Seeker of Truth

चद्दरसे ज्ञान-वैराग्य आदिकी शिक्षा

जगत् में आजकल शिक्षक बहुत पाये जाते हैं। वास्तवमें शिक्षा लेनेवाले बहुत कम हैं। जहाँ-तहाँ उपदेशकोंकी—गुरुओंकी ही भरमार है, उपदेश सुनकर उससे लाभ उठानेवाले शिष्योंकी संख्या बहुत ही अल्प है। कवियोंने भी कहा है—‘परोपदेशे पाण्डित्यं सर्वेषां सुकरं नृणाम्।’ ‘पर उपदेस कुसल बहुतेरे। जे आचरहिं ते नर न घनेरे॥’ उपदेश देना जितना सहज है, उसका पालन करना उतना ही कठिन है। उपदेश अपने लिये होना चाहिये, दूसरोंके लिये नहीं; तभी हम उन्नति कर सकते हैं। ज्ञानकी प्राप्ति उसीको होती है, जो अभिमान छोड़कर शिक्षा प्राप्त करनेके लिये उत्सुक रहता है। जो शिक्षा प्राप्त करना चाहते हैं, उनके लिये शिक्षकोंकी कमी नहीं है। सच्चे गुरु योग्य शिष्यको स्वयं खोज लेते हैं। सच्चे जिज्ञासुके लिये तो स्वयं भगवान् गुरुके रूपमें प्रकट होकर उसे उपदेशके द्वारा कृतार्थ कर सकते हैं। सम्राट् परीक्षित् जब राज्य, परिवार एवं शरीरका मोह छोड़कर सब ओरसे चित्तको हटाकर ज्ञान-लाभके लिये, आत्मकल्याणकी शिक्षाके लिये अन्न-जलका त्यागकर भगवती गंगाके पावन तटपर बैठ गये। उस समय उनकी ज्ञान-पिपासाको शान्त करनेके लिये, उन्हें मुक्तिका मार्ग दिखानेके लिये सब ओरसे बहुत-से ऋषि-मुनि अपने-आप उनके पास आने लगे। यहाँतक कि स्वयं शुकदेव मुनिने, जो इतने विरक्त थे कि एक गौ जितनी देरमें दुही जा सके, उतने समयसे अधिक बस्तीमें नहीं ठहरते थे तथा जो प्राय: निरन्तर समाधिमें ही स्थित रहते थे, उनके पास बिना बुलाये आकर सात दिनतक उन्हें श्रीमद्भागवतकी कथा सुनायी। विद्वानोंकी मान्यता है कि श्रीशुक मुनिको नित्यदेह अथवा सिद्धदेह प्राप्त है, जिससे वे अब भी समय-समयपर प्रकट होकर अधिकारियोंको उपदेशके द्वारा कृतार्थ किया करते हैं। कहते हैं कि संत चरणदासजीको उन्हींने गुरुरूपसे दीक्षा दी थी, जैसा कि चरणदासजीके पदोंसे प्रकट होता है। स्वामी श्रीशंकराचार्यके परम गुरु आचार्य गौडपादको भी श्रीशुकदेवजीसे ही दीक्षा प्राप्त हुई थी—ऐसा सुना जाता है। स्वयं स्वामी श्रीशंकराचार्यको भी श्रीवेदव्यासजीने दर्शन दिये थे—ऐसा उनकी जीवनीमें लिखा है। देवर्षि नारदके वाल्मीकि, व्यास तथा ध्रुव आदिके पास स्वयं जाकर उन्हें उपदेश देनेकी बात प्रसिद्ध ही है।

इतना ही नहीं, शिक्षा लेनेवालेको जगत् की चर-अचर सभी वस्तुओंसे शिक्षा मिल सकती है। यह विश्व ही एक विश्वविद्यालय है। नदियाँ, समुद्र, वृक्ष, पर्वत, ग्रह, नक्षत्र, आकाश, पृथ्वी, वायु, पशु-पक्षी आदि नाना प्रकारके जीव—सभी हमें शिक्षा दे रहे हैं। श्रीमद्भागवतमें कथा आती है कि भगवान् दत्तात्रेयने चौबीस गुरु बनाये थे—जिनमें पृथ्वी, वायु , आकाश, जल, अग्नि, चन्द्रमा, सूर्य, कबूतर, अजगर, समुद्र, पतिंगा, मधुमक्खी, हाथी, हरिन, मछली, वेश्या, कुररपक्षी, बालक, कुमारी कन्या, बाण बनानेवाला, साँप, मकड़ी और भ्रमरतक शामिल थे। आज हम अपने पाठकोंको यह बतलायेंगे कि जिस चद्दरको हम अपने शरीरपर ओढ़ते हैं, उससे भी हमें ज्ञान, वैराग्य, योग, कर्म एवं भगवत्-शरणागतिकी शिक्षा मिलती है।

पहले हम प्रभु-शरणागतिको ही लें। शरणागतिकी शास्त्रोंने बड़ी महिमा गायी है। गीतामें भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुनसे कहते हैं—

तमेव शरणं गच्छ सर्वभावेन भारत।
तत्प्रसादात्परां शान्तिं स्थानं प्राप्स्यसि शाश्वतम्॥
(१८। ६२)

‘हे भारत! तू सब प्रकारसे उस परमेश्वरकी ही शरणमें जा। उस परमात्माकी कृपासे ही तू परमशान्तिको तथा सनातन परम धामको प्राप्त होगा।’

महाभारतके अन्तर्गत श्रीविष्णुसहस्रनाममें भीष्मपितामह महाराज युधिष्ठिरसे कहते हैं—

वासुदेवाश्रयो मर्त्यो वासुदेवपरायण:।
सर्वपापविशुद्धात्मा याति ब्रह्म सनातनम्॥

‘भगवान् वासुदेवका आश्रय लेकर उन्हींके परायण हो जानेवाला मनुष्य सम्पूर्ण पापोंसे रहित विशुद्ध अन्त:करणवाला होकर सनातन ब्रह्मको प्राप्त हो जाता है।’

योगदर्शनमें महर्षि पतंजलिके वाक्य हैं—

‘ईश्वरप्रणिधानाद्वा।’ (१।२३)

‘ईश्वरकी शरण ग्रहण करनेसे भी चित्तवृत्तियोंका निरोधरूप समाधि सिद्ध हो जाती है।’

जिस शरणागतिकी शास्त्रोंमें ऐसी महिमा कही गयी है, एक मामूली चद्दर हमें उसीकी शिक्षा देती है। वह सर्वतोभावेन अपने मालिकके शरण हुई रहती है, सदा-सर्वदा एवं सर्वथा उसके अधीन रहती है। मालिक उसका चाहे जैसे उपयोग करे—उसे कंधेपर रख ले अथवा पैरोंपर डाल ले, शरीरपर ओढ़ ले अथवा खूँटीपर टाँग दे, तहियाकर बक्समें रख दे अथवा बेपरवाहीसे जमीनपर फेंक दे, किसीको दान कर दे या बेच दे, पानीसे धो डाले अथवा कीचमें सान ले, फाड़कर चिथड़े-चिथड़े कर डाले अथवा जलाकर खाक कर दे—वह बदलेमें कुछ नहीं कहती। इस प्रकार चद्दर हमें आत्मसमर्पणका पाठ पढ़ाती है। हमें चाहिये कि हम भी चद्दरकी भाँति अपने प्रभुके सर्वथा अनुकूल बन जायँ—वह हमें जिस अवस्थामें रखे, उसीमें संतुष्ट रहें; उसकी इच्छामें अपनी इच्छाको विलीन कर दें, अपने व्यक्तित्वको भुला दें, अपनी स्वतन्त्र सत्ता खो दें। अपना सब कुछ उसीका समझें—यहाँतक कि अपने इन्द्रिय, मन, बुद्धि, प्राण और शरीरको भी उसीका मानें। जीवन-मृत्यु, सुख-दु:ख, मान-अपमान, स्तुति-निन्दा, ऐश्वर्य-दरिद्रता—सबको प्रभुकी देन समझकर गले लगायें। ऐश्वर्य पाकर फूलें नहीं और घोर-से-घोर कष्ट पड़नेपर भी मुँहसे उफ न निकालें। संक्षेपमें यही आत्मसमर्पणका स्वरूप है।

चद्दरसे हमें योगकी भी शिक्षा मिलती है। योगका अर्थ है चित्तवृत्तियोंका निरोध—‘योगश्चित्तवृत्तिनिरोध:’ (योग० १।२)। चित्तवृत्तियोंका निरोध हो जानेपर आत्मा अपने स्वरूपमें स्थित हो जाता है—‘तदा द्रष्टु: स्वरूपेऽवस्थानम्।’ (योग० १। ३)। जिस प्रकार चद्दर जहाँ हम उसे रख देते हैं, वहीं स्थिर होकर पड़ी रहती है, वहाँसे हिलती-डुलती नहीं—टस-से-मस भी नहीं होती, हमें भी चित्तकी वैसी ही अचल स्थिति प्राप्त कर लेनी चाहिये। गीतामें कहा है—

यथा दीपो निवातस्थो नेङ्गते सोपमा स्मृता।
योगिनो यतचित्तस्य युञ्जतो योगमात्मन:॥
(६। १९)

‘जिस प्रकार वायुरहित स्थानमें स्थित दीपक चलायमान नहीं होता वैसी ही उपमा परमात्माके ध्यानमें लगे हुए योगीके जीते हुए चित्तकी कही गयी है।’

चद्दरसे हमें ज्ञानका उपदेश भी मिलता है। जिस किसी चद्दरको हम ले लें, उत्पत्तिके पूर्व वह नहीं थी और नाशके बाद भी नहीं रहेगी। इससे सिद्ध होता है कि बीचमें—स्थिति-कालमें भी वह नहीं है, केवल दिखायी भर देती है; क्योंकि जो वस्तु है, उसका किसी भी कालमें अभाव नहीं हो सकता और जो नहीं है उसका किसी भी कालमें भाव नहीं हो सकता—यह निश्चित सिद्धान्त है। श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सत:।
(२। ६)

यदि चद्दर वास्तवमें होती तो उसका किसी भी कालमें अभाव नहीं होता। चद्दरका अभाव होता है, इसलिये वह है नहीं। जब वह है नहीं, तब जिस कालमें वह दिखायी देती है,उस कालमें भी वस्तुत: उसका अभाव ही है, वह भ्रमसे हमें सत् प्रतीत होती है। यही हाल हमारे शरीरका है। हमारा शरीर भी जन्मसे पहले नहीं था और मृत्युके बाद नहीं रहेगा। इससे सिद्ध होता है कि जिसे हम जीवनकाल कहते हैं, उसमें भी वह है नहीं, केवल भ्रमसे प्रतीत होता है। यदि होता तो उपर्युक्त सिद्धान्तके अनुसार उसका अभाव किसी भी कालमें सम्भव नहीं था। श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना॥
(२।२८)

‘हे अर्जुन! सम्पूर्ण प्राणी जन्मसे पहले अप्रकट थे और मरनेके बाद भी अप्रकट हो जानेवाले हैं, केवल बीचमें ही प्रकट हैं; फिर ऐसी स्थितिमें क्या शोक करना है?’

जो वस्तु है ही नहीं, उसके लिये शोक कैसा?

इस प्रकार शरीर तो नाशवान् है ही। उसमें रहनेवाला आत्मा अजर एवं अमर है, शरीरका नाश हो जानेपर भी उसका नाश नहीं होता। जिस प्रकार चद्दरके फट जानेपर, उसे ओढ़नेवालेका कुछ भी नहीं बिगड़ता। श्रीभगवान् कहते हैं—

अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम्।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति॥
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण:।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य .................................॥
न जायते म्रियते वा कदाचि-
न्नायं भूत्वा भविता वा न भूय:।
अजो नित्य: शाश्वतोऽयं पुराणो
न हन्यते हन्यमाने शरीरे॥
(गीता २। १७-१८,२०)

‘नाशरहित तो तू उसको जान, जिससे यह सम्पूर्ण जगत्—दृश्यवर्ग व्याप्त है। इस अविनाशीका विनाश करनेमें कोई भी समर्थ नहीं है। इस नाशरहित, अप्रमेय, नित्यस्वरूप जीवात्माके ये सब शरीर नाशवान् कहे गये हैं। यह आत्मा किसी कालमें भी न तो जन्मता है और न मरता ही है तथा न यह उत्पन्न होकर फिर होनेवाला ही है। क्योंकि यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है; शरीरके मारे जानेपर भी यह नहीं मारा जाता।’

शरीर सब अनित्य एवं असत् हैं तथा आत्मा नित्य एवं सत् है—यह ज्ञान ही वास्तविक ज्ञान है। यह ज्ञान हो जानेपर मनुष्य शोकसे रहित हो जाता है। श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—

गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिता:॥
(२। ११)

‘जिनका प्राणोंसे वियोग हो गया है और जिनके प्राण अभी नहीं निकले हैं—जो अभीतक जीवित हैं, उन दोनोंके लिये ही ज्ञानीजन शोक नहीं करते।’ उनकी जीवन और मृत्युमेें समदृष्टि होती है। वे जानते हैं कि शरीर तो रहनेवाली वस्तु है नहीं उसका तो नाश अवश्यम्भावी है; क्योंकि वह वस्तु-दृष्टिसे है ही नहीं और आत्मा कभी मरता नहीं—उसका त्रिकालमें भी नाश नहीं होता। वह सदा स्थिर रहनेवाली वस्तु है। वस्तुत: आत्माके अतिरिक्त कुछ है ही नहीं। आत्माके अतिरिक्त जो कुछ दीखता है, वह माया है—भ्रम है। इसी ज्ञानका नाम अद्वैत ज्ञान है। श्रुति भगवती कहती है कि इस अद्वैत तत्त्वका ज्ञान हो जानेपर शोक और मोहके लिये कोई कारण ही नहीं रह जाता, उनका सर्वथा सदाके लिये उच्छेद हो जाता है—‘तत्र को मोह: क: शोक एकमनुपश्यतः।’ (ईशो० ७)इस अद्वैत ज्ञानकी शिक्षा हमें चद्दरसे किस प्रकार मिलती है—यह हम ऊपर बता आये हैं।

चद्दर हमें कर्मका उपदेश भी देती है। चद्दरका उपयोग त्वचाको शीत-उष्ण आदिसे बचानेमें है, वह न सूँघनेके काम आती है, न सुननेके और न चखनेके । वह केवल ओढ़ने-बिछाने आदिके काममें ही आती है। इसी प्रकार यह मनुष्य-शरीर दूसरोंकी सेवाके लिये बनाया गया है, इसका सेवाके कार्योंमें ही अधिक-से-अधिक उपयोग होना चाहिये। इसकी सत्ता चद्दरकी भाँति सबके उपयोगके लिये ही है। मनुष्य-शरीर ही एक ऐसा शरीर है जिससे देवता, ऋषि-मुनि, पितरों एवं भूत-प्रेतोंसे लेकर मनुष्यों, पशु-पक्षियों, कीट-पतंगों तथा वनस्पतियोंतककी सेवा हो सकती है। पंचमहायज्ञ इसी सेवाके प्रतीक हैं। यह जगत् आदान-प्रदानका क्षेत्र है। देवताओंसे लेकर पशु-पक्षियों एवं वनस्पतियोंतकके द्वारा मनुष्यजातिकी किसी-न-किसी रूपमें सेवा होती है। इस सेवाके बदलेमें मनुष्यको भी चाहिये कि वह अन्य समस्त प्राणियोंकी सेवा करे। श्रीभगवान् ने गीतामें कहा है—

सहयज्ञा: प्रजा: सृष्ट्वा पुरोवाच प्रजापति:।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्॥
देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु व:।
परस्परं भावयन्त: श्रेय: परमवाप्स्यथ॥
इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविता:।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्‍क्ते स्तेन एव स:॥
यज्ञशिष्टाशिन: सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषै:।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्॥
अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञ: कर्मसमुद्भव:॥
कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्॥
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह य:।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति॥
(३। १०—१६)

‘प्रजापति ब्रह्माने कल्पके आदिमें यज्ञसहित प्रजाओंको रचकर उनसे कहा कि तुमलोग इस यज्ञके द्वारा वृद्धिको प्राप्त होओ और यह यज्ञ तुमलोगोंको इच्छित भोग प्रदान करनेवाला हो। तुमलोग इस यज्ञके द्वारा देवताओंको उन्नत करो और वे देवता तुमलोगोंको उन्नत करें— इस प्रकार नि:स्वार्थभावसे एक-दूसरेको उन्नत करते हुए तुमलोग परम कल्याणको प्राप्त हो जाओगे। यज्ञके द्वारा बढ़ाये हुए देवता तुमलोगोंको बिना माँगे ही इच्छित भोग निश्चय ही देते रहेंगे। इस प्रकार उन देवताओंके द्वारा दिये हुए भोगोंको जो पुरुष उनको बिना दिये स्वयं भोगता है, वह चोर ही है। यज्ञसे बचे हुए अन्नको खानेवाले श्रेष्ठ पुरुष सब पापोंसे मुक्त हो जाते हैं और जो पापीलोग अपना शरीरपोषण करनेके लिये ही अन्न पकाते हैं, वे तो पापको ही खाते हैं। सम्पूर्ण प्राणी अन्नसे उत्पन्न होते हैं, अन्नकी उत्पत्ति वृष्टिसे होती है, वृष्टि यज्ञसे होती है और यज्ञ विहित कर्मोंसे उत्पन्न होनेवाला है। कर्मसमुदायको तू वेदसे उत्पन्न और वेदको अविनाशी परमात्मासे उत्पन्न हुआ जान। इससे सिद्ध होता है कि सर्वव्यापी परम अक्षर परमात्मा सदा ही यज्ञमें प्रतिष्ठित है। हे पार्थ! जो पुरुष इस लोकमें इस प्रकार परमात्मासे प्रचलित सृष्टिचक्रके अनुकूल नहीं बरतता अर्थात् अपने कर्तव्यका पालन नहीं करता, वह इन्द्रियोंके द्वारा भोगोंमें रमण करनेवाला पापायु पुरुष व्यर्थ ही जीता है।’

यज्ञका व्यापक अर्थ सेवा है। निष्काम सेवाकी ही बात यज्ञके नामसे ऊपर कही गयी है। यहाँ ‘देवता’ शब्दको समस्त प्राणियोंका उपलक्षण समझना चाहिये। देवताओंसे लेकर जगत् के समस्त चराचर जीव किसी-न-किसी रूपमें मनुष्यकी सेवा करते हैं। अत: मनुष्यका भी कर्तव्य है कि वह बदलेमें समस्त चराचर जीवोंकी निष्कामभावसे सेवा करे। देवताओंको यज्ञ, हवन, वैश्वदेव आदिसे सन्तुष्ट करे; ऋषियोंको स्वाध्यायरूप ज्ञानयज्ञसे एवं ज्ञानके विस्तारद्वारा प्रसन्न करे; पितरोंको श्राद्ध-तर्पण आदिसे तृप्त करे; मनुष्योंको अन्न-जल, वस्त्र, आश्रयदान एवं अन्य प्रकारकी सेवाओंद्वारा सुख पहुँचाये; अन्य प्राणियोंका भी भक्षक न बनकर रक्षक बने, उनके आहार आदिकी समुचित व्यवस्था करे और उन्हें सब प्रकारकी सुविधाएँ दे तथा पेड़-पौधोंको भी जल आदि देकर उनकी रक्षा करे, उनका अनावश्यक क्षय न करे। इस प्रकार एक-दूसरेकी सेवा करने और परस्पर सुख पहुँचानेसे सृष्टिकी व्यवस्था ठीक चलती है और संसारके सभी जीव सुखी रहते हैं, किसीको अनावश्यक कष्ट नहीं होता। यह विश्व जगत्पिता परमात्माका बृहत् परिवार है। यह तभी सुखी रह सकता है, जब इस परिवारके सभी अंग एक-दूसरेकी सहायता करें, परस्पर सुख पहुँचायें। जो ऐसा नहीं करता, दूसरोंसे सहायता लेता है; किन्तु बदलेमें दूसरोंकी सेवा नहीं करता, वह तो अपराधी और दण्डका पात्र है। यही बात गीताके उपर्युक्त श्लोकोंमें कही गयी है। हमारे शास्त्रोंने बलिवैश्वदेव एवं तर्पणमें देवताओंसे लेकर कीट-पतंगतकको अन्न एवं जल देनेका विधान किया है। यहाँतक कि हमारे यहाँ सन्ध्या-गायत्री आदि ईश्वरोपासना भी विश्व-कल्याणकी भावनासे ही करनेकी आज्ञा है। ऐसा समझकर जो मनुष्य निष्कामभावसे सबकी सेवा करता है उसका तो कल्याण हो ही जाता है।

इसके अतिरिक्त मनुष्य भगवान् की सृष्टिका सर्वश्रेष्ठ प्राणी है। समस्त प्राणियोंकी रचना कर चुकनेपर भी जब विधाताको सन्तोष नहीं हुआ, तब उन्होंने मनुष्य-प्राणीको रचा। मनुष्यको भगवान् ने अपनी ही प्रतिकृति बनाया है। इस नाते भी प्राणिमात्रकी रक्षा करना, उन्हें सेवाके द्वारा सुख पहुँचाना ही मनुष्यका परम कर्तव्य है। कुछ लोग भूलसे ऐसा मान बैठते हैं कि संसारके समस्त प्राणी मनुष्यकी सेवाके लिये, उसे सुख पहुँचानेके लिये रचे गये हैं, वह उनका चाहे जैसे उपयोग कर सकता है। जगत् का मांसाहारी जनसमुदाय तो मनुष्येतर समस्त जीवोंकी सृष्टि मनुष्यकी क्षुधा-निवृत्तिके लिये, नहीं-नहीं, उसकी जिह्वाको सुख पहुँचानेके लिये ही मानता है। मनुष्यका इससे बड़ा पतन और क्या हो सकता है। मनुष्यकी सर्वश्रेष्ठता क्या इन्द्रियतृप्तिके द्वारा अपना स्वार्थ सिद्ध करनेमें ही है? तब तो वह जगत् का सर्वश्रेष्ठ प्राणी न होकर सर्वाधिक स्वार्थी अतएव सर्वापेक्षा नीच कहलानेका ही अधिकारी होगा। जिसमें स्वार्थकी मात्रा जितनी अधिक होगी, वह उतना ही नीच समझा जायगा। मनुष्य प्राणिजगत् में सर्वश्रेष्ठ तभी कहला सकता है, जब वह सबको सुख पहुँचानेकी चेष्टा करे। फिर जिह्वाके क्षणिक स्वादके लिये अथवा क्षुधा शान्त करनेके लिये भी किसी जीवकी हिंसा करना तो अत्यन्त नृशंस एवं घृणित कार्य है। इसका समर्थन कौन बुद्धिमान् एवं विवेकी मनुष्य कर सकता है।

मनुष्यके अंगोंकी बनावट देखकर भी कोई यह नहीं कह सकता कि मनुष्यको प्रकृतिने मांसाहारी बनाया है। मनुष्यकी तो बात ही अलग रहे, मनुष्येतर प्राणियोंमें भी हाथी, घोड़ा, गदहा, भैंसा, गौ, बंदर, हरिन, बकरा, भेड़, कबूतर आदि अनेकों जीव ऐसे हैं जो वनस्पति तथा अन्न आदिसे ही अपना निर्वाह करते हैं और भूलकर भी मांसका सेवन नहीं करते। जब मनुष्येतर सृष्टिमें भी ऐसी अनेकों योनियाँ है जो मांससे घृणा करती हैं, तब मनुष्यके सम्बन्धमें यह कहना कि मनुष्यको प्रकृतिने ही मांसाहारी बनाया है, अपनी बुद्धिका दीवाला निकालना है। सच तो यह है कि जिस प्रकार चद्दरका उपयोग ओढ़ने-बिछानेमें ही है, सूँघने, सुनने अथवा चखनेमें नहीं, उसी प्रकार मनुष्य-जीवनकी चरितार्थता दूसरोंकी सेवा एवं उन्हें सुख पहुँचानेमें ही है, उनकी हिंसा करने अथवा उन्हें भक्षण करनेमें नहीं। इसके विपरीत जो लोग अन्य प्राणियोंकी हिंसा करनेमें ही मनुष्य-जीवनकी चरितार्थता समझते हैं, वे तो इस सुरदुर्लभ मनुष्य-जन्मका दुरुपयोग ही करते हैं। उन्हें पुन: यह मनुष्य-जीवन नहीं मिलता। उनकी मृत्युके बाद जैसी दुर्गति होती है, उसका स्वयं श्रीभगवान् ने अपने श्रीमुखसे इस प्रकार वर्णन किया है। वे कहते हैं—

तानहं द्विषत: क्रूरान्संसारेषु नराधमान्।
क्षिपाम्यजस्रमशुभानासुरीष्वेव योनिषु॥
आसुरीं योनिमापन्ना मूढा जन्मनि जन्मनि।
मामप्राप्यैव कौन्तेय ततो यान्त्यधमां गतिम्॥
(गीता १६। १९-२०)

‘उन द्वेष करनेवाले पापाचारी और क्रूरकर्मी नराधमोंको मैं संसारमें बार-बार आसुरी योनियोंमें ही डालता हूँ। हे अर्जुन। वे मूढ मुझको न प्राप्त होकर जन्म-जन्ममें आसुरी योनिको प्राप्त होते हैं, फिर उससे भी अति नीच गतिको ही प्राप्त होते हैं अर्थात् घोर नरकोंमें पड़ते हैं।’

मनुष्यकी उन्नति एवं अवनति उसीके हाथ है। अत: मनुष्यको चाहिये कि वह अपने कल्याणका, आध्यात्मिक उन्नतिका ही साधन करे, जान-बूझकर अपनेको अवनतिके गर्तमें न गिराये। श्रीभगवान् ने भी कहा है—‘उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत्’ (गीता ६। ५)। अपने स्वरूपके अनुसार आचरण करना ही अपनेको उन्नत करना है और उसके विपरीत चेष्टा करना अपनेको मनुष्यत्वसे गिराना, अधोगतिमें ले जाना है। स्वार्थत्यागपूर्वक दूसरोंकी सेवा करना ही मनुष्यका वास्तविक स्वरूप है। जिस प्रकार गदहेको देखकर मनमें यही भाव उत्पन्न होता है कि यह कोई भारवाही पशु है, सिंहकी आकृतिसे ही यह पता लग जाता है कि यह कोई क्रूर एवं हिंसक जन्तु है, उसी प्रकार मनुष्यको देखनेसे यह पता चलता है कि इसे भगवान् ने दूसरोंकी सेवाके लिये, उन्हें सुख पहुँचानेके लिये ही रचा है। गोस्वामी तुलसीदासजीने पाप और पुण्यकी संक्षेपमें इस प्रकार व्याख्या की है—

पर हित सरिस धर्म नहिं भाई।
पर पीड़ा सम नहिं अधमाई॥

इसे संस्कृतके निम्नलिखित पद्यका भावानुवाद कह सकते हैं—

अष्टादशपुराणेषु व्यासस्य वचनद्वयम्।
परोपकार: पुण्याय पापाय परपीडनम्॥

कहना न होगा कि धर्म ही आत्माको उन्नत करनेवाला है और पाप ही उसे नीचे गिरानेवाला—पातक है। श्रीभगवान् ने भी प्राणिमात्रके हितमें रत रहना अपनी प्राप्तिका उपाय बतलाया है—

ते प्राप्नुवन्ति मामेव सर्वभूतहिते रता:॥
(गीता १२। ४)

‘वे सम्पूर्ण भूतोंके हितमें रत योगी मुझको ही प्राप्त होते हैं।’ चद्दरसे हमें इस प्रकार सबके उपयोगी बननेकी शिक्षा मिलती है।

इसी प्रकार चद्दर हमें वैराग्यका भी उपदेश देती है। चद्दरका सदा-सर्वदा एक-सा रूप नहीं रहता। स्वभावत: परिणामी होनेके कारण वह प्रतिक्षण क्षीण होती रहती है और क्षीण होते-होते एक दिन सर्वथा नष्ट हो जाती है। यही दशा हमारे शरीरकी भी है, वह प्रतिक्षण मृत्युकी ओर जा रहा है। एक दिन ऐसा आयेगा जब वह सर्वथा शक्तिहीन एवं क्रियाहीन होकर पड़ जायगा और मिट्टीमें मिल जायगा। यही हाल संसारके अन्य पदार्थों—विषयभोगोंका है। संसारके सभी विषय असत् एवं दु:खरूप हैं। हमने भ्रमसे उन्हें सत् एवं सुखरूप मान रखा है। यदि वे वास्तवमें सत् एवं सुखरूप होते तो सदा रहते और उनसे हमें सदैव सुख ही मिलता। परन्तु ऐसा देखनेमें नहीं आता। उदाहरणके लिये दूधको ले लीजिये। वह देखनेमें बहुत ही सुन्दर, स्वादु, आरोग्यकर और सुखदायक प्रतीत होता है। परन्तु जो स्वाद और गुण ताजे अथवा हालके गर्म किये हुए दूधमें पाया जाता है, वह बासी तथा ठंडे दूधमें नहीं पाया जाता। दो दिन पड़ा रहनेपर तो उसका स्वाद बिलकुल बिगड़ जाता है और उसका गुण भी नष्ट हो जाता है। वही दस दिन पड़ा रहनेपर विष-तुल्य हो जायगा; उसका नाम, रूप, स्वाद और गुण—सब कुछ बदल जायगा। न्यूनाधिक रूपमें यही दशा सभी विषयोंकी है। परिवर्तन और विनाश ही जगत् का रूप है।

जगत् के पदार्थोंमें सुखरूपता भी हमें भ्रमसे ही प्रतीत होती है, वास्तवमें तो वे सभी दु:खरूप ही हैं। उदाहरणके लिये एक पुष्पमालाको ले लीजिये। दो-चार बार सूँघनेमें तो वह अच्छी मालूम होती है, परन्तु अधिक देरतक उसे हम नाकसे सटाकर नहीं रख सकते; कुछ देरके बाद ऊबकर हम उसे अलग रख देते हैं। फिर यदि कोई जबर्दस्ती उसे हमारी नाकके पास ले जाना चाहेगा तो हम झुँझला उठेंगे। हमारी इस विरक्तिका क्या कारण है; यदि मालामें सुख होता तो हम उसे सदा-सर्वदा अपनी नाकसे सटाये रखते,एक क्षणके लिये भी उसे अलग नहीं करते परन्तु बात कुछ दूसरी ही है। विषयोंमें हमें भ्रान्तिसे ही क्षणिक सुखकी प्रतीति होती है, परिणाममें वे दु:खरूप ही हैं। स्त्री-प्रसंग आदिकी तो दु:खरूपता प्रकट ही है। उसमें एक बार क्षणभरके लिये सुखकी प्रतीति होती है; फिर ग्लानि, दु:ख, विरक्ति, क्लान्ति, निर्बलता आदि ही हमारे हाथ लगते हैं एवं बल, वीर्य, तेज और बुद्धिका नाश तथा स्वास्थ्यकी हानि तो इससे प्रत्यक्ष ही होती है। इसका अधिक और निषिद्ध सेवन करनेसे तो मनुष्य रोगी और अल्पजीवी हो जाता है; शीघ्र ही कालका कवल बन जाता है और परलोकमें उसकी दुर्गति होती है; इसीलिये भगवान् गीतामें कहते हैं—

अनित्यमसुखं लोकमिमं प्राप्य भजस्व माम्॥
(९। ३३)

‘इसलिये तू सुखरहित और क्षणभंगुर इस मनुष्य-शरीरको प्राप्त होकर निरन्तर मेरा ही भजन कर।’

यह मनुष्य-जीवन अनित्य अर्थात् विनाशी है, यह प्रतिक्षण मृत्युकी ओर जा रहा है। न जाने कब हमें इससे हाथ धोना पड़े। है भी यह दु:खरूप, इसमें सुखकी प्रतीति भ्रमसे हो रही है। परन्तु क्षणभंगुर एवं दु:खरूप होनेपर भी यह मिलता बड़े पुण्योंसे है; क्योंकि नित्य सुखरूप भगवान् की प्राप्ति इसी अनित्य एवं दु:खरूप मनुष्य-शरीरसे सम्भव है। इसलिये इस दुर्लभ मानवदेहको पाकर यदि हम इससे भगवत्प्राप्तिरूप स्थायी और परम लाभ उठाना चाहें तो इसका एकमात्र उपाय है—भगवत्-शरणागति, जिसका स्वरूप स्वयं भगवान् के शब्दोंमें इस प्रकार है—

मन्मना भव मद्भक्तो मद्याजी मां नमस्कुरु।
मामेवैष्यसि युक्त्वैवमात्मानं मत्परायण:॥
(गीता ९। ३४)

‘मुझमें मनवाला हो, मेरा भक्त बन, मेरा पूजन करनेवाला हो, मुझको प्रणाम कर। इस प्रकार आत्माको मुझमें युक्त करके मेरे परायण होकर तू मुझको ही प्राप्त होगा।’

इस प्रकार एक मामूली चद्दरसे हमें भगवत्-शरणागति, योग, ज्ञान, कर्म और वैराग्यकी अनुपम शिक्षा मिलती है। हम चाहें तो इसी प्रकार जगत् के समस्त पदार्थोंसे उत्तमोत्तम शिक्षा ले सकते हैं। किसी कविने क्या ही सुन्दर कहा है—

उत्तम विद्या लीजिए जदपि नीच पै होय।
पर्‍यो अपावन ठौर महँ कंचन तजै न कोय॥


Source: Tattva-chinta-mani book published by Gita Press, Gorakhpur