छ: प्रकारकी महत्त्वपूर्ण चार-चार बातें
चार प्रकारके मनुष्य
संसारमें चार प्रकारके मनुष्य होते हैं—उत्तम, मध्यम, कनिष्ठ और नीच।
१-उत्तम मनुष्य वे हैं, जो अपने साथ बुराई करनेवालोंके प्रति भी बुराई न करके सदा भलाई ही करते हैं। ये मनुष्य प्रथम श्रेणीके हैं।
२-दूसरी श्रेणीके मध्यम मनुष्य वे हैं, जो अपने प्रति बुराई करनेवालोंके साथ न तो भलाई करते हैं और न बुराई ही। उनका निश्चय होता है कि हमारा जो कुछ अनिष्ट हुआ है या हो रहा है, इसमें प्रारब्ध ही कारण है। किसीका कोई दोष नहीं। वे तो बेचारे केवल निमित्तमात्र हैं।
३-तीसरी श्रेणीके वे कनिष्ठ मनुष्य हैं, जो अपने प्रति बुराई करनेवालोंके साथ बुराई करते हैं और उनसे बदला लेनेका प्रयत्न करते हैं।
इन प्रतिहिंसापरायण लोगोंमें भी चार प्रकार होते हैं। प्रथम, जो बुराई करनेवालेके साथ बदलेमें तुरन्त उतनी ही या उससे न्यूनाधिक बुराई करके बदला ले लेते हैं। द्वितीय, जो अनिष्ट करनेवालेके साथ स्वयं अनिष्ट न करके अदालतमें दावा कर देते हैं। तृतीय, जो अदालतमें न जाकर पंचोंके द्वारा दण्ड दिलवाते हैं और चतुर्थ, पंचोंसे कुछ भी न कहकर अनिष्ट करनेवालेको समुचित दण्ड मिले, इसके लिये परमात्मासे प्रार्थना करते हैं। ये चारों ही कनिष्ठ श्रेणीके मनुष्य होते हैं।
४-चतुर्थ श्रेणीके नीच मनुष्य वे हैं, जो भलाई करनेवालोंके साथ भी बुराई ही किया करते हैं। ऐसे लोगोंके द्वारा किसीका भला होना सम्भव नहीं।
उपर्युक्त चारों श्रेणियोंके मनुष्योंके साथ अपना भला चाहनेवाले पुरुषको सदा सद्व्यवहार ही करना चाहिये।
चार याद रखने और भूलनेकी बातें
चार बातोंमें दो सदा याद रखनेकी हैं और दो सर्वथा भुला देनेकी।
याद रखनेयोग्य बातोंमें पहली बात है—(१) ‘किसीके द्वारा अपने प्रति किया गया कोई भी उपकार।’ दूसरेका उपकार याद रखनेसे उसके प्रति मनमें पवित्र कृतज्ञताके भाव आते हैं, नम्रता आती है, उसके हितके विचार और कर्म होते हैं, जिससे हम उसके ऋणसे मुक्त हो जाते हैं और परिणाममें हमारा हित एवं कल्याण होता है। दूसरी याद रखनेयोग्य बात है—(२) ‘अपने द्वारा किया गया किसीका अपकार।’ इसकी स्मृतिसे चित्तमें पश्चात्ताप होता है, दुबारा वैसी भूल न करनेके लिये प्रेरणा मिलती है और उस व्यक्तिको सुख पहुँचानेवाले हितकारक विचार और कार्य करके उससे और परमात्मासे क्षमा प्राप्त करनेका प्रयत्न होता है। यही इसका प्रायश्चित्त है, इससे पापका नाश होकर कल्याणकी प्राप्ति होती है।
भूलनेयोग्य दो बातोंमें पहली बात है—(१) ‘अपने द्वारा किया गया किसीका उपकार।’ इसकी स्मृतिसे चित्तमें अभिमान उत्पन्न होता है, ‘मैं उपकारक हूँ’ और ‘वह उपकार प्राप्त करनेवाला है।’ इस प्रकार अपनेमें श्रेष्ठबुद्धि और उसमें हीनबुद्धि होती है, जिससे उसके तिरस्कारकी आशंका रहती है; और यदि कभी उसके आचरणमें कृतज्ञता नहीं दीखती तो अपने मनमें दु:ख और उसके प्रति रोष भी हो सकता है। साथ ही उपकारकी स्मृति यदि प्रमादवश कहीं उसे लोगोंमें कहलवा देती है तो उस उपकारका पुण्य नष्ट हो जाता है। अतएव अभिमानसे बचने और पुण्यकी रक्षा करनेके लिये उसे भुला देना चाहिये। दूसरी भुला देनेयोग्य बात है—(२) ‘दूसरेके द्वारा किया गया अपना अपकार।’ इसे याद रखनेसे मनमें द्वेष, वैर और प्रतिहिंसाकी वृत्तियाँ पैदा होती हैं और उनके कारण अनिष्टाचरण और पाप होनेकी सम्भावना रहती है। द्वेष और वैरके कारणसे चित्तमें सदा जलन रहती है और कदाचित् वैरजनित कोई क्रिया हो जाय तो नयी-नयी जलन पैदा करनेवाले परिणाम उत्पन्न हो सकते हैं, इसलिये इसे भी भुला देना चाहिये।
चार प्रकारकी मुक्ति
चार प्रकारकी मुक्तियाँ हैं—सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य और सायुज्य। सालोक्य—भगवान् के दिव्यलोकमें रहना; सामीप्य—भगवान् के समीप रहना; सारूप्य—भगवान् के रूपके समान रूपका प्राप्त करना और सायुज्य—भगवान् के रूपमें मिल जाना।
चार प्रकारके मुक्त पुरुष
मुक्त पुरुष भी चार प्रकारके होते हैं—
(१) जो मुक्ति ग्रहण करते हैं और संसारका काम भी करते हैं। उनके सांसारिक कामका अभिप्राय है—भूले-भटके लोगोंको अपने विशुद्ध आचरणोंका आदर्श सामने रखकर और भगवद्भक्तिका उपदेश देकर मुक्तिके सन्मार्गपर लगा देना।
(२) जो मुक्तिके अधिकारी होकर भी मुक्ति नहीं लेते और भक्ति ही चाहते हैं। साथ ही लोगोंको भगवद्भक्तिमें लगानेका काम भी करते रहते हैं।
(३) जो न तो मुक्ति ग्रहण करते हैं और न उपदेशादि कार्य ही करते हैं। निरन्तर एकान्त भावराज्यमें रहकर अपने प्रियतम भगवान् की प्रेमभावसे अनन्य भक्ति ही करते रहते हैं। ‘मुक्ति निरादर भगति लुभाने।’
(४) जो मुक्त होकर नित्य उपरत अवस्थामें स्थित रहते हैं; किसीके उद्धारादिकी कोई चेष्टा नहीं करते।
चार प्रकारके स्त्री-पुरुष
संसारमें साधारण स्त्री-पुरुष भी चार श्रेणीके होते हैं। प्रथम वे, जो यहाँ भी आनन्दमें हैं और परलोकमें भी आनन्दमें रहेंगे। दूसरे वे, जिन्हें यहाँ भी दु:ख है और परलोकमें भी दु:ख ही भोगना पड़ेगा। तीसरे वे, जिन्हें यहाँ तो सुख है; परंतु परलोकमें दु:ख मिलेगा और चौथे वे, जिन्हें यहाँ दु:ख है; किंतु जो परलोकमें सुखके भागी होंगे। इनकी विशेष व्याख्या यों समझनी चाहिये।
१-मनुष्य-शरीरको प्राप्त करके परलोक और ईश्वरमें विश्वास करते हुए जो लोग प्रेमपूर्वक भजन, ध्यान और सत्संग करते हैं, वे यहाँ भी सुखी रहते हैं और परलोकमें भी परम सुख प्राप्त करते हैं। यहाँ तो उन्हें भजन, ध्यान और सत्संगसे प्रसन्नता एवं शान्ति मिलती है और देहत्यागके बाद भजनके फलस्वरूप वे परमगतिको पाकर परम शान्ति और परम आनन्दको प्राप्त करते हैं।
२-राग-द्वेषयुक्त, काम-क्रोध-लोभ आदिके चंगुलमें फँसे हुए कलह-परायण लोग, जो निरन्तर परस्पर वैर-विद्वेष, लड़ाई-झगड़े,गाली-गलौज, मार-पीट और मुकदमेबाजी आदिमें स्वभावसे ही लगे रहते हैं। ऐसे लोग यहाँ भी दु:खी रहते हैं और परलोकमें भी दु:खको ही प्राप्त होंगे; क्योंकि यहाँ दिन-रात वैर-विरोधके कारण उन्हें जलते ही बीतता है और देह-त्यागके बाद वे इन पापोंके फलस्वरूप दुर्गतिको पाकर नाना प्रकारकी विविध योनिगत पीड़ाओं और नारकीय यन्त्रणाओंको भोगते हैं।
३-जिन्हें प्रारब्धके फलस्वरूप यहाँ नाना प्रकारके भोग-सुख प्राप्त हैं; परन्तु जो भोगासक्तिमें फँसकर सर्वदा कामोपभोगकी प्राप्तिके लिये झूठ-कपट, चोरी-व्यभिचार आदिमें लगे रहते हैं, वे यहाँ तो प्रारब्धजनित सुख भोगते हैं; परंतु परलोकमें उनकी दुर्गति होगी और वे महान् दु:खको प्राप्त करेंगे।
४-जो यहाँ निष्कामभावसे यज्ञ-दान, जप-ध्यान, तीर्थ-पर्व, व्रत-उपवास, सेवा-संयम और त्याग-तप आदिमें लगे रहकर कष्ट सहते हैं और लोकदृष्टिमें दु:खी माने जाते हैं; परंतु इन साधनों और तपस्याओंके फलस्वरूप देहत्यागके बाद वे परम गतिको पाकर सदाके लिये परम शान्ति और परम आत्यन्तिक सुखको प्राप्त करेंगे।
चार प्रकारके भक्त
भक्त भी चार प्रकारके होते हैं। प्रथम, जो स्त्री, पुत्र, धन, भवन आदि भोगपदार्थोंके लिये भगवान् का भजन करते हैं—जैसे ध्रुव आदि। ये अर्थार्थी भक्त हैं। द्वितीय, जो भोगपदार्थोंके लिये तो भजन नहीं करते परंतु लौकिक दु:खोंकी निवृत्तिके लिये भगवान् का भजन करते हैं—जैसे द्रौपदी, गजेन्द्र आदि। ये आर्त भक्त हैं। तृतीय, वे जिज्ञासु भक्त हैं, जो बड़ी-से-बड़ी विपत्तिमें भी भगवान् से कुछ नहीं चाहते, केवल भगवत्तत्त्व जाननेके लिये निरन्तर भजन, ध्यान, सत्संग करते रहते हैं—जैसे उद्धव आदि। और चतुर्थ, वे निष्काम भक्त हैं, जो मुक्तिकी भी इच्छा नहीं करते—जैसे प्रह्लाद आदि।
प्रह्लादमें निष्कामभाव चरम सीमाको पहुँचा हुआ था। भगवान् श्रीनृसिंहदेवने प्रगट होकर जब प्रह्लादसे बार-बार बड़े ही वात्सल्य भावसे वर माँगनेके लिये कहा, तब प्रह्लादजी बोले—‘भगवन्! मेरे मनमें कुछ भी इच्छा प्रतीत नहीं होती, पर जब आप बार-बार कह रहे हैं तब पता चलता है कि मेरे मनमें कोई छिपी इच्छा होगी। अतएव हे दयामय! आप मुझपर प्रसन्न हैं तो यही वर दीजिये कि यदि कोई छिपी वासना हो तो उसका सर्वथा नाश हो जाय।’ यही निष्काम भक्ति है।
श्रीभगवान् ने गीता अध्याय ७, श्लोक १६ में उपर्युक्त चार प्रकारके भक्तोंका वर्णन किया है। अर्थार्थी, आर्त, जिज्ञासु और ज्ञानी—इन सबमें ज्ञानी भगवान् को अति प्रिय है—
तेषां ज्ञानी नित्ययुक्त एकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थमहं स च मम प्रिय:॥
(गीता ७। १७)
‘उनमें नित्य मुझमें एकीभावसे स्थित अनन्य प्रेमभक्तिवाला ज्ञानी भक्त अति उत्तम है, क्योंकि मुझको तत्त्वसे जाननेवाले ज्ञानीको मैं अत्यन्त प्रिय हूँ और वह ज्ञानी मुझे अत्यन्त प्रिय है।’
उपर्युक्त छ: तरहके चार-चार प्रकारोंको समझकर यदि लोग इससे लाभ उठावेंगे तो मैं अपने प्रति उनकी कृपा समझूँगा।