Seeker of Truth

ध्यानावस्थामें प्रभुसे वार्तालाप

साधक एकान्त और पवित्र स्थानमें कुश या ऊनके आसनपर स्वस्तिक, सिद्ध या पद्मासन आदि किसी आसनसे स्थिर, सीधा और सुखपूर्वक बैठे और इन्द्रियोंको विषयोंसे हटाकर सम्पूर्ण सांसारिक कामनाओंका त्याग करके स्फुरणासे रहित हो जाय। पश्चात् आलस्यरहित और वैराग्ययुक्त पवित्र चित्तसे अपने इष्टदेव भगवान् का आह्वान करे। यह खयाल रखना चाहिये कि जब ध्यानावस्थामें भगवान् आते हैं तब नेत्रोंको बंद करनेपर चित्तमें बड़ी प्रसन्नता, शान्ति, ज्ञानकी दीप्ति एवं सारे भूमण्डलमें महाप्रकाश प्रत्यक्ष-सा प्रतीत होता है। जहाँ शान्ति है, वहाँ विक्षेप नहीं होता और जहाँ ज्ञानकी दीप्ति होती है, वहाँ निद्रा-आलस्य नहीं आते। और यह विश्वास रखना चाहिये कि भगवान् से स्तुति और प्रार्थना करनेपर ध्यानावस्थामें भगवान् आते हैं। अपने इष्टदेवके साकार रूपका ध्यान करनेमें कोई कठिनाई भी नहीं है। यदि कहो कि देखी हुई चीजका ध्यान होना सहज है, बिना देखी हुई चीजका ध्यान कैसे हो सकता है? सो ठीक है; किन्तु शास्त्र और महात्माओंके वचनोंके आधारपर तथा अपने इष्टदेवके रुचिकर चित्रके आधारपर भी ध्यान हो सकता है। इसलिये साधकको उचित है कि नेत्रोंको मूँदकर अपने इष्टदेव परमेश्वरका आह्वान करे और साधारण आह्वान करनेसे न आनेपर उनके नाम और गुणोंका कीर्तन एवं दिव्य स्तोत्र और पदोंके द्वारा स्तुति और प्रार्थना करते हुए श्रद्धा और प्रेमपूर्वक करुणाभावसे गद्‍गद होकर भगवान् का पुन:-पुन: आह्वान करे और भगवान् के आनेकी आशा और प्रतीक्षा रखते हुए इस चौपाईका उच्चारण करे—

एक बात मैं पूछहु तोही।
कारन कवन बिसारेहु मोही॥

फिर यह विश्वास करना चाहिये कि हमारे इष्टदेव भगवान् आकाशमें हमारे सम्मुख करीब दो फीटकी दूरीपर प्रत्यक्ष ही खड़े हैं। तत्पश्चात् चरणोंसे लेकर मस्तकतक उस दिव्य मूर्तिका अवलोकन करते हुए यह चौपाई पढ़नी चाहिये—

नाथ सकल साधन मैं हीना।
कीन्ही कृपा जानि जन दीना॥

हे नाथ! मैं तो सम्पूर्ण साधनोंसे हीन हूँ, आपने मुझे दीन जानकर दया की है अर्थात् मैंने तो कोई भी ऐसा साधन नहीं किया कि जिसके बलपर ध्यानमें भी आपके दर्शन हो सकें। किन्तु आपने मुझे दीन जानकर ही ध्यानमें दर्शन दिये हैं। इस प्रकार भगवान् के आ जानेपर साधक ध्यानावस्थामें भगवान् से वार्तालाप करना आरम्भ करता है।

साधक—प्रभो! आप ध्यानावस्थामें भी प्रकट होनेमें इतना विलम्ब क्यों करते हैं? पुकारनेके साथ ही आप क्यों नहीं आ जाते? इतना तरसाते क्यों हैं?

भगवान्—तरसानेमें ही तुम्हारा परम हित है।

साधक—तरसानेमें क्या हित है मैं नहीं समझता। मैं तो आपके पधारनेमें ही हित समझता हूँ।

भगवान्—विलम्बसे आनेमें विशेष लाभ होता है। विरहव्याकुलता होती है, उत्कट इच्छा होती है। उस समय आनेमें विशेष आनन्द होता है। जैसे विशेष क्षुधा लगनेपर अन्न अमृतके समान लगता है।

साधक—ठीक है, किन्तु विशेष विलम्बसे आनेपर निराश होकर साधक ध्यान छोड़ भी तो सकता है।

भगवान्—यदि मुझपर इतना ही विश्वास नहीं है और मेरे आनेमें विलम्ब होनेके कारण जो साधक उकताकर ध्यान छोड़ सकता है, उसको दर्शन देकर ही क्या होगा?

साधक—ठीक है, किन्तु आपके आनेसे आपमें रुचि तो बढ़ेगी ही और उससे साधन भी तेज होगा, इसलिये आपको पुकारनेके साथ ही पधारना उचित है।

भगवान्—उचित तो वही है जो मैं समझता हूँ और मैं वही करता हूँ, जो उचित होता है।

साधक—प्रभो! मुझे वैसा ही मानना चाहिये जैसा आप कहते हैं किन्तु मन बड़ा पाजी है। वह मानने नहीं देता। आप कहते हैं वही बात सही है फिर भी मुझे तो यही प्रिय लगता है कि मैं बोलाऊँ और तुरंत आप आ जायँ। यह बतलाइये वह कौन-सी पुकार है जिस एक ही पुकारके साथ आप आ सकते हैं?

भगवान्—गोपियोंकी भाँति जब साधक मेरे ही लिये विरहसे तड़पता है तब वैसे आ सकता हूँ या मुझमें प्रेम और विश्वास करके द्रौपदी और गजेन्द्रकी भाँति जबआतुरतासे व्याकुल होकर पुकारता है तब आ सकता हूँ अथवा प्रह्लादके सदृश निष्कामभावसे भजनेवालेके लिये बिना बुलाये भी आ सकता हूँ।

साधक—विरहसे व्याकुल करके आते हैं यह आपकी कैसी आदत है? आप विरहकी वेदना देकर क्यों तड़पाते हैं?

भगवान्—विरहजनित व्याकुलताकी तो बड़ी ऊँचे दर्जेकी स्थिति है। विरहव्याकुलतासे प्रेमकी वृद्धि होती है। फिर भक्त क्षणभरका भी वियोग सहन नहीं कर सकता। उसको सदाके लिये मेरी प्राप्ति हो जाती है। एक दफा मिलनेके बाद फिर कभी छोड़ता ही नहीं। जैसे भरत चौदह सालतक विरहसे व्याकुल रहा, फिर मेरा साथ उसने कभी नहीं छोड़ा।

साधक—आपको कभी कार्य होता तो आप प्राय: लक्ष्मण और शत्रुघ्नको ही सुपुर्द करते, भरतको नहीं। इसका क्या कारण था?

भगवान्—प्रेमकी अधिकताके कारण भरत मेरा वियोग सहन नहीं कर सकता था।

साधक—फिर उन्होंने चौदह सालतक वियोग कैसे सहन किया?

भगवान्—मेरी आज्ञासे बाध्य होकर उसको वियोग सहन करना पड़ा और उसी विरहसे प्रेमकी इतनी वृद्धि हुई कि फिर उसका मुझसे कभी वियोग नहीं हुआ।

साधक—पर उस विरहमें आपने भरतका क्या हित सोचा?

भगवान्—चौदह सालका विरह सहन करनेसे वह विरह और मिलनके तत्त्वको जान गया। फिर एक क्षणभरका वियोग भी उसको एक युगके समान प्रतीत होने लगा। यदि ऐसा नहीं होता तो मेरी ओर इतना आकर्षण कैसे होता?

साधक—विरहकी व्याकुलतासे निराशा भी तो हो सकती है?

भगवान्—कह ही चुका हूँ कि ऐसे पुरुषोंके लिये फिर दर्शन देनेकी आवश्यकता ही क्या है?

साधक—फिर ऐसे पुरुषोंको आपके दर्शनके लिये क्या करना चाहिये?

भगवान्—जिस किस प्रकारसे मुझमें श्रद्धा और प्रेमकी वृद्धि हो ऐसी कोशिश करनी चाहिये।

साधक—क्या बिना श्रद्धा और प्रेमके दर्शन हो ही नहीं सकते?

भगवान्—हाँ! नहीं हो सकते यही नीति है।

साधक—क्या आप रियायत नहीं कर सकते?

भगवान्—किसीपर रियायत की जाय और किसीपर नहीं की जाय तो विषमताका दोष आता है। सबपर रियायत हो नहीं सकती।

साधक—क्या ऐसी रियायत कभी हो भी सकती है?

भगवान्—हाँ, अन्तकालके लिये ऐसी रियायत है। उस समय बिना श्रद्धा और प्रेमके भी केवल मेरा स्मरण करनेसे ही मेरी प्राप्ति हो जाती है।

साधक—फिर उसके लिये भी यह विशेष रियायत क्यों रखी गयी?

भगवान्—उसका जीवन समाप्त हो रहा है। सदाके वास्ते वह इस मनुष्य-शरीरको त्याग कर जा रहा है। इसलिये उसके वास्ते यह खास रियायत रखी गयी है।

साधक—यह तो उचित ही है कि अन्तकालके लिये यह विशेष रियायत रखी गयी है। किन्तु अन्त समयमें मन, बुद्धि और इन्द्रियाँ अपने काबूमें नहीं रहते; अतएव उस समय आपका स्मरण करना भी वशकी बात नहीं है।

भगवान्—इसके लिये सर्वदा मेरा स्मरण रखनेका अभ्यास करना चाहिये। जो ऐसा अभ्यास करेगा उसको मेरी स्मृति अवश्य होगी।

साधक—आपकी स्मृति मुझे सदा बनी रहे इसके लिये मैं इच्छा रखता हूँ और कोशिश करता हूँ, किंतु चंचल और उद्दण्ड मनके आगे मेरी कोशिश चलती नहीं। इसके लिये क्या उपाय करना चाहिये?

भगवान्—जहाँ-जहाँ तुम्हारा मन जाय, वहाँ-वहाँसे उसको लौटाकर प्रेमसे समझाकर मुझमें पुन:-पुन: लगाना चाहिये अथवा मुझको सब जगह समझकर जहाँ-जहाँ मन जाय वहाँ ही मेरा चिन्तन करना चाहिये।

साधक—यह बात मैंने सुनी है, पढ़ी है और मैं समझता भी हूँ। किन्तु उस समय यह युक्ति मुझे याद नहीं रहती इस कारण आपका स्मरण नहीं कर सकता।

भगवान्—आसक्तिके कारण यह तुम्हारी बुरी आदत पड़ी हुई है। अत: आसक्तिका नाश और आदत सुधारनेके लिये महापुरुषोंका संग तथा नामजपका अभ्यास करना चाहिये।

साधक—यह तो यत्किंचित् किया भी जाता है और उससे लाभ भी होता है; किन्तु मेरे दुर्भाग्यसे यह भी तो हर समय नहीं होता।

भगवान्—इसमें दुर्भाग्यकी कौन बात है? इसमें तो तुम्हारी ही कोशिशकी कमी है।

साधक—प्रभो! क्या भजन और सत्संग कोशिशसे होता है? सुना है कि सत्संग पूर्वपुण्य इकट्ठे होनेपर ही होता है।

भगवान्—मेरा और सत्पुरुषोंका आश्रय लेकर भजनकी जो कोशिश होती है वह अवश्य सफल होती है। उसमें कुसंग, आसक्ति और संचित बाधा तो डालते हैं,किन्तु इसके तीव्र अभ्याससे सब बाधाओंका नाश हो जाता है और उत्तरोत्तर साधनकी उन्नति होकर श्रद्धा और प्रेमकी वृद्धि होती है और फिर विघ्न-बाधाएँ नजदीक भी नहीं आ सकतीं। प्रारब्ध केवल पूर्वजन्मके किये हुए कर्मोंके अनुसार भोग प्राप्त कराता है, वह नवीन शुभ कर्मोंके होनेमें बाधा नहीं डाल सकता। जो बाधा प्राप्त होती है वह साधककी कमजोरीसे होती है। पूर्वसंचित पुण्योंके सिवा श्रद्धा और प्रेमपूर्वक कोशिश करनेपर भी मेरी कृपासे सत्संग मिल सकता है।

साधक—प्रभो! बहुत-से लोग सत्संग करनेकी कोशिश करते हैं पर जब सत्संग नहीं मिलता तो भाग्यकी निन्दा करने लग जाते हैं! क्या यह ठीक है?

भगवान्—ठीक है किन्तु उसमें धोखा हो सकता है। साधनमे ढीलापन आ जाता है। जितना प्रयत्न करना चाहिये उतना करनेपर यदि सत्संग न हो तो ऐसा माना जा सकता है, परन्तु इस विषयमें प्रारब्धकी निन्दा न करके अपनेमें श्रद्धा और प्रेमकी जो कमी है उसीकी निन्दा करनी चाहिये, क्योंकि श्रद्धा और प्रेमसे नया प्रारब्ध बनकर भी परम कल्याणकारक सत्संग मिल सकता है।

साधक—प्रभो! आप सत्संगकी इतनी महिमा क्यों करते हैं?

भगवान्—बिना सत्संगके न तो भजन, ध्यान, सेवादिका साधन ही होता है और न मुझमें अनन्य प्रेम ही हो सकता है। इसके बिना मेरी प्राप्ति होनी कठिन है। इसीसे मैं सत्संगकी इतनी महिमा करता हूँ।

साधक—प्रभो! बतलाइये, सत्संगके लिये क्या उपाय किया जाय?

भगवान्—पहले मैं इसका उपाय बतला ही चुका हूँ कि श्रद्धा और प्रेमपूर्वक सत्संगके लिये कोशिश करनेपर मेरी कृपासे सत्संग मिल सकता है।

साधक—अब मैं सत्संगके लिये और भी विशेष कोशिश करूँगा। आपसे भी मैं निष्काम प्रेमभावसे भजन-ध्यान निरन्तर होनेके लिये मदद माँगता हूँ।

भगवान्—तुम अपनी बुद्धिके अनुसार ठीक माँग रहे हो, किन्तु वह तुम्हारे मनको उतना अच्छा नहीं लगता जितने कि विषयभोग लगते हैं।

साधक—हाँ! बुद्धिसे तो मैं चाहता हूँ, पर मन बड़ा ही पाजी है, इससे रुचि कम होनेके कारण उसको भजन-ध्यान अच्छा न लगे तो उसके आगे मैं लाचार हूँ। इसलिये ही आपको विशेष मदद करनी चाहिये।

भगवान्—मनकी भजन-ध्यानकी ओर कम रुचि हो तो भी यही कोशिश करते रहो कि वह भजन-ध्यानमें लगा रहे। धीरे-धीरे उसमें रुचि होकर भजन-ध्यान ठीक हो सकता है।

साधक—मैं शक्तिके अनुसार कोशिश करता रहा हूँ किन्तु अभीतक सन्तोषजनक काम नहीं बना। इसीसे उत्साह भंग-सा होता है। यही विश्वास है कि आपकी दयासे ही यह काम हो सकता है। अतएव आपको विशेष दया करनी चाहिये।

भगवान्—उत्साहहीन नहीं होना चाहिये। मेरे ऊपर भार डालनेसे सब कुछ हो सकता है। यह तो ठीक है, किन्तु मेरी आज्ञाके अनुसार कटिबद्ध होकर चलनेकी भी तो तुम्हें कोशिश करनी ही चाहिये। ऐसा मत मानो कि हमने सब कोशिश कर ली है, अभी कोशिश करनेमें बहुत कमी है। तुम्हारी शक्तिके अनुसार अभी कोशिश नहीं हुई है। इसलिये खूब तत्परतासे कोशिश करनी चाहिये।

साधक—आपका आश्रय लेकर और कोशिश करनेकी चेष्टा करूँगा; किन्तु काम तो आपकी दयासे ही होगा।

भगवान्—यह तो तुम्हारे प्रेमकी बात है कि तुम मुझपर विश्वास रखते हो। किन्तु सावधान रहना कि भूलसे कहीं हरामीपन न आ जाय। मैं कहता हूँ कि तुम्हें उत्साह बढ़ाना चाहिये। जब मेरा यह कहना है तो तुम्हारे उत्साहमें कमी होनेका कोई भी कारण नहीं है। केवल मन ही तुम्हें धोखा दे रहा है। उत्साह भंगकी बात मनमें आने ही मत दो, हमेशा उत्साह रखो।

साधक—शान्ति और प्रसन्नता न मिलनेपर मेरा उत्साह ढीला पड़ा जाता है।

भगवान्—जब तुम मुझपर भरोसा रखते हो तो फिर कार्यकी सफलताकी ओर क्यों ध्यान देते हो? वह भी तो कामना ही है।

साधक—कामना तो है किन्तु वह है तो केवल भजन-ध्यानकी वृद्धिके लिये ही।

भगवान्—जब तुम हमारी शरण आ गये हो तो भजन-ध्यानकी वृद्धिके लिये शान्ति और प्रसन्नताकी तुम्हें चिन्ता क्यों है? तुझे तो मेरे आज्ञापालनपर ही विशेष ध्यान रखना चाहिये। कार्यके फलपर नहीं।

साधक—कार्य सफल न होनेसे उत्साह भंग होगा और उत्साह भंग होनेसे भजन-ध्यान नहीं बनेगा।

भगवान्—यह तो ठीक है, किन्तु सफलताकी कमी देखकर भी उत्साहमें कमी नहीं होनी चाहिये। मुझपर विश्वास करके उत्तरोत्तर मेरी आज्ञासे उत्साह बढ़ाना चाहिये।

साधक—यह बात तो ठीक और युक्तिसंगत है, किन्तु फिर भी शान्ति और प्रसन्नता न मिलनेपर उत्साहमें कमी आ ही जाती है।

भगवान्—ऐसा होता है तो तुमने फिर मेरी बातपर कहाँ ध्यान दिया? इसमें तो केवल तुम्हारे मनका धोखा ही है।

साधक—भगवन्! क्या इसमें मेरे संचित पाप कारण नहीं हैं? क्या वे मेरे उत्साहमें बाधा नहीं डाल रहे हैं?

भगवान्—मेरी शरण हो जानेपर पाप रहते ही नहीं।

साधक—यह मैं जानता हूँ किन्तु मैं वास्तवमें आपकी पूर्णतया शरण कहाँ हुआ हूँ? अभीतक तो केवल वचनमात्रसे ही मैं आपकी शरण हूँ।

भगवान्—वचनमात्रसे भी जो एक बार मेरी शरण आ जाता है उसका भी मैं परित्याग नहीं करता। किन्तु तुम्हें तो तुम्हारा जैसा भाव है उसके अनुसार मेरे शरण होनेके लिये खूब कोशिश करनी चाहिये।

साधक—कोशिश तो खूब करता हूँ, किन्तु मनके आगे मेरी कुछ चलती नहीं।

भगवान्—खूब कोशिश करता हूँ यह मानना गलत है। कोशिश थोड़ी करते हो और उसको मान बहुत लेते हो।

साधक—इसके सुधारके लिये मैं विशेष कोशिश करूँगा; किन्तु शरीरमें और सांसारिक विषयोंमें आसक्ति रहने तथा मन चंचल होनेके कारण आपकी दया बिना पूर्णतया शरण होना बहुत कठिन प्रतीत होता है।

भगवान्—कठिन मानते हो इसीलिये कठिन प्रतीत हो रहा है। वास्तवमें कठिन नहीं है।

साधक—कठिन कैसे नहीं मानूँ? मुझे तो ऐसा प्रत्यक्ष मालूम होता है।

भगवान्—ठीक मालूम हो तो होता रहे, किन्तु तुम्हें हमारी बातकी ओर ही ध्यान देना चाहिये।

साधक—आजसे मैं आपकी दयापर भरोसा रखकर कोशिश करूँगा जिससे वह मुझे कठिन भी मालूम न पड़े। किन्तु सुना है कि आपके थोड़े-से भी नाम-जप तथा ध्यानसे सब पापोंका नाश हो जाता है। शास्त्र और आप भी ऐसा ही कहते हैं, फिर वृत्तियाँ मलिन होनेका क्या कारण है? थोड़ा-सा भजन-ध्यान तो मेरे द्वारा भी होता ही होगा।

भगवान्—भजन-ध्यानसे सब पापोंका नाश होता है यह सत्य है किन्तु इसमें कोई विश्वास करे तब न। तुम्हारा भी तो इसमें पूरा विश्वास नहीं है, क्योंकि तुम मान रहे हो कि पापोंका नाश नहीं हुआ। वे अभी वैसे ही पड़े हैं।

साधक—विश्वास न होनेमें क्या कारण है?

भगवान्—नीच१ और नास्तिकोंका२ संग, संचित पाप और दुर्गुण।

१-झूठ, कपट, चोरी, जारी, हिंसा आदि शास्त्रविपरीत कर्म करनेवालेको नीच कहते हैं।

२-ईश्वरको तथा श्रुति, स्मृति आदि शास्त्रको न माननेवालेको नास्तिक कहते हैं।

साधक—पाप और दुर्गुण क्या अलग-अलग वस्तु हैं?

भगवान्—चोरी, जारी, झूठ, हिंसा और दम्भ-पाखण्ड आदि पाप हैं तथा राग, द्वेष, काम, क्रोध, दर्प और अहंकार आदि दुर्गुण हैं।

साधक—इन सबका नाश कैसे हो?

भगवान्—इनके नाशके लिये निष्कामभावसे भजन, ध्यान, सेवा और सत्संग आदि करना ही सबसे बढ़कर उपाय है।

साधक—सुना है कि वैराग्य होनेसे भी राग-द्वेषादि दोषोंका नाश हो जाता है और उससे भजन-ध्यानका साधन भी अच्छा होता है।

भगवान्—ठीक है, वैराग्यसे भजन-ध्यानका साधन बढ़ता है। किन्तु अन्त:करण शुद्ध हुए बिना दृढ़ वैराग्य भी तो नहीं होता। यदि कहो कि शरीर और सांसारिक भोगोंमें दु:ख और दोषबुद्धि करनेसे भी वैराग्य हो सकता है, सो ठीक है पर यह वृत्ति भी उपर्युक्त साधनोंसे ही होती है। अतएव भजन, ध्यान, सेवा और सत्संग आदि करनेकी प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये।

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साधक—भगवन्! अब यह बतलाइये कि आप प्रत्यक्ष दर्शन कब देंगे?

भगवान्—इसके लिये तुम चिन्ता क्यों करते हो? जब हम ठीक समझेंगे उसी वक्त दे देंगे। वैद्य जब ठीक समझता है तब आप ही सोचकर रोगीको अन्न देता है। रोगीको तो वैद्यपर ही निर्भर रहना चाहिये।

साधक—आपका कथन ठीक है। किन्तु रोगीको भूख लगती है तो वह ‘मुझे अन्न कब मिलेगा’ ऐसा कहता ही है। जो अन्नके वास्ते आतुर होता है वह तो पूछता ही रहता है।

भगवान्—वैद्य जानता है कि रोगीकी भूख सच्ची है या झूठी। भूख देखकर भी यदि वैद्य रोगीको अन्न नहीं देता तो उस न देनेमें भी उसका हित ही है।

साधक—ठीक है, किन्तु आपके दर्शन न देनेमें क्या हित है, यह मैं नहीं समझता। मुझे तो दर्शन देनेमें ही हित दीखता है। रोटीसे तो नुकसान भी हो सकता है किन्तु आपके दर्शनसे कभी नुकसान नहीं हो सकता बल्कि परम लाभ होता है, इसलिये आपका मिलना रोटी मिलनेके सदृश नहीं है।

भगवान्—वैद्यको जब जिस चीजके देनेसे सुधार होना मालूम पड़ता है उसीको उचित समयपर वह रोगीको देता है। इसमें तो रोगीको वैद्यपर ही निर्भर रहना चाहिये। वैद्य सच्ची भूख समझकर रोगीको रोटी देता है और उससे नुकसान भी नहीं होता। यद्यपि मेरा मिलना परम लाभदायक है किन्तु मुझमें पूर्ण प्रेम और श्रद्धारूप सच्ची भूखके बिना मेरा दर्शन हो नहीं सकता।

साधक—श्रद्धा और प्रेमकी तो मुझमें बहुत ही कमी है और मुझे उसकी पूर्ति होनी भी बहुत कठिन प्रतीत होती है। अतएव मेरे लिये तो आपके दर्शन असाध्य नहीं तो कष्टसाध्य जरूर ही हैं।

भगवान्—ऐसा मानना तुम्हारी बड़ी भूल है, ऐसा माननेसे ही तो दर्शन होनेमें विलम्ब होता है।

साधक—नहीं मानूँ तो क्या करूँ? कैसे न मानूँ। पूर्ण श्रद्धा और प्रेमके बिना तो दर्शन हो नहीं सकते और उनकी मुझमें बहुत ही कमी है।

भगवान्—क्या कमीकी पूर्ति नहीं हो सकती?

साधक—हो सकती है, किन्तु जिस तरहसे होती आयी है यदि उसी तरहसे होती रही तो इस जन्ममें तो इस कमीकी पूर्ति होनी सम्भव नहीं।

भगवान्—ऐसा सोचकर तुम स्वयं ही अपने मार्गमें क्यों रुकावट डालते हो? क्या सौ बरसका कार्य एक मिनिटमें नहीं हो सकता?

साधक—हाँ, आपकी कृपासे सब कुछ हो सकता है।

भगवान्—फिर यह हिसाब क्यों लगा लिया कि इस जन्ममें अब सम्भव नहीं।

साधक—यह मेरी मूर्खता है पर अब आप ऐसी कृपा कीजिये जिससे आपमें ही पूर्ण श्रद्धा और अनन्य प्रेम हो जाय।

भगवान्—क्या मुझमें तुम्हारी पूर्ण श्रद्धा और प्रेम होना मैं नहीं चाहता? क्या मैं इसमें बाधा डालता हूँ?

साधक—इसमें बाधा डालनेकी तो बात ही क्या है? आप तो मदद ही करते हैं। किन्तु श्रद्धा और प्रेमकी पूर्तिमें विलम्ब हो रहा है, इसलिये प्रार्थना की जाती है।

भगवान्—ठीक है। किन्तु पूर्ण प्रेम और श्रद्धाकी जो कमी है उसकी पूर्ति करनेके लिये मेरा आश्रय लेकर खूब प्रयत्न करना चाहिये।

साधक—भगवन्! मैंने सुना है कि रोनेसे भी उसकी पूर्ति होती है। क्या यह ठीक है?

भगवान्—वह रोना दूसरा है।

साधक—दूसरा कौन-सा और कैसा?

भगवान्—वह रोना हृदयसे होता है; जैसे कि कोई आर्त दु:खी आदमी दु:खनिवृत्तिके लिये सच्चे हृदयसे रोता है।

साधक—ठीक है। चाहता तो वैसा ही हूँ, किन्तु सब समय वैसा रोना आता नहीं।

भगवान्—इससे यह निश्चित होता है कि बुद्धिके विचारद्वारा तो तुम रोना चाहते हो, किन्तु तुम्हारा मन नहीं चाहता।

साधक—भगवन्! यदि मन ही चाहने लगे तो फिर आपसे प्रार्थना ही क्यों करूँ? मन नहीं चाहता इसीलिये तो आपकी मदद चाहता हूँ।

भगवान्—मेरी आज्ञाओंके पालन करनेमें तत्पर रहनेसे ही मेरी पूरी मदद मिलती है। यह विश्वास रखो कि इसमें तत्पर होनेसे कठिन-से-कठिन भी काम सहजमें हो सकता है।

साधक—भगवन्! आप जैसा कहते हैं वैसा ही करूँगा, किन्तु होगा सब आपकी कृपासे ही। मैं तो निमित्तमात्र हूँ। इसलिये आपकी यह आज्ञा मानकर अब विशेषरूपसे कोशिश करूँगा, मुझे निमित्त बनाकर जो कुछ करा लेना है, सो करा लीजिये।

भगवान्—ऐसा मान लेनेसे तुम्हारेमें कहीं कमकसपना न आ जाय!

साधक—भगवन्! क्या आपसे मदद माँगना भी कमकसपना है।

भगवान्—मदद तो माँगता रहे, किन्तु काम करनेसे जी चुराता रहे और आज्ञापालन करे नहीं, इसीका नाम कमकसपना है। जो कुछ मैंने बतलाया है मुझमें चित्त लगाकर वैसा ही करते रहो। आगे-पीछेका कुछ भी चिन्तन मत करो। जो कुछ हो प्रसन्नतापूर्वक देखते रहो। इसीका नाम शरणागति है! विश्वास रखो कि इस प्रकार शरण होनेसे सब कार्योंकी सिद्धि हो सकती है।

साधक—विश्वास तो करता हूँ किन्तु आतुरताके कारण भूल हो जाती है और परमशान्ति तथा परमानन्दकी प्राप्तिकी ओर लक्ष्य चला ही जाता है।

भगवान्—जैसे कार्यके फलकी ओर देखते हो वैसे कार्यकी तरफ क्यों नहीं देखते? मेरी आज्ञाके अनुसार कार्य करनेसे ही मेरेमें श्रद्धा और प्रेमकी वृद्धि होकर मेरी प्राप्ति होती है।

साधक—किन्तु प्रभो! आपमें श्रद्धा और प्रेमके हुए बिना आज्ञाका पालन भी तो नहीं हो सकता।

भगवान्—जितनी श्रद्धा और प्रेमसे मेरी आज्ञाका पालन हो सके उतनी श्रद्धा और प्रेम तो तुममें है ही।

साधक—फिर आपकी आज्ञाका अक्षरश: पालन न होनेमें क्या कारण है।

भगवान्—संचित पाप एवं राग, द्वेष, काम, क्रोधादि दुर्गुण ही बाधा डालनेमें हेतु हैं।

साधक—इनका नाश कैसे हो?

भगवान्—यह तो पहले ही बतला चुका हूँ, भजन, ध्यान, सेवा, सत्संग आदि साधनोंसे होगा।

साधक—इसके लिये अब और भी विशेषरूपसे कोशिश करनेकी चेष्टा करूँगा। किन्तु यह भी तो आपकी मददसे ही होगा।

भगवान्—मदद तो मुझसे चाहो जितनी ही मिल सकती है।

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साधक—प्रभो! कोई-कोई कहते हैं कि प्रभुके प्रत्यक्ष दर्शन ज्ञानचक्षुसे ही होते हैं, चर्मचक्षुसे नहीं, सो क्या बात है?

भगवान्—उनका कहना ठीक नहीं है। भक्त जिस प्रकार मेरा दर्शन चाहता है उसको मैं उसी प्रकार दर्शन दे सकता हूँ।

साधक—आपका विग्रह तो दिव्य है फिर चर्मचक्षुसे उसके दर्शन कैसे हो सकते हैं?

भगवान्—मेरे अनुग्रहसे। मैं उसको ऐसी शक्ति प्रदान कर देता हूँ जिसके आश्रयसे वह चर्मचक्षुके द्वारा भी मेरे दिव्य स्वरूपका दर्शन कर सकता है।

साधक—जहाँ आप दिव्य साकारस्वरूपसे प्रकट होते हैं वहाँ जितने मनुष्य रहते हैं उन सबको आपके दर्शन होते हैं या उनमेंसे किसी एक-दोको?

भगवान्—मैं जैसा चाहता हूँ वैसा ही हो सकता है।

साधक—चर्मदृष्टि तो सबकी ही समान है फिर किसीको दर्शन होते हैं और किसीको नहीं, यह कैसे?

भगवान्—इसमें कोई आश्चर्य नहीं। एक योगी भी अपनी योगशक्तिसे ऐसा काम कर सकता है कि बहुतोंके सामने प्रकट होकर भी किसीके दृष्टिगोचर हो और किसीके नहीं।

साधक—जब आप सबके दृष्टिगोचर होते हैं तब सबको एक ही प्रकारसे दीखते हैं या भिन्न-भिन्न प्रकारसे?

भगवान्—एक प्रकारसे भी दीख सकता हूँ और भिन्न-भिन्न प्रकारसे भी। जो जैसा पात्र होता है अर्थात् मुझमें जिसकी जैसी भावना, प्रीति और श्रद्धा होती है उसको मैं उसी प्रकार दिखायी देता हूँ।

साधक—आपके प्रत्यक्ष प्रकट होनेपर भी दर्शकोंमें श्रद्धाकी कमी क्यों रह जाती है? उदाहरण देकर समझाइये।

भगवान्—मैं श्रद्धाकी कमी और अभाव होते हुए भी सबके सामने प्रकट हो सकता हूँ और प्रकट होनेपर भी श्रद्धाकी कमी-वेशी रह सकती है; जैसे दुर्योधनकी सभामें मैं विराट्स्वरूपसे प्रकट हुआ और अपनी-अपनी भावनाओंके अनुसार दीख पड़ा और बहुत लोग मुझे देख भी नहीं सके।

साधक—जब आप प्रत्यक्ष अवतार लेते हैं तब तो सबको समान भावसे दीखते होंगे?

भगवान्—अवतारके समय भी जिसकी जैसी भावना रहती है उसी प्रकार उसको दीखता हूँ।*

* जिन्ह कें रही भावना जैसी।

प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥

साधक—बहुत-से लोग कहते हैं कि सच्चिदानन्दघन परमात्मा साकाररूपसे भक्तके सामने प्रकट नहीं हो सकते। लोगोंको अपनी भावना ही अपने-अपने इष्टदेवके साकाररूपमें दीखने लगती है।

भगवान्—वे सब भूलसे कहते हैं। वे मेरे सगुणस्वरूपके रहस्यको नहीं जानते। मैं स्वयं सच्चिदानन्दघन परमात्मा ही अपनी योगशक्तिसे दिव्य सगुण साकाररूपमें भक्तोंके लिये प्रकट होता हूँ। हाँ, साधनकालमें किसी-किसीको भावनासे ही मेरे दर्शनोंकी प्रतीति भी हो जाती है, किन्तु वास्तवमें वे मेरे दर्शन नहीं समझे जाते।

साधक—साधक कैसे समझे कि दर्शन प्रत्यक्ष हुए या मनकी भावना ही है।

भगवान्—प्रत्यक्ष और भावनामें तो रात-दिनका-सा अन्तर है। जब मेरा प्रत्यक्ष दर्शन होता है तो उसमें भक्तोंके सब लक्षण घटने लग जाते हैं और उस समयकी सारी घटनाएँ भी प्रमाणित होती हैं, जैसे ध्रुवको मेरे प्रत्यक्ष दर्शन हुए और शंख छुआनेसे बिना पढ़े ही उसे सब शास्त्रोंका ज्ञान हो गया, प्रह्लादके लिये मैं प्रत्यक्ष प्रकट हुआ और हिरण्यकशिपुका नाश कर डाला। ऐसी घटनाएँ भावनामात्र नहीं समझी जा सकतीं। किन्तु जो भावनासे मेरे स्वरूपकी प्रतीति होती है उसकी घटनाएँ इस प्रकार प्रमाणित नहीं होतीं।

साधक—कितने ही कहते हैं कि भगवान् तो सर्वव्यापी हैं फिर वे एक देशमें कैसे प्रकट हो सकते हैं? ऐसा होनेपर क्या आपके सर्वव्यापीपनमें दोष नहीं आता?

भगवान्—नहीं, जैसे अग्नि सर्वव्यापी है। कोई अग्निके इच्छुक अग्निको साधनद्वारा किसी एक देशमें या एक साथ अनेक देशोंमें प्रज्वलित करते हैं तो वे अग्निदेव सब देशोंमें मौजूद रहते हुए ही अपनी सर्वशक्तिको लेकर एक देशमें या अनेक देशोंमें प्रकट होते हैं और मैं तो अग्निसे भी बढ़कर व्याप्त और अपरिमित शक्तिशाली हूँ, फिर मुझ सर्वव्यापीके लिये सब जगह स्थित रहते हुए ही एक साथ एक या अनेक जगह सर्वशक्तिसे प्रकट होनेमें क्या आश्चर्य है।

साधक—आप निर्गुण-निराकार होते हुए दिव्य सगुण-साकाररूपसे कैसे प्रकट होते हैं?

भगवान्—निर्मल आकाशमें जो परमाणुरूपमें जल रहता है वही जल बूँदोंके रूपमें आकर बरसता है और फिर वही उससे भी स्थूल बर्फ और ओलेके रूपमें भी आ जाता है। वैसे ही मैं सत् और असत् से परे होनेपर भी दिव्य ज्ञानके रूपमें शुद्ध सूक्ष्म हुई बुद्धिके द्वारा जाननेमें आता हूँ। तदनन्तर मैं नित्य विज्ञानानन्द हुआ ही अपनी योगशक्तिसे जब दिव्य प्रकाशके रूपमें प्रकट होता हूँ तब ज्योतिर्मय रूपसे योगियोंको हृदयमें दर्शन देता हूँ और फिर दिव्य प्रकाशरूप हुआ ही मैं दिव्य सगुण साकाररूपमें प्रकट होकर भक्तको प्रत्यक्ष दीखता हूँ। जैसे सूर्य प्रकट होकर सबके नेत्रोंको अपना प्रकाश देकर अपना दर्शन देता है।

साधक—कोई-कोई कहते हैं कि जल तो जड है, उसमें इस प्रकारका विकार हो सकता है; किन्तु निर्विकार चेतनमें यह सम्भव नहीं।

भगवान्—मुझ निर्विकार चेतनमें यह विकार नहीं है। यह तो मेरी शक्तिका प्रभाव है। मैं तो असम्भवको भी सम्भव कर सकता हूँ। मेरे लिये कुछ भी अशक्य नहीं है।

साधक—अच्छा, यह बतलाइये कि आपके साक्षात् दर्शन होनेके लिये सबसे बढ़कर क्या उपाय है?

भगवान्—मुझमें अनन्य भक्ति अर्थात् मेरी अनन्य शरणागति।

साधक—अनन्य भक्तिद्वारा किन-किन लक्षणोंसे युक्त होनेपर आप मिलते हैं?

भगवान्—दैवी सम्पत्तिके लक्षणोंसे युक्त होनेपर (गीता १६। १ से ३ तक)।

साधक—दैवी सम्पत्तिके सब लक्षण आनेपर ही आप मिलते हैं या पहले भी?

भगवान्—यह कोई खास नियम नहीं है कि दैवी सम्पत्तिके सब गुण होने ही चाहिये; किन्तु अनन्य भक्ति अवश्य होनी चाहिये।

साधक—दैवी सम्पत्तिके गुण कम होनेपर भी आप केवल अनन्य भक्तिसे मिलते हैं तो फिर मिलनेके बाद दैवी सम्पत्तिके सब लक्षण आ जाते होंगे?

भगवान्—दैवी सम्पत्तिके लक्षण ही क्या और भी विशेष गुण आ जाते हैं।

साधक—वे विशेष गुण कौन-कौन-से हैं?

भगवान्—समता आदि (गीता १२। १३ से २० तक)।

साधक—वे लक्षण आपकी प्राप्ति होनेके पीछे ही आते हैं या पहले भी?

भगवान्—पहले भी कुछ आ जाते हैं किन्तु मेरी प्राप्ति होनेके बाद तो आ ही जाते हैं।

साधक—आपकी प्राप्तिके लिये भक्तका क्या कर्तव्य है?

भगवान्—यह तो बतला ही चुका कि केवल मेरी सब प्रकारसे शरण होना।

साधक—शरणमें भी आप स्वयं क्यों नहीं ले लेते?

भगवान्—किसीको जबरदस्ती शरणमें ले लेना मेरा कर्तव्य नहीं है, शरण होना तो भक्तका कर्तव्य है।

साधक—इस विषयमें विवेक-विचारसे जो शरण होना चाहता है उसको आप मदद देते हैं या नहीं?

भगवान्—जो सरल चित्तसे मदद माँगता है, उसको अवश्य देता हूँ।

साधक—जो आपकी प्राप्तिके लिये सब प्रकारसे आपकी शरण होना चाहता है उसके साधनमें ऋद्धि, सिद्धि, देवता आदि विघ्न डाल सकते हैं या नहीं?

भगवान्—कोई भी विघ्न नहीं डाल सकते।

साधक—देखनेमें तो आता है कि आपकी भक्ति करनेवाले पुरुषोंको अनेक विघ्नोंका सामना करना पड़ता है और उसके साधनमें रुकावटें भी पड़ जाती हैं।

भगवान्—वे सब प्रकारसे मेरी शरण नहीं हैं।

साधक—आपको प्राप्त होनेके बाद अणिमादि सिद्धियाँ भी उसमें आ जाती हैं क्या?

भगवान्—भक्तको इनकी आवश्यकता ही नहीं है।

साधक—यदि भक्त इच्छा करे तो भी ये प्राप्त हो सकती हैं या नहीं?

भगवान्—मेरा भक्त इन सबकी इच्छा करता ही नहीं और करे तो वह मेरा अनन्य भक्त ही नहीं।

साधक—आपकी प्राप्ति होनेके बाद आपके भक्तका क्या अधिकार होता है?

भगवान्—वह अपना कुछ भी अधिकार नहीं मानता है और न चाहता ही है।

साधक—उसके न चाहनेपर भी आप तो दे सकते हैं?

भगवान्—हाँ, मुझे आवश्यकता होती है तो दे देता हूँ।

साधक—आपको भी आवश्यकता?

भगवान्—हाँ, संसारमें जीवोंके कल्याणके लिये, जो धर्म और भक्तिके प्रचार करनेकी आवश्यकता है वही मेरी आवश्यकता है।

साधक—उस समय आप उसको कितना अधिकार देते हैं?

भगवान्—जितना मुझको उससे कार्य लेना होता है।

साधक—यह अधिकार क्या आप सभी भक्तोंको दे सकते हैं? या किसी-किसीको?

भगवान्—उदासीनको छोड़कर जो प्रसन्नताके साथ लेना चाहता है उन सभीको यह अधिकार दे सकता हूँ?

साधक—धर्म, सदाचार और भक्तिके प्रचारार्थ पूर्ण अधिकार देनेके योग्य आप किसको समझते हैं? कैसे स्वभाववाले भक्तको आप पूरा अधिकार दे सकते हैं?

भगवान्—जिसका दूसरोंके हितके लिये अनायास ही सर्वस्व त्याग करनेका स्वभाव है, जिसमें सबका कल्याण हो, ऐसी स्वाभाविक वृत्ति सदासे चली आ रही है और जो दूसरोंकी प्रसन्नतापर ही सदा प्रसन्न रहता है, ऐसे उदार स्वभाववाले परम दयालु प्रेमी भक्तको मैं अपना पूर्ण अधिकार दे सकता हूँ।

साधक—क्या आपकी प्राप्तिके बाद भी सबके स्वभाव एक-से नहीं होते?

भगवान्—नहीं, क्योंकि साधनकालमें जिसका जैसा स्वभाव होता है प्राय: वैसा ही सिद्धावस्थामें भी होता है। किन्तु हर्ष, शोक, राग, द्वेष, काम, क्रोध आदि विकारोंका अत्यन्ताभाव सभीमें हो जाता है एवं समता, शान्ति और परमानन्दकी प्राप्ति भी सबको समानभावसे ही होती है तथा शास्त्राज्ञाके प्रतिकूल कर्म तो किसीके भी नहीं होते। किन्तु सारे कर्म (शास्त्रानुकूल क्रियाएँ) मेरी आज्ञाके अनुसार होते हुए भी भिन्न-भिन्न होते हैं।

साधक—फिर उनकी बाहरी क्रियाओंमें अन्तर होनेमें क्या हेतु है?

भगवान्—किसीका एकान्तमें बैठकर साधन करनेका स्वभाव होता है और किसीका सेवा करनेका। स्वभाव, प्रारब्ध और बुद्धि भिन्न-भिन्न होनेके कारण तथा देश-काल और परिस्थितिके कारण भी बाहरकी क्रियाएँ भिन्न-भिन्न होती हैं।

साधक—ऐसी अवस्थामें सबसे उत्तम तो वही है जिसको आप पूरा अधिकार दे सकते हों।

भगवान्—इसमें उत्तम-मध्यम कोई नहीं है। सभी उत्तम हैं। जिसके स्वभावमें स्वाभाविक ही काम करनेका उत्साह विशेष होता है उसके ऊपर कामका भार विशेष दिया जाता है।

साधक—आपके बतलाये हुए काममें तो सबको उत्साह होना चाहिये।

भगवान्—मेरे बतलाये हुए काममें उत्साह तो सभीको होता है किन्तु मैं उनके स्वभावके अनुसार ही कामका भार देता हूँ, किसीका स्वभाव मेरे पास रहनेका होता है तो मैं उसको बाहर नहीं भेजता। जिसका लोकसेवा करनेका स्वभाव होता है उसके जिम्मे लोकसेवाका काम लगाता हूँ। जिसमें विशेष उपरामता देखता हूँ उसके जिम्मे काम नहीं लगाता। जिसका जैसा स्वभाव और जैसी योग्यता देखता हूँ उसके अनुसार ही उसके जिम्मे काम लगाता हूँ।

साधक—किन्तु भक्तको तो ऐसा ही स्वभाव बनाना चाहिये जिससे आप नि:संकोच होकर उसके जिम्मे विशेष काम लगा सकें। अत: इस प्रकारका स्वभाव बनानेके लिये सबसे बढ़कर उपाय क्या है?

भगवान्—केवल एकमात्र मेरी अनन्य शरण ही।

साधक—अनन्य शरण किसे कहते हैं, कृपया बतलाइये?

भगवान्—गुण और प्रभावके सहित मेरे नाम और रूपका अनन्य भावसे निरन्तर चिन्तन करना, मेरा चिन्तन रखते हुए ही केवल मेरे प्रीत्यर्थ मेरी आज्ञाका पालन करना तथा मेरे किये हुए विधानमें हर समय प्रसन्न रहना।

साधक—प्रभो! आपका ध्यान (चिन्तन) करना मुझे भी अच्छा मालूम पड़ता है। किन्तु मन स्थिर नहीं होता। जल्दीसे इधर-उधर भाग जाता है। इसका क्या कारण है?

भगवान्—आसक्तिके कारण मनको संसारके विषय-भोग प्रिय लगते हैं तथा अनेक जन्मोंके जो संस्कार इकट्ठे हो रहे हैं वे मनको स्थिर नहीं होने देते।

साधक—जिनसे न तो मेरे किसी प्रयोजनकी सिद्धि होती है और न जिनमें मेरी आसक्ति ही है ऐसे व्यर्थ पदार्थोंका चिन्तन क्यों होता है?

भगवान्—मन स्वाभाविक ही चंचल है इसलिये उसे व्यर्थ पदार्थोंके चिन्तन करनेकी आदत पड़ी हुई है और उसे उनका चिन्तन रुचिकर भी है, यह भी एक प्रकारकी आसक्ति ही है, इसीलिये वह उनका चिन्तन करता है।

साधक—इसके लिये क्या उपाय करना चाहिये?

भगवान्—मनकी सँभाल रखनी चाहिये कि वह मेरे रूपका ध्यान छोड़कर दूसरे किसी भी पदार्थोंका चिन्तन न करने पावे। इसपर भी यदि दूसरे पदार्थोंका चिन्तन करने लगे तो तुरंत इसे समझाकर या बलपूर्वक वहाँसे हटाकर मेरे ध्यानमें लगानेकी पुन:-पुन: तत्परतासे चेष्टा करनी चाहिये।

साधक—मनको दूसरे पदार्थोंसे कैसे हटाया जाय?

भगवान्—जैसे कोई बच्चा हाथमें चाकू या कैंची ले लेता है तो माता उसको समझाकर छुड़ा लेती है। यदि मूर्खताके कारण बच्चा नहीं छोड़ना चाहता तो माता उसके रोनेकी परवा न रखकर बलात् भी छुड़ा लेती है। वैसे ही इस मनको समझाकर दूसरे पदार्थोंका चिन्तन छुड़ाना चाहिये क्योंकि यह मन भी बालककी भाँति चंचल है। परिणाममें होनेवाली हानिपर विचार नहीं करता।

साधक—यह तो मालूम ही नहीं पड़ता कि मन धोखा देकर कहाँ और कब किस चीजको चुपचाप जाकर पकड़ लेता है; इसके लिये क्या किया जाय?

भगवान्—जैसे माता बच्चेका बराबर ध्यान रखती है वैसे ही मनकी निगरानी रखनी चाहिये।

साधक—मन बहुत ही चंचल, बलवान् और उद्दण्ड है, इसलिये इसका रोकना बहुत ही कठिन प्रतीत होता है?

भगवान्—कठिन तो है पर जितना तुम मानते हो उतना नहीं है, क्योंकि यह प्रयत्न करनेसे रुक सकता है। अतएव इसको कठिन मानकर निराश नहीं होना चाहिये। माता बच्चेकी रक्षा करनेमें कभी कठिनता नहीं समझती, यदि समझे तो उसका पालन ही कैसे हो?

साधक—क्या मन सर्वथा बच्चेके ही समान है?

भगवान्—नहीं, बच्चेसे भी बलवान् और उद्दण्ड अधिक है।

साधक—तब फिर इसका निग्रह कैसे किया जाय?

भगवान्—निग्रह तो किया जा सकता है क्योंकि मनसे बुद्धि बलवान् है और बुद्धिसे भी तू अत्यन्त बलवान् है, इसलिये जैसे माता अपनी समझदार लड़कीके द्वारा अपने छोटे बच्चेको समझाकर या लोभ देकर यदि वह नहीं मानता तो भय दिखलाकर भी अनिष्टसे बचाकर इष्टमें लगा देती है, वैसे ही मनको बुद्धिके द्वारा भोगोंमें भय दिखाकर उसे इन नाशवान् और क्षणभंगुर सांसारिक पदार्थोंसे हटाकर पुन:-पुन: मुझमें लगाना चाहिये।

साधक—इस प्रकार चेष्टा करनेपर भी मैं अपनी विजय नहीं देख रहा हूँ।

भगवान्—यदि विजय न हो तो भी डटे रहो, घबड़ाओ मत। जब मेरी मदद है तो निराश होनेका कोई कारण ही नहीं है। विश्वास रखो कि लड़ते-लड़ते आखिरमें तुम्हारी विजय निश्चित है।

साधक—प्रभो! अब यह बतलाइये कि जब मैं आपका ध्यान करनेके लिये एकान्तमें बैठता हूँ तो निद्रा, आलस्य सताने लगते हैं इसके लिये क्या करना चाहिये?

भगवान्—हलका (लघु) और सात्त्विक तो भोजन करना चाहिये। शरीरको स्थिर और सीधा रखते हुए एवं नेत्रोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर रखकर पद्मासन या स्वस्तिकादि किसी आसनसे सुखपूर्वक बैठना चाहिये तथा दिव्य स्तोत्रोंके द्वारा मेरी स्तुति-प्रार्थना करनी चाहिये एवं मेरे नाम, रूप, गुण, लीला और प्रभावादि जो तुमने महापुरुषोंसे सुने हैं या शास्त्रोंमें पढ़े हैं, उनका बारंबार कीर्तन और मनन करना चाहिये। ऐसा करनेसे सात्त्विक भाव होकर बुद्धिमें जागृति हो जाती है फिर तमोगुणके कार्य निद्रा और आलस्य नहीं आ सकते।

साधक—भगवन्! आपने गीतामें कहा है कि मेरा सर्वदा निरन्तर चिन्तन करनेसे मेरी प्राप्ति सुलभ है, क्योंकि मैं किये हुए साधनकी रक्षा और कमीकी पूर्ति करके बहुत ही शीघ्र संसार-सागरसे उद्धार कर देता हूँ। किन्तु आप अपनी प्राप्ति जितनी सुलभ और शीघ्रतासे होनेवाली बतलाते हैं वैसी मुझे प्रतीत नहीं होती।

भगवान्—मेरा नित्य-निरन्तर चिन्तन नहीं होता है, इसीसे मेरी प्राप्ति तुझे कठिन प्रतीत होती है।

साधक—आपका कहना यथार्थ है। आपका निरन्तर चिन्तन करनेसे अवश्य आपकी प्राप्ति शीघ्र और सुगमतासे हो सकती है। किन्तु निरन्तर आपका चिन्तन होना ही तो कठिन है। उसके लिये क्या करना चाहिये?

भगवान्—मेरे गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको न जाननेके कारण ही निरन्तर मेरा चिन्तन करना कठिन प्रतीत होता है। वास्तवमें वह कठिन नहीं है।

साधक—आपका गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्य क्या है? बतलाइये।

भगवान्—अतिशय समता, शान्ति, दया, प्रेम, क्षमा, माधुर्य, वात्सल्य, गम्भीरता, उदारता, सुहृदतादि मेरे गुण हैं। सम्पूर्ण विभूति, बल, ऐश्वर्य, तेज, शक्ति, सामर्थ्य और असम्भवको भी सम्भव कर देना आदि मेरा प्रभाव है। जैसे परमाणु, भाप, बादल, बूँदें और ओले आदि सब जल ही हैं, वैसे ही सगुण, निर्गुण, साकार, निराकार, व्यक्त, अव्यक्त, जड, चेतन, स्थावर, जंगम, सत्, असत् आदि जो कुछ भी है तथा जो इससे भी परे है वह सब मैं ही हूँ। यह मेरा तत्त्व है। मेरे दर्शन, भाषण, स्पर्श, चिन्तन, कीर्तन, अर्चन, वन्दन, स्तवन आदिसे पापी भी परम पवित्र हो जाता है, यह विश्वास करना तथा सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् सर्वत्र समभावसे स्थित मुझ मनुष्यादि शरीरोंमें प्रकट होनेवाले और अवतार लेनेवाले परमात्माको पहचानना यह रहस्य है।

साधक—इन सबको कैसे जाना जाय?

भगवान्—जैसे छोटा बच्चा आरम्भमें विद्या पढ़नेसे जी चुराता है किन्तु जब विद्या पढ़ते-पढ़ते उसके गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको जान लेता है तो फिर बड़े प्रेम और उत्साहके साथ विद्याभ्यास करने लगता है तथा दूसरोंके छुड़ानेपर भी नहीं छोड़ना चाहता, वैसे ही सत्संगके द्वारा मेरे भजन, ध्यान आदिका साधन करते-करते मनुष्य मेरे गुण, प्रभाव, रहस्यको जान सकता है फिर उसे ऐसा आनन्द और शान्ति मिलती है कि वह छुड़ानेपर भी नहीं छोड़ सकता।

साधक—प्रभो! क्या आपका निरन्तर चिन्तन रखते हुए आपकी आज्ञाके अनुसार शरीर और इन्द्रियोंके द्वारा व्यापार भी हो सकता है?

भगवान्—दृढ़ अभ्याससे हो सकता है। जैसे कछुएका अपने अण्डोंमें, गौका अपने छोटे बच्चेमें, कामीका स्त्रीमें, लोभीका धनमें, मोटर-ड्राइवरका सड़कमें, नटनीका अपने पैरोंमें ध्यान रहते हुए उनके शरीर और इन्द्रियोंके द्वारा सब चेष्टाएँ भी होती हैं इसी प्रकार मेरा निरन्तर चिन्तन करते हुए मेरी आज्ञाके अनुसार शरीर और इन्द्रियोंके द्वारा सब काम हो सकते हैं।

साधक—आपकी आज्ञा क्या है?

भगवान्—सत्-शास्त्र, महापुरुषोंके वचन, हृदयकी सात्त्विक स्फुरणाएँ—ये तीनों मेरी आज्ञाएँ हैं। इन तीनोंमें मतभेद प्रतीत होनेपर जहाँ दोकी एकता हो उसीको मेरी आज्ञा समझकर काममें लाना चाहिये।

साधक—जहाँ तीनोंका भिन्न-भिन्न मत प्रतीत हो वहाँ क्या किया जाय?

भगवान्—वहाँ महापुरुषोंकी आज्ञाका पालन करना चाहिये।

साधक—क्या इसमें शास्त्रोंकी अवहेलना नहीं होगी?

भगवान्—नहीं, क्योंकि महापुरुष शास्त्रोंके विपरीत नहीं कह सकते। सर्वसाधारणके लिये शास्त्रोंका निर्णय करना कठिन है तथा इसका यथार्थ तात्पर्य देश और कालके अनुसार महात्मालोग ही जान सकते हैं। इसीलिये महापुरुष जो मार्ग बतलावें वही ठीक है।

साधक—केवल हृदयकी सात्त्विक स्फुरणाको ही भगवत्-आज्ञा मान लें तो क्या आपत्ति है?

भगवान्—मान सकते हो। किन्तु वह स्फुरणा शास्त्र या महापुरुषोंके वचनोंके अनुकूल होनी चाहिये। क्योंकि साधकको शासककी आवश्यकता है, नहीं तो अज्ञानवश कहीं राजसी, तामसी स्फुरणाको सात्त्विक माननेसे साधकमें उच्छृंखलता आकर उसका पतन हो सकता है।

साधक—यहाँ शास्त्रसे आपका क्या अभिप्राय है?

भगवान्—श्रुति, स्मृति, इतिहास, पुराणादि जो आर्ष ग्रन्थ हैं, वे सभी शास्त्र हैं। किन्तु यहाँपर भी मतभेद प्रतीत होनेपर श्रुतिको ही बलवान् समझना चाहिये; क्योंकि स्मृति, इतिहास, पुराणादिका आधार श्रुति ही है।

साधक—श्रुति, स्मृति आदि सारे शास्त्रोंका ज्ञान होना साधारण मनुष्योंके लिये कठिन है, ऐसी अवस्थामें उनके लिये क्या आधार है?

भगवान्—उन पुरुषोंको शास्त्रोंके ज्ञाता महापुरुषोंका आश्रय लेना चाहिये।

साधक—महापुरुष किसे माना जाय?

भगवान्—जिसको तुम अपने हृदयसे सबसे श्रेष्ठ मानते हो वे ही तुम्हारे लिये महापुरुष हैं।

साधक—प्रभो! मेरी मान्यतामें भूल एवं उसके कारण मुझे धोखा भी तो हो सकता है।

भगवान्—उसके लिये कोई चिन्ता नहीं। मेरे आश्रित जनकी मैं स्वयं सब प्रकारसे रक्षा करता हूँ।

साधक—प्रभो! मैं महापुरुषकी जाँच किस आधारपर करूँ? महापुरुषोंके लक्षण क्या हैं?

भगवान्—गीताके दूसरे अध्यायमें श्लोक ५५से ७१ तक स्थितप्रज्ञके नामसे अथवा छठे अध्यायमें श्लोक ७ से ९ तक योगीके नामसे या अध्याय १२ श्लोक १३ से १९ तक भक्तिमान् के नामसे अथवा अध्याय १४ श्लोक २२ से २५ तक गुणातीतके नामसे बतलाये हुए लक्षण जिस पुरुषमें हों वही महापुरुष है।

साधक—ऐसे महापुरुषोंका मिलना कठिन है। ऐसी परिस्थितिमें क्या करना चाहिये?

भगवान्—ऐसी अवस्थामें सबके लिये समझनेमें सरल और सुगम सर्वशास्त्रमयी गीता ही आधार है जो कि अर्जुनके प्रति मेरे द्वारा कही गयी है।

साधक—प्रधानतासे गीतामें बतलाये हुए किन-किन श्लोकोंको लक्ष्यमें रखकर साधक अपना गुण और आचरण बनावे?

भगवान्—इसके लिये गीतामें बहुत-से श्लोक हैं; उनमेंसे मुख्यतया ज्ञानके नामसे बतलाये हुए अध्याय १३ के श्लोक ७ से ११ तक या दैवी सम्पत्तिके नामसे बतलाये हुए अध्याय १६ के श्लोक १ से ३ तक अथवा तपके नामसे बतलाये हुए अध्याय १७ के श्लोक १४ से १७ तकके अनुसार अपना जीवन बनाना चाहिये।

साधक—प्रभो! अब यह बतलाइये आपने कहा कि मेरे किये हुए विधानमें हर समय प्रसन्न रहना चाहिये। इसका क्या अभिप्राय है?

भगवान्—सुख-दु:ख, लाभ-हानि, प्रिय-अप्रिय आदिकी प्राप्तिरूप मेरे किये हुए विधानको मेरा भेजा हुआ पुरस्कार मानकर सदा ही सन्तुष्ट रहना।

साधक—इन सबके प्राप्त होनेपर सदा प्रसन्नता नहीं होती। इसका क्या कारण है?—मेरे प्रत्येक विधानमें दया भरी हुई है, इसके तत्त्व और रहस्यको लोग नहीं जानते।

साधक—स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि जो सांसारिक सुखदायक पदार्थ हैं वे सब मोह और आसक्तिके द्वारा मनुष्यको बाँधनेवाले हैं। इन सबको आप किसलिये देते हैं? और इस विधानमें आपकी दयाके रहस्यको जानना क्या है?

भगवान्—जैसे कोई राजा अपने प्रेमीको अपने पास शीघ्र बुलानेके लिये मोटर आदि सवारी भेजता है वैसे ही मैं पूर्वकृतपुण्योंके फलस्वरूप स्त्री, पुत्र, धन, मकान आदि सांसारिक पदार्थोंको दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये एवं सदाचार,सद्गुण और मुझमें प्रेम बढ़ाकर मेरे पास शीघ्र आनेके लिये देता हूँ। इस प्रकार समझना ही मेरी दयाके रहस्यको जानना है।

साधक—स्त्री, पुत्र, धनादि सांसारिक पदार्थोंके विनाशमें आपकी दयाका तत्त्व और रहस्य क्या है?

भगवान्—जैसे पतंगे आदि जन्तु रोशनीको देखकर मोह और आसक्तिके कारण उसमें गिरकर भस्म हो जाते हैं और उनकी ऐसी दुर्दशा देखकर दयालु मनुष्य उस रोशनीको बुझा देता है, ऐसा करनेमें यद्यपि वे जीव नहीं जानते तो भी उसकी उनके ऊपर महान् दया ही होती है। इसी प्रकार मनुष्यको भोग और आसक्तिके द्वारा बाँधकर नरकमें डालनेवाले इन पदार्थोंका नाश करनेमें भी मेरी महान् दया ही समझनी चाहिये।

साधक—आप मनुष्यको आरोग्यता, बल और बुद्धि आदि किसलिये देते हैं?

भगवान्—सत्संग, सेवा और निरन्तर भजन-ध्यानके अभ्यासद्वारा मेरे गुण, प्रभाव, तत्त्व और रहस्यको समझनेके लिये।

साधक—व्याधि और संकट आदिकी प्राप्तिमें आपकी दयाका दर्शन कैसे करें?

भगवान्—व्याधि और संकट आदिके भोगद्वारा पूर्वकृत किये हुए पापरूप ऋणसे मुक्ति तथा दु:खका अनुभव होनेके कारण भविष्यमें पाप करनेमें रुकावट होती है। मृत्युका भय बना रहनेसे शरीरमें वैराग्य होकर मेरी स्मृति होती है। इसके अतिरिक्त यदि व्याधिको परम तप समझकर सेवन किया जाय तो मेरी प्राप्ति भी हो सकती है। ऐसा समझना मेरी दयाका दर्शन करना है।

साधक—महापुरुषोंके संगमें आपकी दया प्रत्यक्ष है, किन्तु उनके वियोगमें आपकी दया कैसे समझी जाय?

भगवान्—प्रकाशके हटानेसे ही मनुष्य प्रकाशके महत्त्वको समझता है। इसलिये महापुरुषोंसे पुन: मिलनेकी उत्कट इच्छा उत्पन्न करने और उनमें प्रेम बढ़ानेके लिये एवं उनकी प्राप्ति दुर्लभ और महत्त्वपूर्ण है इस बातको जाननेके लिये ही मैं उनका वियोग देता हूँ ऐसा समझना चाहिये।

साधक—कुसंगके दोषोंसे बचानेके लिये आप दुष्ट-दुराचारी पुरुषोंका वियोग देते हैं इसमें तो आपकी दया प्रत्यक्ष है, किन्तु बिना इच्छा आप उनका संग क्यों देते हैं?

भगवान्—दुराचारसे होनेवाली हानियोंका दिग्दर्शन कराकर दुर्गुण और दुराचारोंसे वैराग्य उत्पन्न करनेके लिये मैं ऐसे मनुष्योंका संग देता हूँ। किन्तु स्मरण रखना चाहिये, जो जान-बूझकर कुसंग करता है वह मेरा दिया हुआ नहीं है।

साधक—सर्वसाधारण मनुष्योंके संयोग और वियोगमें आपकी दया कैसे देखें?

भगवान्—उनमें दया और प्रेम करके उनकी सेवा करनेके लिये तो संयोग एवं उनमें वैराग्य करके एकान्तमें रहकर निरन्तर भजन-ध्यानका साधन करनेके लिये वियोग देता हूँ, ऐसा समझना ही मेरी दयाका देखना है।

साधक—नीति-धर्म और भजन-ध्यानमें बाधा पहुँचानेवाले मामले-मुकद्दमे आदि झंझटोंमें आपकी दयाका अनुभव कैसेकरें?

भगवान्—नीति-धर्म, भजन-ध्यान आदिमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय तथा कमजोरीके कारण ही बाधा आती है। जो मनुष्य न्यायसे प्राप्त हुए मुकद्दमे आदि झंझटोंको मेरा भेजा हुआ पुरस्कार मानकर नीति और धर्म आदिसे विचलित नहीं होता है। उसमें आत्मबलको बढ़ानेवाले धीरता, वीरता, गम्भीरता आदि गुणोंकी वृद्धि होती है। यह समझना ही मेरी दयाका अनुभव करना है।

साधक—भक्तकी मान, बड़ाई, प्रतिष्ठादिको आप क्यों हर लेते हैं, इसमें क्या रहस्य है?

भगवान्—अज्ञानरूपी निद्रासे जगाने एवं साधनकी रुकावटको दूर करने तथा दम्भको हटाकर सच्ची भक्ति बढ़ानेके लिये ही मैं मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा आदिको हर लेता हूँ। यही रहस्य है।

साधक—आपकी विशेष दया क्या है?

भगवान्—मेरे भजन, ध्यान, सेवा, सत्संग, सद्गुण और सदाचार आदिकी जो स्मृति, इच्छा और प्राप्ति होती है—यह विशेष दया है।

साधक—जब ऐसा है तब कर्मोंके अनुसार आपके किये हुए इन सब विधानोंको आपका भेजा हुआ पुरस्कार मानकर क्षण-क्षणमें मुग्ध होना चाहिये।

भगवान्—बात तो ऐसी ही है; किन्तु लोग समझते कहाँ हैं।

साधक—इसके समझनेके लिये क्या करना चाहिये?

भगवान्—गुण और प्रभावके सहित मेरे नाम-रूपका अनन्यभावसे निरन्तर चिन्तन तथा मेरा चिन्तन रखते हुए ही मेरी आज्ञाके अनुसार निष्कामभावसे कर्मोंका आचरण और मेरी दयाके रहस्यको जाननेवाले सत्पुरुषोंका संग करना चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur