Seeker of Truth

चित्त-निरोधके उपाय

किसी भाईका प्रश्न है कि ‘चित्त बड़ा चंचल एवं प्रमादी है। इसे रोकना बड़ा कठिन है, यद्यपि शास्त्रकारोंने इसके निरोधके अनेक उपाय बतलाये हैं। उन उपायोंको पढ़ने, सुनने और समझनेकी चेष्टा भी की जाती है एवं उनके बतलाये हुए मार्गके अनुसार साधन करनेका यत्किंचित् प्रयत्न भी किया जाता है; किन्तु फिर भी मन स्थिर नहीं होता अत: इसके निरोधका सुगम उपाय क्या है?’

दु:खोंकी आत्यन्तिक निवृत्ति एवं परमानन्दकी प्राप्तिके लिये चित्तका निरोध करना आवश्यक है। श्रुति, स्मृति तथा शास्त्रोंमें बतलाये हुए साधनोंके अनुसार तत्पर होकर चेष्टा करनेसे इसका निरोध हो सकता है, किन्तु असल बात तो यह है कि साधकगण इसके लिये यथेष्ट प्रयत्न तो करते नहीं, केवल सुगम उपाय ही पूछते रहते हैं। इसीलिये अधिक मनुष्योंकी प्राय: यही शिकायत रहती है कि मन स्थिर नहीं होता। शास्त्रकारोंने चित्त-निरोधके अनेक उपाय बतलाये हैं। उनमेंसे किसीके लिये कोई उपाय सुगम पड़ता है और किसीके लिये कोई। स्वभावकी विभिन्नताके कारण महर्षियोंने अधिकारी-भेदसे नानाविध साधनोंका उल्लेख किया है। उनमेंसे मुझे अपनी साधारण बुद्धिके अनुसार जो-जो साधन सुगम प्रतीत होते हैं, उन्हें बतलानेका प्रयत्न करता हूँ।

सबसे पहले इस बातको ध्यानमें रखनेकी आवश्यकता है कि मन वशमें हुए बिना उसका निरोध होना कठिन है और पवित्र हुए बिना मनका वशमें होना कठिन है। इसलिये सर्वप्रथम मनको शुद्ध बनाना चाहिये। उसकी शुद्धिके लिये महात्माओंने एवं स्वयं भगवान् ने अनेक साधन बतलाये हैं। महर्षि पतंजलिने सुखी पुरुषोंसे मित्रता, दु:खियोंपर दया, पुण्यात्माओंको देखकर हर्ष और पापियोंके प्रति उदासीनता रखनेको चित्त-शुद्धिका साधन बतलाया है और चित्तके शुद्ध होनेसे ही प्रसन्नता होती है। तब चित्त-निरोध होता है।

मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदु:खपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चित्तप्रसादनम्।
(योग० १। ३३)

भगवान् श्रीकृष्णने गीता अध्याय ५ श्लोक ११ में मन-शुद्धिके लिये आसक्तिको त्यागकर कर्म करनेकी आज्ञा दी है। अन्य सभी साधु-महात्माओंने भी लगभग इसी प्रकार कहा है।

इन सबका निचोड़ यही निकलता है कि सब भूतोंके हितमें रत रहकर निरभिमान एवं नि:स्वार्थभावसे सबकी आत्माको सुख पहुँचाना ही अन्त:करण-शुद्धिका उत्तम उपाय है; किंतु इससे भी बढ़कर एक और उपाय है और वह है हरिके नाम-गुणका कीर्तन।

हरिर्हरति पापानि दुष्टचित्तैरपि स्मृत:।
अनिच्छयापि संस्पृष्टो दहत्येव हि पावक:॥
(बृ० नारद० १। ११। १००)

‘बिना इच्छाके स्पर्श करनेपर भी जिस प्रकार अग्नि निश्चय ही जला देती है, उसी प्रकार दुष्टचित्तवाले मनुष्योंद्वारा भी स्मरण किये हुए हरि पापोंको हर लेते हैं।’

अपि चेत्सुदुराचारो भजते मामनन्यभाक्।
साधुरेव स मन्तव्य: सम्यग्व्यवसितो हि स:॥
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रति जानीहि न मे भक्त: प्रणश्यति॥
(गीता ९। ३०-३१)

‘कोई अतिशय दुराचारी भी अनन्य भावसे मेरा भक्त हुआ, निरन्तर मुझे भजता है वह साधु ही माना जानेयोग्य है; क्योंकि वह यथार्थ निश्चयवाला है। इसलिये वह शीघ्र ही धर्मात्मा हो जाता है और सदा रहनेवाली परम शान्तिको प्राप्त होता है। हे अर्जुन! तू निश्चयपूर्वक सत्य जान कि मेरा भक्त नष्ट नहीं होता।’

उपर्युक्त साधनोंसे पापोंका नाश हो जानेपर मन शुद्ध और स्वाधीन हो जाता है। फिर एकाग्र और निरोध हो जाना तो अत्यन्त ही सहज है। इस प्रकार शुद्ध और स्वाधीन हुआ मन परमानन्द-प्राप्तिके योग्य बन जाता है।

प्रथम यह समझ लेनेकी आवश्यकता है कि मनका स्वरूप क्या है? इस सम्बन्धमें शास्त्रकारोंने अनेक बातें बतलायी हैं।

महर्षि पतंजलिने भी—

प्रमाणविपर्ययविकल्पनिद्रास्मृतय: ।
(योग० १। ६)

‘प्रमाण, विपर्यय (मिथ्या ज्ञान), विकल्प (कल्पना), निद्रा और स्मृति—चित्त (मन)-की ये पाँच वृत्तियाँ बतलायी हैं। इनके निरोधका नाम ही योग है।’

योगश्चित्तवृत्तिनिरोध: ।
(योग० १। २)

किसी महात्माने चित्तकी क्षिप्त, विक्षिप्त, मूढ, एकाग्र और निरुद्ध—ये पाँच अवस्थाएँ बतलायी हैं और किसीने केवल संकल्पको ही इसका स्वरूप कहा है। अपने-अपने सिद्धान्तोंके अनुसार सभीकी मान्यता ठीक है। अत: साररूपसे यह कहा जा सकता है कि संकल्पोंका आधार अर्थात् संकल्प जिसमें उत्पन्न होते हैं उसका नाम मन है। संकल्पोंका आधार होनेके कारण मन संकल्परूप भी कहा जा सकता है। अब विचारणीय विषय यह है कि संकल्पोंका निरोध किस सहज और सुगम उपायसे हो सकता है। किन्तु इससे भी पूर्व यह जान लेनेकी आवश्यकता है कि संकल्पोंके बार-बार उठने तथा साधनके लिये रुचि न होनेमें प्रधान हेतु कौन-से हैं? इसके साथ ही साधनकालमें उपस्थित होनेवाले विघ्नोंको भी समझ लेना नितान्त आवश्यक है।

इन विघ्नोंके विषयमें महर्षि पतंजलि अपने योग-दर्शनमें इस प्रकार लिखते हैं—

व्याधिस्त्यानसंशयप्रमादालस्याविरतिभ्रान्तिदर्शना-
लब्धभूमिकत्वानवस्थितत्वानिचित्तविक्षेपास्तेऽन्तराया:।
दु:खदौर्मनस्यांगमेजयत्वश्वासप्रश्वासा विक्षेपसहभुव:।
(१। ३०-३१)

‘रोग, अकर्मण्यता, संशय, प्रमाद (व्यर्थ चेष्टा), आलस्य, वैराग्यका अभाव, भ्रम, चित्तभूमिकी अप्राप्ति, चित्तका विशेष समयतक स्थिर न रहना—ये नौ चित्तके विक्षेप हैं।’

‘दु:ख, क्षोभ, अंगोंका फड़कना और श्वासोंका आना-जाना—ये सभी उपर्युक्त नौ विक्षेपोंके साथ रहनेवाले हैं।’ अन्य शास्त्रकारोंका भी न्यूनाधिकरूपसे प्राय: यही कहना है। इन सब विघ्नोंमें व्याधि, अकर्मण्यता, प्रमाद, आलस्य, आसक्ति और स्फुरणा—ये छ: प्रधान हैं और इनमें भी आलस्य और स्फुरणा विशेष बाधक हैं।

अन्त:करणमें अनेक संकल्पोंके उत्पन्न होनेमें पूर्वार्जित संचित एवं प्रारब्ध कर्मोंका संस्कार तथा बुरी आदत और विषयोंकी आसक्ति तथा साधनकी ओर रुचि न होनेमें पूर्वकृत पाप-कर्मोंका समुदाय एवं संशय, भ्रम और अश्रद्धा ही प्रधान हेतु हैं।

आसक्तिके नाशके लिये इस संसारके अनित्य नाशवान् और क्षणभंगुर सम्पूर्ण पदार्थों और विषयभोगोंमें दोष और दु:खोंका बार-बार विचारकर उनमें वैराग्य एवं उनका यथोचित त्याग करना चाहिये।

प्रारब्धकर्मका क्षय तो प्राय: भोगसे ही होता है और संचित कर्मोंका यानी सम्पूर्ण पापोंका नाश निष्कामभावसे दु:खी मनुष्योंकी सेवा तथा ईश्वरके नाम-जपसे होता है।

बुरी आदत, संशय, भ्रम और अश्रद्धाके नाशके लिये सत्पुरुषोंका संग और सत्-शास्त्रोंका विचार ही विशेष लाभप्रद है।

मन-निरोधके विषयमें गीता अध्याय ६श्लोक ३४ में अर्जुनने भगवान् श्रीकृष्णसे पूछा था। अर्जुनकी शंकाको स्वीकार कर उन्होंने यही उपदेश दिया कि यद्यपि मन चंचल और अस्थिर है तथापि अभ्यास और वैराग्यसे वह स्थिर हो सकता है।

असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्।
अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृह्यते॥
(गीता ६। ३५)

‘हे महाबाहो! नि:सन्देह मन चंचल और कठिनतासे वशमें होनेवाला है; पर अभ्यास और वैराग्यसे यह वशमें होता है।’ फिर सहजमें ही उसका निरोध हो जाता है।

महर्षि पतंजलिका भी यही कथन है—

अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोध:।
(योग० १। १२)

‘अभ्यास और वैराग्यसे उसका निरोध होता है।’

सांख्यके रचयिता भगवान् कपिलदेवने भी अभ्यास और वैराग्यको चित्त-निरोधका साधन बतलाया है—‘वैराग्याभ्यासात्’। अन्य सभी शास्त्रकारोंका भी इस विषयमें प्राय: यही सिद्धान्त है। किसी भक्तका कहना है—

मन फुरनासे रहित कर, जौने विधिसे होय।
चहै भक्ति चहै योगसे, चहै ज्ञानसे खोय॥

उपर्युक्त विवेचनसे यही सिद्ध होता है कि अभ्यास और वैराग्य ही चित्त-निरोधके उत्तम उपाय हैं। इसलिये विषयोंसे वैराग्य करके मनके निरोधार्थ कटिबद्ध होकर अभ्यास करना चाहिये। इस प्रसंगपर अभ्यास और वैराग्यका स्वरूप समझ लेनेकी आवश्यकता है। त्रिगुणात्मक संसारके विषयभोगों और समस्त पदार्थोंमें तृष्णा और आसक्तिके आत्यन्तिक अभावका नाम वैराग्य है। इस सम्बन्धमें अन्य शास्त्रोंकी भी प्राय: यही मान्यता है। अभ्यास एक व्यापक शब्द है। उसकी व्याख्या विस्तृत है; किन्तु विस्तार न कर केवल सार बातें ही बतलायी जाती हैं। इस विषयमें महर्षि पतंजलिजीका कहना है—

तत्र स्थितौ यत्नोऽभ्यास:।
(योग० १। १३)

अर्थात् ‘परमात्मामें’ स्थितिके लिये यत्न करनेका नाम अभ्यास है।

स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारासेवितो दृढभूमि:।
(योग० १। १४)

‘वह अभ्यास निरन्तर दीर्घकालतक आदरपूर्वक किया हुआ दृढ़भूमि (स्थिति) वाला होता है।’ भगवान् श्रीकृष्णका भी प्राय: यही कहना है—

यतो यतो निश्चरति मनश्चंचलमस्थिरम्।
ततस्ततो नियम्यैतदात्मन्येव वशं नयेत्॥
(गीता ६। २६)

‘स्थिर न रहनेवाला यह चंचल मन जिस-जिस कारणसे सांसारिक पदार्थोंमें विचरता है उस-उससे रोककर बार-बार परमात्मामें ही निरोध करे।’ समस्त विघ्नोंके नाश एवं मनकी स्थिरताके लिये सबसे उत्तम और सहज उपाय ईश्वरके नामका जप और उसके स्वरूपका चिन्तन ही है। महर्षि पतंजलिका भी यही कथन है—

‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा’
(योग० १। २३)

‘ईश्वरकी भक्तिसे चित्तकी वृत्तिका निरोध होता है।’

तस्य वाचक: प्रणव:।
तज्जपस्तदर्थभावनम्।
तत: प्रत्यक्चेतनाधिगमोऽप्यन्तरायाभावश्च।
(योग० १। २७—२९)

अर्थात् ‘उस ईश्वरका नाम ॐकार है। उस ईश्वरके नामका जप और उसके स्वरूपका चिन्तन करना चाहिये। उससे समस्त विघ्नोंका अभाव और आत्माका साक्षात्कार भी हो जाता है।’

अनन्यचेता: सततं यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहं सुलभ: पार्थ नित्ययुक्तस्य योगिन:॥
(गीता ८। १४)

अर्थात् ‘हे अर्जुन! जो पुरुष मुझमें अनन्यचित्तसे स्थित हुआ सदा ही निरन्तर मुझे स्मरण करता है, उस निरन्तर मुझमें युक्त हुए योगीके लिये मैं सुलभ हूँ।’ इसलिये ईश्वरके नामका जप और स्वरूपका चिन्तन निष्कामभावसे नित्य-निरन्तर करना चाहिये।

अभ्यासके विषयमें और भी अनेक युक्तियाँ शास्त्रोंमें मिलती हैं। उनमेंसे किसी एकके अनुसार साधन करनेपर मन स्थिर होना सम्भव है। उनमेंसे कतिपय प्रधान युक्तियाँ ये हैं—

(१) मन जहाँ जाय वहाँसे हटाकर उसको अपने अधीन करके परमात्मामें लगानेकी अपेक्षा भी, मन जहाँ-जहाँ जाय वहीं परमात्माके स्वरूपका चिन्तन करना और भी सहज तथा सुगम उपाय है। अतएव चित्तकी वृत्तियोंका निरोध करनेके लिये इस युक्तिको काममें लानेकी कोशिश करनी चाहिये। ईश्वर सब जगह व्यापक है ही, अपनी समझके अनुसार श्रद्धा और प्रेमसे उस परमेश्वरका सर्वत्र चिन्तन करनेसे चित्तकी वृत्तियोंका निरोध हो जाता है।

(२) भगवान् शिव या विष्णुकी अथवा अपनेको जो देव इष्ट हो उसीकी मूर्ति या चित्रको सम्मुख रखकर श्रद्धा और प्रेमसे उस भगवान् के मुखारविन्दपर नेत्रोंकी वृत्तिको स्थिर स्थापन करके अपने ऊपर भगवान् की अपार दया और प्रेमका अनुभव करता हुआ उस आनन्दमय परमेश्वरके मुखकमलपर मनरूपी भँवरको स्थिर स्थापन करनेसे भी चित्तकी वृत्तियाँ एकाग्र होकर निरुद्ध हो सकती हैं।

(३) प्रात:काल सूर्यके सम्मुख खड़े होकर नेत्र मूँदकर सूर्यकी ओर देखनेसे एक महान् प्रकाशका पुंज सर्वत्र समभावसे प्रतीत होता है, उसको लक्ष्य करके, उससे हजारों गुना अधिक एक प्रकाशका पुंज आकाशकी तरह सर्वत्र समानभावसे परिपूर्ण हो रहा है, उसके अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है, वही परमात्माका तेजोमय स्वरूप है, इस प्रकार समझकर सम्पूर्ण संसारको भूलकर उस तेजोमय परमात्माके स्वरूपमें चित्तकी वृत्तियोंको लगानेसे भी चित्त स्थिर हो सकता है।

(४) दधीचि, ऋषभदेव, जडभरत, शुकदेव आदि विरक्त मुनियोंके चरित्रोंकी ओर लक्ष्य जानेसे स्वाभाविक ही वैराग्यकी प्राप्ति होती है। इसलिये जो वीतराग मुनि हैं, संसारमें जिनकी आसक्ति बिलकुल नहीं है, ऐसे ज्ञानी महात्माओंका ध्यान करनेसे भी चित्तमें वैराग्य होकर चित्तकी वृत्तियोंका निरोध हो सकता है। चित्तकी वृत्तियोंके निरोध करनेका यह भी एक सरल उपाय है। महर्षि पतंजलिने भी कहा है—

वीतरागविषयं वा चित्तम्।
(योग० १। ३७)

‘अथवा वीतराग पुरुषोंके चिन्तनसे चित्त स्थिर होता है।’

(५) हृदयदेशमें एक सुषुम्ना नामकी नाड़ी है, उसी नाड़ीमें परमानन्द विराजमान है। गीतामें लिखा है—‘सर्वस्य चाहं हृदि सन्निविष्ट:’ ‘मैं सबके हृदयमें स्थित हूँ।’ परमात्मा विज्ञानानन्दरूप हैं इसलिये उस नाड़ीमें चेतन और आनन्दकी भावना करनी चाहिये। उस नाड़ीका शरीरकी सम्पूर्ण नाड़ियोंसे सम्बन्ध है। इसलिये उसके बंद हो जानेसे सारी नाड़ियाँ बंद हो जाती हैं। उस नाड़ीकी चाल साधारणतया एक मिनटमें ७५ या ८० बार समझी जाती है। उसी नाड़ीकी चालपर हमारे हाथोंकी और मस्तककी नाड़ियाँ टकराती हैं। उसकी प्रत्येक चालके साथ ॐका जप करते हुए विज्ञानानन्दघन परमात्माकी भावना उस नाड़ीमें की जाय तो चित्तकी वृत्तियाँ स्थिर होकर परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। यह साधन कुछ कठिन अवश्य है; परन्तु शब्दरहित-जहाँ विशेष बाधा देनेवाले शब्द न सुनायी दें, ऐसे एकान्त स्थानमें एकाकी रहकर प्रयत्न किया जाय तो सिद्ध हो सकता है। महर्षि पतंजलिने भी लिखा है—

विशोका वा ज्योतिष्मती।
(योग० १। ३६)

‘अथवा शोकरहित प्रकाशमय चित्तकी अवस्थाविशेष भी मनको स्थिर करनेवाली होती है।’ यह अवस्था उपर्युक्त प्रकारसे सुषुम्नानाड़ीमें ध्यान लगानेसे प्राप्त होती है।

(६) जहाँपर बाधा पहुँचानेवाली बाहरकी जोरकी ध्वनि न सुनायी दे, ऐसे एकान्त और पवित्र स्थानमें अकेला स्वस्तिक आदि किसी आसनसे सुखपूर्वक बैठकर दोनों अँगुलियोंसे कानोंके दोनों छिद्रोंको बंदकर अपने भीतर अपने-आप ही होनेवाले अनहदशब्द सुननेमें ध्यान लगावे। प्रथम उसको अनेक प्रकारके शब्द सुनायी देंगे। आगे चलकर जेबघड़ीके खटकेके समान सूक्ष्म शब्द सुनायी देगा, उसकी संख्या एक मिनिटमें करीब ७५ या ८० के लगभग हो सकती है। उस शब्दमें ‘राम’ ‘शिव’ या ‘ॐ’ की भावना करनेसे भावनाके अनुसार ही ध्वनि सुनायी देने लगेगी। उस शब्दमें ब्रह्मकी भावना करनेसे चित्तकी वृत्तियोंका निरोध होकर मनुष्यको विज्ञानानन्दघन परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है। यह साधन देखनेमें कुछ कठिन-सा प्रतीत होता है परन्तु रात्रिके मध्यमें या उषाकालमें तत्पर होकर साधन करनेसे कोई विशेष दुर्गम नहीं है।

(७) भ्रमरके गुंजारकी तरह एकतार ॐकारकी ध्वनि करते हुए उसमें परमेश्वरके स्वरूपकी भावना करनेसे चित्तकी वृत्तियाँ परमात्मामें स्थिर हो सकती हैं।

(८) जिस स्वरूपमें अपनी श्रद्धा और प्रेम हो उसका ध्यान करनेसे भी चित्तकी वृत्तियाँ रुक जाती हैं। महर्षि पतंजलिने भी कहा है—

यथाभिमतध्यानाद्वा ।
(योग० १। ३९)

‘जिसका जो अभीष्ट हो उसीमें ध्यान लगानेसे भी चित्तकी एकाग्रता होकर वृत्तियोंका निरोध हो सकता है।’

(९) ॐकारका स्मरण करते हुए श्वासको बाहर निकालकर उसे यथाशक्ति सुखपूर्वक बाहर ही बार-बार स्थिर करने और उसमें परमेश्वरकी भावना करनेसे चित्तकी वृत्तियोंका निरोध होता है। महर्षि पतंजलिने कहा है—

प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य।
(योग० १। २४)

‘अथवा प्राणोंको बाहर फेंकने और ठहरानेसे चित्तकी वृत्तियोंका निरोध होता है।’

(१०) पवित्र एकान्त स्थानमें सुखपूर्वक आसनसे बैठकर नेत्रोंको बंद करके और सम्पूर्ण इन्द्रियोंकी वृत्तियोंको विषयोंसे रोककर सम्पूर्ण कामनाओं और संकल्पोंका त्याग करके विज्ञानानन्दघन परमात्माका चिन्तन करना चाहिये। कोई स्फुरणा चित्तमें हो तो उसी समय उसका त्याग कर देना चाहिये अर्थात् वैराग्ययुक्त चित्तसे संसार और शरीरको इस प्रकार विस्मरण कर देना चाहिये मानो वे हैं ही नहीं। इस प्रकार करना ही वैराग्यरूपी शस्त्रके द्वारा संसारवृक्षको काटना है। परन्तु खयाल रखना चाहिये कि शरीर और संसारके विस्मरण करनेवालेकी वृत्तियाँ प्रकृतिमें लय होकर उसे निद्रा आनेका डर रहता है। इसलिये शरीर और संसारका विस्मरण करनेके साथ-साथ विज्ञानानन्दघन परमात्माका ध्यान करना चाहिये और दृढ़ताके साथ उसमें स्थित रहना चाहिये। यही उस परमात्माके स्वरूपकी शरण है। इस प्रकार अभ्यास करनेसे परमात्माके स्वरूपमें चित्तकी स्थिर स्थिति हो जाती है।

(११) विवेक-बुद्धिके द्वारा साम, दाम, दण्ड और भेद-नीतिसे मनको समझानेसे भी परमात्मामें चित्तकी एकाग्रता और स्थिर स्थिति होकर परमात्माकी प्राप्ति हो सकती है। यह भी परमात्माकी प्राप्तिका एक बहुत उत्तम उपाय है।

(क) मनको मित्र समझकर प्रेमसे समझानेका नाम साम-नीति है। जैसे कोई समझदार मनुष्य अपने भोले मित्रको समझाता है वैसे ही मनको भी समझाना चाहिये कि प्यारे मित्र! तुम्हारा स्वभाव चंचल है, तुम बिना विचारे हर काममें पड़ जाते हो और फँस जाते हो, इससे बहुत हैरान होना पड़ता है इसलिये तुम मेरी सलाहके बिना कोई काम न किया करो। विचार करके देखो, जब-जब तुम मेरी सम्मतिके बिना गये तब-ही-तब भारी विपत्तियोंका सामना करना पड़ा और पड़ रहा है। इसलिये तुम्हें अपनी इस मूढ़ता और चंचल स्वभावका त्याग करना चाहिये और मेरी सम्मतिके बिना एक क्षण भी तुम्हें न तो कहीं जाना चाहिये तथा न कुछ करना ही चाहिये। हे मन! जिस संसारके विषयोंको तुम सुखरूप समझकर चिन्तन करते हो, वास्तवमें उनमें सुखका लेशमात्र भी नहीं है, भ्रान्तिसे ही तुमको उनमें सुख प्रतीत होता है। इसलिये तुमको विचार करना चाहिये, नहीं तो, आगे चलकर बड़ा भारी पश्चात्ताप करना पड़ेगा।

(ख) मनको लोभ देकर समझानेका नाम दाम-नीति है। जैसे—हे मन! विषयोंमें जो सुख है वह देश और कालद्वारा परिमित होनेके कारण अनित्य और क्षणभंगुर है। जैसे स्वादु भोजन जिह्वाको प्रिय होता है किन्तु श्रोत्र-त्वचादिको नहीं, सो भी थोड़े ही कालके लिये, सदा नहीं। ऐसे ही रुचिकर संगीतसे श्रोत्रकी तृप्ति होती है; किन्तु जिह्वा, नासिकादिकी नहीं, वह भी अल्पकालके लिये ही। इससे यह समझ लेना चाहिये कि प्रत्येक सांसारिक सुख देश और कालके द्वारा परिमित होनेके कारण नाशवान् और क्षणभंगुर है।

परमानन्द परमात्माकी प्राप्तिके सामने तो यह सांसारिक सुख सूर्यके सम्मुख खद्योतके सदृश भी नहीं है। विषयोंमें जो सांसारिक सुखोंकी प्रतीति होती है वह वास्तवमें सुख नहीं है, सुखका आभास है। क्योंकि जब असली सुखकी प्राप्ति होती है तब ये सांसारिक सुख, सूर्यके उदय होनेपर तारोंके समान छिप जाते हैं। ऐसे इन नाशवान्, क्षणभंगुर सांसारिक सुखोंकी ओरसे वृत्तियोंको हटाकर नित्य शान्तिमय और परमानन्दमय सुखके लिये ही चेष्टा करनी चाहिये।

सांसारिक सुखोंकी प्राप्तिमें जितना परिश्रम होता है, परमानन्दकी प्राप्तिमें उतना परिश्रम भी नहीं है। ज्यों-ज्यों इसका रहस्य समझमें आता है त्यों-ही-त्यों साधनकालमें भी उत्तरोत्तर सात्त्विक सुखकी वृद्धि होती चली जाती है। इसलिये इन सांसारिक भोगोंकी ओरसे हटकर तुम्हें उस सच्चे सुखकी प्राप्तिके लिये कटिबद्ध होकर परमात्मामें ही अपनेको लगाना चाहिये।

(ग) यदि मन साम या दाम-नीतिसे नहीं माने तो फिर उसे दण्ड-नीतिसे रोकनेकी चेष्टा करनी चाहिये। भय दिखलाकर वशमें करनेका नाम दण्ड-नीति है। जिस प्रकार राजा शत्रुको भय दिखलाकर उसको अपने अधीन कर लेता है, उसी प्रकार मनको अपने अधीन करना चाहिये। यथा—

हे मन! यदि तू संसार और विषयोंका चिन्तन करेगा तो मैं सम्पूर्ण भोगोंको त्यागकर वनमें या गिरि-गुहामें जाकर व्रत-उपवासादि तपसे वृत्तियोंका शमन करूँगा। भूखके कारण मेरे प्राण भले ही चले जायँ, उनकी परवा नहीं, किन्तु तेरा मूलोच्छेद अवश्य कर दूँगा। संसारके चिन्तनसे तेरी और मेरी इतनी भयानक दुर्दशा हुई और हो रही है। मूर्खता और चपलताके कारण तू इस बातको नहीं समझता। इसलिये यम-नियमादि साधनोंद्वारा जिस किसी प्रकारसे भी हो, तेरे नाशके लिये उपाय किया जायगा। क्योंकि जब मैं ईश्वरका ध्यान करने बैठता हूँ, तभी तू नाना प्रकारके सांसारिक चित्रोंको लाकर उच्चाटन पैदाकर मुझे ईश्वर-चिन्तनसे वंचित कर देता है और जब मैं जप या पाठ करता हूँ, तब तू उसमें संसारके मिथ्या कामोंकी आवश्यकता दिखलाकर जप और पाठमें शीघ्रता कराता है; जिसमें मैं कृतकार्य नहीं हो पाता। जब मैं नित्यकर्म और ईश्वरकी भक्तिको धैर्यके साथ करना चाहता हूँ तब तू निद्राका आश्रय लेकर मुझको मोहित कर देता है। विचार करनेसे मालूम होता है कि तू ही मेरा महान् शत्रु है। इसलिये जिस किसी प्रकारसे हो, तेरा नाश करना उचित है। नहीं तो इस दु:खमय संसारका चिन्तन छोड़कर शीघ्र अमृतमय परमात्माका चिन्तन कर जिससे तेरा-मेरा दोनोंका कल्याण हो।

(घ) अपने उद्देश्यकी सिद्धिके लिये दो मित्रोंमें या सम्बन्धियोंमें परस्पर दोष दिखलाकर उनमें वैमनस्य उत्पन्न करा देनेका नाम भेद-नीति है। विषय-भोगोंको लेकर मन और इन्द्रियोंकी जो परस्परकी प्रीति है, उसे तोड़नेके लिये इस भेद-नीतिसे भी काम लेना चाहिये।

पहले इन्द्रियोंको यों समझाना चाहिये।

मन लोभी मन लालची, मन चंचल मन चोर।
मनके मते न चालिये, पलक-पलक मन और॥

हे इन्द्रियो! यह मन बड़ा चंचल, लोभी एवं मूर्ख है, मनकी बात सुनकर बिना विचारे हठात् किसी कार्यमें नहीं लगना चाहिये। यदि काम, क्रोध और लोभके पंजेमें फँसे हुए मनकी बात सुनकर झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार और हिंसादि कर्म किये जायँगे तो इस लोक और परलोकके भारी दु:खोंका सामना करना पड़ेगा। जैसे झूठ, कपट करनेसे राजदण्ड, इज्जतकी हानि एवं नरककी प्राप्ति होती है वैसे ही चोरी और व्यभिचार आदिके करनेसे भी गाली, मार, अपकीर्ति और राजदण्ड होता है और फिर घोर नरकोंकी प्राप्ति होती है। अतएव तुम यदि अपना हित चाहती हो तो पापाचार और विषयोंके सेवनका त्याग करो एवं बुद्धिका आश्रय ग्रहण करके अपने कल्याणके लिये सदाचार और परमेश्वरकी सेवा-पूजादि कार्यमें लग जाओ।

मनको समझाना चाहिये कि ये इन्द्रियाँ अपना मतलब गाँठनेके लिये तुम्हारी सहायतासे विषयोंका सेवन करती हैं और अपना मतलब निकालकर तुम्हें बड़े भारी दु:खके गड़हेमें गिरा देती हैं। जैसे जिह्वा-इन्द्रियकी प्रेरणासे कुपथ्यको पथ्य मानकर उसे खानेमें और स्पर्शेन्द्रियकी प्रेरणासे स्त्री-सहवासके समय क्षणिक और नाशवान् विषयसुखमें आनन्दका अनुभव होता है परन्तु परिणाममें अनेक प्रकारके रोगोंकी वृद्धि होकर नाना प्रकारकी पीड़ा और भारी दु:खोंका सामना करना एवं सदाके लिये पश्चात्ताप करना पड़ता है एवं बल, वीर्य, तेज, कीर्ति, पुण्य और आयुका नाश हो जाता है। वैसे ही अन्यान्य इन्द्रियोंके विषयमें भी समझना चाहिये। कहनेका तात्पर्य यह कि इन्द्रियोंके वशमें हुआ तू नाना प्रकारके पाप करके नरककी घोर यातनाका पात्र बन जाता है। इसलिये हे मन! यदि तू असावधानीके कारण अपनेको नहीं सँभालेगा तो करोड़ों जीवोंकी जो दशा होती है वही दशा अपनी होगी। आज पशु, पक्षी, कीट-पतंगादि जीव जो घोर कष्ट पा रहे हैं वह उनके मनुष्य-जन्ममें समझकर न चलनेका ही तो परिणाम है। इसलिये इस बार तू चेत जायगा तो बहुत उत्तम है, नहीं तो महान् हानि है। अतएव तू सावधान हो एवं मनुष्यके अमूल्य जीवनका एक क्षण भी व्यर्थ न बिता। मनुष्य-जीवनका एक पल भी ईश्वर-चिन्तनके बिना बिताना अपने-आपको मृत्युके मुखमें ढकेलना है। क्योंकि अन्तकालमें मनुष्य जिसका चिन्तन करता हुआ जाता है उसीको प्राप्त होता है। और सदा जैसा अभ्यास करता है प्राय: अन्तकालमें उसीका चिन्तन होता है। इससे यह सिद्ध होता है कि इस नाशवान् संसारका चिन्तन करना ही पुन:-पुन: मृत्युके मुखमें पड़ना है। अतएव संसारके चिन्तनको मृत्युके समान समझकर उससे हटकर हर समय ईश्वरका चिन्तन करना चाहिये। व्यवहार-कालमें भी जब सब वृत्तियाँ संसारके पदार्थोंकी ओर जायँ, सर्वत्र ईश्वरका ही चिन्तन करना चाहिये। गीतामें कहा है—

यो मां पश्यति सर्वत्र सर्वं च मयि पश्यति।
तस्याहं न प्रणश्यामि स च मे न प्रणश्यति॥
(६। ३०)

‘जो पुरुष सम्पूर्ण भूतोंमें सबके आत्मरूप मुझ वासुदेवको ही व्यापक देखता है और सम्पूर्ण भूतोंको मुझ वासुदेवके अन्तर्गत देखता है उसके लिये मैं अदृश्य नहीं होता हूँ और वह मेरे लिये अदृश्य नहीं होता है।’ इस प्रकार मनको समझाकर नित्य-निरन्तर भगवान् के चिन्तनमें लगानेसे वह स्थिर हो जाता है और साधकको परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)