Seeker of Truth

धर्मसे लाभ और अधर्मसे हानि

युगके प्रभाव और जड़ भोगमयी सभ्यताके विस्तारसे आज जगत् में धर्मके सम्बन्धमें बड़ी ही कुरुचि हो रही है। जहाँ प्राणोंको न्योछावर करके भी धर्मका पालन कर्तव्य समझा जाता था, वहाँ आज धर्मको ही प्राणविघातक शत्रु मानकर उसके विनाशकी चेष्टा हो रही है। धर्म क्या वस्तु है? इसको जाननेका प्रयास कुछ भी न कर आज उलटे धर्मका नाम-निशान मिटानेमें ही बहादुरी समझी जाती है और आवेशमें आये हुए धर्मज्ञानशून्य मनुष्य उच्छृंखलतारूप स्वतन्त्रताके उन्मादसे ग्रस्त होकर ईश्वर और धर्मका अस्तित्व नाश करनेपर तुले हुए हैं और डंकेकी चोट ईश्वर और धर्मको अपराधी ठहराकर पुकार रहे हैं कि ‘इस धर्म और ईश्वरने ही जगत् का सत्यानाश कर दिया। धर्म और ईश्वरके कारण ही संसारमें गरीबों और दुर्बलोंपर अत्याचार हुए और हो रहे हैं। धर्म और ईश्वरकी गुलामीने मनुष्यको गुलाम बननेका आदी बना दिया और इस धर्म और ईश्वरकी मान्यतासे ही भोले-भाले लोग लूटे गये और लूटे जा रहे हैं।’

इसमें कोई सन्देह नहीं कि स्वार्थी, कामभोगलोलुप, दाम्भिक, पाखण्डी लोगोंने कामिनी, कांचन और मान-बड़ाईकी कामनासे काम, क्रोध और लोभके वश होकर धर्मके नामपर अनाचार किये और कर रहे हैं। यह भी सत्य है कि ईश्वरके पूजक कहलानेवाले पुजारी और याजकोंमें भी अनेकों पाखण्डी दुराचारियोंने लोगोंके ठगनेके लिये नये-नये स्वाँग बनाये और आज भी ऐसे लोगोंकी कमी नहीं है। मान, बड़ाई, प्रतिष्ठा और धनके मदमें अन्धे हुए स्वार्थपरायण, धर्मज्ञानरहित, विषयलोलुप मनुष्य अवश्य ही बेचारे गरीब, दु:खी किसान मजदूर ग्रामीण भोले-भाले लोगोंसे पशुओंकी भाँति काम लेते हैं, उनपर अत्याचार करते हैं, और उनका हक मारते हैं; परन्तु इससे यह सिद्ध नहीं होता कि यह धर्म और ईश्वरका दोष है या इसलिये धर्म और ईश्वरको नहीं मानना चाहिये। बल्कि यों कहना चाहिये कि लोगोंमें धर्मबुद्धि और ईश्वरमें आस्था न रहनेसे ही यह पाखण्ड और अनाचार फैला। यदि वास्तवमें लोगोंकी धर्ममें प्रवृत्ति और सर्वव्यापी, सर्वदर्शी, न्यायकारी, दयालु ईश्वरकी सत्तामें विश्वास होता तो इस प्रकारका अनाचार कदापि नहीं फैलता। अनाचार, अत्याचार, पाखण्ड और गरीबोंके उत्पीड़नमें यह धर्मका ह्रास ही प्रधान कारण है।

आज तीर्थोंमें जो काम और लोभके वशमें हुए कुछ दाम्भिक पुरुष किसी प्रकारसे प्रविष्ट होकर श्रद्धावान् यात्रियोंकी श्रद्धासे अनुचित लाभ उठा रहे हैं, अथवा आज जो कामभोगपरायण नीच वृत्तिके मनुष्य भक्तिके उत्तम चिह्नोंको धारणकर धन और स्त्रियोंके सतीत्वका हरण कर रहे हैं, वे अवश्य ही महान् अपराधी हैं। धर्मके स्थानोंको दूषित करनेवाले, काम और लोभवश जनताको ठगनेवाले, अपने कुकर्मों और दुराचारोंसे धर्मात्मा, साधु-संत और भक्तोंके नामपर कलंक लगानेवाले इन नरपिशाचोंकी जितनी निन्दा की जाय थोड़ी है; परन्तु ईश्वर और धर्मकी सत्तामें श्रद्धा न रखकर धर्मका ढोंग करनेवाले इन स्वार्थी, दम्भी और पाखण्डियोंको धर्मात्मा, भक्त या ईश्वरवादी बतलाकर, इनका उदाहरण पेशकर अविवेकवश तीर्थ, मन्दिर, धर्म या ईश्वरकी निन्दा करना—धर्म और ईश्वरपर अश्रद्धा पैदा करनेकी चेष्टा करना एक प्रकारसे धर्मपर अत्याचार करना और जान-बूझकर घोर अपराध करना है। जगत् में न्यूनाधिकरूपमें दम्भी, पाखण्डी मनुष्य सदा ही रहे हैं और इस घोर कलिकालमें तो उनकी संख्या बढ़ी हुई है ही। जहाँ जिस वेषके धारण करने और जिस प्रकारका काम करनेसे उनका स्वार्थसाधन होता है, वे तुरंत दम्भपूर्वक उसी वेषको धारणकर वैसा ही कर्म अपना नीच मनोरथ सिद्ध करनेके लिये करने लगते हैं। पिछले दिनों जब खादीका बहुत अधिक आदर था तब यह देखा गया था कि कितने ही मनुष्य स्वार्थसाधनके लिये ही खादीमें श्रद्धा न रहनेपर भी खादी पहनने लगे थे। परन्तु इससे खादी बदनाम नहीं की जा सकती। आज भी यदि सच्चे देशसेवकोंमें कोई देशद्रोही मिल जाय और देशसेवकका बाना पहनकर देशका अहित करने लगे तो इससे न तो देशसेवा बुरी बात ठहरती है और न सच्चे देशसेवकोंपर ही न्यायत: कोई अभियोग लग सकता है। यही न्याय धर्मके लिये भी लागू है। परन्तु आज तो मानो धर्म और ईश्वरसे लोगोंका कुछ द्वेष-सा हो गया है। न्यायान्यायका विचार छोड़कर किसी भी बहाने धर्मकी और ईश्वरकी व्यर्थ निन्दा करना ही कुछ लोगोंने अपना कर्तव्य-सा मान लिया है।

खेदकी बात है कि धर्मप्राण भारतकी आर्य जातिमें उत्पन्न पुरुषोंमें भी आज ऐसे लोग हो गये हैं; इसका एक बड़ा कारण है भोगमयी पाश्चात्य संस्कृतिसे प्रभावान्वित आजकलकी दूषित धर्महीन शिक्षा। बचपनसे लड़कोंको ऐसी शिक्षा दी जाती है जिसमें धर्मका ज्ञान तो होता ही नहीं वरं उलटी धीरे-धीरे धर्ममें अरुचि बढ़ने लगती है। यही कारण है कि जिनके पिता-पितामह संस्कृतके बहुत सच्चे विद्वान्, धर्मके ज्ञाता और धर्मपथपर दृढ़तासे आरूढ़ थे, आज उन्हींके पुत्र-पौत्रोंको यह भी पता नहीं है कि ऋषिसेवित सनातनधर्म किसे कहते हैं? अधिकांशमें ऐसे ही लोग धर्म और ईश्वरके विरोधी बनते हैं। जैसे आज जंगलोंमें रहनेवाली पहाड़ी जातियोंमें धर्मका ज्ञान नहीं रहा, प्राय: इसी प्रकारकी स्थिति अधिकांश पाश्चात्य शिक्षा पाये हुए लोगोंकी है। एक विशेषता और भी है। पहाड़ी जातिके भोले-भाले भाइयोंको समझा-बुझाकर धर्मके मार्गपर लाना सहज है; परन्तु जिन भाइयोंको विद्या, बुद्धि और नवीन संस्कृतिका अभिमान है और जो इसीको उन्नति मान बैठे हैं उनका धर्मपथपर आना बहुत ही कठिन है। ईश्वरकी दयाके सामने तो कुछ भी कठिन नहीं है; ईश्वर सर्वशक्तिमान् हैं, वे जो चाहें, सो कर सकते हैं। कुछ समय पूर्व भारतवर्षमें कोई भी भाई इस प्रकार धर्म और ईश्वरके विरुद्ध खुले आम कुछ भी कहनेका साहस नहीं करता था, जैसा कि आजकल लोग पत्रों और सभाओंमें अनर्गल वाणीमें ईश्वर और धर्मका नाम मिटानेके उद्देश्यसे धर्म और ईश्वरपर गंदे-से-गंदा आक्षेप करते हैं। उन ईश्वरके और धर्मके विरोधी भाइयोंसे मेरा नम्र निवेदन है कि आपलोग आवेशमें न आकर गम्भीर विचार करें। उन्नति और उद्धारके नामपर ईश्वर और धर्मके विरुद्ध आन्दोलन कर इस पवित्र आर्यभूमिको महान् संकटमें डालनेका प्रयत्न न करें। प्राचीन कालके धर्मप्रचारक और धर्मसेवी महर्षियोंके त्यागपूर्ण जीवनकी ओर ध्यान दें। वे कितने बड़े त्यागी और विरक्त थे। धर्मके लिये उन्होंने कैसे-कैसे संकट सहे थे। देश और धर्मकी रक्षाके लिये उन्होंने किस प्रकार अपने जीवन अर्पण कर रखे थे। वृत्रासुरके उपद्रवसे दुनियाको बचानेके लिये महर्षि दधीचिने शरीरका मांस गायोंको चटवाकर अपनी अस्थियाँतक दे दी थीं। ऐसे बहुत-से उदाहरण प्राचीन इतिहासोंमें मिलेंगे। आपलोग विचार कीजिये कि धर्मका ह्रास होनेपर देश और जातिकी क्या दशा होगी। ईश्वरका आश्रय और धर्ममें प्रवृत्ति—यही दो ऐसी चीजें हैं, जिनसे हम दु:खोंसे छूटकर परम सुखके अधिकारी हो सकते हैं। ईश्वरमें अविश्वास और धर्मका लोप होनेपर हमारा जीवन पशुओंसे भी अधिक खराब हो जायगा।

ईश्वरकी सत्ता न मानने और धर्मका विरोध करनेसे अधर्मकी वृद्धि होगी। अधर्मके विस्तारसे संसार नष्ट-भ्रष्ट होने लगेगा। आचारकी मर्यादा नष्ट हो जायगी। परधन, पर-स्त्रीका विचार उठ जायगा। आगे चलकर अधर्मीलोग बहिनों और कन्याओंके साथ व्यभिचाररूपी घोर पाप करने लगेंगे। इस बातका संकेत अभीसे लोगोंके लेखोंमें होने लगा है। यह इतना बड़ा पाप है कि भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने इसको महान् घृणित कार्य बतलाकर ऐसा करनेवाले नीच मनुष्योंको मार डालनेतककी प्रेरणा की है—

अनुज बधू भगिनी सुतनारी।
सुनु सठ कन्या सम ए चारी॥
इन्हहि कुदृष्टि बिलोकइ जोई।
ताहि बधें कछु पाप न होई॥

जब धर्मकी मर्यादा नहीं रहेगी, पशुधर्म फैल जायगा तब ऐसे घोर पाशविक कर्मसे कौन किसे रोकेगा? माता-पिता, गुरुजनोंकी सेवा तो दूर रही, उनकी अवहेलना और अपमान होने लगेगा। जिसके मनमें जो बात अच्छी लगेगी, उसीको सिद्धान्त बतलाया जायगा। जिसका फल इस लोक और परलोकमें कहीं भी लाभप्रद नहीं होगा। श्रीभगवान् ने कहा है—

य: शास्त्रविधिमुत्सृज्य वर्तते कामकारत:।
न स सिद्धिमवाप्नोति न सुखं न परां गतिम्॥
(गीता १६।२३)

‘जो पुरुष शास्त्रकी विधिको त्यागकर अपनी इच्छासे बरतता है, वह न तो सिद्धिको प्राप्त होता है, न परम गतिको और न सुखको ही प्राप्त होता है।’

ईश्वर और धर्मका शासन न रहनेके कारण अधर्मीलोग अपनी स्वार्थसिद्धिके लिये पाखण्ड रचकर दुनियाको धोखा देंगे। बलवान् और अधिकारसम्पन्न लोग क्रोध और मोहके वश हो दुर्बलों और गरीबोंपर वैसे ही अत्याचार करेंगे जैसे वनके बलवान् पशु निर्बल, निरपराधी पशुओंको दु:ख देते हैं। नृशंसता बढ़ते-बढ़ते घोर राक्षसीपन आ जायगा और निरपराध पशु-पक्षियोंकी तो बात ही क्या, स्वार्थवश हुए मनुष्य ही मनुष्यको खाने लगेंगे। मान, मोह और मदमें भूले हुए अधर्मीलोग स्वार्थसिद्धिके लिये मनमाना आचरण करेंगे। बलवान्, धनी और शिक्षित कहलानेवाले मनुष्य ही ईश्वर, महात्मा, योगी समझे जायँगे। ऐसी अवस्थामें जगत् दु:खमय हो जायगा। अधर्मके कारण ही आज पुण्यभूमि भारतवर्ष पराधीन, दीन, दु:खी हो रहा है। अधर्मकी वृद्धिका ही यह परिणाम है जो आज भारतवर्षमें नित नयी महामारियाँ बढ़ रही हैं, मनुष्योंकी आयु कम हो गयी है, पशुधन नष्ट हो रहा है। भूकम्प और बाढ़ आदि दैवी प्रकोपोंसे प्राणी दु:खी हो रहे हैं और अन्न-वस्त्रके बिना प्राण-त्याग कर रहे हैं। फिर अधर्मकी विशेष वृद्धि होनेपर तो दु:ख और भी बढ़ जायँगे। अधर्मका फल निश्चय ही दु:ख है। परन्तु धर्मका फल दु:ख कदापि नहीं हो सकता। संसारका इतिहास देखनेसे पता लगता है कि सच्चे धर्मकी ही सदा जय हुई। क्योंकि जहाँ धर्म होता है वहीं ईश्वरकी सहायता मिलती है। महाभारतमें गुरु द्रोणाचार्य धर्मराज युधिष्ठिरको विजयका आश्वासन देते हुए कहते हैं—

यतो धर्मस्तत: कृष्णो यत: कृष्णस्ततो जय:।
(भीष्मपर्व)

‘जहाँ धर्म है, वहीं ईश्वर (कृष्ण) हैं और जहाँ ईश्वर हैं, वहीं जय है।’

अधर्म करनेवाले सब प्रकारसे धन, जन, शक्ति और सत्तासे सम्पन्न बड़े-से-बड़े बलवान् लोग भी धर्मात्माओंद्वारा मारे गये हैं। यह बात प्रसिद्ध है कि रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद आदि असुर विपुल धन-जनसे सम्पन्न थे, उनके पास युद्धके असाधारण उपकरण मौजूद थे। किन्तु पापके कारण वे भगवान् की दयासे युक्त साधारण वानरोंद्वारा ही परास्त किये गये। यह बात न्याययुक्त और सिद्ध है कि जो मनुष्य दु:खी, अनाथ और निर्बलोंपर अत्याचार करता है वह अपनी उस अत्याचारमयी अनीतिके द्वारा स्वयं ही मारा जाता है। उसीका पाप उसे खा जाता है। पापका परिणाम अवश्य ही भोगना पड़ेगा; किसी कारणवश कुछ विलम्ब भले ही हो जाय। दीर्घकालके बाद मिलनेवाले फलको दीर्घदृष्टि न होनेके कारण हम प्रत्यक्ष नहीं देख सकते। इसीसे हमें भ्रम हो जाता है कि पापीलोग फलते-फूलते हैं और संसारमें पापका फल नहीं मिलता। इसीसे लोग धर्मकी अवहेलनाकर अधर्ममें प्रवृत्त होते हैं। पर यह सोचना चाहिये कि सभी कुपथ्योंका फल तत्काल नहीं होता। किसीका जल्दी होता है तो किसीका बीसों वर्ष बाद फल सामने आता है। निपुण वैद्य-डॉक्टरोंको भी पता नहीं लगता कि वह किसका परिणाम है। परन्तु है वह अवश्य ही किसी समय किये हुए किसी पाप या कुपथ्यका परिणाम। कोई बीज जमीनमें तुरंत अंकुरित होता है, कोई महीनों बाद होता है। किसी पेड़में हाथोंहाथ फल लगने लगते हैं तो कोई पेड़ बीसों सालके बाद फल देता है। यह निश्चय रखना चाहिये कि बीजके अनुसार फल अवश्य होगा। इसी प्रकार हमारे किये हुए कर्मोंका फल भी निस्संदेह हमें भोगना पड़ेगा। अतएव अधर्मसे सदा बचना चाहिये और धर्मपालनमें तत्पर होना चाहिये।

धर्मके आचरणसे मनुष्यमें समता, शान्ति, दया, सन्तोष, सरलता, साहस, निर्भयता, वीरता, धीरता, गम्भीरता, क्षमा आदि गुणोंका स्वाभाविक ही विकास होता है। धर्मरूपी तपके आचरणसे अग्निसे ईंधनकी भाँति सारे पाप और अवगुण जल जाते हैं और विषयोंसे विरक्ति तथा ईश्वरके तत्त्वका ज्ञान हो जाता है, जिससे समस्त सद्गुण उसमें अपने-आप ही प्रकट हो जाते हैं। ऐसा धर्मात्मा पुरुष किसी भी प्राणीको किंचिन्मात्र भी दु:ख नहीं पहुँचा सकता। वह सबमें ईश्वरका या अपने आत्माका दर्शन करता है। सर्वत्र ईश्वर अथवा आत्माका दर्शन करनेवाला पुरुष कैसे किसीको दु:ख दे सकता है। जैसे अज्ञानी पुरुष अपने स्वार्थमें रत रहता है, वैसे ही ऐसा धर्मात्मा पुरुष चींटीसे लेकर इन्द्रपर्यन्त समस्त जीवोंके हितमें रत रहता है। इसीके परिणामस्वरूप वह पुरुष परमात्माको प्राप्त हो जाता है—

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता १२।४)

धर्मको जाननेवाले पुरुषोंद्वारा निर्बल गरीबोंपर अत्याचार होना तथा उनके द्वारा किसीका धन हरण होना और सताया जाना तो एक किनारे रहा, वे समझ-बूझकर एक क्षुद्र चींटीको भी पीड़ा नहीं पहुँचा सकते। जो जान-बूझकर किसी भी जीवको किंचिन्मात्र भी पीड़ा पहुँचाता है, उसके लिये धर्मके तत्त्वकी बात तो दूर रही, उसने धर्मका तत्त्व जाननेवाले पुरुषोंसे शिक्षा भी नहीं पायी। क्योंकि शास्त्रोंमें अहिंसाको ही परम धर्म बतलाया है।

अहिंसा परमो धर्म:।

गोस्वामीजीने कहा है—

परहित सरिस धर्म नहिं भाई । पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

हमलोगोंको शम, दम, यम, नियम, आदि उत्तम धर्मोंका पालन करके अपने भूले हुए भाइयोंको मार्ग दिखलाना चाहिये, जिससे सब धर्मपर आरूढ़ हों और देश सुखी हो जाय। जिस देशमें भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्णने अवतार लिया और जिसमें साक्षात् श्रीभगवान् के मुखकमलसे निकले हुए गीता-जैसे सच्चे धर्मको बतलानेवाला ग्रन्थ हो, उस देशकी प्रजा अशान्ति और दु:खका भोग करे, यह बहुत ही लज्जाकी बात है। गीतामें बतलाये हुए धर्मका पालन करनेसे हम स्वयं शान्त और सुखी होकर समस्त भारतको सुखी और स्वावलम्बी बना सकते हैं। समस्त गीताकी बात तो दूर रही, केवल सोलहवें अध्यायमें बतलाये हुए दैवी-सम्पदारूप धर्मका पालन और आसुरी-सम्पदारूप अधर्मका त्याग करनेसे ही मनुष्य सदाके लिये परम शान्ति और परमानन्दको प्राप्त हो सकता है। व हस्वयं ही सुखी होता है सो बात नहीं, वह जिस गाँव, जिस नगरमें रहता है, उसमें जितने लोग रहते हैं प्राय: सबको अपने धर्मबलसे सुखी बना सकता है। जहाँ सच्चा धर्मात्मा पुरुष रहता है वहाँ उसके धर्मके प्रतापसे भूकम्प, महामारी, अकाल आदि दैवी कोपसे प्रजा पीड़ित नहीं हो सकती। दैवयोगसे कदाचित् ऐसी कोई विपत्ति आ जाती है तो उनके प्रतापसे यानी उनकी परोपकार-वृत्तिसे लोग उस विपत्तिसे सहज ही छूट जाते हैं। महाराज धर्मराज युधिष्ठिर जब अपने चारों भाइयों तथा रानी द्रौपदीके साथ विराटनगरमें छिपे हुए थे, उस समय उनका पता लगानेके लिये व्यग्र दुर्योधनको पितामह भीष्म उनकी पहचान बतलाते हुए कहते हैं—

पुरे जनपदे चापि यत्र राजा युधिष्ठिर:।
दानशीलो वदान्यश्च निभृतो ह्रीनिषेवक:।
जनो जनपदे भाव्यो यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
प्रियवादी सदा दान्तो भव्य: सत्यपरो जन:।
हृष्ट: पुष्ट: शुचिर्दक्षो यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
नासूयको न चापीर्षुर्नाभिमानी न मत्सरी।
भविष्यति जनस्तत्र स्वयं धर्ममनुव्रत:॥
ब्रह्मघोषाश्च भूयांस: पूर्णाहुत्यस्तथैव च।
क्रतवश्च भविष्यन्ति भूयांसो भूरिदक्षिणा:॥
सदा च तत्र पर्जन्य: सम्यग्वर्षी न संशय:।
सम्पन्नसस्या च मही निरातंका भविष्यति॥
गुणवन्ति च धान्यानि रसवन्ति फलानि च।
गन्धवन्ति च माल्यानि शुभशब्दा च भारती॥
वायुश्च सुखसंस्पर्शो निष्प्रतीपं च दर्शनम्।
न भयं त्वाविशेत्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
गावश्च बहुलास्तत्र न कृशा न च दुर्बला:।
पयांसि दधिसर्पींषि रसवन्ति हितानि च॥
गुणवन्ति च पेयानि भोज्यानि रसवन्ति च।
तत्र देशे भविष्यन्ति यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
रसा:स्पर्शाश्च गन्धाश्च शब्दाश्चापि गुणान्विता:।
दृश्यानि च प्रसन्नानि यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
धर्माश्च तत्र सर्वैस्तु सेविताश्च द्विजातिभि:।
स्वै: स्वैर्गुणैश्च संयुक्ता अस्मिन् वर्षे त्रयोदशे॥
देशे तस्मिन्भविष्यन्ति तात पाण्डवसंयुते।
सम्प्रीतिमान् जनस्तत्र सन्तुष्ट: शुचिरव्यय:॥
देवतातिथिपूजासु सर्वभावानुरागवान्।
इष्टे दाने महोत्साह: स्वस्वधर्मपरायण:॥
अशुभाद्धि शुभप्रेप्सुरिष्टयज्ञ: शुचिव्रत:।
भविष्यति जनस्तत्र यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
त्यक्तवाक्यानृतस्तात शुभकल्याणमंगल:।
शुभार्थेप्सु: शुभमतिर्यत्र राजा युधिष्ठिर:॥
भविष्यति जनस्तत्र नित्यं चेष्टप्रियव्रत:।
धर्मात्मा शक्यते ज्ञातुं नापि तात द्विजातिभि:॥
किं पुन: प्राकृतैस्तात पार्थो विज्ञायते क्वचित्।
यस्मिन्सत्यं धृतिर्दानं परा शान्तिर्ध्रुवा क्षमा॥
ह्री: श्री: कीर्ति: परं तेज आनृशंस्यमथार्जवम्।
(महा०विराटपर्व २८।१४—३२)

‘जिस नगर और ग्राममें राजा युधिष्ठिर रहते होंगे उस देशके मनुष्य दानशील, उदार, जितेन्द्रिय तथा बुरे कामोंमें लज्जा करनेवाले होने चाहिये। राजा युधिष्ठिर जहाँ रहते होंगे वहाँके मनुष्य प्रिय बोलनेवाले, सदा इन्द्रियोंको जीते हुए, श्रीसम्पन्न, सत्यपरायण, हृष्ट, पुष्ट, पवित्र तथा चतुर होने चाहिये। जहाँ राजा युधिष्ठिर रहते होंगे, वहाँके लोग दूसरेके गुणोंमें दोषारोपण करनेवाले, डाह करनेवाले, अभिमानी, मत्सरतावाले नहीं होकर सब धर्मका अनुसरण करनेवाले होंगे। वहाँ अत्यधिक वेदध्वनियाँ, यज्ञोंकी पूर्णाहुतियाँ और बड़ी-बड़ी दक्षिणावाले बहुत-से यज्ञ होते रहेंगे। वहाँ मेघ आवश्यकतानुसार सदा अच्छी वर्षा करता होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। और पृथ्वी पीड़ारहित तथा बहुत अन्न पैदा करनेवाली होगी। वहाँ गुणकारी अन्न, रसभरे फल, सुगन्धित पुष्प और शुभ शब्दोंसे युक्त वाणी होगी। जहाँ युधिष्ठिर रहते होंगे, वहाँ सुखस्पर्श वायु चलती होगी। वहाँके मनुष्योंका धर्म और ब्रह्मविषयक ज्ञान पाखण्डरहित होगा तथा भयको कहीं प्रवेश करनेकी जगह नहीं मिलेगी। वहाँ बहुत-सी गायें होंगी और वे निर्बल तथा दुबली-पतली नहीं होंगी। वहाँ दूध, दही और घृत रसयुक्त तथा हितकारक होंगे। वहाँ खाने-पीनेके पदार्थ रसभरे और गुणकारी होंगे। जहाँ राजा युधिष्ठिर रहते होंगे उस देशमें रस, गन्ध, शब्द और स्पर्श गुणोंसे भरे होंगे तथा रूप (दृश्य) भी रमणीय दिखायी देंगे। इस तेरहवें वर्षमें राजा युधिष्ठिर जहाँ रहते होंगे, वहाँके सब द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) धर्मका पालन करते होंगे और धर्म स्वयं अपने गुणोंसे सम्पन्न होंगे। हे तात! जिस देशमें पाण्डव रहते होंगे वहाँ सब लोग परस्पर प्रेम करनेवाले, सन्तोषी, पवित्र और अकालमृत्युसे रहित होंगे। वहाँ लोग देवता और अतिथिकी पूजामें सर्वात्मभावसे प्रीति रखनेवाले, इष्ट और दानमें महान् उत्साह रखनेवाले, और अपने-अपने धर्ममें तत्पर होंगे। जहाँ राजा युधिष्ठिर रहते होंगे, वहाँके मनुष्य अशुभका त्याग करके शुभकी चाह करनेवाले, यज्ञमें प्रीति करनेवाले और शुभ व्रतोंको धारण करनेवाले होंगे। हे तात! जहाँ युधिष्ठिर रहते होंगे, वहाँके मनुष्य असत्य वचनोंका त्याग करनेवाले, शुभ कल्याण तथा मंगलसे युक्त, कल्याणकी इच्छावाले और शुभ बुद्धिवाले होंगे। वे नित्य परमसुख देनेवाले शुभ कार्योंमें तत्पर होंगे। हे तात! ऐसे जिन धर्मात्मा युधिष्ठिरमें सत्य, धैर्य, दान, पराशान्ति, अविचल क्षमा, लज्जा, श्री, कीर्ति, महान् तेज, दयालुता, सरलता आदि गुण नित्य निवास करते हैं, उन धर्मराजको ब्राह्मण भी नहीं पहचान सकते, फिर साधारण मनुष्य तो पहचान ही कैसे सकते हैं? अतएव सबको धर्मपरायण होना चाहिये। खास करके धर्माचार्य और धर्मप्रेमी कहलानेवाले पुरुषोंको (जिनमें आज कुछ थोड़े-से महात्माओंको छोड़कर अधिकांश स्वार्थमें रत हो रहे हैं) अज्ञाननिद्रासे सचेत होकर धर्मपालनके लिये कटिबद्ध हो जाना चाहिये और पाश्चात्य भोगमयी सभ्यताकी चकाचौंधसे पथच्युत हुए भाइयोंको बहुत प्रेम, विनय और नम्रताके साथ धर्मका मर्म समझाकर धर्ममार्गपर लानेकी चेष्टा करनी चाहिये।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur