Seeker of Truth

धर्म-तत्त्व

धर्मका तत्त्व बहुत ही गहन है। धर्म शब्द ‘धृ’ धातुसे बनता है, जिसका अर्थ यह है कि समस्त ब्रह्माण्डको जो धारण करता है वह धर्म है।

धारणाद् धर्ममित्याहुर्धर्मेण विधृता: प्रजा:।
य: स्याद् धारणसंयुक्त: स धर्म इति निश्चय:॥
(महाभारत०, शान्ति० १०९। ११)

‘धर्म धारण करता है इसलिये उसे धर्म कहा गया है। धर्म प्रजाको धारण करता है। जो धारण करनेकी योग्यता रखता है वही धर्म है।’ समस्त विश्वको धारण करनेवाला है सर्वशक्तिमान् भगवान् का परमसमर्थ न्याय या कानून। उस न्याय या कानूनको मानकर उसके अनुसार चलना ही धर्मका आचरण करना है। यह धर्म ऐसा है जो इहलोक और परलोक दोनोंमें कल्याण करता है, इसीसे वैशेषिक दर्शनके रचयिता महर्षि कणाद धर्मका लक्षण करते हुए कहते हैं—

यतोऽभ्युदयनि:श्रेयससिद्धि: स धर्म:।
(१। २)

‘जिससे इस लोकमें अभ्युदय हो और परमकल्याणरूप मोक्षकी प्राप्ति हो, वही धर्म है।’

जैसे ईश्वर अनादि हैं वैसे ही यह ईश्वरीय न्याय भी अनादि है, इसीसे इसको सनातन कहते हैं। सृष्टि, पालन और संहार आदि जितने भी स्वाभाविक कर्म विश्वमें होते हैं, सब ईश्वरके कानूनसे ही होते हैं। सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, पृथ्वी, वायु, अग्नि, समुद्र आदि जितने भी प्राकृत पदार्थ हैं, सब ईश्वरीय कानूनमें बँधे हुए ठीक नियमसे चलते हैं। ईश्वरके कानूनके अनुसार चलनेवाला संसारमें सुखी होता है और अन्तमें मुक्त हो जाता है; किन्तु जो इसका विरोध करता है वह टकराकर गिर जाता है, दु:खी होता है और अन्तमें बुरी गतिको प्राप्त होता है। जैसे रेलका सामना करनेवाला टकराकर कट जाता है परन्तु उसके अनुकूल चलनेवाला या उसपर सवार होकर चलनेवाला सुखपूर्वक अपने गन्तव्य स्थानपर पहुँच जाता है, वैसे ही धर्मके विरुद्ध आचरण करनेवाला नष्ट हो जाता है और अनुकूल आचरण करनेवाला सुखपूर्वक जीवननिर्वाह करके परमात्माको प्राप्त हो जाता है। सच्चे सुख और परम शान्ति प्राप्त करनेका प्रधान साधन ईश्वरीय कानून यानी धर्मके अनुकूल आचरण करना ही है।

प्रकृतिके कार्यरूप पृथ्वी, वायु आदि जितने दृष्ट पदार्थ हैं वे तो सब बिना किसी हेर-फेरके ईश्वरीय कानूनके अनुसार ही चलते हैं। नियमका कभी उल्लंघन नहीं करते। रही चेतनकी बात। चेतनके हम दो भेद कर सकते हैं—१-मनुष्य और २-पशु-पक्षी, कीट-पतंगादि जीव। इनमें पशु-पक्षी आदिमें ज्ञानका अभाव होनेसे वे ईश्वरीय कानूनका समझ-सोचकर पालन नहीं कर सकते, (जो कुछ स्वाभाविक है उसे तो वे भी करते ही हैं) साथ ही ज्ञान न होनेसे उनपर उतना दायित्व भी नहीं है, इसीलिये नियम पालन न करनेसे उन्हें भविष्यमें कोई दण्ड भी नहीं मिलता और न उनका परम कल्याण ही होता है। कर्तव्यपालनका जैसा ज्ञान मनुष्यमें है, वैसा उनमें न होनेसे न उन्हें लाभ ही होता है और न विशेष हानि ही होती है। वे कर्मानुसार अपना जड जीवन बिताते हैं। इसीसे ईश्वरीय कानून उनपर लागू नहीं है, मनुष्यपर लागू है, क्योंकि मनुष्यमें ही इन सब बातोंको समझनेकी योग्यता है। ईश्वरकी रचना ही ऐसी पूर्ण और कौशलयुक्त है कि कौन वस्तु किसके लिये उपयोगी है, इसका पता उसकी रचनापर विचार करनेसे अपने-आप ही लग जाता है। बाघके नख, दाँत आदि देखनेसे पता लगता है कि उसके लिये मांसाहार उपयोगी है, वह घास नहीं खा सकता, खायेगा तो जीयेगा नहीं। इसी प्रकार बंदरके हाथ, पैर, दाँत देखनेसे मालूम होता है कि वह वनस्पति और फल-अन्नादि ही खा सकता है। बंदर मांस नहीं खा सकता, खायेगा तो वह उसके अनुकूल नहीं होगा। याद रखना चाहिये जो जिसके अनुकूल है वही उसके लिये ईश्वरीय कानून है, विपरीत ही विरुद्ध है। मनुष्यके भी हाथ, पैर और दाँत देखनेसे मालूम होता है कि इसका खाद्य मांस नहीं है किन्तु वह यदि मांसादि खाता है तो वह इस लोक और परलोक दोनोंमें ही अपना नुकसान करता है; क्योंकि उसमें विवेक है, इसलिये उसके दायित्वका क्षेत्र भी बहुत विस्तृत है। संसारमें जो चौरासी लाख प्रकारकी योनियाँ बतलायी गयी हैं, उन सबमें एक मनुष्य ही ऐसा है जिसमें सबके भरण-पोषण करने और सबको सुख पहुँचानेकी योग्यता है। उसकी रचनाका ढंग, बुद्धि, कौशल और कार्य देखनेसे यह स्पष्ट हो जाता है। गम्भीरताके साथ विवेकपूर्वक विचार करनेसे यही निर्णय होता है कि संसारकी सुव्यवस्था करने, सबको सुख पहुँचाने और ऐसा करते-करते परमात्माको प्राप्त कर लेनेके लिये ही मनुष्यकी रचना की गयी है और जिस कार्यके लिये वह बनाया गया है, उसे करना ही उसका कर्तव्य हो जाता है। एक वाक्यमें कहें तो प्राणिमात्रका हित करना ही मनुष्यका कर्तव्य है, उसके लिये यही ईश्वरीय कानून है या धर्म है और जो सबके हितमें रत रहेगा उसका अपना हित तो निश्चित ही है। अतएव विश्वके समस्त जीवोंको सुख-सुविधा पहुँचाना और उनके हितकी व्यवस्था करना ही मनुष्यका मनुष्यत्व है, इसीमें उसकी धार्मिकता है और ऐसा न करना या इसके विपरीत करना ही अधर्म है। अधर्म विनाशमें और लोक-परलोककी महान् हानिमें हेतु होता है। इसी बातको लक्ष्यमें रखकर तुलसीदासजीने कहा है—

परहित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

भगवान् ने कहा है—

तानहं द्विषत: क्रूरान् संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥
(गीता १६। १९-२०)

‘उन द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमोंको मैं संसारमें बार-बार आसुरी योनियोंमें ही डालता हूँ अर्थात् शूकर-कूकर आदि नीच योनियोंमें ही उत्पन्न करता हूँ। हे अर्जुन! जन्म-जन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त वे मूढ़ पुरुष मुझको न प्राप्त होकर, उससे भी अति नीच गतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं।’

जो दूसरोंके हितमें लगे रहते हैं उन्हें भगवान् की प्राप्ति होती है।

संनियम्येन्द्रियग्रामं सर्वत्र समबुद्धय:।
ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता १२। ४)

‘वे इन्द्रियोंके समुदायको भली प्रकार वशमें करके सबमें समान भाववाले योगी सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत हुए मुझको (भगवान् को) ही प्राप्त होते हैं।’

किसी भी सिद्धान्तको मानकर चलिये, परिणाम एक ही होगा, क्योंकि श्रीभगवान् एक ही हैं। वेदान्तके सिद्धान्तको सामने रखकर विचार कीजिये। वेदान्तका सिद्धान्त है कि ‘सब कुछ मेरा आत्मा ही है।’ इस सिद्धान्तके अनुसार किसीका भी नुकसान अपना ही नुकसान है। जैसे कोई अबोध बालक अज्ञानवश चाकूसे अपने हाथ-पैर काटता है या आगमें हाथ डालता है और उसके अंग कट जाते हैं या जल जाते हैं जिससे वह दु:खी होकर रोता है; वेदान्त-सिद्धान्तके अनुसार यही बात किसी दूसरेको कष्ट पहुँचानेमें है। दूसरेको कष्ट पहुँचाना अपने ही आत्माको कष्ट पहुँचाना है; क्योंकि अपने आत्माके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं।

यदि कहें कि ‘बालक जब अपना हाथ काटता या जलाता है तब वह तो प्रत्यक्षमें कट जाता है या जल जाता है परन्तु इसमें तो ऐसा नहीं दीखता। दूसरोंको होनेवाला कष्ट अपनेको ही होता है ऐसा तो बोध नहीं होता; बल्कि दूसरोंको तकलीफमें देखकर अपनेको आराम मालूम होता है।’ तो यह कहना ठीक नहीं है। जिसने वेदान्तके सिद्धान्तको भलीभाँति समझकर हृदयंगम कर लिया है और जो वास्तवमें सबको अपना आत्मा ही समझता है, उसको कैसा बोध होता है, वह अपने ही समान दूसरेके कष्टका अनुभव करता है या नहीं। इसका अनुभव अज्ञानकी स्थितिमें नहीं हो सकता। दूसरी बात यह है कि सभी कर्मोंका फल तत्काल ही हो जाय ऐसी बात नहीं है। किसी-किसी कर्मका फल उसी क्षण हो जाता है तो किसीका कालान्तरमें प्रकट होता है। लड्डू या दूधमें कोई विष मिलाकर खिला दिया जाय तो उसका फल कुछ देर बाद होता है। खाने-पीनेमें तो वे मीठे ही लगते हैं परन्तु मृत्यु विषका असर होनेपर दो-चार घंटे बाद होती है। इससे यह नहीं कहा जाता कि फल नहीं होता। विषका असर होनेपर जब वैद्य-डॉक्टर बुलाये जाते हैं तब वे परिणाम देखकर बतलाते हैं कि ‘इसने कैसे और कब कौन-सा विष खाया है, यह तो बिना जाँचके नहीं बतलाया जा सकता परन्तु विष अवश्य खाया है।’ आज संसारमें जो इतने मनुष्य नाना प्रकारके दु:खोंसे पीड़ित होकर आर्तनाद कर रहे हैं, यह उनके असत्कर्मोंका ही परिणाम है। वैद्य-डॉक्टरोंकी भाँति कर्मका रहस्य जाननेवाले महात्मा ज्ञानीजन भी यही बतला रहे हैं कि ‘इन्होंने कब कौन-से दुष्कर्म किये हैं यह तो पता नहीं परन्तु दुष्कर्म अवश्य किये हैं। दुष्कर्म न किये होते तो ऐसा परिणाम कदापि न होता!’

किसी भी प्राणीको जो सुख-दु:खकी प्राप्ति होती है वह उसकी अपनी ही की हुई क्रियाओंका परिणाम है। गम्भीरताके साथ विचार करनेपर यह सिद्ध हो जाता है कि मनुष्य यदि किसीको दु:ख दे रहा है तो वह वस्तुत: प्रकारान्तरसे अपनेको ही दे रहा है और यदि किसीको सुख पहुँचा रहा है तो वह भी अपनेको ही पहुँचा रहा है।

आत्मा वस्तुत: एक ही है; एक होनेपर भी जो विभिन्न दीख रही है इसमें अपना अज्ञान ही कारण है। एक मनुष्य स्वप्न देखता है—स्वप्नके पदार्थोंमें किसीमें उसकी अहंबुद्धि होती है, किसीमें पर-बुद्धि होती है, वह राग-द्वेषवश बातों-ही-बातोंमें लड़ पड़ता है, मार-पीट होती है, सुख-दु:खका भोग भी होता है। परन्तु जब आँखें खुल जाती हैं तब देखता है कि मेरे सिवा यहाँ दूसरा कोई था ही नहीं। स्वप्नकी सृष्टि मेरे अपने ही संकल्पसे हुई थी। मैं ही शत्रु बना था और मैं ही अपनेको मार रहा था और अपने अज्ञानसे आप ही सुखी-दु:खी हो रहा था। बस, यही बात यहाँ इस अज्ञाननिद्रामें है। अज्ञाननिद्रासे जागनेपर यह सिद्धान्त प्रत्यक्ष हो जाता है कि एक अनन्त आत्माके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं। ज्ञानियोंका यह प्रत्यक्ष अनुभव है और उनका अनुभव ही सर्वथा आदर करने और मानने योग्य है। यह तो अभेदके सिद्धान्तकी बात हुई। अब भेदके अर्थात् भक्तिके सिद्धान्तसे इसी बातको समझना है।

भक्तिके सिद्धान्तसे हम सम्पूर्ण प्राणी एक ही परमपिता परमेश्वरकी सन्तान हैं और इस नाते सभी परस्पर भाई-भाई हैं। जो पुरुष प्रत्येक जीवको अपना प्रिय भाई मानकर सबका हित चाहता हुआ सबके साथ यथायोग्य सद्‍व्यवहार करता है, परमपिता परमेश्वर स्वाभाविक ही उसपर प्रसन्न होते हैं और सारे भाई भी उससे प्यार करते हैं। जो पुरुष किसीको भी दु:ख नहीं देता उसे दूसरा कोई दु:ख कैसे दे सकता है; और देनेका कोई कारण भी नहीं है। यदि कोई मूर्खतावश दु:ख देना चाहता भी है तो दे नहीं सकता; क्योंकि सर्वसमर्थ परमदयालु पिता परमेश्वर सदैव उसकी रक्षा करनेको तैयार रहते हैं। जो मनुष्य यह समझता है कि सरकारके कानूनके अनुसार चलनेसे पुरस्कार और उसके विरुद्ध आचरण करनेसे दण्ड मिलता है, वह कानूनके विरुद्ध कभी नहीं चलता। फिर सरकारको तो लोग धोखा भी दे सकते हैं, छिपकर भी बच सकते हैं, उसके राज्यसे बाहर भी जा सकते हैं, झूठ बोलकर भी अपना बचाव कर सकते हैं, कहीं-कहीं रिश्वतसे भी काम निकल सकता है, इस प्रकार बचावके मार्ग मिल सकते हैं परन्तु सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी, सर्वशक्तिमान्, सर्वनियन्ता, सर्वज्ञ परमात्माके कानूनके विरुद्ध कार्य करके उपर्युक्त किसी भी उपायसे कभी कोई बच ही नहीं सकता। अतएव परमेश्वर और परमेश्वरके कानूनके प्रभावको जाननेवाला कोई भी पुरुष उनके विरुद्ध आचरण कभी कर ही नहीं सकता। उसकी सारी क्रियाएँ स्वाभाविक ही परमेश्वरके कानूनके अनुकूल ही होती हैं। उसके द्वारा किसी भी जड़-चेतन जीवका किसी कालमें किसी परिस्थितिमें किसी प्रकार भी अहित हो ही नहीं सकता। किसी हालतमें किसीका किसी प्रकारसे अहित करना ही ईश्वरके कानूनके विरुद्ध कार्य करना है। इसीका नाम अन्याय, अधर्म या पाप है। यह तो भक्तिसिद्धान्तकी बाहरी बात है। कुछ गहराईमें पैठनेपर तो इसमें बहुत ही अद्भुत रहस्य प्राप्त होता है। वास्तवमें हम विचार करके देखें तो ये सब चराचर प्राणी हमारे भाई नहीं हैं, इनके हृदयमें हमारे परम पूजनीय इष्टदेव परमेश्वर विराजमान हैं। वे ही इनके रूपमें प्रकट हो रहे हैं। इस नातेसे इन्हें सुख पहुँचाना परमेश्वरको सुख पहुँचाना है और इन्हें दु:ख देना परमेश्वरको दु:ख देना है। इसी भावसे प्रेरित होकर गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं—

सीय राममय सब जग जानी।
करउँ प्रनाम जोरि जुग पानी॥
सो अनन्य जाकें असि मति न टरइ हनुमंत।
मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत॥
उमा जे राम चरन रत बिगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं बिरोध॥

परमेश्वर ही सबकी उत्पत्ति, पालन और संहार करनेवाले हैं, वे ही सबके अंदर आत्मारूपसे विराजमान हैं। सारा जगत् उन्हींकी प्रकृतिका खेल है। वे सबमें सदा अनुस्यूत हैं। इस प्रकार जो मनुष्य परमात्माके रहस्यको और तत्त्वको जान लेता है वह भला उनके कानूनके विरुद्ध कैसे चल सकता है; वह तो उन परम दयालु, परम प्रेमी, परम सुहृद्, परम आत्मीय और परम उदार परमात्माकी दया, प्रेम और सुन्दरताको देख-देखकर अपनी निष्काम सेवाके द्वारा उन्हें आह्लादित और मुग्ध करता हुआ और उनकी प्रसन्नतासे ही अपनेको परम प्रसन्न और परम धन्य अनुभव करता हुआ नित्य आनन्द-सागरमें डूबा परम शान्तिमय जीवन बिताता है। उसको अपने इष्टदेवकी प्रसन्नतामें ही प्रसन्नता होती है, उसकी और कोई चाह होती ही नहीं। इस सिद्धान्तके अनुसार मनुष्य किसी भी जीवसे द्वेष तो कर ही नहीं सकता, वरं सबके साथ नित्य सुहृदताका व्यवहार करता हुआ भगवान् की प्रीति-सम्पादन करता रहता है। भगवान् ने स्वयं ऐसे भक्तोंके लक्षण बतलाते हुए कहा है—

अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्र: करुण एव च।
निर्ममो निरहंकार: समदु:खसुख: क्षमी॥
सन्तुष्ट: सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चय:।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्त: स मे प्रिय:॥
(गीता १२। १३-१४)

‘जो सब भूतोंमें द्वेषभावसे रहित, स्वार्थरहित सबका प्रेमी और हेतुरहित दयालु है; तथा ममतासे रहित और अहंकारसे रहित, सुख-दु:खोंकी प्राप्तिमें सम और क्षमावान् है अर्थात् अपराध करनेवालेको भी अभय देनेवाला है। तथा जो योगी निरन्तर सन्तुष्ट है तथा मन और इन्द्रियोंसहित शरीरको वशमें किये हुए है और मुझमें दृढ़ निश्चयवाला है वह मुझमें अर्पण किये हुए मन-बुद्धिवाला मेरा भक्त मुझको प्रिय है।’

इस सिद्धान्तके अनुसार भी सबको सुख पहुँचानेमें सुख होता है और सबके हितसाधनमें ही अपना हित निहित है। अतएव उपर्युक्त दोनों सिद्धान्तोंमेंसे किसीकी दृष्टिसे भी मनुष्यमात्रका यह परम कर्तव्य हो जाता है कि वह प्राणपणसे ऐसी ही चेष्टा करे जिसमें सब चराचर जीवोंका परम हित हो।

जो लोग इनमेंसे किसी भी सिद्धान्तको नहीं मानते और ईश्वर तथा पुनर्जन्मको भी नहीं मानते और जिनको लोग नास्तिक कहते हैं; उनके लिये भी विचार करनेपर यही उपयुक्त प्रतीत होता है कि वे भी दूसरोंका हित ही करें। वे चाहे इसे धर्मका स्वरूप न दें, परन्तु मनुष्यके नाते न्याय समझकर— कम-से-कम अपने सुख-साधनके लिये ही उनका यह कर्तव्य हो जाता है कि वे किसीको भी हानि न पहुँचाकर सबका हित करें। क्योंकि यह निर्विवाद बात है कि जो जैसा बर्ताव करता है, उसे बदलेमें प्राय: वैसा ही प्राप्त होता है। प्रेम करनेवालेको प्रेम मिलता है और द्वेष करनेवालेको द्वेष। मुझे तभी सुख-शान्ति मिलेगी जब मैं दूसरोंको सुख-शान्ति पहुँचानेकी चेष्टा करूँगा। आज यदि मैं किसीके अनिष्टकी चेष्टा करूँगा तो मौका मिलनेपर कल वह मेरे अनिष्टका प्रयत्न करेगा। परिणाम यह होगा कि उसको भी दु:ख होगा और मुझको भी। दोनोंकी ही मूर्खता समझी जायगी। इसके विरुद्ध यदि मैं आपका हित सोचूँगा तो आप मेरा हित सोचेंगे और ऐसा करनेसे परिणाममें दोनों ही सुखी होंगे। इस न्यायसे भी यह सिद्ध होता है कि दूसरोंके हितमें हमारा हित है और उनकी हानिमें ही अपनी हानि है। यह बात तो पशुओंमें भी देखी जाती है। एक गदहा दूसरे गदहेका बदन खुजलाकर उसे आराम पहुँचाता है तो दूसरा भी उसका खुजलाने लगता है। एक कुत्ता दूसरेको चाटता है, उसे प्यार करता है तो दूसरा भी बदलेमें वैसा ही करने लगता है। दुलत्तियाँ झाड़ने तथा भौंकनेवाले गदहे-कुत्तोंको बदलेमें दुलत्तियाँ और भौंक ही मिलती हैं। अपने ही व्यवहारसे परस्पर सुखी-दु:खी हुआ जा सकता है। इन सब बातोंको समझकर भी जो मनुष्य दूसरोंसे घृणा, द्वेष और वैर करता है अथवा उनके अनिष्टकी इच्छा करता है, वह मनुष्यत्वसे तो गिरा हुआ है ही, सच पूछिये तो पशुओंसे भी गया-गुजरा है।

यदि यह कहा जाय कि मनुष्योंको मनुष्योंसे ही परस्पर प्रेम करना चाहिये—अपने आरामके लिये पशु-पक्षी, कीट-पतंगोंको दु:ख पहुँचानेमें और इस प्रकार अपना स्वार्थ साधन करनेमें कोई हर्ज नहीं है, तो ऐसा कहना ठीक नहीं है। इस विषयपर जरा विचार करके देखिये। पशु-पक्षी, कीट-पतंगादि जीव बेचारे मनुष्यकी अपेक्षा दीन, निर्बल, अनाथ और असहाय हैं; मनुष्य अपने बुद्धिकौशलसे उनके प्राण हरण कर सकता है; क्योंकि वह उनसे अधिक साधनसम्पन्न है। परन्तु इससे हमें क्या यह नहीं समझ रखना चाहिये कि यदि हम बलवानोंको निर्बलोंपर अत्याचार करनेका अधिकार है तो हमसे जो अधिक बलवान् होंगे वे हमपर भी ऐसा ही अत्याचार करेंगे। जब हमें किसीके द्वारा सताये जानेपर दु:ख होता है तब हमें यह क्यों नहीं मानना चाहिये कि हमारे द्वारा सताये जानेपर उनको भी दु:ख होता होगा। यह याद रखना चाहिये कि आज हम जैसा बर्ताव करेंगे, कालान्तरमें हमें भी वैसे ही बर्तावकी प्राप्ति होगी। अनाथ जीवोंपर अत्याचार करनेवाला एक दिन निश्चय ही उसी प्रकारके अत्याचारोंका शिकार होगा। अन्यायकी जब प्रतिक्रिया होती है तब अन्याय करनेवालेको उसका प्रतिफल भोगना ही पड़ता है। निर्दोष पशु-पक्षी आदिको अपने स्वार्थके लिये मारना अन्याय नहीं है यह कहना बन नहीं सकता; क्योंकि हमें यदि कोई अपने स्वार्थसाधनके लिये मारना चाहता है तो हम उसे अन्याय कहते हैं। अतएव पशु-पक्षी आदि मूक प्राणियोंकी हिंसाका प्रचार करनेवालों और इसको न्याय बतलानेवालोंको यह निश्चय समझ रखना चाहिये कि एक दिन उन्हें भी दूसरे बलवानोंद्वारा इसी प्रकार अपना विनाश करवाना पड़ेगा। यह तो कोई कह ही नहीं सकता कि मैं सभी बातोंमें सबसे अधिक बलवान् और अजेय हूँ और मुझसे अधिक बलवान् और बुद्धिमान् कभी कोई दूसरा होगा ही नहीं। संसारमें एक-से-एक बढ़कर बलवान् और बुद्धिमान् देखनेमें आते हैं। अन्यायका फल तुरंत नहीं तो कुछ दिन बाद अवश्य ही मिलेगा। अन्यायकी शिक्षा एक दिन उस शिक्षा देनेवालेके सामने भीषण मृत्युके रूपमें आती है और तब उसे अपनी करनीपर पछताना पड़ता है। दीन और असहायका अहित या वध करना तो सरासर अन्याय है। जो मनुष्य ईश्वर और धर्मको नहीं मानते, उनको अपने हितके खयालसे इस न्यायकी ओर ध्यान देना चाहिये। सबलके द्वारा निर्बलका और बुद्धिमान्के द्वारा मूर्खका नष्ट कर दिया जाना क्या न्याय है? ऐसा करना क्या मनुष्यत्व है?

एक बात और है, गम्भीर विचार करके देखनेसे यह भी सिद्ध हो जाता है कि गरीब, असहाय मूक पशु-पक्षियोंको मारनेमें अज्ञानसे जो क्षणिक सुख होता है, उनको पालनेसे उससे लाखोंगुना अधिक सुख हो सकता है। सोनेकी बीट देनेवाले पक्षीका सोनेके लोभसे मार डालनेपर सम्भव है तोला-आधतोला सोना मिल जाय परन्तु यदि उसे न मारकर उसका पालन किया जाय तो वह जबतक जीता रहेगा तबतक उससे रोज सोना मिल सकता है। इसी प्रकारकी बात पशु-पक्षियोंके मारने और पालनेके सम्बन्धमें समझनी चाहिये। मनुष्यकी तो रचना ही की गयी है इन सब जीवोंके यथायोग्य पालन और संरक्षणके लिये। वही यदि इन्हें मारनेपर उतारू हो जायगा तो फिर इनको कौन पालेगा और यह कैसे जी सकेंगे! यदि सभी मनुष्य इन दीन जीवोंको मारनेपर तुल जायँ और थोड़ी देरके लिये मान लें, सबको मार डालें और उसीमें सुखका अनुभव करें तो फिर सदाके लिये इन जीवोंके द्वारा होनेवाले सुखसे हाथ धो बैठें! एक बात और है—यदि पशु-पक्षियोंका विनाश हो जाय तो मनुष्यका जीवन भी नहीं रह सकता। विचार करनेपर यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पृथ्वीमें पशु-पक्षी और कीट-पतंगादिकी तो बात ही क्या है, पहाड़, नदी, वृक्ष, लता और अंकुरादि सभी अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार एक-दूसरेका सदा उपकार करते हैं। जलके जीव जलकी गंदगीको भक्षणकर उसको स्वच्छ और निर्मल बनाते हैं, साँप और अजगर जहरीली हवाको पीकर वायुको पवित्र करते हैं, वृक्ष-लतादि फल-पुष्पादिके द्वारा सबका उपकार करते और वर्षा बरसानेमें मदद पहुँचाते हैं। परमात्माकी सृष्टिमें जड-चेतन सभी अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार परस्पर सबका उपकार-साधन कर रहे हैं। इसलिये सबकी यथायोग्य उन्नतिमें ही अपनी उन्नति है और विनाशमें ही अपना विनाश है। इन्हीं सब बातोंको ध्यानमें रखकर दीर्घदर्शी सर्वज्ञ महात्मा ऋषियोंने वेदके आधारपर कर्तव्यका निर्धारण करनेवाले स्मृति, इतिहास और पुराणादि शास्त्रोंकी रचना करके हमलोगोंका परम हित किया है। हमें उनकी शिक्षापर श्रद्धापूर्वक ध्यान देना और उनका पालन करना चाहिये। श्रुति और स्मृतिमें बतलाये हुए धर्मको और सदाचारी महात्माओंके आचरणको आदर्श मानकर तथा अपने आत्माके अनुकूल जानकर यानी अपनी बुद्धिसे परिणाममें हितकर सोचकर उसका आचरण करना चाहिये। मनु महाराज ऐसा ही कहते हैं—

वेद: स्मृति: सदाचार: स्वस्य च प्रियमात्मन:।
एतच्चतुर्विधं प्राहु: साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥
(मनु० २। १२)

‘वेद, स्मृति, सत्पुरुषोंका आचार तथा जिसके आचरणसे अपना हित और मन प्रसन्न हो वह, इस तरह चार प्रकारका यह धर्मका साक्षात् लक्षण कहा गया है।’

महात्माओंके द्वारा रचित संसारमें जितने भी धर्मग्रन्थ हैं, सभीको उन लोगोंने इहलोक और परलोकका हित सोचकर ही बनाया है। देश, काल, बुद्धि, परिस्थिति और स्वभावकी विभिन्नताके कारण मत-मतान्तरोंमें विभिन्नता आ गयी है। उद्देश्य प्राय: सबका यह एक ही है—‘वर्तमानमें और भविष्यमें सबका हित हो!’

हमारे ऋषियोंने मनुष्यकी प्रत्येक चेष्टाको धर्मके साथ इसीलिये जोड़ दिया है जिससे श्रद्धा और प्रेमपूर्वक उसका पालन हो। क्योंकि मनुष्यमात्र अपना हित चाहते हैं और वर्तमान तथा भविष्यमें जो हितकर हो वही वस्तुत: कर्तव्य, न्याय या धर्म है। धर्मके अनुकूल चलनेमें ही मनुष्यका मनुष्यत्व, उत्थान और परम लाभ है और प्रतिकूल चलनेमें ही मनुष्यत्वसे पतन, अवनति और महान् हानि है। यह स्मरण रखना चाहिये कि जबतक संसार है, तबतक ईश्वरका कानून या धर्म उसके साथ अनिवार्यरूपसे रहता है। इसके बिना कोई जीवित ही नहीं रह सकता। ईश्वरीय कानून या न्यायका कोई कितना ही विरोध करे उसका कभी विनाश नहीं हो सकता और यथार्थमें सत्य भी वही है जो अविनाशी हो। ईश्वरका यह न्याय ही सत्य है। मनुष्य यदि न्यायका अनुसरण नहीं करता तो इससे न्यायका नाश नहीं होता, वरं उस अनुसरण न करनेवालेका ही पतन या विनाश हो जाता है। महाप्रलयके समय जब सारी सृष्टि प्रकृतिमें विलीन हो जाती है, ईश्वरीय कानून (धर्म या न्याय) तब भी बना ही रहता है; क्योंकि सृष्टिका प्रकृतिमें विलीन होना, उसमें रहना और फिर प्रकट होना—यह भी तो ईश्वरीय कानूनके ही अन्तर्गत है। अतएव जो पुरुष परमेश्वरके और परमेश्वरके कानूनके तत्त्व, रहस्य, प्रभाव और महत्त्वको समझ जाता है, वह उस कानूनका पालन करके प्रत्यक्षमें सुख-शान्तिको प्राप्त होता है और अन्तमें उसे परमानन्द और परम शान्तिकी प्राप्ति होती है। जो कोई भी इसके तत्त्वको जानेगा वही इसका पालन करेगा और जो जितना पालन करेगा, उतना ही वह अधिकाधिक तत्त्वको जानता रहेगा। संसारमें सभी मनुष्य सुख-शान्ति चाहते हैं परन्तु उन्हें सुख-शान्तिकी प्राप्ति नहीं होती वरं वे सदा दु:ख और अशान्तिका ही अनुभव करते हैं, इसमें प्रधान कारण परमेश्वरके और उनके कानूनके तत्त्व, प्रभाव, रहस्य और महत्त्वका न जानना ही है। न जाननेके कारण ही इसमें उनकी रुचि और श्रद्धा नहीं है। इसीसे वे इसका पालन न करके विपरीत आचरण करते हैं और परिणाममें महान् दु:खोंसे दबे हुए सदा संसारमें भटकते रहते हैं। जबतक विपरीत आचरण करेंगे तबतक भटकना छूटेगा भी नहीं। अतएव जो बुद्धिमान् पुरुष अपना परमकल्याण चाहते हैं उनको उचित है कि वे ईश्वरीय कानून या धर्मके पालनको अपना परम कर्तव्य समझें और पूरी तत्परताके साथ धर्मका पालन करें।


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur