Seeker of Truth

ध्यानसहित नाम-जपकी महिमा

आज उस परम दयालु परमात्माकी कृपासे ध्यानसहित नामके जपपर कुछ लिखनेका सुअवसर प्राप्त हुआ है। वास्तवमें तो इस विषयपर वे ही पुरुष लिख सकते हैं जो भगवान् के भजन और ध्यानके तत्त्वको जाननेवाले हैं और निरन्तर भगवान् के प्रेममें मुग्ध रहते हैं एवं भगवान् की स्मृतिसे जिनके शरीरमें रोमांच और नेत्रोंमें अश्रुपात होते रहते हैं। जलके वियोगमें मछलीकी भाँति भगवान् की विस्मृतिसे विकल हो उठते हैं और भगवान् का भजन-ध्यान जिनको प्राणोंसे भी बढ़कर प्रिय है, ऐसे महापुरुषोंका ही इस विषयमें लिखनेका अधिकार है। उन्हींके लेखोंसे संसारको लाभ पहुँच सकता है।

मुझ-सरीखे पुरुषका इस विषयमें लिखना अनधिकार चेष्टा करना है; किन्तु प्रेमी सज्जनोंकी प्रेरणासे, अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार पाठकोंकी सेवामें कुछ लिखनेका प्रयास कर रहा हूँ। त्रुटियोंके लिये विज्ञजन क्षमा करेंगे।

जो लोग भगवान् के भजन-ध्यानरूप साधनके रहस्यको नहीं जानते, वे लोग थोड़े ही दिनोंमें साधनसे ऊब जाते हैं और कुछ तो साधनको छोड़ भी देते हैं। जैसे कोई विद्या पढ़ता हुआ बालक खेल-तमाशेमें आसक्त या इम्तहानमें फेल होनेके कारण अथवा और किसी कारणसे उकताकर विद्याके अभ्यासको छोड़नेपर विद्यारूपी धनसे वंचित रह जाता है, वैसे ही वे भगवत्-प्राप्तिरूप अमूल्य रत्नसे वंचित रह जाते हैं।

कोई-कोई मन्द साधन करते भी रहते हैं और पूछनेपर वे ऐसा कहा करते हैं कि जब हम भजन-ध्यान करनेके लिये बैठते हैं तब संसारके संकल्प, निद्रा और आलस्य आदि आ घेरते हैं अतएव विशेष आनन्द नहीं आता। इसलिये उससे रुचि हटकर हमारा साधन ढीला पड़ गया। वे लोग भजन-ध्यानके द्वारा आरम्भमें ही पूर्ण आनन्दका अनुभव करना चाहते हैं। यह भारी भूल है। अभी तो भजन-ध्यानका जैसा साधन होना चाहिये वैसा साधन ही नहीं हुआ, फिर आनन्द कैसा?

हाथसे माला फेरते हैं, मुँहसे राम-राम कहते हैं और मनसे संसारके विषयोंका चिन्तन करते हैं, यह तो संसारका भजन है, रामका नहीं।

करमें तो माला फिरे, जीभ फिरे मुख मायँ।
मनुवाँ तो चहुँदिसि फिरे, यह तो सुमिरन नायँ॥

किसी-किसीके हाथसे माला गिर जाती है और निद्राके वशीभूत होकर वे आसनपर ही ऊँघते रहते हैं। वे भगवान् के उपासक नहीं हैं, निद्रादेवीके उपासक हैं। ऐसे लोग असली आनन्दसे बहुत दूर हैं। उनका मन ही उनको धोखा दे रहा है। वास्तवमें भजन-ध्यानके प्रभाव और रहस्यको उन लोगोंने नहीं समझा।

भजन-ध्यानके प्रभाव और रहस्यको समझ लेनेपर निद्रा, आलस्य और संसारकी स्फुरणाकी तो बात ही क्या है, खान-पानकी भी चिन्ता नहीं रह सकती। रात-दिन भजन-ध्यानकी ही धुन सवार हो जाती है। जैसे रुपयोंके प्रभावसे मोहित हुए व्यापारी, वैद्य, डॉक्टर, वकील-बैरिस्टर आदि सभी लोग विषय-सम्पत्तिको प्रधान समझनेवाले समयको धन कमानेमें ही व्यय करते हैं; इससे अतिरिक्त उनको दूसरी बात अच्छी ही नहीं लगती, वैसे ही उनको भी भगवद्भजनके सिवा और कोई चीज अच्छी नहीं लगती। उनको तो मधुरसे भी मधुर और पवित्रसे भी पवित्र ध्यानसहित हरिका नाम ही मंगलमय प्रतीत होता है।

इस घोर कलिकालमें सुखसाध्य और सर्वोत्तम साधन ध्यानसहित भगवान् का भजन ही है। ब्रह्मासे लेकर स्तम्बपर्यन्त सारा संसार क्षणभंगुर और नाशवान् है। केवल एक विज्ञानानन्दघन परमात्मा ही सत् वस्तु है। इसलिये जो सदा-सर्वदा हम लोगोंको भगवान् का भजन, ध्यान करना ही सिखलाता है, वही माता, पिता, गुरु एवं हमारा सच्चा बन्धु है। संसारमें इससे बढ़कर हमारे लिये और कोई भी आवश्यक कार्य नहीं है। श्वासका कुछ विश्वास नहीं है। इसलिये जबतक स्वास्थ्य अच्छा है, वृद्ध-अवस्था और मृत्यु दूर है तभीतक जो कुछ करना हो, अति शीघ्रताके साथ कर लेना चाहिये।

अहो! भयंकर कष्ट है, भारी आपत्ति है, जो कि विषयरूपी काँचके लिये भजन-ध्यानरूपी अमूल्य रत्नको लोग बिसार रहे हैं।

प्रिय पाठकगण! उठो, जागो, सावधान होओ और अमृतमय हरिके नाम और गुणोंको कानोंके द्वारा सुनो तथा वाणीके द्वारा कीर्तन करो और मनसे उनके स्वरूपका ध्यान करो। सम्पूर्ण संसारके भोगोंको तृणके समान त्यागकर शरीरसे भगवान् की सेवा करो और अपने इस अमूल्य समयका अमोलक कार्यमें ही उपयोग करो!

कर्मोंका अनुष्ठान करते समय भी चित्तसे भगवान् को मत भूलो। पाप, प्रमाद और आलस्यमें दु:ख और दोषोंको देखकर इनसे दूर हटो। विषयासक्त, नास्तिक और प्रमादी पुरुषोंके नजदीक भी मत जाओ और दीन-दु:खी मनुष्योंकी सेवा करो।

मान, प्रतिष्ठा, कीर्तिको कलंकके समान समझो। शम, दम, तितिक्षा आदि अमृतमय साधनोंका सेवन करो। काम, क्रोध, लोभ, मोहादि, कूड़े-कचूड़ेको निकालकर हृदयरूपी घरको पवित्र करो।

शीत-उष्ण, सुख-दु:खादि क्षणिक और नाशवान् हैं, इसलिये इनसे व्यथित मत होओ अर्थात् सदा समचित्त रहो या पूर्वकृत कर्मोंके अनुसार ईश्वरका किया हुआ विधान समझकर इनको सहर्ष स्वीकार करो।

शील, विद्या, गुण, त्याग और तेज आदिमें जो वृद्ध हैं ऐसे सदाचारी सज्जन महात्माओंके चरणोंका सेवन करो। ऐसे पुरुषोंका संग तीर्थसेवनसे भी बढ़कर है। इसलिये कुतर्कको छोड़कर उनके दिये हुए अमृतमय उपदेशका भगवत्-वाक्योंके समान आदर करो। अथवा निर्जन पवित्र एकान्त स्थानमें बैठकर ध्यानसहित भगवान् के नामका जप तथा भगवत्-तत्त्वका विचार करो।

ऊपर बतलाये हुए साधनोंके अनुसार चलनेवाला पुरुष भगवान् की दयासे भगवान् के प्रभावको जानकर शीघ्रातिशीघ्र परमपदको प्राप्त हो जाता है।

प्रश्न—किस प्रकारका नाम-जप करना उत्तम एवं लाभप्रद है। वाचिक, उपांशु या मानसिक?

उत्तर—वाचिक जपसे उपांशु दसगुना अधिक है और उपांशुसे मानसिक दसगुना अधिक फलदायक है—

विधियज्ञाज्जपयज्ञो विशिष्टो दशभिर्गुणै:।
उपांशु: स्याच्छतगुण: साहस्रो मानस: स्मृत:॥
(मनु० २। ८५)

‘अग्निहोत्र आदि क्रियायज्ञकी अपेक्षा जपयज्ञ दसगुना श्रेष्ठ है, उपांशु जप सौगुना श्रेष्ठ है और मानस जप हजारगुना श्रेष्ठ है।’

इससे मानसिक जप ही सबसे उत्तम है। मानसिक जप श्रद्धापूर्वक नित्य-निरन्तर किया जाय तो वह और भी विशेष लाभप्रद हो जाता है। वही जप निष्काम प्रेमभावसे किया जाय तो फिर उसकी महिमाका कोई वर्णन ही नहीं कर सकता।

प्रश्न—(क) क्या केवल नामके जपसे ही इष्टदेवके स्वरूपका दर्शन हो सकता है, या—

(ख) जपके साथ-साथ इष्टदेवके स्वरूपका चिन्तन करना भी आवश्यक है?

उत्तर—(क) श्रद्धापूर्वक प्रेमसे किये हुए केवल जपसे भी इष्टदेवका साक्षात् दर्शन हो सकता है।

महर्षि पतंजलिने कहा है—

‘स्वाध्यायादिष्टदेवतासम्प्रयोग:।’
(योग० २। ४४)

इष्टदेवके नामके जपसे इष्टदेवका साक्षात् दर्शन होता है। यदि इष्टदेवका निरन्तर चिन्तन करते हुए उपर्युक्त प्रकारसे जप किया जाय तो उसकी प्राप्ति और भी शीघ्र हो जाती है। इसलिये—

(ख) जपके साथ-साथ ईश्वरके स्वरूपका चिन्तन अवश्य करना चाहिये। महर्षि पतंजलिने कहा है—

‘तज्जपस्तदर्थभावनम्’।
(योग०१।२८)

उस परमेश्वरके नामका जप और उसके अर्थका यानी स्वरूपका चिन्तन करना—इसीका नाम ईश्वर-प्रणिधान एवं ईश्वरकी शरण समझना चाहिये।

इससे सब विघ्नोंका नाश एवं परमात्माके स्वरूपकी प्राप्ति भी हो जाती है।

प्रश्न—जपके सात्त्विक, राजस और तामस—तीन भेद किस कारणसे होते हैं?

उत्तर—जपके सात्त्विक राजस और तामस भेद होनेमें भाव ही प्रधान कारण है। श्रद्धा, प्रेम तथा निष्कामभावसे भगवत्-प्रीत्यर्थ किया हुआ जप सात्त्विक समझा जाता है।

इस लोक और परलोकके भोगोंकी प्राप्तिके लिये एवं मान, बड़ाई, प्रतिष्ठाके लिये किया हुआ जप राजसिक समझा जाता है।

दूसरोंके अनिष्टके लिये अज्ञानपूर्वक किया हुआ जप तामसी समझा जाता है।

प्रश्न—कौन-से नामका जप विशेष लाभप्रद है। ‘राम-राम’ या ‘ॐ-ॐ’ या ‘शिव-शिव’ या ‘नारायण-नारायण’ इत्यादि-इत्यादि?

उत्तर—ईश्वरके सभी नाम समान हैं। इसलिये जिसका जिस नाममें प्रेम हो, उसके लिये वही नाम विशेष लाभप्रद है।

प्रश्न—जपके साथ ध्यान भगवान् के निराकार स्वरूपका करना चाहिये या साकार स्वरूपका?

उत्तर—इसमें भी साधककी रुचि ही प्रधान है। जिसकी निराकार स्वरूपमें रुचि हो, उसके लिये निराकारका ध्यान और जिसकी साकारमें रुचि हो, उसके लिये साकारका ध्यान लाभदायक है। निराकार और साकारको व्यापक अग्नि और प्रज्वलित अग्निकी भाँति अभिन्न रूप समझकर उसके रहस्य और प्रभावको जानते हुए जो निराकारके सहित साकारका ध्यान करता है वह सर्वोत्तम है।

प्रश्न—कितनी संख्यामें जप करनेसे इष्टदेवके साक्षात् दर्शन हो सकते हैं? और शास्त्रोंमें कौन-से नाम-जपकी विशेष महिमा लिखी है?

उत्तर—संख्याके विषयमें सब जगह एक नियम नहीं मिलता; किन्तु भगवान् के नाम-जपकी महिमा अधिकांशमें सभी शास्त्रोंमें पायी जाती है। कलिसन्तरणोपनिषद् में लिखा है—

हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे॥

इस षोडश नामवाले मन्त्रका साढ़े तीन करोड़ जप करनेसे सब पापोंका नाश होकर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। रामायणमें श्रीरामनामकी, श्रीमद्भागवतमें श्रीकृष्ण आदि नामोंकी एवं महाभारतमें गोविन्द, हरि, नारायण, वासुदेव आदि बहुत-से नामोंकी तथा श्रुतिस्मृतियोंमें ॐ, तत्, सत् आदि नामोंके जपकी विशेष महिमा लिखी है। ऐसे ही प्राय: सभी नामोंकी शास्त्रोंमें जगह-जगह भूरि-भूरि महिमा गायी गयी है।

कलिकल्मषमत्युग्रं नरकार्तिप्रदं नृणाम्।
प्रयाति विलयं सद्य: सकृत्कृष्णस्य संस्मृते:॥
(विष्णुपु० ६। ८। २१)

‘कलिके अत्यन्त उग्र पाप जो कि मनुष्योंको नरककी पीड़ा देनेवाले हैं, श्रीकृष्णका एक बार भी भली प्रकार स्मरण करनेसे तुरंत विलीन हो जाते हैं।’

सकृत्स्मृतोऽपि गोविन्दो नृणां जन्मशतै: कृतम्।
पापराशिं दहत्याशु तूलराशिमिवानल:॥

‘श्रीगोविन्द’ एक बार भी स्मरण किये जानेसे मनुष्योंके सैकड़ों जन्मोंमें किये हुए पापोंके समूहको उसी प्रकार शीघ्र ही भस्म कर देते हैं जैसे रूईके ढेरको अग्नि।’

हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृत:।
अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावक:॥
(वृ० नार० १। ११। १००)

‘दुष्टचित्त पुरुषोंद्वारा भी स्मरण किये जानेपर भगवान् श्रीहरि उनके समस्त पापोंको हर लेते हैं। जैसे अग्नि अनिच्छासे स्पर्श करनेपर भी जला ही डालता है।’

न तावत्पापमस्तीह यावन्नामाहतं हरे:।
अतिरेकभयादाहु: प्रायश्चित्तान्तरं वृथा॥

‘हरिके नामका जप करनेसे जितने पाप नष्ट हो सकते हैं उतने पाप संसारमें हैं ही नहीं, इसलिये अधिक पापोंके भयसे अन्य प्रायश्चित्तोंका करना व्यर्थ बतलाया है।’

आचारहीनोऽपि मुनिप्रवीर
भक्त्या विहीनोऽपि विनिन्दितोऽपि।
किं तस्य नारायणशब्दमात्रतो
विमुक्तपापो विशतेऽच्युतां गतिम्॥

‘हे मुनिश्रेष्ठ! भगवान् के नामका जप करनेवाला मनुष्य यदि आचारहीन, भक्तिहीन तथा निन्दनीय भी है, तो भी उसको क्या भय है? क्योंकि ‘नारायण’ शब्दके उच्चारणमात्रसे वह पापरहित होकर परम अविनाशी गतिको प्राप्त हो जाता है।’

ज्ञानतोऽज्ञानतो वापि वासुदेवस्य कीर्तनात्।
तत्सर्वं विलयं याति तोयस्थं लवणं यथा॥

‘जानकर अथवा बिना जाने भी वासुदेवका कीर्तन करनेसे समस्त पाप, जलमें पड़े हुए लवणके समान लीन हो जाते हैं।’

ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन्मामनुस्मरन्।
य: प्रयाति त्यजन्देहं स याति परमां गतिम्॥
(गीता ८। १३)

‘जो पुरुष ‘ॐ’ इस एक अक्षररूप ब्रह्मका उच्चारण करता हुआ और उसके अर्थरूप मेरा चिन्तन करता हुआ शरीर त्यागकर जाता है वह परमगतिको प्राप्त होता है।’

अवशेनापि यन्नाम्नि कीर्तिते सर्वपातकै:।
पुमान्विमुच्यते सद्य: सिंहत्रस्तैर्वृकैरिव॥
(विष्णुपु० ६। ८।१९)

‘जिसके नामका विवश होकर भी कीर्तन करनेसे पुरुष, सिंहसे डरे हुए गीदड़ोंके समान सम्पूर्ण पापोंसे तुरन्त मुक्त हो जाता है।’

यहाँतक भी लिखा है कि एक हरिके नामके जपसे ही सम्पूर्ण पापोंका नाश हो जाता है—

सकृदुच्चरितं येन हरिरित्यक्षरद्वयम्।
बद्ध: परिकरस्तेन मोक्षाय गमनं प्रति॥
(पद्म० ६। ८०। १६१)

‘जिसने एक बार भी ‘हरि’ इन दो अक्षरोंका उच्चारण किया है, उसने मानो मोक्षकी ओर जानेके लिये कमर कस ली है।’ इस प्रकार नामके जपकी महिमा शास्त्रोंमें स्थल-स्थलपर भरी पड़ी है। लेखका कलेवर बढ़ जानेके संकोचसे शास्त्रोंके वाक्योंका विस्तृत उल्लेख नहीं किया गया।

हरिके नामकी महिमाको अर्थवाद नहीं समझना चाहिये। जो कुछ महिमा शास्त्रोंमें लिखी है वह ध्रुव सत्य है। परन्तु श्रद्धा और प्रेमकी कमीके कारण नामका प्रभाव समझमें नहीं आता तथा फल भी पूरा नहीं मिलता।

ईश्वरकी प्राप्तिके विषयमें संख्याका नियम सब जगह ठीक-ठीक लागू नहीं पड़ता। प्रेम और श्रद्धा जिसमें जितनी अधिक होती है, उसको उतनी ही जल्दी भगवत्प्राप्ति होती है।

यदि कहो कि फिर संख्याकी क्या आवश्यकता है? यह ठीक है, पर इसमें शास्त्रका विधान है एवं जप भी अधिक बन जाता है इसलिये भी संख्या सब प्रकारसे लाभप्रद है।

किन्तु भगवत्की प्राप्तिके लिये संख्याका ठेका नहीं करना चाहिये। ठेका करनेवाला सच्चा भक्त नहीं है जो भगवान् की प्राप्तिसे भी बढ़कर भगवान् के प्रेमको एवं भजनको समझता है, वही भगवान् के नामके प्रभावको जाननेवाला सच्चा भक्त है। क्योंकि प्रेम और श्रद्धापूर्वक निष्कामभावसे किया हुआ भगवान् का भजन, भगवान् से भी बढ़कर है। तब फिर भगवान् से मिलनेके लिये भगवान् के नाम-जपकी संख्याका ठेका करना भारी भूल नहीं तो और क्या है?

राग, द्वेष, ममता और अभिमानको छोड़कर निन्दा-स्तुति, मान-अपमानको समान समझता हुआ जो पुरुष परवा छोड़कर भगवान् के भजन-ध्यानमें मस्त हुआ विचरता है, वही पुरुष मुक्त है।

प्रश्न—भगवत्-प्राप्तिको कोई-कोई तो बहुत ही कष्टसाध्य बतलाते हैं?

उत्तर—भगवत्-प्राप्ति कष्टसाध्य भी है और सुखसाध्य भी। जो कष्टसाध्य मानते हैं, उनके लिये कष्टसाध्य है और जो सुखसाध्य मानते हैं उनके लिये सुखसाध्य। भगवान् में जिनकी श्रद्धा और प्रेम कम है उनके लिये भगवत्-प्राप्ति कष्टसाध्य है और जिनका भगवान् में प्रेम और विश्वास है उनके लिये भगवान् की प्राप्ति सुलभ है।

भगवत्-प्राप्तिमें श्रद्धा और प्रेम ही प्रधान है। नित्य-निरन्तर चिन्तन करनेवाले भक्तोंके लिये तो भगवान् की प्राप्ति सुलभ एवं सुखसाध्य ही है; क्योंकि भगवान् ने स्वयं गीतामें कहा है—

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(८। १४)

‘हे अर्जुन! जो पुरुष मेरेमें अनन्यचित्तसे स्थित हुआ सदा ही निरन्तर मेरेको स्मरण करता है, उस निरन्तर मेरेमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ अर्थात् सहजमें ही प्राप्त हो जाता हूँ।’ और भी कहा है—

राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता ९। २)

‘यह रहस्यसहित भगवत्-तत्त्वका ज्ञान सब विद्याओंका राजा तथा सब गोपनीयोंका भी राजा एवं अति पवित्र, उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला और धर्मयुक्त है। साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।’

भगवान् के इन वचनोंसे और युक्तियोंसे भी भगवान् की प्राप्ति कष्टसाध्य प्रतीत नहीं होती।

भगवान् ने अपनी प्राप्तिका सुलभ उपाय अपना निरन्तर चिन्तन करना ही बतलाया है।

भला बतलाओ तो सही, भगवान् के निरन्तर चिन्तन करनेमें भी क्या कोई कष्ट है? यदि इसमें भी कष्ट है तो फिर सुख किसमें है? भगवान् का चिन्तन करनेसे तो सर्व पापोंका, अवगुणोंका और दु:खोंका नाश होकर उत्तरोत्तर परमानन्द एवं परम शान्तिकी वृद्धि होती जाती है। आरम्भसे लेकर अन्ततक साधन और सिद्धिमें आनन्द-ही-आनन्द है। इसलिये उस आनन्दस्वरूप साध्यदेवने इससे बढ़कर दूसरा कोई सुलभ उपाय नहीं बतलाया। फिर कष्टसाध्य कैसे? बल्कि सुलभ और सुखसाध्य ही कहना युक्तियुक्त है।

प्रश्न—भगवान् के भजन, ध्यानको आरम्भसे लेकर अन्ततक आनन्ददायक समझकर, साधक निरन्तर भजन, ध्यान करना चाहता है और अपनी शक्तिके अनुसार कोशिश भी करता है किन्तु फिर भी वह होता नहीं, इसमें क्या कारण है?

उत्तर—श्रद्धा और प्रेमकी कमी होनेके कारण यथोचित चेष्टा नहीं की जाती। इसीलिये भजन, ध्यान निरन्तर नहीं बनता।

प्रश्न—भगवान् में अतिशय प्रेम और श्रद्धा होनेके लिये साधकको क्या करना चाहिये?

उत्तर—भगवान् के गुण और प्रभावका तत्त्व जाननेसे श्रद्धा होती है और श्रद्धासे प्रेम होता है। भगवान् के प्रेम, प्रभाव, गुण और रहस्यकी अमृतमयी कथाओंका उनके प्रेमी भक्तोंद्वारा एवं शास्त्रोंद्वारा श्रवण, पठन और मनन करके उनके अनुसार चलनेसे भगवान् के गुण, प्रभावका रहस्य समझमें आ जाता है। इससे उनमें पूर्ण श्रद्धा और अनन्य प्रेम हो सकता है।

किसीमें भी क्यों न हो, जितना-जितना उसका प्रभाव समझमें आता है उतनी-उतनी श्रद्धा बढ़ती चली जाती है। जितनी श्रद्धा होती है उतना ही प्रेम हो जाता है। श्रद्धा, प्रेमके अनुसार ही भजन-ध्यानका साधन तेज होता चला जाता है। अतएव भगवान् में पूर्ण श्रद्धा और अनन्य प्रेम होनेके लिये उन महापुरुषोंका संग करना चाहिये, जिनका भगवान् में अनन्य प्रेम और अतिशय श्रद्धा है, जो नित्य-निरन्तर निष्काम प्रेमभावसे भगवान् को भजते हैं, ऐसे महापुरुषोंके संगसे ही भगवान् में पूर्ण श्रद्धा और अनन्य प्रेम होता है। ऐसे पुरुषोंका संग नहीं मिले तो श्रद्धालु उत्तम जिज्ञासु पुरुषोंका संग और सत्-शास्त्रोंका श्रद्धापूर्वक विचार करना चाहिये।

सारांश यह है कि संसारमें निष्कामभावसे किये हुए भजन-ध्यानके समान भगवत्प्राप्तिका और कोई भी सहज और सुगम उपाय नहीं है। वह होता है सत्पुरुषोंके संग और सत्-शास्त्रोंके विचार करनेसे। अतएव निष्काम प्रेमभावसे निरन्तर भजन, ध्यान होनेके लिये सत्पुरुषोंका संग एवं सत्-शास्त्रोंका विचार तत्पर होकर करना चाहिये।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)