Seeker of Truth

ब्रह्मपुराणपर एक विहङ्गम-दृष्टि

ब्रह्मपुराणका उपक्रम तथा राजा पृथुका चरित्र

ब्रह्मपुराणमें लोमहर्षण सूतका शौनकादि ऋषियोंके साथ संवाद है। उसमें पहले-पहल सृष्टिकी उत्पत्ति तथा महाराज पृथुका पावन चरित्र वर्णित है। प्रजाका रंजन करनेके कारण वे सर्वप्रथम राजा कहलाये। वे जब समुद्रकी यात्रा करते, उस समय समुद्रका जल स्थिर हो जाता था। पर्वत उन्हें जानेके लिये मार्ग दे दिया करते थे और उनके रथकी ध्वजा कभी भंग नहीं हुई। उनके राज्यमें पृथ्वी बिना जोते-बोये ही अन्न पैदा करती थी। यही नहीं, राजाका चिन्तन करनेमात्रसे लोगोंका अन्न अपने-आप पक जाया करता था। सभी गौएँ कामधेनु बन गयी थीं और वृक्षोंके पत्तों-पत्तोंमें मधु भरा रहता था। सूत और मागधोंने जैसी-जैसी इनकी स्तुति की, उसी-उसीके अनुरूप इन्होंने कर्म कर दिखाये। तभीसे लोकमें सूत, मागध एवं वन्दीजनोंद्वारा आशीर्वाद दिलानेकी परिपाटी चल पड़ी। भूमिको सम करनेका कार्य भी राजा पृथुने ही किया। इससे पहले भूमि समतल न होनेके कारण पुरों अथवा ग्रामोंका कोई सीमाबद्ध विभाग नहीं हो सका था। उस समय अन्न, गोरक्षा, खेती और व्यापार भी नहीं होते थे। यह सब पृथुके समयसे ही प्रारम्भ हुआ है। उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल-मूल ही था और वह भी बड़ी कठिनाईसे मिलता था। राजा पृथुने पृथ्वीसे सब प्रकारके अन्नोंका दोहन किया। उन्हीं अन्नोंसे आज भी प्रजा जीवन धारण करती है। पृथुने ही इस पृथ्वीका विभाग एवं शोधन किया, जिससे यह अन्नकी खान और समृद्धिशालिनी बन गयी तथा गाँवों और नगरोंसे इसकी शोभा हो गयी। पृथुके सम्बन्धसे ही इसका नाम पृथ्वी हुआ।

भारतवर्षकी महिमा तथा भगवन्नामका अलौकिक माहात्म्य

इसके अनन्तर चौदह मन्वन्तरों तथा विवस्वान् की संततिका वर्णन है और फिर क्रमश: सूर्यवंश एवं चन्द्रवंशके नृपतियोंका उल्लेख है। इसी प्रसंगमें जम्बूद्वीप तथा उसके विभिन्न वर्षोंसहित भारतवर्षका वर्णन है। भारतवर्षमें ही पारलौकिक लाभके लिये यति तपस्या करते, यज्ञकर्ता अग्निमेें आहुति डालते तथा दाता आदरपूर्वक दान देते हैं। यहाँ लाखों जन्म धारण करनेके बाद बहुत बड़े पुण्यके संचयसे जीव कभी मनुष्यजन्म पाता है। इसके बाद अन्य द्वीपोंका तथा पाताल एवं नरकोंका वर्णन है और उसी प्रसंगमें भगवन्नामकी अलौकिक महिमाका निरूपण किया गया है। तपश्चर्यात्मक सम्पूर्ण प्रायश्चित्तोंमें भगवान् श्रीकृष्णका निरन्तर स्मरण श्रेष्ठ है। पाप कर लेनेपर जिस पुरुषको उसके लिये पश्चात्ताप होता है, उसके लिये एक बार भगवान् श्रीहरिका स्मरण कर लेना ही सर्वोत्तम प्रायश्चित्त बताया गया है। भगवान् नारायणका स्मरण करनेवाला मनुष्य तत्काल पापमुक्त हो जाता है। इसलिये जो पुरुष रात-दिन भगवान् विष्णुका स्मरण करता है, वह अपने समस्त पातकोंका नाश हो जानेके कारण कभी नरकमें नहीं पड़ता। यही नहीं, भगवान् विष्णुके स्मरण और कीर्तनसे सम्पूर्ण क्लेशराशिके क्षीण हो जानेपर मनुष्य मुक्त हो जाता है। उसके लिये फलरूपसे इन्द्रादिके पदकी प्राप्ति विघ्नमात्र है। कहाँ तो जहाँसे लौटना पड़ता है, ऐसे स्वर्गलोककी प्राप्ति और कहाँ मोक्षके सर्वोत्तम बीज वासुदेव-मन्त्रका जप! दोनोंमें कोई तुलना नहीं है।

भगवान् विष्णुका स्वरूप

इसके बाद सूर्य आदि ग्रहों तथा भुव: आदि लोकोंकी स्थिति तथा श्रीविष्णुके प्रभावका वर्णन है। भगवान् विष्णु ही परब्रह्म हैं। उन्हींसे यह सम्पूर्ण जगत् उत्पन्न हुआ है, वे ही जगत्स्वरूप हैं तथा उन्हींमें इस जगत् का लय होगा। सत् और असत् दोनों वे ही हैं, वे ही परमपद हैं, वे ही अव्याकृत मूलप्रकृति और वे ही व्याकृत जगत् हैं। यह सब कुछ उन्हींमें लय होता है और उन्हींके आधार स्थित रहता है। वे ही क्रियाओंके कर्ता—यजमान हैं, उन्हींका यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है तथा यज्ञ और उसके फल भी वे ही हैं। युग आदि सब कुछ उन्हींसे प्रवृत्त होता है। उन श्रीहरिसे भिन्न कुछ भी नहीं है।

ब्रह्माजीके द्वारा भारतकी महिमाका वर्णन

इसके बाद तीर्थोंका वर्णन और फिर व्यासजीका मुनियोंके साथ संवाद है। उसीके अन्तर्गत ब्रह्माजीका भृगु आदि मुनीश्वरोंके साथ संवाद है। ब्रह्माजीके द्वारा उपदिष्ट होनेके कारण ही इस पुराणकी ब्रह्मपुराण संज्ञा हुई है। ब्रह्माजीने सर्वप्रथम भारतवर्षकी महिमाका वर्णन किया। उन्होंने बताया कि यह परम प्राचीन तथा भोग और मोक्ष प्रदान करनेवाला उत्तम क्षेत्र है। यहीं किये हुए कर्मोंके फलस्वरूप स्वर्ग और नरक प्राप्त होते हैं। यहाँ ब्राह्मण आदि वर्ण भलीभाँति संयमपूर्वक रहते हुए अपने-अपने कर्मोंका अनुष्ठान करके उत्तम सिद्धिको प्राप्त होते हैं। भारतवर्षमें संयमशील पुरुष धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष—सब कुछ प्राप्त करते हैं। इन्द्रादि देवताओंने भारतवर्षमें शुभकर्मोंका अनुष्ठान करके ही देवत्व प्राप्त किया है। इसके सिवा अन्य जितेन्द्रिय पुरुषोंने भी भारतवर्षमें शान्त, वीतराग एवं मात्सर्यरहित जीवन बिताते हुए मोक्ष प्राप्त किया है। देवता सदा इस बातकी अभिलाषा करते हैं कि हमलोग कब स्वर्ग और मोक्ष प्रदान करनेवाले भारतवर्षमें जन्म लेकर निरन्तर उसका दर्शन करेंगे। इस प्रकार जिस सौभाग्यके लिये देवतालोग भी तरसते हैं, वह दुर्लभ सौभाग्य भगवान् की असीम अनुकम्पासे हम भारतवासियोंको अनायास प्राप्त है। हमें चाहिये कि हम शीघ्र-से-शीघ्र भगवान् के चरणोंकी सन्निधि प्राप्तकर अपना जन्म और जीवन सफल करें। इसीके लिये हमें भगवान् ने दयापूर्वक यहाँ जन्म दिया है।

देवी पार्वतीकी अनुपम धर्मनिष्ठा

इसके बाद भगवान् सूर्यकी महिमा तथा अदितिके गर्भसे उनके अवतारका वर्णन है। इसके अनन्तर भगवती पार्वतीका पावन चरित्र है। वे बचपनसे ही भगवान् शंकरको पतिरूपमें पानेके लिये तपस्यामें प्रवृत्त हो गयी थीं। वास्तवमें तो वे शंकरजीकी स्वरूपा-शक्ति होनेके कारण शंकरजीसे सदा ही संयुक्त हैं, अभिन्न हैं; जगत् को शिक्षा देनेके लिये ही उन्होंने यह लीला की थी। देवताओंसे यह आश्वासन मिलनेपर कि ‘शंकरजी स्वयं शीघ्र ही तुम्हारा वरण करेंगे’ वे तपस्यासे विरत हो गयीं। किन्तु फिर भी वे रहीं अपने आश्रममें ही। एक दिन भगवान् शंकर चन्द्रमाके आकारका तिलक लगाये नाटा एवं विकृतरूप धारण करके उनके पास आये। उनकी नाक कटी थी। कूबड़ निकला हुआ था। उनके मुखकी आकृति भी बिगड़ी हुई थी। उन्होंने पार्वतीसे कहा—‘देवि! मैं तुम्हारा वरण करता हूँ।’ देवीपार्वतीने उन्हें पहचान लिया और अर्ध्य, पाद्य एवं मधुपर्कके द्वारा उनका पूजन किया। फिर भी लोक-मर्यादाकी रक्षाके लिये उन्होंने विकृतरूपधारी शंकरजीसे कहा—‘भगवन्! मैं स्वतन्त्र नहीं हूँ। मेरे पिता घरपर हैं। वे ही मुझे देनेमें समर्थ हैं, मैं इस समय उन्हींके अधीन हूँ।’ भारतकी धर्मप्राणा देवियो! जगज्जननी उमा ही तुम्हारे लिये सदासे आदर्श रही हैं, उन्हींके पदचिह्नोंपर चलनेमें तुम्हारी शोभा एवं तुम्हारा कल्याण है। स्त्री-स्वातन्त्र्यके पक्षपातियोंके बहकावेमें आकर अपनी प्राचीन मर्यादाका कभी त्याग न करना।

देवी पार्वतीका ब्राह्मणकी रक्षाके लिये अपूर्व त्याग

पार्वतीका धर्मानुकूल उत्तर सुनकर बाबा भोलेनाथ वहाँसे चले गये। उनके चले जानेपर पार्वतीदेवी उन्हींमें मन लगाये एक शिलापर बैठ गयीं। इसी समय देवाधिदेव शंकर एक नयी लीला रचनेके लिये ब्राह्मण-बालकका रूप धारणकर निकटवर्ती सरोवरमें प्रकट हुए। उस बालकको एक ग्राहने पकड़ रखा था। बालक चिल्ला रहा था—‘मुझे बचाओ, मुझे बचाओ।’ पीड़ित ब्राह्मणकी वह पुकार सुनकर कल्याणमयी देवी पार्वती सहसा उठ खड़ी हुईं और उस स्थानपर गयीं, जहाँ वह बालक ग्राहके मुखमें पड़ा थर-थर काँप रहा था। भला, जगदम्बासे वह दृश्य कैसे देखा जाता। जिनके वात्सल्य-समुद्रके एक छोटे-से कणको पाकर संसारभरकी माताओंका हृदय वात्सल्यसे परिपूर्ण है, वे एक बालकको इस अवस्थामें देखकर कैसे अपनेको सँभाल सकती थीं। उन्होंने बड़े ही करुणापूर्ण शब्दोंमें ग्राहसे कहा—‘ग्राहराज! इस दीन बालकको छोड़ दो।’ ग्राहने कहा—‘देवि! आपने अबतक जो कुछ भी तपस्या की है, वह सब-की-सब मुझे दे दें तो मैं इस बालकको छोड़ सकता हूँ।’

तपस्यासे ब्राह्मण ऊँचा है

दूसरा कोई होता तो इतने बड़े मूल्यको सुनकर सहम जाता। खासकर जो तपस्या भगवान् शंकरको प्रसन्न करनेके उद्देश्यसे की गयी हो, उसका इस प्रकार सहसा एक बालककी प्राणरक्षाके मूल्यपर बेच डालना अत्यन्त दुष्कर कार्य था। परन्तु एक असहाय बालकके प्राण बचानेके लिये जगज्जननी सब कुछ कर सकती हैं। उन्होंने कहा—‘ग्राह! मैंने जन्मसे लेकर अबतक जो भी पुण्य किया है, वह सब तुम्हारे अर्पण है। तुम कृपया इस बालकको छोड़ दो।’ इस उत्तरको सुनकर ग्राहको बड़ी प्रसन्नता हुई। देवी पार्वतीकी अनुपम तपस्याको पाकर वह दोपहरके सूर्यकी भाँति तेजसे प्रज्वलित हो उठा। उस समय उसकी ओर देखना कठिन था। उसने कहा—‘महाव्रते! तुमने यह क्या किया। भलीभाँति सोचकर देखो, तपस्याका उपार्जन बड़ी कठिनतासे होता है। अत: तुम अपनी तपस्या वापस ले लो। मैं तुम्हारे इस अनुपम त्यागसे ही प्रसन्न होकर इस बालकको छोड़े देता हूँ।’ ग्राहके इस वचनको सुनकर देवीने जो उत्तर दिया, वह स्वर्णाक्षरोंमें अंकित करने योग्य है। वह उन्हींके अनुरूप था। देवीने कहा—‘ग्राह! मुझे अपना शरीर देकर भी ब्राह्मणकी रक्षा करनी चाहिये। तपस्या तो मैं फिर भी कर सकती हूँ; किन्तु यह ब्राह्मण पुन: नहीं मिल सकता। महाग्राह! मैंने भलीभाँति सोचकर ही तपस्याके द्वारा बालकको छुड़ाया है। तपस्या ब्राह्मणोंसे श्रेष्ठ नहीं है, तपस्यासे मैं ब्राह्मणोंको ही श्रेष्ठ मानती हूँ। ग्राहराज! मैं तपस्या देकर फिर नहीं लूँगी। कोई भी भला आदमी दी हुई वस्तुको वापस नहीं लेता। अत: यह तपस्या तुममें ही शोभित हो। कृपया इस बालकको छोड़ दो।’

भगवान् को अर्पण किया हुआ सब कुछ अक्षय हो जाता है

पार्वतीके यों कहनेपर ग्राहने उनकी बड़ी प्रशंसा की, बालकको छोड़ दिया और देवीको नमस्कार करके वह वहीं अन्तर्धान हो गया। अपनी तपस्याकी हानि समझकर पार्वतीने पुन: नियमपूर्वक तप आरम्भ किया। इसपर भगवान् शंकर उनके सामने प्रकट हो गये और बोले—‘देवि! अब और तपस्या न करो। तुमने अपना तप मुझीको अर्पण किया है, अत: वह अक्षय हो गया है।’ सच है, भगवान् को अर्पण किया हुआ पत्र-पुष्प अथवा जल भी अक्षय हो जाता है, फिर तपस्याकी तो बात ही क्या है।

पार्वती-स्वयंवर

पार्वतीके पिताने अब अपनी पुत्रीके लिये स्वयंवर रचा। स्वयंवरकी घोषणा होते ही सम्पूर्ण लोकोंमें निवास करनेवाले देवता सज-सजकर गिरिराज हिमालयके यहाँ जुटने लगे। भगवती उमा जयमाला हाथमें लिये देव-समाजमें उपस्थित हुईं। इतनेमें ही देवीकी परीक्षाके लिये भगवान् शंकर पाँच शिखाओंवाले शिशु बनकर सहसा उनकी गोदमें आकर सो गये। देवीने बालक बने हुए अपने स्वामीको पहचान लिया और बड़े प्रेमके साथ उन्हें अपने अंकमें ले लिया। अपने अभीष्ट वरको पाकर देवी पार्वती स्वयंवरसे लौट पड़ीं। इधर देवीके अंकमें सोये हुए उस शिशुको देखकर देवतालोग चक्करमें पड़ गये और सोचने लगे कि यह कौन है। देवराज इन्द्रने अपनी एक बाँह ऊपर उठाकर उस बालकपर वज्रका प्रहार करनेकी चेष्टा की, किन्तु शिशुरूपधारी शंकरने उन्हें स्तम्भित कर दिया। अब वे न तो वज्र चला सके और न हिल-डुल सके। तब भग नामके देवताने बालकपर एक तेजस्वी शस्त्र चलाना चाहा, किन्तु भगवान् ने उनकी बाँहको भी जडवत् बना दिया। साथ ही उनका बल, तेज और योगशक्ति भी हर ली। उस समय ब्रह्माजीने शंकरजीको पहचान लिया और शीघ्र उठकर उनके चरणोंमें मस्तक झुकाया तथा देवताओंको भी उनका परिचय कराया। तब वे जडवत् बने हुए देवता शुद्धचित्तसे मन-ही-मन महादेवजीको प्रणाम करने लगे। इससे देवाधिदेव महादेवने प्रसन्न होकर उनका शरीर पहले-जैसा कर दिया। तत्पश्चात् देवेश्वरने परम अद्भुत त्रिनेत्रधारी विग्रह धारण किया। उस समय उनके तेजसे तिरस्कृत हो सम्पूर्ण देवताओंने नेत्र बंद कर लिये। तब उन्होंने देवताओंको दिव्य दृष्टि प्रदान की, जिससे वे उनके दिव्य स्वरूपका दर्शन कर सके। तदनन्तर पार्वतीदेवीने अत्यन्त प्रसन्न हो देवताओंके देखते-देखते अपने हाथकी माला भगवान् के चरणोंमें चढ़ा दी। यह देख सब देवता साधु-साधु कहने लगे। फिर उन लोगोंने भूमिपर मस्तक टेककर देवीसहित महादेवजीको प्रणाम किया। तत्पश्चात् शास्त्रोक्त विधिसे पार्वती-परमेश्वरका विवाह सम्पन्न हुआ।

गौतमी गंगाका माहात्म्य

इसके अनन्तर दक्षयज्ञ-विध्वंसकी कथा, शरणागत दक्षपर भगवान् शंकरकी कृपा, एकाम्रकक्षेत्र तथा श्रीपुरुषोत्तमक्षेत्रकी महिमा, मार्कण्डेय मुनिका चरित्र, भगवान् पुरुषोत्तमकी पूजा एवं दर्शनका फल आदि विविध विषयोंका वर्णन है। इसके बाद गौतमी गंगा (गोदावरी) तथा भागीरथी गंगाकी उत्पत्ति तथा गौतमी गंगाके माहात्म्यका विस्तृत वर्णन है। गौतमी गंगाके माहात्म्यका प्रसंग किसी-किसी मुद्रित प्रतिमें अलग दिया गया है और किन्हीं-किन्हीं विद्वानोंका मत है कि यह ब्रह्मपुराणसे अलग है। हस्तलिखित प्रतियोंमें भी इसकी सर्वत्र उपलब्धि नहीं होती। फिर भी कई मुद्रित प्रतियोंके आधारपर हमने इसे ब्रह्मपुराणका ही अंग मान लिया है। वास्तवमें यह ब्रह्मपुराणके अन्तर्गत है या नहीं—इसका निर्णय विद्वान् समीक्षक करेंगे।

कपोत-कपोतीका अद्भुत त्याग तथा अतिथि-सेवाका महत्त्व

गौतमी-माहात्म्यके अन्तर्गत कपोत-तीर्थके प्रसंगमें कपोत-दम्पतिका चरित्र बड़ा ही रोमांचजनक एवं प्रभावोत्पादक है। अन्य महाभारतादि ग्रन्थोंमें भी इसका उल्लेख मिलता है। कहते हैं, ब्रह्मगिरिपर एक बड़ा भयंकर व्याध रहता था। वह ब्राह्मणों, साधुओं, यतियों, गौओं, पक्षियों तथा मृगोंकी हत्या किया करता था। उस महापापी व्याधके मनमें सदा पापके ही संकल्प उठा करते थे। उसकी स्त्री और पुत्र भी वैसे ही क्रूर स्वभावके थे। एक दिन अपनी पत्नीकी प्रेरणासे वह घने जंगलमें घुस गया। वहाँ उस पापीने अनेक प्रकारके मृगों और पक्षियोंका वध किया। कितनोंको जीवित ही पकड़कर पिंजरेमें डाल दिया। इस प्रकार बहुत दूरतक घूम-फिरकर वह अपने घरकी ओर लौटा। रास्तेमें बड़े जोरकी वर्षा आयी। हवा भी तेज चलने लगी और पानीके साथ पत्थर भी गिरने लगे। व्याध राह चलते-चलते थक गया था। जलकी अधिकताके कारण मार्गका ज्ञान ही नहीं हो पाता था। जल, थल और गड्ढेकी पहचान असम्भव हो गयी थी। व्याध बड़ी चिन्तामें पड़ गया। उसे कोई ऐसा स्थान नहीं दिखायी दिया, जहाँ बैठकर वह वर्षा एवं वातसे त्राण पा सकता। इतनेमें ही उसे थोड़ी दूरपर एक बहुत बड़ा वृक्ष दिखायी दिया, जो शाखाओं एवं पल्लवोंसे सुशोभित था। वह उसीके नीचे आकर बैठ गया। उसके सारे वस्त्र भीग गये थे। उसे अब स्त्री और बच्चोंकी चिन्ताने आ घेरा। इतनेमें सूर्यास्त होनेको आ गया।

उसी वृक्षपर एक कपोत पक्षी अपनी स्त्री और बच्चोंके साथ रहता था। उस वृक्षपर रहते उसको कई वर्ष बीत गये थे। वह अपने परिवारके साथ बड़ा सुखी था। उसकी स्त्री कपोती बड़ी पतिव्रता थी। वह अपने पति एवं पुत्रोंके साथ उसी वृक्षके खोडरमें रहती थी। वहाँ हवा और पानीसे पूरा बचाव था। उस दिन कपोत और कपोती दोनों चारा चुगने बाहर गये थे; परन्तु अकेला कपोत ही वापस आ पाया था। दैववश कपोती उसी व्याधके जालमें फँस गयी थी, किन्तु जीवित थी। कपोत कपोतीको लौटते न देख बड़ा चिन्तित हुआ। वर्षा अबतक जारी थी और सूर्य पश्चिममें डूब चुके थे। अब तो कपोत लगा रोने। उसे क्या पता था कि उसकी कपोती वहीं पिंजरेमें बंद है। कपोतका करुण विलाप सुनकर कपोती पिंजरेमेंसे बोली—‘प्राणनाथ! मैं यहीं पिंजरेमें बंद हूँ। आप मेरे लिये चिन्ता न करें।’ कपोतीका यह वचन सुनकर कपोत वृक्षसे नीचे उतरा और कपोतीके पास चला आया। वहाँ उसने देखा कि उसकी प्रिया जीवित है और व्याध मृतककी भाँति निश्चेष्ट पड़ा है। तब उसने अपनी पत्नीको बन्धनसे मुक्त करनेका विचार किया। इसपर कपोतीने उन्हें रोकते हुए कहा—‘स्वामिन्! इसके लिये कष्ट करनेकी आवश्यकता नहीं है। आप अपने धर्मपर दृढ़तापूर्वक आरूढ रहें। आप जानते हैं, ब्राह्मणोंके गुरु अग्नि हैं, ब्राह्मण सब वर्णोंका गुरु है, स्त्रियोंका गुरु उसका पति है और अभ्यागत सबका गुरु है। जो लोग अपने घरपर आये हुए अतिथिको वचनोंद्वारा सन्तुष्ट करते हैं, उनके उन वचनोंसे वाणीकी अधीश्वरी सरस्वती देवी प्रसन्न होती हैं; अतिथिको अन्न देनेसे इन्द्र तृप्त होते हैं; उसके चरण धोनेसे पितर, उसे भोजन करानेसे प्रजापति, उसकी सेवा-पूजासे लक्ष्मीसहित श्रीविष्णु तथा उसे सुखपूर्वक शयन करानेसे सम्पूर्ण देवता तृप्त होते हैं। अत: अतिथि सबके लिये परम पूज्य है। यदि सूर्यास्तके बाद थका-माँदा अतिथि घरपर आ जाय तो उसे देवता समझे; क्योंकि वह सब यज्ञोंका फलरूप है। थके हुए अतिथिके साथ गृहस्थके घरपर सम्पूर्ण देवता, पितर और अग्नि भी पधारते हैं। यदि अतिथि तृप्त हुआ तो उन्हें भी बड़ी प्रसन्नता होती है; और यदि वह निराश होकर चला गया तो वे भी निराश होकर ही लौटते हैं। अत: प्राणनाथ! आप सर्वथा दु:ख छोड़कर शान्ति धारण करें और अपनी बुद्धिको शुभकर्ममें लगाकर धर्मका सम्पादन करें। दूसरोंके द्वारा किये हुए उपकार और अपकार दोनों ही साधु पुरुषोंके विचारसे श्रेष्ठ हैं। उपकार करनेवालोंपर तो सभी उपकार करते हैं; अपकार करनेवालोंके साथ जो अच्छा बर्ताव करे, वही पुण्यका भागी बताया गया है।’

अतिथि-सेवाके लिये धनकी आवश्यकता नहीं है

कपोतीके इन धर्ममय वचनोंको सुनकर कपोतको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह बोला—‘प्रिये! तुम्हारी बात बिलकुल यथार्थ है। परन्तु इस सम्बन्धमें मुझे भी एक बात तुमसे कहनी है। वह यह है कि कोई हजार प्राणियोंका भरण-पोषण करता है, दूसरा दसका ही निर्वाह करता है और कोई ऐसा है, जो सुखपूर्वक केवल अपनी जीविका चला लेता है। परन्तु हमलोग तो ऐसे जीवोंमेंसे हैं, जो अपना ही पेट बड़े कष्टसे भर पाते हैं। कुछ लोग खाईं खोदकर उसमें अन्न भरकर रखते हैं, कुछ लोग कोठेभर अन्नके धनी होते हैं और कितने ही घड़ोंमें धान भरकर रखते हैं। परन्तु हमारे पास तो उतना ही संग्रह रहता है, जितना हमारी चोंचमें आ जाय। शुभे! तुम्हीं बताओ, ऐसी दशामें मैं थके-माँदे अतिथिका आदर-सत्कार किस प्रकार करूँ?’ कपोतीने कहा—‘प्राणनाथ! अग्नि, जल, मीठी वाणी, तृण और काष्ठ आदि जिससे भी सम्भव हो, अतिथिकी सेवा करनी चाहिये।’

कपोत-दम्पतिका स्वर्ग-गमन

अपनी प्यारी स्त्रीका कथन सुनकर पक्षिराज कपोतने पेड़के शिखरपर पहुँचकर सब ओर देखा तो कुछ दूरीपर उसे आग दिखायी दी। वहाँ जाकर वह चोंचसे एक जलती हुई लकड़ी उठा लाया और व्याधके आगे रखकर उसने अग्नि प्रज्वलित की। फिर सूखी लकड़ियाँ, पत्ते और तिनके ला-लाकर वह आगमें डालने लगा। उसे देखकर सर्दीसे दु:खी व्याधने जडवत् बने हुए अपने अंगोंको सेंका। इससे उसे बड़ा आराम मिला। कपोतीने देखा, व्याध क्षुधाकी आगमें जल रहा है; अत: उसने अपने स्वामीसे कहा—‘नाथ! मुझे आगमें डाल दीजिये। मैं अपने शरीरसे इस व्याधको तृप्त करूँगी।’ कपोतने कहा—‘मेरे रहते तुम्हारा यह धर्म नहीं है। आज तो मुझे ही अतिथि-यज्ञ करने दो।’ यों कहते हुए पत्नीके उत्तरकी प्रतीक्षा न करके कपोतने भगवत्-स्मरणपूर्वक अग्निकी तीन बार प्रदक्षिणा की; फिर व्याधसे यह कहता हुआ अग्निमें कूद पड़ा कि ‘मुझे सुखपूर्वक उपयोगमें लाओ।’ कपोतके इस दैवी व्यवहारको देखकर व्याध तो लज्जाके मारे गड़ गया और अपने मनुष्य-जीवनको धिक्कारने लगा। इसपर व्याधसे कपोतीने कहा—‘महाभाग! अब मुझे छोड़ दो, मैं अपने पतिदेवका सहगमन करूँगी।’ उसकी बात सुनकर व्याध हक्का-बक्का-सा रह गया और उसने तुरंत ही कपोतीको बन्धनमुक्त कर दिया। व्याधके देखते-देखते कपोतीने भी अपने पतिके मार्गका ही अनुसरण किया। उसने पृथ्वी, देवता, गंगा तथा वनस्पतियोंको नमस्कार किया और अपने बच्चोंको सान्त्वना देकर व्याधसे कहा—‘महाभाग! तुम्हारी ही कृपासे मुझे यह अनुपम सौभाग्य प्राप्त हुआ है। मैं पतिके साथ स्वर्गलोकमें जाती हूँ।’ यों कहकर वह पतिव्रता कपोती आगमें प्रवेश कर गयी। उसी समय आकाशमें जय-जयकारकी ध्वनि गूँज उठी! तत्काल ही सूर्यके समान तेजस्वी अत्यन्त सुन्दर विमान आकाशसे उतर आया। कपोत और कपोती दोनों देवताओंके समान दिव्य शरीर धारण करके उसपर आरूढ़ हुए और आश्चर्यचकित व्याधसे प्रसन्न होकर बोले—‘महामते! हम देवलोकमें जाते हैं और तुम्हारी आज्ञा चाहते हैं। तुम अतिथिके रूपमें हम दोनोंके लिये स्वर्गकी सीढ़ी बनकर आ गये। तुम्हें नमस्कार है।’

गोदावरी-स्नानका माहात्म्य

उन दोनोंको श्रेष्ठ विमानपर बैठे देख व्याधने भी अपना धनुष और पिंजरा फेंक दिया और हाथ जोड़कर कहा—‘महाभागो! मेरा त्याग न करो। मैं अज्ञानी हूँ। मुझे भी कुछ उपदेश दो। मैं तुम्हारे लिये सम्मान्य अतिथि होकर आया था, इसलिये मेरे उद्धारका भी उपाय बताते जाओ।’ उन दोनोंने कहा—‘व्याध! तुम्हारा कल्याण हो, तुम भगवती गोदावरीके तटपर जाओ और उन्हींको अपना पाप भेंट कर दो। वहाँ पंद्रह दिनोंतक डुबकी लगानेसे तुम पापमुक्त हो जाओगे। पापमुक्त होकर जब तुम पुन: गौतमी गंगामें स्नान करोगे, तब अश्वमेध यज्ञका फल पाकर अत्यन्त पुण्यवान् हो जाओगे।’ उन दोनोंकी बात सुनकर व्याधने वैसा ही किया। फिर वह भी दिव्यरूप धारण करके एक श्रेष्ठ विमानपर जा बैठा। तभीसे वह स्थान कपोततीर्थके नामसे विख्यात हुआ। वहाँ स्नान, दान, पितृ-तर्पण, जप, यज्ञ आदि कर्म करनेपर वे अक्षय फलको देनेवाले बन जाते हैं।

त्यागकी महिमा

अतिथि-सत्काररूप गृहस्थ-धर्मका पालन करनेके लिये उस कपोत-दम्पतिने जो अनुपम एवं आदर्श त्याग किया, वह जगत् के इतिहासमें अद्वितीय है। पशु-पक्षियोंकी तो बात ही क्या, मनुष्योंमें भी वैसी त्यागबुद्धि होनी अत्यन्त कठिन है। शिबि आदि थोड़े-से नररत्नोंमें ही ऐसे त्यागका उदाहरण मिलता है। जिस देशमें और जिस धर्मकी छत्रछायामें पले हुए पक्षियोंमें भी ऐसा अद्भुत त्याग पाया जाता है, उस देश और उस धर्मकी कहाँतक बड़ाई की जाय। वास्तवमें त्याग ही उन्नति एवं सुखका मूल है। जगत् ने आज त्यागके आदर्शको छोड़ दिया, इसीलिये वह दु:खोंका केन्द्र बना हुआ है। त्यागसे मनुष्य किसी प्रकार भी घाटेमें नहीं रहता। बीज बोये जाते हैं बहुत थोड़े, परंतु उनसे दाने कई गुने पैदा हो जाते हैं। फिर उन दानोंका उगना तो हमारे प्रारब्धपर निर्भर है, किंतु त्यागका फल तो अवश्य होता है। कपोत-कपोतीने त्याग तो किया था कपोत-शरीरका, जो सब प्रकारसे अधम और थोड़े दिन रहनेवाला था और उसमें वे सर्वथा कष्टका ही अनुभव करते थे। परन्तु बदलेमें उन्हें मिले चिरकालतक रहनेवाले देवशरीर और दिव्यभोग। फिर भी मनुष्यको विश्वास नहीं होता, इसीलिये वह थोड़े लाभका त्याग न करके महान् लाभसे वंचित रह जाता है। इस आख्यानसे यह भी सिद्ध हो गया कि किसीकी सेवा-सत्कारके लिये विपुल धनकी आवश्यकता नहीं है। जो भी जिसके पास है, उसीसे सेवा हो सकती है। सेवामें प्रधान वस्तु भाव है। त्यागकी भावना होनेसे थोड़ी-सी भी सेवा महान् फलदायक हो जाती है। सेवामें ऊँची बात यह है कि सेवक सेवा स्वीकार करनेवालेका उपकार माने; यह न समझे कि मैं सेवा करके किसीका उपकार कर रहा हूँ। विचार करके देखा जाय तो बात भी ऐसी ही है। व्याध यदि कपोत-कपोतीके यहाँ अतिथि बनकर न आता और उन्हें सेवाका अवसर न देता तो उन्हें वह दिव्य सुख कैसे प्राप्त होता। आतिथ्यके लिये पात्रापात्रका भी विचार नहीं किया जाता। अतिथि चाहे वर्णमें नीचा हो, पापीसे भी पापी हो, हिंसक हो—यहाँतक कि अपना अपकारी अथवा शत्रु भी क्यों न हो—उसकी बिना विचारे तन-मन-धनसे सेवा करना गृहस्थका परम धर्म है। अतिथि और शरणागत—ये दो चाहे कैसे भी हों, ये सर्वथा हमारी सेवा एवं रक्षाके पात्र होते हैं। अतिथि और शरणागतके लिये प्राणोंका त्याग भी करना पड़े तो वह थोड़ा है; बल्कि उनके लिये त्याग न करनेमें बड़ी हानि और पाप बताया गया है। हमारे प्राचीन शास्त्रोंका ही अनुवाद करते हुए गोस्वामी तुलसीदासजीने यहाँतक कह दिया है—

सरनागत कहुँ जे तजहिं निज अनहित अनुमानि।
ते नर पावँर पापमय तिन्हहि बिलोकत हानि॥

हिंदू-धर्मकी महत्ता

शरणागत पापी है अथवा उसकी रक्षा करनेमें हमारी लौकिक हानि होगी—यह विचारकर उसकी रक्षासे मुँह मोड़नेवाला स्वयं पापी ही नहीं, मनुष्यके वेषमें राक्षस है! जिस धर्ममें अतिथि-सेवा और शरणागतकी रक्षापर इतना जोर दिया गया हो, उस धर्मकी तुलनामें कौन धर्म ठहर सकता है। अतिथि-सेवा ही नहीं, जीवमात्रकी सेवाको हमारे यहाँ महायज्ञ—भगवान् की बहुत बड़ी पूजा माना गया है और उसे अवश्यकर्तव्य बताया गया है। पंचमहायज्ञ और क्या हैं? उनमें देवताओंसे लेकर छोटे-से-छोटे जीवतककी सेवाका ही तो विधान है। प्राणियोंकी ही नहीं, पेड़-पौधोंतककी सेवा एवं रक्षा तथा भूमि एवं पर्वतों तथा चन्द्र और सूर्य आदि ग्रहोंतककी पूजाका हिंदू-धर्ममें विधान है, जिन्हें आजका जगत् जड मानकर अवहेलना करता है। आज लोग यह कहकर हमारी खिल्ली उड़ाते हैं कि हिंदू पत्थर पूजते हैं; परन्तु इस रहस्यको कोई नहीं जानता कि हिंदू चेतन जीवमात्रको ही नहीं, कंकड और पत्थर तथा अग्नि और जल-जैसी जड वस्तुओंमें भी भगवान् को ही देखते हैं, उनके रूपमें भी भगवान् को ही पूजते हैं। हमारे भगवान् किसी देशविशेष अथवा वस्तुविशेषमें सीमित नहीं, वे तो अणु-अणुमें व्याप्त हैं। भगवान् और सीमित, यह तो वदतोव्याघात है। भगवान् ऐसे नहीं, वैसे हैं; वे निराकार हैं, साकार नहीं हो सकते; वे मनुष्य अथवा पशु-पक्षीके रूपमें अवतरित नहीं हो सकते—यह कहना तो भगवान् पर शासन करना हुआ। जो लोग भगवान् को इतना सीमित मानते हैं, वे तो दयाके पात्र हैं। भगवान् क्या हैं, इसे तो भगवान् ही जान सकते हैं, दूसरे किसकी सामर्थ्य है। हम तो इतना ही कह सकते हैं—वे सब कुछ हैं, सबसे परे हैं और सबमें भरे हैं। जिसे हम असत् कहते हैं, वह भी वे ही हैं। वे-ही-वे हैं। उनके सिवा कुछ नहीं। यही हिंदू-धर्म है।

धर्मनिष्ठाका अपूर्व उदाहरण

चक्षुस्तीर्थके माहात्म्यके प्रसंगमें मणिकुण्डल नामक वैश्यका चरित्र बड़ा ही उदात्त है। गौतमीके दक्षिण-तटपर भौवन नामका एक विख्यात नगर था। उसमें गौतम नामका एक ब्राह्मण रहता था। गौतमकी एक वैश्यके साथ मित्रता हो गयी। वैश्यका नाम मणिकुण्डल था। इनमें गौतम दरिद्र था, मणिकुण्डल धनी। एक बार गौतमकी प्रेरणासे दोनों मित्रोंने धन कमानेके उद्देश्यसे विदेश जानेका निश्चय किया। मणिकुण्डलने अपने घरसे बहुत-से रत्न लाकर गौतमको दिये और कहा—‘मित्र! इस धनसे हमलोग सुखपूर्वक देश-देशान्तरोंमें भ्रमण करेंगे और धन कमाकर फिर घर लौट आयेंगे।’ इस प्रकार आपसमें सलाह करके माता-पिताको सूचना दिये बिना ही दोनों घरसे निकल पड़े। किंतु मणिकुण्डलके रत्नोंको देखकर गौतमके मनमें पाप समा गया। वह जिस किसी प्रकार उन रत्नोंको हड़प जाना चाहता था। एक बार बातों-ही-बातोंमें दोनोंमें परस्पर विवाद छिड़ गया। गौतम कहता था—‘पापसे ही जीवोंकी उन्नति होती है और वे मनोवांछित सुख प्राप्त करते हैं। संसारमें धर्मात्मालोग प्राय:दु:खी ही देखे जाते हैं। अत: एकमात्र दु:खको पैदा करनेवाले धर्मसे क्या लाभ।’ इसके विपरीत वैश्य कहता था—‘नहीं-नहीं, ऐसी बात कदापि नहीं है। वस्तुत: धर्ममें ही सुख है। पापमें तो केवल दु:ख, भय, शोक, दरिद्रता और क्लेश ही रहते हैं। जहाँ धर्म है, वहीं मुक्ति है।’ इस प्रकार विवाद करते हुए दोनोंमें यह शर्त लगी कि जिसका पक्ष श्रेष्ठ सिद्ध हो, वह दूसरेका धन ले ले। इस प्रकारकी शर्त करके दोनों जो भी मिलता था, उससे यही पूछते थे—पृथ्वीपर धर्म बलवान् है या अधर्म? इसपर किसीने उनसे यह कह दिया—‘जो धर्मके अनुसार चलते हैं, उन्हें दु:ख भोगना पड़ता है और इसके विपरीत बड़े-बड़े पापी मनुष्य सुखी देखे जाते हैं।’ यह निर्णय सुनकर वैश्यने अपना सारा धन ब्राह्मणको दे दिया; किंतु मणिकुण्डलकी धर्ममें दृढ़ निष्ठा थी, बाजी हार जानेपर भी वह बराबर धर्मकी ही प्रशंसा करता रहा।

तब ब्राह्मणने कहा—‘अच्छा, तो अब दोनों हाथोंकी बाजी लगायी जाय। जो जीत जाय, वह दूसरेके हाथ काट ले।’ वैश्यने यह शर्त भी मंजूर कर ली। फिर दोनोंने जाकर पहलेकी ही भाँति लौकिक मनुष्योंसे इसका निर्णय कराया। निर्णय ज्यों-का-त्यों रहा। तब गौतमने मणिकुण्डलके दोनों हाथ काट लिये और उससे पूछा—‘मित्र! अब क्या कहते हो?’ मणिकुण्डल अपने निश्चयपर अटल था। उसने कहा—‘भाई! मेरे प्राण कण्ठतक आ जायँ, तब भी मैं धर्मको ही श्रेष्ठ मानता रहूँगा। धर्म ही देहधारियोंकी माता, पिता, सुहृद् और बन्धु है’ इस प्रकार दोनोंमें विवाद चलता रहा। ब्राह्मण धनवान् हो गया और वैश्य धनके साथ-साथ अपने दोनों हाथ भी खो बैठा। धर्मपर दृढ़ रहनेवालोंको प्रारम्भमें इसी प्रकार कष्ट उठाने पड़ते हैं। इस तरह भ्रमण करते हुए दोनों गौतमी गंगाके तटपर भगवान् योगेश्वरके स्थानमें आ पहुँचे। वहाँ पहुँचनेपर फिर दोनोंमें विवाद आरम्भ हो गया। वैश्य वहाँ भी धर्मकी ही प्रशंसा करता रहा। इससे ब्राह्मणको बड़ा क्रोध हुआ। वह वैश्यपर आक्षेप करते हुए बोला—‘धन चला गया। दोनों हाथ कट गये। अब केवल तुम्हारे प्राण बाकी हैं। यदि फिर मेरे मतके विपरीत कोई बात मुँहसे निकाली तो मैं तलवारसे तुम्हारा सिर उतार लूँगा।’ वैश्य हँसने लगा। उसने पुन: गौतमको चुनौती देते हुए कहा—‘मैं तो धर्मको ही बड़ा मानता हूँ; तुम्हारी जो इच्छा हो, कर लो। जो ब्राह्मण, गुरु, देवता, वेद, धर्म और भगवान् विष्णुकी निन्दा करता है, वह पापाचारी मनुष्य पापरूप है। वह स्पर्श करनेयोग्य नहीं है। धर्मको दूषित करनेवाले उस पापात्मा मनुष्यका परित्याग कर देना चाहिये।’ तब ब्राह्मणने कुपित होकर कहा—‘यदि तुम धर्मकी प्रशंसा करते हो तो हम दोनोंके प्राणोंकी बाजी लग जाय।’ वैश्यने कहा—‘ठीक है।’ फिर दोनोंने साधारण लोगोंसे प्रश्न किया, परंतु लोगोंने पहले-जैसा ही उत्तर दिया। तब ब्राह्मणने वहीं गौतमीके तटपर भगवान् योगेश्वरके सामने वैश्यको गिरा दिया और उसकी आँखें निकाल लीं। फिर कहा—‘वैश्य! प्रतिदिन धर्मकी प्रशंसा करनेसे ही तुम इस दशाको पहुँचे हो। तुम्हारा धन गया, दोनों हाथ गये और आँखें भी जाती रहीं। मित्र! अब तुमसे विदा लेता हूँ। फिर कभी भूलकर भी धर्मकी प्रशंसा न करना।’ यों कहकर क्रूर गौतम चला गया।

धर्मनिष्ठाका अमृतमय फल

गौतमके चले जानेपर वैश्यप्रवर मणिकुण्डल धन, बाहु और नेत्रोंसे रहित होकर शोकग्रस्त हो गया; तथापि वह निरन्तर धर्मका ही स्मरण करता रहा। अनेक प्रकारकी चिन्ता करते हुए वह भूतलपर निश्चेष्ट होकर पड़ा था। उसके हृदयमें उत्साह नहीं रह गया था। वह शोक-सागरमें डूबा हुआ था। दिन बीता, रजनीका आगमन हुआ और चन्द्रमण्डलका उदय हो गया। उस दिन शुक्ल-पक्षकी एकादशी थी। एकादशीको वहाँ लंकासे विभीषण आया करते थे। उस दिन भी आये; आकर उन्होंने पुत्र और राक्षसोंसहित गौतमी गंगामें स्नान किया और योगेश्वर भगवान् विष्णुकी विधिपूर्वक पूजा की। विभीषणका पुत्र भी विभीषणके ही समान धर्मात्मा था। उसे लोग वैभीषणि कहते थे। उसकी दृष्टि उस वैश्यपर पड़ी। वैश्यका सारा वृत्तान्त जानकर उसने अपने पिता विभीषणसे कहा। लंकापतिने कहा—‘पुत्र! इसी जगह विशल्यकरणी नामकी ओषधि है। उसे ले आकर तुम भगवान् का स्मरण करते हुए इसके हृदयपर रख दो। उसका स्पर्श होते ही वैश्यकी आँखें और हाथ फिर ज्यों-के-त्यों हो जायँगे।’ वैभीषणि अपने पितासे ओषधिका परिचय प्राप्तकर उसकी एक शाखा ले आये और विभीषणके कथनानुसार उसे वैश्यके हृदयपर रख दिया। वैश्य तत्काल पुन: हाथ और नेत्रोंसे युक्त हो गया। मणि, मन्त्र और ओषधियोंके प्रभावको कोई नहीं जानता। वैश्यने धर्मका चिन्तन करते हुए गौतमी गंगामें स्नान किया और योगेश्वर भगवान् विष्णुको नमस्कार करके पुन: आगे बढ़ा। उसने अपने साथ ओषधिकी टूटी हुई शाखा भी ले ली थी।

यतो धर्मस्ततो जय:

देश-देशान्तरोंमें भ्रमण करता हुआ मणिकुण्डल एक राजधानीमें पहुँचा, जो महापुरके नामसे विख्यात थी। वहाँके राजा महाराजके नामसे प्रसिद्ध थे। राजाके कोई पुत्र नहीं था, एक पुत्री थी; उसकी भी आँखें नष्ट हो चुकी थीं। राजाने यह निश्चय कर लिया था कि ‘देवता, दानव,ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, निर्गुण या गुणवान्—कोई भी क्यों न हो—मैं उसीको यह कन्या दूँगा, जो इसकी आँखें अच्छी कर देगा। कन्या ही नहीं, यह राज्य भी उसीका होगा।’ महाराजने यह घोषणा सब ओर करा दी थी। वैश्यने वह घोषणा सुनकर कहा—‘मैं निश्चय ही राजकुमारीकी खोयी हुई आँखें पुन: ला दूँगा।’ राजकर्मचारी शीघ्र ही वैश्यको महाराजके पास ले गया और उसने उस काष्ठका स्पर्श कराके राजकुमारीके नेत्र ठीक कर दिये। राजाको यह देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ। उन्होंने मणिकुण्डलका परिचय पूछा। तब मणिकुण्डलने अपना सारा वृत्तान्त राजासे कह सुनाया। राजाने अपनी प्रतिज्ञाके अनुसार कन्याके साथ ही अपना राज्य भी मणिकुण्डलको दे दिया। इस प्रकार मणिकुण्डलको प्रारम्भमें कष्ट होनेपर भी अन्तमें उसकी धर्मनिष्ठाने उसे न केवल उसकी आँखें और हाथ ही वापस दिलाये, अपितु उसे राज्य भी दिलवाया। इसीलिये शास्त्रोंने कहा है—‘यतो धर्मस्ततो जय:’। जहाँ धर्म है, वहाँ विजय होकर रहती है।

शत्रुके प्रति उपकार

परंतु मणिकुण्डलको राज्य पाकर भी मित्रके बिना संतोष नहीं हुआ। वह रात-दिन यही कहा करता था कि मित्रके बिना न तो राज्य अच्छा है और न सुख ही अच्छा लगता है। इस प्रकार वह सदा गौतम ब्राह्मणका ही चिन्तन किया करता था। इस पृथ्वीपर उत्तम कुलमें उत्पन्न हुए साधु पुरुषोंका यही लक्षण है कि अहित करनेवालोंके प्रति भी उनके मनमें सदा करुणा ही भरी रहती है। एक दिन महाराज मणिकुण्डल वनमें गये हुए थे। वहाँ उन्होंने अपने पूर्वमित्र गौतम ब्राह्मणको देखा। पापी जुआरियोंने उसका सारा धन छीन लिया था। धर्मज्ञ मणिकुण्डलने अपने ब्राह्मण मित्रको साथ ले लिया, उसका विधिपूर्वक पूजन किया और धर्मका सब प्रभाव भी बतलाया। शत्रुके प्रति ऐसा सद्‍व्यवहार धार्मिक पुरुष ही कर सकते हैं।

 

- स्रोत : तत्त्व - चिन्तामणि (गीता प्रेस, गोरखपुर द्वारा प्रकाशित)