ध्यान-साधन
भेद और अभेद दोनों ही निष्ठाओंमें ध्यान सबसे आवश्यक और महत्त्वपूर्ण साधन है। श्रीभगवान् ने गीतामें ध्यानकी बड़ी महिमा गायी है। जहाँ कहीं उनका उच्चतम उपदेश है, वहीं उन्होंने मनको अपनेमें (भगवान् में) प्रवेश करा देनेके लिये अर्जुनके प्रति आज्ञा की है। योगशास्त्रमें तो ध्यानका स्थान बहुत ऊँचा है ही। ध्यानके प्रकार बहुत-से हैं। साधकको अपनी रुचि, भावना और अधिकारके अनुसार तथा अभ्यासकी सुगमता देखकर किसी भी एक प्रकारसे ध्यान करना चाहिये। यह स्मरण रखना चाहिये कि निर्गुण-निराकार और सगुण-साकार भगवान् वास्तवमें एक ही हैं। एक ही परमात्माके अनेक दिव्य प्रकाशमय स्वरूप हैं। हम उनमेंसे किसी भी एक स्वरूपको पकड़कर परमात्माको पा सकते हैं; क्योंकि वास्तवमें परमात्मा उससे अभिन्न ही है। भगवान् के परम भावको समझकर किसी भी प्रकारसे उनका ध्यान किया जाय, अन्तमें प्राप्ति उस एक ही भगवान् की होगी जो सर्वथा अचिन्त्यशक्ति, अचिन्त्यानन्तगुणसम्पन्न, अनन्त दयामय, अनन्तमहिम, सर्वव्यापी, सृष्टिकर्ता, सर्वरूप, स्वप्रकाश, सर्वात्मा, सर्वद्रष्टा, सर्वोपरि, सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, सर्वसुहृद्, अज, अविनाशी, अकर्ता, देशकालातीत, सर्वातीत, गुणातीत, रूपातीत, अचिन्त्यस्वरूप और नित्य स्वमहिमामें ही प्रतिष्ठित, सदसद्विलक्षण एकमात्र परम और चरम सत्य हैं। अतएव साधकको इधर-उधर मन न भटकाकर अपने इष्टरूपमें महान् आदर-बुद्धि रखते हुए परम भावसे उसीके ध्यानका अभ्यास करना चाहिये।
श्रीमद्भगवद्गीताके छठे अध्यायके ग्यारहवेंसे तेरहवें श्लोकतकके वर्णनके अनुसार एकान्त, पवित्र और सात्त्विक स्थानमें सिद्ध, स्वस्तिक, पद्मासन या अन्य किसी सुख-साध्य आसनसे बैठकर, नींदका डर न हो तो आँखें मूँदकर, नहीं तो आँखोंको भगवान् की मूर्तिपर लगाकर अथवा आँखोंकी दृष्टिको नासिकाके अग्रभागपर जमाकर प्रतिदिन कम-से-कम तीन घंटे, दो घंटे या एक घंटे—जितना भी समय मिल सके—सावधानीके साथ लय, विक्षेप, कषाय, रसास्वाद, आलस्य, प्रमाद, दम्भ आदि दोषोंसे बचकर श्रद्धा-भक्तिपूर्वक तत्परताके साथ ध्यानका अभ्यास करना चाहिये। ध्यानके समय शरीर, मस्तक और गला सीधा रहे और रीढ़की हड्डी भी सीधी रहनी चाहिये। ध्यानके लिये समय और स्थान भी सुनिश्चित ही होना चाहिये।
(१)
ऊपर लिखे अनुसार एकान्तमें आसनपर बैठकर साधकको दृढ़ निश्चयके साथ नीचे लिखी धारणा करनी चाहिये—
‘एक सत्य सनातन असीम अनन्त विज्ञानानन्दघन पूर्णब्रह्म परमात्मा ही परिपूर्ण हैं। उनके सिवा न तो कुछ है, न हुआ और न होगा। उन परब्रह्मका ज्ञान भी उन परब्रह्मको ही है; क्योंकि वे ज्ञानस्वरूप ही हैं। उनके अतिरिक्त और जो कुछ भी प्रतीत होता है, सब कल्पनामात्र है। वस्तुत: वे-ही-वे हैं।’
इसके अनन्तर चित्तमें जिस वस्तुका भी स्फुरण हो, उसीको कल्पनारूप समझकर उसका त्याग (अभाव) कर दे। एक परमात्माके सिवा और किसीकी भी सत्ता न रहने दे। ऐसा निश्चय करे कि जो कुछ प्रतीत होता है, वह वस्तुत: है नहीं। स्थूल शरीर, ज्ञानेन्द्रिय, मन, बुद्धि आदि कुछ भी नहीं है। यों अभाव करते-करते सबका अभाव हो जानेपर अन्तमें सर्वको अभाव करनेवाली एक शुद्धा वृत्ति रह जाती है। परन्तु अभ्यासकी दृढ़तासे दृश्यप्रपंचका सुनिश्चित अभाव होनेपर आगे चलकर वह भी अपने-आप ही शान्त हो जाती है। उस शुद्धा वृत्तिका त्याग करना नहीं पड़ता, अपने-आप ही हो जाता है। यहाँ त्याग, त्यागी और त्याज्यकी कल्पना सर्वथा नहीं रह जाती। इसीलिये वृत्तिका त्याग किया नहीं जाता, वह वैसे ही हो जाता है, जैसे ईंधनके अभावमें आगका। इसके अनन्तर जो कुछ बच रहता है वही विज्ञानानन्दघन परमात्मा है। वह असीम, अनन्त, नित्य, बोधस्वरूप, सत्य और केवल है। वही ‘सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म’ है। वह परम आनन्दमय है। परिपूर्ण ज्ञानानन्दमय है; परन्तु वह आनन्दस्वरूप बुद्धिगम्य नहीं है, अचिन्त्य है—केवल अचिन्त्य है।
इस प्रकार विचारपूर्वक दृश्यप्रपंचका पूर्णतया अभाव करके अभाव करनेवाली वृत्तिको भी ब्रह्ममें लीन कर देना चाहिये।
(२)
सम्पूर्ण जगत् मायामय है। एक सच्चिदानन्दघन परमात्मा ब्रह्म ही सत्य तत्त्व हैं; उनके सिवा जो कुछ प्रतीत होता है, सब अनात्म है, अवस्तु है। उनके सिवा कोई वस्तु है ही नहीं। काल और देश भी उनके अतिरिक्त और कुछ नहीं है। एकमात्र वही हैं और उनका वह ज्ञान भी उन्हींको है। वे नित्य ज्ञानस्वरूप, सनातन, निर्विकार, असीम, अपार, अनन्त, अकल और अनवद्य परमानन्दमय हैं। वे सदसद्विलक्षण अचिन्त्यानन्दस्वरूप हैं।
इस प्रकार सम्पूर्ण अनात्मवस्तुओंका अभाव करके उनके आनन्दमय स्वरूपमें वृत्तिको जमा दे। बार-बार आनन्दकी आवृत्ति करता हुआ साधक ऐसा दृढ़ निश्चय करे कि वह असीम आनन्द है, घनानन्द है, अचलानन्द है, शान्तानन्द है, कूटस्थ आनन्द है, ध्रुवानन्द है, नित्यानन्द है, बोधस्वरूपानन्द है, ज्ञानस्वरूपानन्द है, परमानन्द है, महान् आनन्द है, अनन्त आनन्द है, अव्ययानन्द है, अनामयानन्द है, अकलानन्द है, अमलानन्द है, अजानन्द है, चिन्मयानन्द है। केवलानन्द है, एकमात्र आनन्द-ही-आनन्द—परिपूर्णानन्द है। आनन्दके सिवा और कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार आनन्दमय ब्रह्मका चिन्तन करता हुआ साधक अपने मन-बुद्धिको नित्य विज्ञानानन्दघन परमात्मामें विलीन कर दे।
(३)
जैसे कमरेमें रखे हुए घड़ेका आकाश (घड़ेके अंदरकी पोल) कमरेके आकाशसे भिन्न नहीं है और कमरेका आकाश उस महान् सुविस्तृत आकाशसे भिन्न नहीं है। कमरे और घड़ेकी उपाधिसे ही घटाकाश-मठाकाश-भेदसे छोटे-बड़े बहुत-से आकाश प्रतीत होते हैं, वस्तुत: सभीको अपने ही अंदर अवकाश देनेवाला, एक ही महान् आकाश सर्वत्र परिपूर्ण है। घड़ेका क्षुद्र-सा दिखलायी देनेवाला आकाश यदि अपनी घटाकार उपाधिरूप अल्प सीमाको त्यागकर एक महान् आकाशमें स्थित होकर—जो उसका वास्तविक स्वरूप है—उसकी महान् दृष्टिसे देखे तो उसको पता लगेगा कि सब कुछ उसीमें कल्पित है; सबके अंदर-बाहर केवल वही भरा है। अंदर-बाहर ही नहीं, घड़ेका निर्माण जिस उपादानकारणसे हुआ है, वह उपादानकारण भी मूलमें वस्तुत: वही है। उसके सिवा और कुछ है ही नहीं। वैसे ही एक ही चेतन आत्मा सर्वत्र परिपूर्ण है। उपाधिभेदसे ही यह विभिन्नता प्रतीत होती है। साधकको चाहिये कि इस प्रकार विचार करके वह व्यष्टिशरीरमेंसे आत्मरूप ‘मैं’ को निकालकर चिन्मय समष्टिरूप परमात्मामें स्थित हो जाय और फिर उसके समष्टिबुद्धिरूप नेत्रोंसे समस्त विश्वको अपने शरीरसहित उसीमें कल्पित देखे और यह भी देखे कि इसमें जो कुछ भी क्रिया हो रही है, सब परमात्माके ही अंदर परमात्माके ही संकल्पसे हो रही है। सबका निमित्त और उपादानकारण केवल परमात्मा ही है। वही सर्वरूप है और मैं उससे अभिन्न हूँ।
असलमें जड, परिणामी, शून्य, विकारी और सीमित अनित्य आकाशके साथ चेतन, सदा एकरस, सच्चिदानन्दघन, निर्विकार और असीम तथा नित्य परमात्माकी तुलना ही नहीं हो सकती। यह दृष्टान्त तो केवल आंशिकरूपसे समझनेके लिये ही है। उपर्युक्त ध्यान व्यवहारकालमें भी किया जा सकता है।
(४)
साधक मानस मूर्ति बनाकर इस प्रकार ध्यान करे—
अपने सामने जमीनसे कुछ ऊँचेपर सुन्दर तेजपूर्ण दिव्य आसनपर भगवान् विष्णु विराजमान हैं। नील मेघके समान नील श्याम और नील मणिके समान चमकदार मनोहर नील वर्ण हैं। भगवान् के सभी अंग परम सुन्दर हैं और प्रत्येक अंग अपनी मनोहरतासे चित्तको अपनी ओर खींच रहा है। भगवान् के चरणारविन्द बड़े ही मनोहर हैं, चरणनखोंकी सहस्रों चन्द्रमाओंकी-सी मधुर ज्योति नील चरणोंपर पड़कर अनन्त शोभा पा रही है। चरणोंमें रत्नजटित बजनेवाले नूपुर हैं। सुन्दर जानु और कदलीखम्भ-सी चिकनी-चमकीली जंघाएँ हैं। मेघश्याम नीलपद्मवर्ण शरीरपर सुवर्णवर्ण पीताम्बर सुशोभित है। कमरमें रत्नमण्डित करधनी है। सुन्दर चार लंबी भुजाएँ हैं। दाहिने ऊपरके हाथमें अत्यन्त उज्ज्वल तीक्ष्ण किरणधारोंसे युक्त चक्र है और नीचेके हाथमें कौमोदकी गदा है। बायें ऊपरके हाथमें सुन्दर श्वेत, विशाल और विजयी पांचजन्य शंख और नीचेके हाथमें सुन्दर रक्तवर्ण कमल सुशोभित है। भुजाओंमें यथास्थान रत्नोंके कड़े, बाजूबंद शोभा पा रहे हैं। हाथोंकी अँगुलियोंमें विविध रत्नोंकी अँगूठियाँ हैं। भगवान् का वक्ष:स्थल विशाल और परम सुन्दर है, उसमें श्रीवत्स और भृगुलताका चिह्न सुशोभित है। गलेमें रत्नोंका हार, मुक्ताओंकी माला, हृदयपर कौस्तुभमणि, तुलसीयुक्त मनोहर सुगन्धपूर्ण पुष्पमाला और वैजयन्तीमाला विभूषित हैं। भगवान् के ऊँचे विशाल कंधे हैं। नील कमलके समान सुन्दर भगवान् का गला अत्यन्त मनोहर है। मनोहर चिबुक है। लाल-लाल अधर-ओष्ठ हैं। अति सुन्दर चमकीली दन्तपंक्ति है। भगवान् मन्द-मन्द मुसकरा रहे हैं। भगवान् की सुन्दर नुकीली नासिका है। रमणीय मनोहर सुन्दर चमकीले कपोल हैं। दोनों कानोंमें अत्यन्त सुन्दर रत्नजटित मकराकृति कुण्डल झलमला रहे हैं। कमलके समान विशाल और प्रफुल्लित नेत्र हैं। उनसे स्वाभाविक ही दया, प्रेम, शान्ति, ज्ञान, आनन्द और समत्वकी ज्योतिधारा बह रही है। विशाल, उन्नत और प्रकाशमान ललाटपर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक सुशोभित है। काले घुँघराले मुनिमनहारी केश हैं। मस्तकपर देदीप्यमान रत्नजटित दिव्य किरीट शोभा पा रहा है। भगवान् के चारों ओर अनन्त सूर्योंका-सा परन्तु शीतल प्रकाश छा रहा है और उसमेंसे आनन्दका समुद्र उमड़ रहा है।
(५)
अनन्त क्षीरसमुद्रके अंदर अनन्तदेव श्रीशेषनागजी हैं, उनके एक हजार मस्तक हैं और उन सभीपर वे मुकुट धारण किये हुए हैं। उनके कमलनालके समान सफेद शरीरपर नीलवर्णका सुन्दर वस्त्र है। उनका कमनीय कलेवर हजार शिखरोंवाले कैलासपर्वतके समान है। उन शेषजीकी शय्या बनाकर भगवान् श्रीविष्णु सुखपूर्वक शयन कर रहे हैं। मेघके समान मनोहर नीलवर्ण है। रेशमी पीताम्बर धारण किये हुए हैं। उनके बड़े ही सुन्दर चरणकमल हैं, जो कोमल अँगुलियों और अंगूठोंसे शोभायमान हैं। चरणकमल मनोहर सुन्दर गुल्फोंसे युक्त हैं और अरुणवर्ण नखोंकी ज्योतिसे झलमला रहे हैं। चरणोंमें मनोहर नूपुर हैं। उनका सुन्दर कटिप्रदेश है। कटिमें मनोहर करधनी है। दो सुन्दर जानु हैं और मनोहर जंघाएँ हैं। त्रिवलीयुक्त उदर अत्यन्त शोभायमान है। गम्भीर नाभि है। वक्ष:स्थलमें श्रीलक्ष्मीजी विराजमान हैं। चार विशाल, लंबी और स्थूल भुजाएँ हैं। भुजाओंमें कड़े और बाजूबंद, हृदयपर हार सुशोभित हैं। सुन्दर गला है, मनोहर चिबुक है। मुख अति मनोहर और सुप्रसन्न है। मुसकानमयी चितवन चित्त हरे लेती है। भृकुटी और नासिका ऊँची और सुहावनी हैं। मनोहर कान, कपोल, ललाट और अरुण अधर सुशोभित हैं। कानोंमें रत्नजटित मकराकृति कुण्डल हैं। नेत्र कमलदलके समान विशाल और मधुर अरुणवर्ण हैं। मस्तकपर सुन्दर सुवर्णमुकुट शोभित है। अत्यन्त शान्तमूर्ति हैं। उनके अंग-अंगसे आनन्दकी ज्योति विकसित हो रही है।
(६)
मिथिलापुरीमें महाराज जनकके दरबारमें भगवान् श्रीरामजी अपने छोटे भाई श्रीलक्ष्मणजीके साथ पधारते हैं। भगवान् श्रीराम नवनीलनीरद दूर्वाके अग्रभागके समान हरित आभायुक्त सुन्दर श्यामवर्ण और श्रीलक्ष्मणजी स्वर्णाभ गौरवर्ण हैं। दोनों इतने सुन्दर हैं कि जगत् की सारी शोभा और सारा सौन्दर्य इनके सौन्दर्यसमुद्रके सामने एक जलकण भी नहीं है। किशोर-अवस्था है। धनुष-बाण और तरकस धारण किये हुए हैं। कमरमें सुन्दर दिव्य पीताम्बर है। गलेमें मोतियोंकी, मणियोंकी और सुन्दर सुगन्धित तुलसीमिश्रित पुष्पोंकी मालाएँ हैं। विशाल और बलकी भण्डार सुन्दर भुजाएँ हैं जो रत्नजटित कड़े और बाजूबंदसे सुशोभित हैं। ऊँचे और पुष्ट कंधे हैं। अति सुन्दर चिबुक है। नुकीली नासिका है। कानोंमें झूमते हुए मकराकृति सुवर्णकुण्डल हैं। सुन्दर अरुणिमायुक्त कपोल हैं। लाल-लाल अधर हैं। उनके सुन्दर मुख शरत् पूर्णिमाके चन्द्रमाको भी नीचा दिखानेवाले हैं। कमलके समान बहुत ही प्यारे उनके विशाल नेत्र है। उनकी सुन्दर चितवन कामदेवके भी मनको हरनेवाली है। उनकी मधुर मुसकान चन्द्रमाकी किरणोंका तिरस्कार करती है। तिरछी भौंहें हैं। चौड़े और उन्नत ललाटपर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक सुशोभित हैं। काले, घुँघराले मनोहर बालोंको देखकर भौंरोंकी पंक्तियाँ भी लजा जाती हैं। मस्तकपर सुन्दर सुवर्णमुकुट सुशोभित है। कंधेपर यज्ञोपवीत शोभा पा रहे हैं। मत्त गजराजकी चालसे चल रहे हैं। इतनी सुन्दरता है कि करोड़ों कामदेवोंकी उपमा भी उनके लिये तुच्छ है।
(७)
महामनोहर चित्रकूट पर्वतपर वटवृक्षके नीचे भगवान् श्रीराम, भगवती श्रीसीताजी और श्रीलक्ष्मणजी बड़ी सुन्दर रीतिसे विराजमान हैं। नीले और पीले कमलके समान कोमल और अत्यन्त तेजोमय उनके श्याम और गौर शरीर ऐसे लगते हैं, मानो चित्रकूटरूपी काम-सरोवरमें प्रेम, रूप और शोभामय कमल खिले हों। ये नखसे शिखतक परम सुन्दर, सर्वथा अनुपम और नित्य दर्शनीय हैं। भगवान् राम और लक्ष्मणके कमरमें मनोहर मुनिवस्त्र और सुन्दर तरकस बँधे हैं। श्रीसीताजी लाल वसनसे और नानाविध आभूषणोंसे सुशोभित हैं। दोनों भाइयोंके वक्ष:स्थल और कंधे विशाल हैं। कंधोंपर यज्ञोपवीत और वल्कल-वस्त्र धारण किये हुए हैं। गलेमें सुन्दर पुष्पोंकी मालाएँ हैं। अति सुन्दर भुजाएँ हैं। करकमलोंमें सुन्दर-सुन्दर धनुष-बाण सुशोभित हैं। परम शान्त, परम प्रसन्न मनोहर मुख-मण्डलकी शोभाने करोड़ों कामदेवोंको जीत लिया है। मनोहर मधुर मुसकान है। कानोंमें पुष्प-कुण्डल शोभित हो रहे हैं। सुन्दर अरुण कपोल हैं। विशाल कमल-जैसे कमनीय और मधुर आनन्दकी ज्योतिधारा बहानेवाले अरुण नेत्र हैं। उन्नत ललाटपर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक हैं और सिरपर जटाओंके मुकुट बड़े मनोहर लगते हैं। प्रभुकी यह वैराग्यपूर्ण मूर्ति अत्यन्त सुन्दर है।
(८)
नन्दबाबाके आँगनमें नन्हे-से गोपाल थिरक-थिरककर नाच रहे हैं। नवीन मेघके समान श्याम आभासे युक्त नयन-मनहारी सुन्दर वर्ण है। श्याम शरीरपर माताके द्वारा पहनाया हुआ बहुत पतला रेशमी चमकदार पीला कुरता ऐसा जान पड़ता है, मानो श्याम घनघटामें इन्द्रधनुष सुशोभित हो। सुन्दर नन्हे-नन्हे लाल आभायुक्त मनोहर चरणकमल हैं। चरणनखोंकी ज्योति चरणकमलोंपर पड़कर अत्यन्त सुशोभित हो रही है। चरणोंमें नूपुरोंकी और कमरमें करधनीकी ध्वनि हो रही है, जो सुननेवालोंके हृदयमें आनन्द भर रही है। सुन्दर त्रिवलीयुक्त उदर है। गम्भीर नाभि है। हृदयपर गजमुक्ताओंकी, रत्नोंकी और सुन्दर सुगन्धित पुष्पोंकी तथा तुलसीजीकी मालाएँ सुशोभित हैं। गलेमें गुंजाहार है, कौस्तुभमणि है और चौड़े वक्ष:स्थलपर श्रीवत्सका चिह्न है। अत्यन्त रमणीय और ज्ञानिजन-मनमोहन मनोहर मुखकमल है। बड़ी मीठी मुसकान है। कानोंमें कुण्डल झलमला रहे हैं। गुलाबी रंगके गोल कपोल कुण्डलोंके प्रकाशसे चमक रहे हैं। लाल-लाल होंठ बड़े ही कोमल और मनोहर हैं। बाँके और विशाल कमल-सरीखे नेत्र हैं। उनमेंसे आनन्द, प्रेम और रसकी विद्युत्-धारा निकल-निकलकर सबको अपनी ओर खींच रही है। नेत्रोंकी मनोहरताने सबके हृदयोंको आनन्द और प्रेमसे भर दिया है। उन्नत ललाट है। मस्तकपर मोरकी पाँखोंका मुकुट पहने हैं। विचित्र आभूषणोंसे और नवीन-नवीन कोमल पल्लवोंसे सारे शरीरको सजा रखा है। अंग-अंगसे करोड़ों कामदेवोंपर विजय प्राप्त करनेवाली सुन्दरता प्रवाहित हो रही है। उछलते, कूदते, हँसते, जोरसे मधुर आवाज लगाते हुए बीच-बीचमें मैया यशोदाकी ओर ताक रहे हैं। माता अतृप्त और निर्निमेष नेत्रोंसे भुवनमोहन लालकी मनोहर माधुरी छबिको निरख-निरखकर मुग्ध हो रही हैं।
(९)
कुरुक्षेत्रमें दोनों सेनाओंके बीच अर्जुनका दिव्य रथ खड़ा है। सब ओर शान्ति-सी छायी हुई है। रथके अगले भागपर वीर-वेषमें कवच-कुण्डलधारी भगवान् श्रीकृष्ण विराजित हैं। श्यामवर्ण है। शरीरपर पीताम्बर सुशोभित है। जगत् की सारी सुन्दरता उनकी सुन्दरतापर न्योछावर हो रही है। परम सुन्दर मुखकमल प्रफुल्लित है, शान्त है और अपने तेजसे सबको प्रकाशित कर रहा है। कानोंमें मकराकृति कुण्डल हैं। रक्त कमलके समान विशाल नेत्रोंसे ज्ञानकी दिव्य ज्योति प्रस्फुटित हो रही है। उन्नत ललाटपर ऊर्ध्वपुण्ड्र तिलक सुशोभित है। काले घुँघराले मनोहर केश हैं। सिरपर रत्नमण्डित स्वर्णमुकुट शोभा पा रहा है। एक हाथमें घोड़ोंकी लगाम है, चाबुक पास रखी है और दूसरा हाथ ज्ञानमुद्रासे सुशोभित है। अर्जुन रथके पिछले भागमें बैठे हुए अत्यन्त करुणभावसे शरणापन्न हुए भगवान् की ओर देख रहे हैं और श्रीभगवान् बड़ी ही शान्ति और धीरताके साथ आश्वासन देते हुए और अपनी मधुर मुसकानसे अर्जुनके विषादको नष्ट करते हुए उन्हें गीताका महान् उपदेश दे रहे हैं।
(१०)
सुन्दर कैलास पर्वतपर भगवान् श्रीशंकर विराजमान हैं। रक्ताभ सुन्दर गौर वर्ण है। रत्नसिंहासनपर मृगछाला बिछी है, उसीपर आप आसीन हैं। चार भुजाएँ हैं, दाहिने ऊपरका हाथ ज्ञानमुद्राका है, नीचेके हाथमें फरसा है, बायाँ ऊपरका हाथ मृगमुद्रासे सुशोभित है, नीचेका हाथ जानुपर रखे हुए हैं। गलेमें रुद्राक्षोंकी माला है, साँप लिपटे हुए हैं, कानोंमें कुण्डल सुशोभित हैं। ललाटपर त्रिपुण्ड्र शोभा पा रहा है, सुन्दर तीन नेत्र हैं, नेत्रोंकी दृष्टि नासिकापर लगी है, मस्तकपर अर्द्धचन्द्र है, सिरपर जटाजूट सुशोभित है। अत्यन्त प्रसन्न मुख है। देवता और ऋषि भगवान् की स्तुति कर रहे हैं। बड़ा ही सुन्दर विज्ञानानन्दमय स्वरूप है।
इसी प्रकार भगवान् नृसिंह, शक्ति, सूर्य आदि अपने-अपने इष्टदेवोंका ध्यान करना चाहिये।