दीपावलीपर चेतावनी
दीपावली आ गयी है। इस अवसरपर हमलोग उत्सव मनाया करते हैं तथा श्रीलक्ष्मीनारायणजीका पूजन किया करते हैं। हमलोगोंके लिये यह एक बड़ा ही शुभ पर्व है; इसलिये शास्त्रविधिके अनुसार श्रद्धाप्रेमपूर्वक निष्कामभावसे बड़े ही आनन्द और उल्लासके साथ पूजनादि कृत्य सम्पादन करते हुए इस महोत्सवको मनाना चाहिये। परंतु यह महोत्सव पूर्णतया तो तभी सफल हो सकता है, जब कि हम अपने परमावश्यक आत्मकल्याणके महत् कार्यको सिद्ध कर लें। प्रतिवर्ष दीपावली आती है और हमारी सीमित आयुमेंसे एक वर्ष निकल जाता है। इसी तरह एक-एक करके हमारे जीवनके बहुत-से वर्ष बीत चुके हैं और कोई भी व्यक्ति यह नहीं कह सकता कि आगामी दीपावलीतक हम जीवित रहेंगे या नहीं। अत: इसी वर्षकी दीपावलीसे हमें बुद्धिमानीके साथ लाभ उठाना चाहिये। वह लाभ यही है कि जिस कामके लिये हमें यह मानव-देह प्राप्त हुआ है, उसे अतिशीघ्र ही सिद्ध कर लें। दीपावलीकी ज्योति हमें यह चेतावनी दे रही है कि जिस प्रकार बाहर दीपपंक्तिकी ज्योति फैल रही है, इसी प्रकार अन्त:करणमें ज्ञानरूपी ज्योतिकी आवश्यकता है। जैसे बाहरकी इस ज्योतिसे बाह्य अन्धकार दूर होता है, ऐसे ही अन्त:करणकी ज्योतिसे आन्तरिक अज्ञान नष्ट होकर परमात्माका ज्ञान हो जाता है। अत: हृदयस्थ अज्ञानके नाशके लिये भीतरकी ज्योति जगानी चाहिये। असलमें तो बाहर और भीतर दोनों ओरको प्रकाशित करनेवाली ऐसी ज्योति चाहिये—जो निर्मल हो, जलानेवाली न हो, बुझनेवाली न हो, नित्य प्रकाशरूप हो और वस्तुका असली स्वरूप दिखला दे। ऐसी ज्योति है—‘भक्तिपूर्वक भगवान् का नित्य स्मरण।’
श्रीतुलसीदासजीने कहा है—
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर॥
हमें अपनी अयोग्यता तथा दुर्बलताको देखकर कभी निराश नहीं होना चाहिये। इस कार्यमें दयामय भगवान् हमें पूर्ण सहायता देनेको तैयार हैं। वे हमें आश्वासन दे रहे हैं—
तेषामेवानुकम्पार्थमहमज्ञानजं तम:।
नाशयाम्यात्मभावस्थो ज्ञानदीपेन भास्वता॥
(गीता १०। ११)
‘हे अर्जुन! उनके ऊपर अनुग्रह करनेके लिये उनके अन्त:करणमें स्थित हुआ मैं स्वयं ही उनके अज्ञानजनित अन्धकारको प्रकाशमय तत्त्वज्ञानरूप दीपकके द्वारा नष्ट कर देता हूँ।’
बस, हमें तो केवल भगवान् के इस अनुग्रहको प्राप्त करना है। इसे प्राप्त करनेका सर्वोत्तम और सबसे सरल उपाय है—भगवान् की अनन्य भक्ति; जिसका उल्लेख भगवान् ने स्वयं गीतामें कर दिया है। भगवान् कहते हैं—
मच्चित्ता मद्गतप्राणा बोधयन्त: परस्परम्।
कथयन्तश्च मां नित्यं तुष्यन्ति च रमन्ति च॥
तेषां सततयुक्तानां भजतां प्रीतिपूर्वकम्।
ददामि बुद्धियोगं तं येन मामुपयान्ति ते॥
(गीता १०। ९-१०)
‘निरन्तर मुझमें मन लगानेवाले और मुझमें ही प्राणोंको अर्पण करनेवाले भक्तजन सदा ही मेरी भक्तिकी चर्चाके द्वारा आपसमें मेरे प्रभावको जनाते हुए तथा गुण और प्रभावसहित मेरा कथन करते हुए ही संतुष्ट होते हैं और मुझ वासुदेवमें ही निरन्तर रमण करते हैं। उन निरन्तर मेरे ध्यानमें लगे हुए प्रेमपूर्वक भजनेवाले भक्तोंको मैं वह तत्त्वज्ञानरूप योग देता हूँ जिससे वे मुझको ही प्राप्त हो जाते हैं।’ इन दोनों श्लोकोंमें भगवान् ने अपने परम बुद्धिमान् अनन्यप्रेमी भक्तोंके भजनका प्रकार बतलाकर अपनी प्राप्तिके लिये भक्तिरूप परम साधनके सरलतम उपायोंका दिग्दर्शन कराया है। इनका आशय यह है कि वे प्रेमी भक्त भगवान् को ही अपना परम प्रेमास्पद, परम सुहृद् और परम आत्मीय समझकर अपने चित्तको अनन्यभावसे उन्हींमें लगा देते हैं, भगवान् के सिवा किसी भी वस्तुमें उनकी प्रीति, आसक्ति या रमणीय बुद्धि नहीं रहती; वे सदा-सर्वदा भगवान् के नाम, रूप, लीला, धाम और गुण-प्रभावका चिन्तन करते रहते हैं—शास्त्रविधिके अनुसार समस्त कर्म करते हुए, उठते-बैठते, सोते-जागते, चलते-फिरते, खाते-पीते—सभी समय व्यवहारकालमें और एकान्त साधनकालमें भी कभी क्षणमात्र भी भगवान् को नहीं भूलते; उनका जीवन भगवदर्पित होता है और इसलिये उनकी इन्द्रियोंकी सम्पूर्ण चेष्टाएँ केवल भगवान् के लिये ही होती हैं, उनको क्षणमात्रके लिये भी भगवान् का वियोग असह्य हो जाता है।
तदर्पिताखिलाचारिता तद्विस्मरणे परमव्याकुलता।
(नारदभक्तिसूत्र १९)
वे भगवान् के लिये ही प्राण धारण करते हैं; उनका खाने-पीने, चलने-फिरने, सोने-जागने आदि किसी भी क्रियामें अपना कोई प्रयोजन ही नहीं रह जाता, वे जो कुछ भी करते हैं, सब भगवान् के लिये ही। वे भगवान् में श्रद्धा-भक्ति रखनेवाले प्रेमी भक्तोंके बीच परस्पर भगवान् का बोध करानेके उद्देश्यसे अपने-अपने अनुभवके अनुसार भगवान् के गुण, प्रभाव, तत्त्व, रहस्य और लीला-माहात्म्यको समझते-समझाते हुए श्रद्धा-प्रीतिपूर्वक भगवद्विषयका ही कथन करते रहते हैं; एवं इस प्रकार प्रत्येक क्रियामें निरन्तर परम आनन्दका अनुभव करके नित्य सन्तुष्ट रहते हैं; उन्हें भगवद्विषयकी बातोंके श्रवण, मनन, कीर्तन और पठन-पाठनसे ही परम शान्ति, आनन्द और सन्तोष प्राप्त होता है, सांसारिक वस्तुओंसे उनके आनन्द और सन्तोषका कुछ भी सम्बन्ध नहीं रह जाता; और वे भगवान् के नाम, गुण, प्रभाव, लीला, स्वरूप, तत्त्व और रहस्यका यथायोग्य श्रवण, मनन और कीर्तन करते हुए एवं उनकी रुचि, आज्ञा और संकेतके अनुसार केवल उनमें प्रेम होनेके लिये ही प्रत्येक क्रिया करते हुए, मनके द्वारा उनको सदा-सर्वदा प्रत्यक्षवत् अपने समीप समझकर निरन्तर प्रीतिपूर्वक उनके दर्शन, स्पर्श और उनके साथ वार्तालाप आदि क्रीड़ा करते हुए उन्हींमें निरन्तर रमण करते रहते हैं। वे भक्त विषयभोगोंकी कामनाके लिये भगवान् को नहीं भजते, अपितु किसी प्रकारका भी फल न चाहकर केवल निष्काम अनन्य प्रेमपूर्वक ही निरन्तर भजन करते हैं, ऐसे अनन्यप्रेमी भक्तोंको भगवान् वह बुद्धियोग प्रदान करते हैं—उनके अन्त:करणमें अपने प्रभाव और रहस्यसहित निर्गुण-निराकार तत्त्वको तथा लीला, रहस्य, गुण और प्रभाव आदिके सहित सगुण निराकार और साकार तत्त्वको यथार्थरूपसे समझनेकी शक्ति प्रदान कर देते हैं, जिससे वे भगवान् को प्रत्यक्ष करके सहज ही उन्हें प्राप्त कर लेते हैं। इस प्रकार भगवत्कृपासे उन प्रेमी भक्तोंके हृदयके अन्धकारका सर्वथा नाश होकर उसमें सदाके लिये ज्ञानका प्रकाश छा जाता है और वे भगवान् की इस सहायतासे भगवान् को प्राप्त करके सफलजीवन हो जाते हैं।
हमें भी भगवान् की इस अनवरत बरसनेवाली अपार अनन्त असीम कृपाकी ओर ध्यान देकर उससे वास्तविक लाभ उठाते हुए अपने जीवनको कृतार्थ करना चाहिये। हमें अपने अबतकके जीवनपर दृष्टि डालनी चाहिये। कितने बड़े शोकका विषय है कि हमारी इतनी आयु व्यर्थ प्रमादमें चली गयी। जिस महत्त्वपूर्ण कामके लिये हम मानव-शरीरमें आये थे, उसे तो सर्वथा भूल ही गये। इस प्रकार सुअवसर पाकर भी यदि हम नहीं चेतेंगे तो हमारे लिये बहुत ही हानि है। श्रुति भगवती हमें चेता रही हैं—
इह चेदवेदीदथ सत्यमस्ति
न चेदिहावेदीन्महती विनष्टि:।
भूतेषु भूतेषु विचित्य धीरा:
प्रेत्यास्माल्लोकादमृता भवन्ति॥
(केन० २।५)
‘यदि इस मनुष्य-जन्ममें ही भगवान् को जान लिया तब तो अच्छी बात है, और यदि इस जन्ममें नहीं जाना तो बड़ी भारी हानि है। अत: धीर पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सर्वान्तर्यामी परमात्माको पहचान लेते हैं, जिससे इस लोकसे प्रयाण करनेपर वे अमृतस्वरूप हो जाते हैं अर्थात् उस अमृतमय परमात्माको प्राप्त हो जाते हैं।’ नचिकेताको उपदेश देते हुए यमराज कहते हैं—
उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत।
क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया
दुर्गं पथस्तत्कवयो वदन्ति॥
(कठ० १। ३। १४)
‘उठो, जागो और श्रेष्ठ पुरुषोंके पास जाकर उस ज्ञानको प्राप्त करो। क्योंकि तत्त्वज्ञ पुरुष उस मार्गको छुरेकी तीक्ष्ण और दुस्तर धारके समान दुर्गम बतलाते हैं।’ इसलिये जबतक मृत्यु दूर है, वृद्धावस्था नहीं आयी है, शरीर रोगाक्रान्त होकर जर्जर नहीं हो गया है, उसके पहले-पहले ही आत्मकल्याणका काम कर लेना चाहिये। नहीं तो पीछे अत्यन्त पश्चात्ताप करनेपर भी कोई काम सिद्ध नहीं होगा।
श्रीतुलसीदासजीने कहा है—
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महि ईस्वरहि मिथ्या दोष लगाइ॥
अत: पहले ही सावधान हो जाना चाहिये। इन ऐश-आराम, स्वाद-शौकीनी, भोग-विलासके पदार्थोंमें फँसकर इनके सेवनमें अपनी बहुमूल्य आयुको बिताना तो जीवनको मिट्टीमें मिलाकर नष्ट करना है। इन विषयोंमें प्रतीत होनेवाला सुख वास्तवमें सुख नहीं है। हमें भ्रमके कारण दु:ख ही सुखके रूपमें भास रहा है। इसलिये कल्याणकामी विवेकी मनुष्यको उचित है कि इन सबको धोखेकी टट्टी समझकर दूरसे ही त्याग दे। गीतामें भगवान् कहते हैं—
ये हि संस्पर्शजा भोगा दु:खयोनय एव ते।
आद्यन्तवन्त: कौन्तेय न तेषु रमते बुध:॥
(५। २२)
‘जो ये इन्द्रिय तथा विषयोंके संयोगसे उत्पन्न होनेवाले सब भोग हैं, वे यद्यपि विषयी पुरुषोंको सुखरूप भासते हैं, तो भी दु:खके ही हेतु हैं और आदि-अन्तवाले अर्थात् अनित्य हैं; इसलिये हे अर्जुन! बुद्धिमान् विवेकी पुरुष उनमें नहीं रमता।’
योगदर्शनमें कहा है—
परिणामतापसंस्कारदु:खैर्गुणवृत्तिविरोधाच्च दु:खमेव सर्वं विवेकिन:।
(साधनपाद १५)
‘परिणामदु:ख, तापदु:ख, संस्कारदु:ख—आदि अनेकों दु:खोंसे मिश्रित होने तथा सात्त्विक, राजस, तामस वृत्तियोंमें विरोध होनेसे भी विवेकी पुरुषोंकी दृष्टिमें सम्पूर्ण विषयसुख दु:खरूप ही हैं।’
यदि कोई मनुष्य अज्ञानवश इस विषयसुखको सुख भी माने तो विचार करनेपर मालूम हो जायगा कि यह सुख कितना अस्थिर है। देश, काल और वस्तुसे परिच्छिन्न होनेके कारण यह सर्वथा क्षणभंगुर, विनाशशील और अत्यन्त अल्प ही है। इसीलिये तो बुद्धिमान् नचिकेताने यमराजके अनेक प्रलोभन देनेपर भी उनसे यही कहा—
श्वोभावा मर्त्यस्य यदन्तकैत-
त्सर्वेन्द्रियाणां जरयन्ति तेज:।
अपि सर्वं जीवितमल्पमेव
तवैव वाहास्तव नृत्यगीते॥
(कठ० १। १। २६)
‘हे यमराज! ये समस्त भोग ‘कल रहेंगे या नहीं’ इस प्रकारके सन्देहयुक्त एवं सम्पूर्ण इन्द्रियोंके तेजको जीर्ण करनेवाले हैं। यही क्या, यह सारा जीवन भी बहुत थोड़ा ही है। इसलिये ये आपके वाहन और नाच-गान आपके पास ही रहें, मुझे इनकी आवश्यकता नहीं है।’ यह तो इस जीवनकालमें इन भोगोंसे मिलनेवाले सुखकी बात है। मरनेके बाद तो इनमेंसे कोई भी पदार्थ किसी भी हालतमें किंचिन्मात्र भी किसीके साथ जा ही नहीं सकता।
कविने कहा है—
चेतोहरा युवतय: सुहृदोऽनुकूला:
सद्बान्धवा: प्रणयगर्भगिरश्च भृत्या:।
गर्जन्ति दन्तिनिवहास्तरलास्तुरंगा:
सम्मीलने नयनयोर्न हि किंचिदस्ति॥
‘जिसके अत्यन्त मनोहारिणी स्त्रियाँ हैं, अनुकूल मित्र हैं, बड़े ही सुयोग्य बन्धु-बान्धव हैं, प्रेमभरी मीठी वाणी बोलनेवाले सेवकगण हैं तथा जिसके घरमें अनेकों हाथियोंके समूह चिग्घाड़ रहे हैं और तीव्र वेगवाले घोड़े हिनहिना रहे हैं, ऐसे पुरुषकी भी जब आँखें मुँद जाती हैं, तब न तो कोई भी उसका अपना ही रह जाता है और न कोई भी वस्तु उस समय उसके काम ही आ सकती है।’
इन धन-ऐश्वर्य आदि भोग्य पदार्थोंकी तो बात ही क्या, यह शरीर भी हमारे साथ नहीं जा सकता, यहीं भस्म हो जाता है। फिर कौन बुद्धिमान् मनुष्य संसारके इन नाशवान् पदार्थोंके संग्रह और इनके सेवनमें अपनी आयुको नष्ट करेगा। फिर हम देखते हैं कि ये धनैश्वर्य आदि पदार्थ तो इसी जन्ममें नष्ट हो जाते हैं। आजका धनी कल रास्तेका कंगाल हो जाता है। अत: इनके लिये परलोककी तो बात ही सोचना मूर्खता है। ऐसी अवस्थामें इनके संग्रह एवं सेवनमें मानव-जीवनका समय व्यय करना जीवनका भयानक दुरुपयोग ही है। धनको ही लीजिये। इसके उपार्जनमें कितना क्लेश है। झूठ, कपट, चोरी, बेईमानी और लूट-खसोट करके अन्यायसे कमाया हुआ धन परिणाममें इस लोक और परलोकमें तो दु:खरूप है ही; सरकारी कानूनकी रक्षा करते हुए न्याय और धर्मके अनुसार धनका उपार्जन करनेमें भी कितना भारी परिश्रम है, इसपर भी ध्यान देना चाहिये। फिर, धनके संचय और संरक्षणमें भी महान् क्लेश है तथा उसके वियोगमें तो अत्यन्त कष्ट होता है। श्रीमद्भागवतमें कहा है—
अर्थस्य साधने सिद्धे उत्कर्षे रक्षणे व्यये।
नाशोपभोग आयासस्त्रासश्चिन्ता भ्रमो नृणाम्॥
(११। २३। १७)
‘धनोपार्जनके साधनमें, उसकी प्राप्तिमें, उसके बढ़नेमें, उसके संरक्षणमें, उसके खर्च हो जानेमें, उसके उपभोग करनेमें और किसी भी प्रकारसे नष्ट हो जानेमें मनुष्योंको महान् परिश्रम, त्रास (भय), चिन्ता और चित्तका भ्रम होता है।’
जिसमें इस प्रकार दु:ख-ही-दु:ख भरा है, सुखकी केवल भ्रान्तिमात्र है, ऐसे धनके उपार्जन और संचयको ही अपने जीवनका उद्देश्य मान लेना और इसीमें दिन-रात लगे रहना प्रमादके सिवा और क्या है। मनुष्य यदि गम्भीरतासे विचार करके देखे तो पता लगेगा कि वर्तमान समयमें तो केवल शरीरनिर्वाहमात्रके लिये भी न्यायपूर्वक धनोपार्जन करना दु:ख और परिश्रमसे खाली नहीं है। ऐसी परिस्थितिमें कौन समझदार आदमी थोड़े-से जीवनके लिये धनसंग्रहार्थ अपने अमूल्य समयको भारी संकटमें डालकर भयंकर पाप बटोरेगा और इसके फलस्वरूप अपने इस लोक और परलोकको अशान्ति, दु:ख और नारकीय यन्त्रणासे परिपूर्ण करेगा।
यही बात शरीरके पालन-पोषण और भोगोंके उपभोगके विषयमें समझनी चाहिये। कोई भी भोग बिना आरम्भ किये नहीं प्राप्त होता। शरीरके पालन-पोषण अथवा भोगोपभोगके लिये कुछ-न-कुछ आरम्भ करना ही पड़ता है। और कोई भी आरम्भ आयास और पापसे खाली नहीं है; खास करके आजकलके अर्थप्रधान आसुरी युगमें।
सर्वारम्भा हि दोषेण धूमेनाग्निरिवावृता:॥
(गीता १८। ४८)
‘क्योंकि धूएँसे अग्निकी भाँति सभी कर्म किसी-न-किसी दोषसे युक्त हैं।’ इसलिये थोड़े-से जीनेके लिये शरीरनिर्वाहके अतिरिक्त विशेष विषयोपभोगके लिये भोग्यपदार्थोंका संग्रह करना इस लोक और परलोकसे वंचित होकर अपने-आपको भयानक भयमें डालना है।
पूर्ण, यथार्थ और नित्य सुख तो परमात्माकी प्राप्तिमें हैं। उसीमें परम आनन्द और शाश्वती शान्ति है। वह सुख-शान्ति देश, काल और वस्तुसे अपरिच्छिन्न होनेके कारण नित्य, असीम, अपार, सर्वोपरि और महान् है। उसकी महिमा कोई नहीं बतला सकता। भगवान् कहते हैं—
राजविद्या राजगुह्यं पवित्रमिदमुत्तमम्।
प्रत्यक्षावगमं धर्म्यं सुसुखं कर्तुमव्ययम्॥
(गीता ९। २)
‘वह सब विद्याओंका राजा, सब गोपनीयोंका राजा, अति पवित्र, अति उत्तम, प्रत्यक्ष फलवाला, धर्मयुक्त, साधन करनेमें बड़ा सुगम और अविनाशी है।’
जिस परमानन्दस्वरूप परमेश्वरकी प्राप्ति होनेपर मनुष्य भारी-से-भारी दु:खोंके प्राप्त होनेपर भी उनसे विचलित नहीं होता
यस्मिन् स्थितो न दु:खेन गुरुणापि विचाल्यते।।
(गीता ६। २२)
जिसे प्राप्त करनेमें कोई विशेष आयास या श्रम भी नहीं है, जो भगवत्कृपासे सहज ही प्राप्त हो सकता है, जिसकी प्राप्तिके साधन भी बड़े ही सुगम हैं और उन साधनोंके करते समय भी अर्थात् परमेश्वरके भजन-ध्यान, सत्संग-स्वाध्याय आदि साधन करनेके कालमें भी सुख, शान्ति, प्रसन्नता और आनन्द प्रत्यक्ष देखनेमें आते हैं; अतएव बुद्धिमान् मनुष्यको उचित है कि वह ऐसे परमानन्दस्वरूप परमात्माको प्राप्त करनेके लिये अपने जीवनको उत्तरोत्तर उन्नत बनाते हुए—एक क्षण भी व्यर्थ न जाय, इसका प्रतिक्षण ध्यान रखते हुए कटिबद्ध होकर प्रयत्न करे। इस प्रकार दिन-रात भजनमें लगे रहना ही जीवनमें यथार्थ ज्योति जगाना है—नित्य-सुखरूप प्रकाशका विस्तार करना है। यही सच्ची दीवालीका सच्चा आनन्द है।