Seeker of Truth

धर्मराज युधिष्ठिर

महाराज युधिष्ठिर भी पितामह भीष्मकी ही भाँति अत्यन्त उच्च कोटिके महापुरुष थे। ये साक्षात् धर्मके अंशसे उत्पन्न हुए थे और धर्मके मूर्तिमान् स्वरूप थे। इसीसे लोग इन्हें धर्मराजके नामसे पुकारते थे। इनमें सत्य, क्षमा, धैर्य, स्थिरता, सहिष्णुता, शूरवीरता, गम्भीरता, नम्रता, दयालुता और अविचल प्रेम आदि अनेकों लोकोत्तर गुण थे। ये अपने शील, सदाचार तथा विचारशीलताके कारण बचपनमें ही अत्यधिक लोकप्रिय हो गये थे। जब ये बहुत छोटे थे, तभी इनके पिता महात्मा पाण्डु स्वर्गवासी हो गये। तभीसे ये अपने ताऊ धृतराष्ट्रको ही पिताके तुल्य मानकर उनका बड़ा आदर करते थे और उनकी किसी भी आज्ञाको नहीं टालते थे। परंतु धृतराष्ट्र अपने कुटिल स्वभावके कारण इनके गुणोंकी प्रशंसा सुन-सुनकर मन-ही-मन इनसे कुढ़ने लगे। उनका पुत्र दुर्योधन चाहता था कि किसी तरह पाण्डव कुछ दिनोंके लिये हस्तिनापुरसे हट जायँ तो उनकी अनुपस्थितिमें उनके पैतृक अधिकारको छीनकर मैं स्वयं राजा बन बैठूँ। उसने अपने अन्धे एवं प्रज्ञाहीन पिताको समझाकर इसके लिये राजी कर लिया। धृतराष्ट्रने पाण्डवोंको बुलाकर उन्हें मेला देखनेके बहाने वारणावत जानेके लिये कहा, उन्होंने उनकी आज्ञा समझकर इसपर कोई आपत्ति नहीं की और चुपचाप अपनी माता कुन्तीके साथ पाँचों भाई वारणावत चले गये। इन्हें जला डालनेके लिये पहलेसे ही वहाँ दुर्योधनने एक लाक्षाभवन तैयार करवा रखा था। उसीमें इन्हें रहनेकी आज्ञा हुई। उसमें आग लगा दी गयी पर चाचा विदुरकी सहायतासे ये लोग पहले ही वहाँसे किसी प्रकार अपने प्राण बचाकर भाग निकले और इन्होंने जंगलकी शरण ली। पीछेसे धृतराष्ट्रके पुत्रोंने मरा समझकर हस्तिनापुरके राज्यपर चुपचाप अधिकार कर लिया।

कुछ दिनोंके बाद द्रौपदीके स्वयंवरमें जब पाण्डवोंका रहस्य खुला, तब धृतराष्ट्रके पुत्रोंको यह पता लगा कि पाण्डव अभी जीवित हैं। तब तो धृतराष्ट्रने विदुरको भेजकर पाण्डवोंको हस्तिनापुर बुलवा लिया और अपने पुत्रोंके साथ उनका झगड़ा मिटा देनेके लिये आधा राज्य लेकर खाण्डवप्रस्थमें रहनेका प्रस्ताव उनके सामने रखा। युधिष्ठिरने उनकी यह आज्ञा भी स्वीकार कर ली और ये अपने भाइयोंके साथ खाण्डवप्रस्थमें रहने लगे। वहाँ इन्होंने अपनी एक अलग राजधानी बसा ली, जिसका नाम इन्द्रप्रस्थ रखा गया। इन्द्रप्रस्थमें इन्होंने एक राजसूय यज्ञ किया, जिसमें बड़े-बड़े राजाओंने आकर इन्हें बहुमूल्य उपहार दिये और अपना सम्राट् स्वीकार किया।

परंतु दुर्योधन इनके वैभवको देखकर जलने लगा। उसने एक विशाल सभाभवन तैयार कराकर पाण्डवोंको जुएके लिये आमन्त्रित किया। धृतराष्ट्रकी आज्ञा मानकर युधिष्ठिरने उसका निमन्त्रण स्वीकार कर लिया और वहाँ दुर्योधनके मामा शकुनिकी कपटभरी चालोंसे ये अपना सर्वस्व हार बैठे। यहाँतक कि भरी सभामें राजरानी द्रौपदीका घोर अपमान किया गया फिर भी धृतराष्ट्रके प्रति युधिष्ठिरका वही भाव बना रहा। धृतराष्ट्रने भी इनको इनका सारा धन और राज्य लौटा दिया और इन्हें पुन: इन्द्रप्रस्थके लिये विदा कर दिया। दुर्योधनको बहुत बुरा लगा। उसने धृतराष्ट्रको समझा-बुझाकर इस बातके लिये सहमत कर लिया कि दूत भेजकर पाण्डवोंको फिरसे बुलाया जाय और उनसे वनवासकी शर्तपर पुन: जुआ खेला जाय। युधिष्ठिर जुएका दुष्परिणाम एक बार देख चुके थे तथा कौरवोंकी नीयतका भी पता उन्हें चल गया था। फिर भी अपने ताऊकी आज्ञाको वे टाल नहीं सके और बीचमेंसे ही लौट आये। अबकी बार भी युधिष्ठिर ही हारे और फलत: इन्हें सब कुछ छोड़कर अपने भाइयों तथा राजरानी द्रौपदीके साथ बारह वर्षके वनवास तथा एक वर्षके अज्ञातवासके लिये जाना पड़ा। पिता (ताऊ) के आज्ञापालनरूप धर्मके निर्वाहके लिये इन्होंने सब कुछ चुपचाप सह लिया। धन्य पितृभक्ति!

महाराज युधिष्ठिर बड़े ही धर्मभीरु एवं सहनशील थे। ये सब प्रकारकी हानि सह सकते थे, परंतु धर्मकी हानि इन्हें सह्य नहीं थी। प्रथम बार जुएमें जब ये अपने चारों भाइयोंको तथा अपने-आपको एवं द्रौपदीतकको हार गये और कौरवलोग भरी सभामें द्रौपदीका तिरस्कार करने लगे, उस समय भी धर्मपाशसे बँधे रहनेके कारण इन्होंने चूँतक नहीं किया और चुपचाप सब कुछ सह लिया। कोई सामान्य मनुष्य भी अपनी आँखोंके सामने अपनी पत्नीकी इस प्रकार दुर्दशा होते नहीं देख सकता। इन्हींके भयसे इनके भाई भी कुछ नहीं बोले और जी मसोसकर रह गये। ये लोग चाहते तो बलपूर्वक उस अमानुषी अत्याचारको रोक सकते थे। परंतु यही सोचकर कि धर्मराज द्रौपदीको स्वेच्छासे दाँवपर रखकर हार गये हैं, ये लोग चुप रहे। जिस द्रौपदीको इनके सामने कोई आँख उठाकर भी देख लेता तो उसे अपने प्राणोंसे हाथ धोने पड़ते, उसी द्रौपदीकी दुर्दशा इन्होंने अपनी आँखोंसे देखकर भी उसका प्रतिकार नहीं किया। युधिष्ठिर यह भी जानते थे कि शकुनिने उन्हें कपटपूर्वक जीता है, फिर भी इन्होंने अपनी ओरसे धर्मका त्याग करना उचित नहीं समझा। इन्होंने सब कुछ सहकर भी सत्य और धर्मकी रक्षा की। धर्मप्रेम और सहनशीलताका इससे बड़ा उदाहरण जगत् में शायद ही कहीं मिले।

जब पाण्डवलोग दूसरी बार भी जुएमें हार गये और वनमें जाने लगे, उस समय हस्तिनापुरकी प्रजाको बड़ा दु:ख हुआ। सब लोग कौरवोंको कोसने लगे और नगरवासी बहुत बड़ी संख्यामें अपने घर-परिवारको छोड़कर इनके साथ चलनेके लिये इनके पीछे हो लिये। उस समय भी धर्मराजने कौरवोंके विरुद्ध एक शब्द भी नहीं कहा और सब लोगोंको किसी प्रकार समझा-बुझाकर लौटाया। फिर भी बहुत-से ब्राह्मण जबर्दस्ती इनके साथ हो लिये। उस समय धर्मराजको यह चिन्ता हुई कि ‘इतने ब्राह्मण मेरे साथ चल रहे हैं, इनके भोजनकी क्या व्यवस्था होगी?’ इन्हें अपने कष्टोंकी तनिक भी परवा नहीं थी, परंतु ये दूसरोंका कष्ट नहीं देख सकते थे। अन्तमें इन्होंने भगवान् सूर्यकी आराधना करके उनसे एक ऐसा पात्र प्राप्त किया, जिसमें पकाया हुआ थोड़ा-सा भी भोजन अक्षय हो जाता। उसीसे ये वनमें रहते हुए भी अतिथि-ब्राह्मणोंको भोजन कराकर पीछे स्वयं भोजन करते। वनवासके कष्ट भोगते हुए भी इन्होंने आतिथ्य-धर्मका यथोचित पालन किया। महाराज युधिष्ठिरके इसी धर्म-प्रेमसे आकर्षित होकर बड़े-बड़े महर्षि इनके वनवासके समय इनके पास आकर रहते और यज्ञादि नाना प्रकारके धर्मानुष्ठान करते।

महाराज युधिष्ठिर अजातशत्रुके नामसे प्रसिद्ध थे। इनका वास्तवमें किसीके साथ वैर नहीं था। शत्रुओंके प्रति भी इनके हृदयमें सदा सद्भाव ही रहता था। शत्रु भी इनकी दृष्टिमें सेवा और सहानुभूतिके ही पात्र थे। अपकार करनेवालेका भी उपकार करना—यही तो सन्तका सबसे बड़ा लक्षण है। ‘उमा संत कै इहइ बड़ाई। मंद करत जो करइ भलाई॥’—गोस्वामी तुलसीदासजीकी यह उक्ति महाराज युधिष्ठिरमें पूरी तरह चरितार्थ होती थी। एक बारकी बात है—जब पाण्डव द्वैतवनमें थे, घोषयात्राके बहाने राजा दुर्योधन अपने मन्त्रियों, भाइयों, रनिवासकी स्त्रियों तथा बहुत बड़ी सेनाको साथ लेकर वनवासी पाण्डवोंको अपने वैभवसे जलानेके पापपूर्ण उद्देश्यसे उस वनमें पहुँचा। वहाँ जलक्रीड़ाके विचारसे वह उस सरोवरके तटपर पहुँचा, जहाँ महाराज युधिष्ठिर कुटी बनाकर रहते थे। सरोवरको गन्धर्वोंने पहलेसे ही घेर रखा था। उनके साथ दुर्योधनकी मुठभेड़ हो गयी। बस, दोनों ओरसे बड़ा भीषण और रोमांचकारी युद्ध छिड़ गया। विजय गन्धर्वोंकी ओर रही। उन लोगोंने रानियोंसहित दुर्योधनको कैद कर लिया। जब महाराज युधिष्ठिरको यह समाचार मिला तो इन्होंने अपने भाइयोंको आज्ञा दी कि ‘तुम सब लोग जाकर बलपूर्वक राजा दुर्योधनको छुड़ा लाओ। माना कि वे लोग हमारे शत्रु हैं, परंतु इस समय विपत्तिमें हैं। इस समय उनके अपराधोंको भुलाकर उनकी सहायताकरना ही हमारा धर्म है। शत्रुता रखते हैं तो क्या हुआ, आखिर हैं तो हमारे भाई ही। हमारे रहते दूसरे लोग इनकी दुर्दशा करें, यह हमलोग कैसे देख सकते हैं।’ बस, फिर क्या था। अर्जुनने बाणवर्षासे गन्धर्वोंकेछक्के छुड़ा दिये और दुर्योधनको भाइयों तथा रानियोंसहित उनके बन्धनसेछुड़ा लिया। दुर्योधनकी दुरभिसन्धिको जानकर देवराज इन्द्रने ही दुर्योधनको बाँध ले आनेके लिये गन्धर्वोंको भेजा था। महाराज युधिष्ठिरके विशाल हृदयको देखकर वे सब दंग रह गये। धन्य अजातशत्रुता!

एक समयकी बात है, द्रौपदीको आश्रममें अकेली छोड़कर पाण्डव वनमें चले गये थे। पीछेसे दुर्योधनका बहनोई सिन्धुराज जयद्रथ उधर आ निकला। द्रौपदीके अनुपम रूप-लावण्यको देखकर उसका मन बिगड़ गया। उसने द्रौपदीके सामने अपना पापपूर्ण प्रस्ताव रखा, किन्तु द्रौपदीने उसे तिरस्कारपूर्वक ठुकरा दिया। तब तो उसने द्रौपदीको खींचकर जबर्दस्ती अपने रथपर बिठा लिया और ले भागा। पीछेसे पाण्डवोंको जब जयद्रथकी इस शैतानीका पता लगा तो उन्होंने उसका पीछा किया और थोड़ी ही देरमें उसे जा दबाया। पाण्डवोंने बात-की-बातमें उसकी सारी सेनाको तहस-नहस कर डाला। पापी जयद्रथने भयभीत होकर द्रौपदीको रथसे नीचे उतार दिया और स्वयं प्राण बचाकर भागा। भीमसेनने उसका पीछा किया और थोड़ी ही देरमें उसे पकड़कर धर्मराजके सामने ला उपस्थित किया। धर्मराजने सम्बन्धी समझकर दयापूर्वक उसे छोड़ दिया और इस प्रकार अपनी अद्भुत क्षमाशीलता एवं दयालुताका परिचय दिया।

महाराज युधिष्ठिर बड़े भारी बुद्धिमान्, नीतिज्ञ और धर्मज्ञ तो थे ही; उनमें समता भी अद्भुत थी। एक समयकी बात है—जिस वनमें पाण्डव रहते थे, उसमें एक ब्राह्मणके अरणिसहित मन्थनकाष्ठसे, जो किसी वृक्षकी शाखापर टँगा हुआ था, एक हरिन अपना सींग खुजलाने लगा। वह काष्ठ उसके सींगमें फँस गया। हरिन उसे लेकर भागा। मन्थनकाष्ठके न रहनेसे अग्निहोत्रमें बाधा आती देख ब्राह्मण पाण्डवोंके पास गया और उनसे उस मन्थनकाष्ठको ला देनेकी प्रार्थना की। धर्मराज युधिष्ठिर अपने चारों भाइयोंको साथ लेकर मृगके पीछे भागे, परन्तु देखते-ही-देखते वह उनकी आँखोंसे ओझल हो गया। पाण्डव बहुत थक गये थे। प्यास उन्हें अलग सता रही थी, धर्मराजकी आज्ञा पाकर नकुल पानीकी तलाशमें गये। थोड़ी ही दूरपर उन्हें एक सुन्दर जलाशय मिला। उसके समीप जाकर ज्यों ही वे जल पीनेके लिये झुके कि उन्हें यह आकाशवाणी सुनायी दी—‘पहले मेरे प्रश्नोंका उत्तर दो, तब जल पीना।’ परन्तु नकुलको बड़ी प्यास लगी थी। उन्होंने आकाशवाणीकी कोई परवा नहीं की। फलत: पानी पीते ही वे निर्जीव होकर जमीनपर लोट गये। तदनन्तर धर्मराजने क्रमश: सहदेव, अर्जुन और भीमसेनको भेजा; परंतु उन तीनोंकी भी वही दशा हुई। अन्तमें धर्मराज स्वयं उस तालाबपर पहुँचे। इन्होंने भी वही आवाज सुनी और साथ ही अपने चारों भाइयोंको निश्चेष्ट होकर जमीनपर पड़े देखा। इतनेमें ही इन्हें एक विशालकाय यक्ष दीख पड़ा। उसने युधिष्ठिरको बतलाया कि ‘मेरे प्रश्नोंका उत्तर दिये बिना ही जल पीनेके कारण तुम्हारे भाइयोंकी यह दशा हुई है। यदि तुम भी ऐसी अनधिकार चेष्टा करोगे तो मारे जाओगे।’ युधिष्ठिर उनके प्रश्नोंका उत्तर देनेको तैयार हो गये। यक्षने जो-जो प्रश्न युधिष्ठिरसे किये, सबका समुचित उत्तर देकर युधिष्ठिरने यक्षका अच्छी तरह समाधान कर दिया। इनके उत्तरोंसे प्रसन्न होकर यक्ष बोला—‘राजन्! अपने भाइयोंमेंसे जिस किसी एकको तुम जिलाना चाहो, उसे मैं जीवित कर दूँ।’ धर्मराजने नकुलको जीवित देखना चाहा। कारण पूछनेपर इन्होंने बताया कि ‘मेरे पिताके दो भार्याएँ थीं—कुन्ती और माद्री। मेरी दृष्टिमें वे दोनों समान हैं। मैं चाहता हूँ कि वे दोनों पुत्रवती बनी रहें। कुन्तीका पुत्र तो मैं मौजूद हूँ ही; मैं चाहता हूँ कि माद्रीका भी एक पुत्र बना रहे। इसीलिये मैंने भीम और अर्जुनको छोड़कर उसे जिलानेकी प्रार्थना की है।’ युधिष्ठिरकी बुद्धिमत्ता तथा धर्मज्ञताकी परीक्षाके लिये स्वयं धर्मने ही यह लीला की थी। इनकी इस अद्भुत समताको देखकर वे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने अपना परिचय देकर चारों भाइयोंको जीवित कर दिया। धर्मने इन्हें यह भी कहा कि ‘मैं ही मृग बनकर उस ब्राह्मणके मन्थनकाष्ठको ले गया था; लो, यह मन्थनकाष्ठ तुम्हारे सामने है। युधिष्ठिरने वह मन्थनकाष्ठ उस ब्राह्मणको ले जाकर दे दिया।

युधिष्ठिर जैसे सदाचार-सम्पन्न थे वैसे ही विनयी भी थे। ये समयोचित व्यवहारमें बड़े कुशल थे, गुरुजनोंकी मान-मर्यादाका सदा ध्यान रखते थे। कठिन-से-कठिन समयमें भी ये शिष्टाचारकी मर्यादाको नहीं भूलते थे। महाभारत-युद्धके आरम्भमें जब दोनों ओरकी सेनाएँ युद्धके लिये सन्नद्ध खड़ी थीं, उस समय इन्होंने सबसे पहले शत्रुसेनाके बीचमें जाकर पितामह भीष्म, आचार्य द्रोण एवं कृपाचार्य तथा मामा शल्यके चरणोंमें प्रणाम किया और आशीर्वाद माँगा। इनके इस विनयपूर्ण एवं शिष्टजनोचित व्यवहारसे वे सभी गुरुजन बड़े प्रसन्न हुए और इनकी हृदयसे विजय-कामना की। चारोंने ही अन्यायी कौरवोंकी ओरसे लड़नेके लिये बाध्य होनेपर खेद प्रकट किया और इसे अपनी कमजोरी बतलायी। स्वयं भगवान् श्रीकृष्णने, युधिष्ठिरके इस आदर्श व्यवहारका अनुमोदन किया।

युधिष्ठिरकी सत्यवादिता तो जगद्विख्यात थी। सभी जानते थे कि युधिष्ठिर भय अथवा लोभवश कभी असत्य नहीं बोलते। इनकी सत्यवादिताका ही यह फल था कि इनके रथके पहिये सदा पृथ्वीसे चार अंगुल ऊँचे रहा करते थे। जीवनमें केवल एक बार इन्होंने असत्यभाषण किया। द्रोणाचार्यके सामने अश्वत्थामा हाथीके मारे जानेके बहाने झूठ-मूठ यह कह दिये कि ‘अश्वत्थामा मारा गया।’ इसी एक बारकी सत्यच्युतिके फलस्वरूप इनके रथके पहिये पृथ्वीसे सटकर चलने लगे और इन्हें मुहूर्तभरके लिये कल्पित नरकका दृश्य भी देखना पड़ा।

युधिष्ठिरकी उदारता भी अलौकिक थी। जब कौरवोंने किसी प्रकार भी इनका राज्य लौटाना स्वीकार नहीं किया तब इन्होंने केवल पाँच गाँव लेकर संतोष करना स्वीकार कर लिया और भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा दुर्योधनको यह कहला भेजा कि ‘यदि वह हमें हमारे इच्छानुसार केवल पाँच गाँव देना स्वीकार कर ले तो हम युद्ध नहीं करेंगे।’ परन्तु दुर्योधनने इन्हें सूईकी नोकके बराबर जमीन देना भी स्वीकार नहीं किया। तब इन्हें बाध्य होकर युद्ध छेड़ना पड़ा। इतना ही नहीं, जब दुर्योधनकी सारी सेना मर-खप गयी और वह स्वयं एक तालाबमें जाकर छिप रहा, उस समय इन्होंने उसके पास जाकर उसे अन्तिम बार युद्धके लिये ललकारते हुए यहाँतक कह दिया कि ‘हममेंसे जिस-किसीके साथ तुम युद्ध कर सकते हो। हममेंसे किसी एकपर भी तुम द्वन्द्वयुद्धमें विजय पा लोगे तो सारा राज्य तुम्हारा हो जायगा।’ भला, इस प्रकारकी शर्त कोई दूसरा कर सकता है? जिस दुर्योधनका गदायुद्धमें भीमसेन भी, जो पाण्डवोंमें सबसे अधिक बलवान् एवं गदायुद्धमें प्रवीण थे, मुकाबला करते हिचकते थे, उसके साथ यह शर्त कर लेना कि ‘हममेंसे किसी एकको तुम हरा दोगे तो राज्य तुम्हारा हो जायगा’ युधिष्ठिर-जैसे महानुभावका ही काम था। अन्तमें भीमसेनके साथ उसका युद्ध होना निश्चित हुआ और भीमसेनके द्वारा वह मारा गया।

इतना ही नहीं, युद्ध-समाप्तिके बाद जब युधिष्ठिरका राज्याभिषेक हो गया और धृतराष्ट्र-गान्धारी इन्हींके पास रहने लगे, उस समय इन्होंने दोनोंको इतना सुख पहुँचाया, जितना उन्हें अपने पुत्रोंसे भी नहीं मिला था। ये सारा राज-काज उन्हींसे पूछ-पूछकर करते थे और राज-काज करते हुए भी उनकी सेवाके लिये बराबर समय निकाला करते थे। इनकी माता कुन्ती, सम्राज्ञी द्रौपदी तथा अपनी अन्य बहुओंके साथ देवी गान्धारीकी सेवा किया करती थीं। ये इस बातका सदा ध्यान रखते थे कि उनके सामने कभी कोई ऐसी बात न हो जिससे उनका पुत्र-शोक उमड़ पड़े। अन्तमें जब धृतराष्ट्र और गान्धारीने अपनी शेष आयु वनमें बितानेका निश्चय किया, उस समय युधिष्ठिरको बड़ा दु:ख हुआ और ये स्वयं उनके साथ वन जानेको तैयार हो गये। बड़ी कठिनतासे व्यासजीने आकर इन्हें समझाया, तब कहीं ये धृतराष्ट्र-गान्धारीको वन भेजनेपर राजी हुए। फिर भी कुन्तीदेवी तो अपने जेठ-जेठानीके साथ ही गयीं और अन्त समयतक उनकी सेवामें रहीं एवं उनके साथ ही प्राण-त्याग भी किया। वन जानेसे पहले धृतराष्ट्रने अपने मृत पुत्रों तथा अन्य सम्बन्धियोंका विधिपूर्वक अन्तिम बार श्राद्ध करना चाहा और उन्हींके कल्याणके लिये ब्राह्मणोंको अपरिमित दान देना चाहा। युधिष्ठिरको जब इनकी इच्छा मालूम हुई तो इन्होंने विदुरजीके द्वारा यह कहलाया कि ‘अर्जुनसहित मेरा प्राणपर्यन्त सर्वस्व आपके अर्पण है।’ एवं उनकी इच्छासे भी अधिक खुले-हाथों खर्च करनेका प्रबन्ध कर दिया। फिर तो धृतराष्ट्रने बड़े विधि-विधानसे अपने सम्बन्धियोंका श्राद्ध किया और ब्राह्मणोंको भरपूर दान दिया। उस समय महाराज युधिष्ठिरने धृतराष्ट्रके आज्ञानुसार धन और रत्नोंकी नदी-सी बहा दी। जिसके लिये सौकी आज्ञा हुई, उसे हजार दिया गया। जब धृतराष्ट्र-गान्धारी वनको जाने लगे, उस समय अपनी रानियोंके साथ पैदल ही बड़ी दूरतक उन्हें पहुँचाने गये। जिन धृतराष्ट्रके कारण पाण्डवोंको भारी-भारी विपत्तियोंका सामना करना पड़ा, जिनके कारण उन्हें अपने पैतृक अधिकारसे वंचित रहना पड़ा और कितनी बार वनवासके कष्ट उठाने पड़े, जिनकी उपस्थितिमें उनके पुत्रोंने सती-शिरोमणि द्रौपदीका भरी सभामें घोर अपमान किया और जिन्होंने उन्हें दर-दरका भिखारी बना दिया और पाँच गाँवतक देना स्वीकार नहीं किया—जिसके फलस्वरूप दोनों ओरसे इतना भीषण नर-संहार हुआ—उन्हीं धृतराष्ट्रके प्रति इतना निश्छल प्रेमभाव रखना और अन्ततक उन्हें सुख पहुँचानेकी पूरी चेष्टा करना युधिष्ठिर-जैसी महान् आत्माका ही काम था। वैरीके प्रति ऐसा सद्‍व्यवहार जगत् के इतिहासमें कम ही देखनेको मिलेगा।

महाराज युधिष्ठिरकी शरणागतवत्सलता तथा प्रेम तो और भी विलक्षण था। भगवान् श्रीकृष्णके परमधामगमन तथा यादवोंके संहारकी बात जब इन्होंने सुनी तो इन्हें बड़ा दु:ख हुआ। इन्होंने सोचा कि ‘जब हमारे परम आत्मीय तथा हितैषी वे श्रीकृष्ण ही इस धरातलपर न रहे, जिनकी कृपासे हमने सब कुछ पाया था, तब फिर हमारे लिये यह राज्यसुख किस कामका और इस जीवनको ही रखनेसे क्या प्रयोजन। श्रीकृष्णकी बात तो अलग रही, वे तो पाण्डवोंके जीवनप्राण एवं सर्वस्व ही थे। उनके ऊपर तो इनका सब कुछ निर्भर था। कौरवोंके विनाशपर भी इन्हें इतना दु:ख हुआ था कि विजय तथा राज्य प्राप्तिके प्रसंगमें हर्ष मनानेके बदले ये सब कुछ छोड़कर वन जानेको तैयार हो गये थे। बड़ी कठिनतासे भगवान् श्रीकृष्ण तथा महर्षि व्यास आदिने इन्हें समझा-बुझाकर राज्याभिषेकके लिये तैयार किया था। भीष्मपितामहने भी धर्मका उपदेश देकर इनका शोक दूर करनेकी चेष्टा की, तथा भीष्मजीकी आज्ञा मानकर इन्होंने राज्य भी किया; परन्तु स्वजनवधसे होनेवाली ग्लानि इनके चित्तसे कभी दूर नहीं हुई। अब श्रीकृष्णके परमधामगमनकी बात सुनकर तो इन्होंने वन जानेका दृढ़ निश्चय कर लिया और अर्जुनके पौत्र कुमार परीक्षित् को राजगद्दीपर बिठाकर तथा कृपाचार्य एवं धृतराष्ट्रपुत्र युयुत्सुको उनकी देख-भालमें नियुक्त कर ये अपने चारों भाइयों तथा द्रौपदीको साथ लेकर हस्तिनापुरसे चल पड़े। पृथ्वी-प्रदक्षिणाके उद्देश्यसे कई देशोंमें घूमते हुए ये हिमालयको पारकर मेरुपर्वतकी ओर बढ़ रहे थे। रास्तेमें देवी द्रौपदी तथा इनके चारों भाई एक-एक करके क्रमश: गिरते गये। उनके गिरनेकी भी परवा न कर युधिष्ठिर आगे बढ़ते ही गये। इतनेमें ही स्वयं देवराज इन्द्र रथपर चढ़कर इन्हें लेनेके लिये आये और रथपर चढ़ जानेको कहा। युधिष्ठिरने अपने भाइयों तथा पतिप्राणा देवी द्रौपदीके बिना अकेले रथपर बैठना स्वीकार नहीं किया। इन्द्रके यह विश्वास दिलानेपर कि ‘वे लोग तुमसे पहले ही स्वर्गमें पहुँच चुके हैं, इन्होंने रथपर चढ़ना स्वीकार किया। परन्तु इनके साथ एक कुत्ता भी था, जो आरम्भसे ही इनके साथ चल रहा था। युधिष्ठिरने चाहा कि वह कुत्ता भी उनके साथ चले। इन्द्रके आपत्ति करनेपर इन्होंने उनसे स्पष्ट कह दिया कि ‘इस स्वामिभक्त कुत्तेको छोड़कर मैं अकेला स्वर्ग जानेके लिये तैयार नहीं हूँ।’ यह कुत्ता और कोई नहीं था, स्वयं धर्म ही युधिष्ठिरकी परीक्षाके लिये उनके साथ हो लिये थे। युधिष्ठिरकी इस अनुपम शरणागतवत्सलताको देखकर वे अपने असली रूपमें प्रकट हो गये और युधिष्ठिरको रथमें बिठाकर इन्द्र एवं अन्य देवताओं तथा देवर्षियोंके साथ ऊपरके लोकोंमें चले गये। उस समय देवर्षि नारदने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि ‘महाराज युधिष्ठिरसे पहले कोई भौतिक शरीरसे स्वर्ग गया हो, ऐसा सुननेमें नहीं आया।’ फिर भी देवराज इन्द्रसे युधिष्ठिरने यही कहा कि ‘जहाँ मेरे भाई-बन्धु तथा देवी द्रौपदी हों, वहीं मुझे ले चलिये; वहीं जानेपर मुझे शान्ति मिलेगी, अन्यत्र नहीं। जहाँ मेरे भाई नहीं हैं, वह स्वर्ग भी मेरे किस कामका’ धन्य बन्धु प्रेम!

इस प्रकार युधिष्ठिरकी प्रबल इच्छा जानकर देवताओंने इन्हें भाइयोंको दिखानेके लिये देवदूतको साथ भेजा। आगे जाकर जब देवराज इन्द्रकी मायासे इन्हें नरकका दृश्य दिखाई पड़ा और वहाँ इन्होंने अपने भाइयोंके कराहने एवं रोनेकी आवाज सुनी, साथ ही इन्होंने लोगोंको यह कहते भी सुना कि ‘महाराज! थोड़ा रुक जाइये, आपके यहाँ रहनेसे हमें नरककी पीड़ा नहीं सताती’, तब तो ये वहीं रुक गये और जो देवदूत इन्हें वहाँ ले गया था, उससे इन्होंने कहा कि ‘हम तो यहीं रहेंगे; जब हमारे रहनेसे यहाँके जीवोंको सुख मिलता है तो यह नरक ही हमारे लिये स्वर्गसे बढ़कर है।’ धन्य दयालुता!

थोड़ी ही देर बाद वह दृश्य गायब हो गया और वहाँ इन्द्र, धर्म आदि देवता आ पहुँचे। वे सब इनके इस सुन्दर भावसे बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने बतलाया कि ‘तुमने छलसे गुरु द्रोणाचार्यको उनके पुत्रकी मृत्युका विश्वास दिलाया था, इसीलिये तुम्हें छलसे नरकका दृश्य दिखाया गया था। तुम्हारे सब भाई दिव्यलोकमें पहुँच गये हैं।’ इसके बाद युधिष्ठिर भगवान् के परमधाममें गये और वहाँ इन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके उसी रूपमें दर्शन किये, जिस रूपमें वे पहले उन्हें मर्त्यलोकमें देखते आये थे। वहीं उन्होंने श्रीकृष्णकी परिचर्या करते हुए अर्जुनको भी देखा। देवी द्रौपदीको लक्ष्मीके रूपमें देखा तथा अपने भाइयोंको भी उन्होंने दूसरे-दूसरे स्थानोंमें देखा। अन्तमें वे अपने पिता धर्मके शरीरमें प्रविष्ट हो गये। इस प्रकार युधिष्ठिरने अपने धर्मके बलसे दुर्लभ गति पायी।

युधिष्ठिरकी पवित्रताका ऐसा अद्भुत प्रभाव था कि ये जहाँ भी जाते, वहाँका वातावरण अत्यन्त पवित्र हो जाता। जिस समय पाण्डव अज्ञातरूपसे राजा विराटके यहाँ रह रहे थे, उस समय कौरवोंने इनका पता लगाना चाहा। उसी प्रसंगमें भीष्मपितामहने, जो पाण्डवोंके प्रभावको भलीभाँति जानते थे, उन्हें बतलाया कि ‘राजा युधिष्ठिर जिस नगर या राष्ट्रमें होंगे वहाँकी जनता भी दानशील, प्रियवादिनी, जितेन्द्रिय और लज्जाशील होगी। जहाँ वे रहते होंगे वहाँके लोग संयमी, सत्यपरायण तथा धर्ममें तत्पर होंगे; उनमें ईर्ष्या, अभिमान, मत्सर आदि दोष नहीं होंगे। वहाँ हर समय वेद ध्वनि होती होगी, यज्ञ होते होंगे, ठीक समयपर वर्षा होती होगी, वहाँकी भूमि धन-धान्यपूर्ण तथा सब प्रकारके भयों एवं उपद्रवोंसे शून्य होगी, वहाँ गायें अधिक एवं हृष्ट-पुष्ट होंगी’—इत्यादि। यही नहीं, हम ऊपर देख चुके हैं कि इनकी सन्निधिसे नरकके प्राणियोंतकको सुख-शान्ति मिलती थी। राजा नहुषने जिन्हें महर्षि अगस्त्यके शापसे अजगरयोनि प्राप्त हुई थी और जिन्होंने उसी रूपमें भीमसेनको अपने चंगुलमें फँसा लिया था, युधिष्ठिरके दर्शन तथा उनके साथ सम्भाषण करनेमात्रसे अजगरकी योनिसे छूटकर पुन: स्वर्ग प्राप्त किया। ऐसे पुण्यश्लोक महाराज युधिष्ठिरके चरित्रका जितना भी हम मनन करेंगे, उतने ही पवित्र होंगे।

‘धर्मो विवर्धति युधिष्ठिरकीर्तनेन।’


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur