्धनै:।
संन्यासयोगयुक्तात्मा विमुक्तो मामुपैष्यसि॥
(९। २७-२८)

‘हे अर्जुन! तू जो कर्म करता है, जो खाता है, जो हवन करता है, जो दान देता है और जो तप करता है, वह सब मेरे अर्पण कर। इस प्रकार, जिसमें समस्त कर्म मुझ भगवान् के अर्पण होते हैं—ऐसे संन्यासयोगसे युक्त चित्तवाला तू शुभाशुभ फलरूप कर्मबन्धनसे मुक्त हो जायगा और उनसे मुक्त होकर मुझको ही प्राप्त होगा।’

हमारी सारी क्रियाएँ जब भगवान् की प्रेरणा और आज्ञाके अनुसार निरभिमानता और निष्कामभावसे भगवान् की स्मृति रहते हुए होने लगें, तब समझना चाहिये कि हमारी क्रियाएँ भगवदर्पण हैं। जो क्रियाएँ भगवत्प्राप्त्यर्थ या भगवत्प्रीत्यर्थ अथवा भगवान् की आज्ञा पालनके उद्देश्यसे भगवान् को स्मरण रखते हुए निष्कामभावसे की जाती हैं, उन्हें भगवदर्थ कहा जाता है। हमारा सारा समय जब इसी भावमें बीतने लगे, तब उसे उच्च-से-उच्च कोटिका समझना चाहिये। मनुष्य चाहे तो प्रयत्न करनेपर भगवत्कृपासे वह व्यवहारके बारह घंटोंके समयको भी सदा-सर्वदा इसी प्रकार बिता सकता है। भगवान् का आश्रय लेकर उनके नाम-रूपको याद रखते हुए सदा-सर्वदा कर्मोंकी चेष्टा करनेपर मनुष्य भगवान् की कृपासे शाश्वत अविनाशी पदको प्राप्त हो जाता है। भगवान् ने गीतामें कहा है—

सर्वकर्माण्यपि सदा कुर्वाणो मद्‍व्यपाश्रय:।
मत्प्रसादादवाप्नोति शाश्वतं पदमव्ययम्॥
(१८। ५६)

व्यवहारकालके सुधारके लिये दो बातोंपर विशेष ध्यान रखना चाहिये—

(क) प्रत्येक क्रियामें निष्कामभावसे स्वार्थका त्याग और (ख) भगवान् के नाम-रूपकी स्मृति। ये सब काम भी वैराग्य और अभ्याससे ही सिद्ध होते हैं। वैराग्यसे निष्कामभाव और स्वार्थत्याग होता है और तीव्र अभ्याससे भगवान् के नाम-रूपकी स्मृति रहती है।

अत: हमें अपने उद्देश्यको सिद्ध करनेके लिये भगवान् के शरण होकर श्रद्धा-प्रेमपूर्वक साधन करना चाहिये। ऐसा करनेसे परमात्माकी कृपासे हम शीघ्र ही कृतकार्य हो सकते हैं।

(३) साधन तथा व्यवहारकालमें तो कुछ होता भी है; परंतु शयनका समय तो नासमझीके कारण अधिकांशमें सर्वथा व्यर्थ ही जाता है। मनुष्य जिस समय सोने लगता है, उस समय उसके चित्तमें जिन सांसारिक संकल्पोंका प्रवाह बहता रहता है, उसे निद्रामें प्राय: वैसे ही स्वप्न आते हैं—संकल्पोंकी दृढ़ता ही स्वप्नमें सच्ची घटनाके रूपमें प्रतीत होने लगती है और इस प्रकार उसका रातभरका सारा समय व्यर्थ चला जाता है। इस कालका सुधार भी वैराग्य और अभ्याससे हो सकता है। हमें चाहिये कि सोनेसे पूर्व कम-से-कम पंद्रह मिनट शयनकालके संकल्पोंके सुधारके लिये संसारको नाशवान्, क्षणभंगुर, अनित्य और दु:खरूप समझकर उसके संकल्पोंका त्याग करके भगवान् के निर्गुण-सगुण, निराकार-साकारमेंसे जिस स्वरूपमें भी अपनी श्रद्धा-रुचि हो, उसी नाम-रूपका या भगवान् श्रीकृष्ण, श्रीराम आदि सगुण-साकार स्वरूपके गुण, प्रभाव, लीला आदिका मनन करते हुए सोवें। विवेक-वैराग्यपूर्वक तत्परतासे तीव्र चेष्टा करनेपर कुछ दिनोंमें यह अभ्यास दृढ़ हो सकता है। दृढ़ अभ्यास हो जानेपर स्वप्नमें भी भगवद्विषयक ही संकल्प होंगे और तदनुसार स्वप्नमें भी हमारे सामने भगवान् के नाम, लीला, रूप, गुण और प्रभावके दृश्य आते रहेंगे। यों स्वप्न-जगत् भी साधनमय हो जायगा। अतएव वह समय भी साधनका ही एक अंग बन जायगा।

मनुष्य-जन्मका प्रत्येक क्षण मूल्यवान् है। इस रहस्यको समझनेवाला व्यक्ति एक क्षणको भी व्यर्थ कैसे खो सकता है? परलोक और परमात्मापर विश्वास न होने और भगवत्प्राप्तिका माहात्म्य न जाननेके कारण ही मनुष्य अपने उद्धारकी आवश्यकता ही नहीं समझता। इसी कारण वह संसार-सुखकी अभिलाषामें मानव-जीवनके अमूल्य समयको व्यर्थ खो देता है; परंतु सच्ची बात तो यह है कि संसारका सम्पूर्ण सुख मिलकर भी परमात्माकी प्राप्तिके सुखकी तुलनामें समुद्रमें एक बूँदके तुल्य भी नहीं है। जैसे अनन्त आकाशके किसी एक अंशमें नक्षत्र हैं, उसी प्रकार विज्ञानानन्दघन परमात्माके किसी एक अंशमें यह सारा ब्रह्माण्ड स्थित है। जीवको यदि संसारका सम्पूर्ण सुख भी मिल जाय तो भी वह उस ब्रह्मसुखके अंशका एक आभासमात्र ही है और वह सुखाभास भी वस्तुत: सच्चिदानन्दमय परमात्माके संयोगसे ही है। अत: मनुष्यको उस अनन्त सुखरूप परमात्माकी प्राप्तिके लिये ही अपना सारा समय लगाना चाहिये। तभी समयका सदुपयोग है और तभी जीवनकी सार्थकता है।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)