भावनाशक्ति
भावना अन्त:करणकी एक वृत्ति है। संकल्प, निश्चय, चिन्तन, मनन आदि इसीके नाम हैं। भावना तीन प्रकारकी होती है—सात्त्विकी, राजसी और तामसी। आत्माका कल्याण करनेवाली जो ईश्वर-विषयक भावना है वह सात्त्विकी है। सांसारिक विषयभोगोंकी राजसी एवं अज्ञानसे भरी हुई हिंसात्मक भावना तामसी है। संसारके बन्धनसे छुड़ानेवाली होनेके कारण सात्त्विकी भावना उत्तम और ग्राह्य है एवं राजसी-तामसी भावना अज्ञान और दु:खोंके द्वारा बाँधनेवाली होनेके कारण निकृष्ट एवं त्याज्य है।
स्वभावके अनुसार भावना, भावनाके अनुसार इच्छा, इच्छाके अनुसार कर्म, कर्मोंके संस्कारोंके अनुसार स्वभाव एवं स्वभावके अनुसार पुन: भावना होती है इस प्रकार यह चक्र चलता रहता है। उत्तम कर्म एवं उत्तम भावना२ से बुरे कर्म एवं बुरी भावनाका३ नाश हो जाता है।
२-शास्त्रानुकूल यज्ञ, दान, तप, सेवा और भक्ति आदि उत्तम कर्म एवं भगवान् के नाम, रूप और गुणका चिन्तन करना आदि उत्तम भावना है।
३-झूठ, कपट, चोरी, व्यभिचार, हिंसा आदि बुरे कर्म एवं अज्ञान और आसक्तिसे विषयोंका तथा द्वेषबुद्धिसे जीवोंका अहित-चिन्तन करना आदि बुरी भावना है।
फिर अन्त:करण पवित्र होनेपर परमात्माकी प्राप्ति हो जाती है।
इसलिये हमलोगोंको उत्तम कर्म एवं उत्तम भावनाकी वृद्धिके लिये सदा सत्पुरुषोंका संग४ करना चाहिये।
४-सत्पुरुषोंके गुण, आचरण और उनके द्वारा दी हुई शिक्षाकी आलोचना एवं सत्-शास्त्रका अभ्यास करना भी सत्संगके ही समान है।
क्योंकि मनुष्यपर संगका बड़ा भारी प्रभाव पड़ता है। सत्संगके प्रभावसे दुष्ट मनुष्य भी उत्तम एवं कुसंगके प्रभावसे अच्छा साधक पुरुष भी बुरा बन जाता है। अतएव कल्याण चाहनेवाले पुरुषको दुराचारी, नास्तिक, दुष्ट स्वभाववाले नीच पुरुषोंके संगसे सदा बचकर रहना चाहिये, यानी उनकी उपेक्षा करनी चाहिये। किन्तु उनमें घृणा या द्वेषबुद्धि कभी नहीं करनी चाहिये। घृणा और द्वेष करना मानसिक पाप है, इससे अन्त:करण दूषित होता है और उससे बुरा संकल्प पैदा होकर मनुष्यका पतन हो जाता है।
याद रखनेकी बात है कि बुरे संगका प्रभाव तुरंत होता है एवं अच्छे संगका प्रभाव कुछ विलम्बसे होता है। इसके सिवा उत्तम पुरुष संसारमें हैं भी बहुत कम। फिर उनका मिलना दुर्लभ है एवं मिलनेपर भी उनमें प्रेम और श्रद्धा होना कठिन है। श्रद्धा और बुद्धिकी कमी, विषयोंकी आसक्ति, हृदयकी मलिनता, चित्तकी चंचलता, साधनोंकी कठिनाई, आलस्य तथा अकर्मण्यता और स्वभावके प्रतिकूल होनेके कारण सत्पुरुषोंके उपदेशका प्रभाव विलम्बसे होता है।
उपर्युक्त दोषोंके अतिरिक्त साधनमें सुगमता, सुखकी प्रतीति, मन, इन्द्रिय और स्वभावके अनुकूल होनेके कारण संसारी पुरुषोंपर कुसंगका असर तुरंत पड़ता है। किन्तु ऐसा समझकर हमलोगोंको निराश नहीं होना चाहिये; क्योंकि ईश्वरकी प्राप्ति असाध्य नहीं है। गुणातीत अव्यक्तके उपासकोंके लिये वह कष्टसाध्य (गीता १२।५) और सगुणके उपासकोंके लिये सुखसाध्य (गीता १२। ७) बतलायी गयी है।
जो मनुष्य किसी भी कार्यको असम्भव नहीं मानते, उनके लिये कष्टसाध्य कार्य भी सुखसाध्य बन जाते हैं। यूरोपमें नेपोलियन बोनापार्टने यह बात प्रत्यक्ष करके दिखला दी थी कि संसारमें उत्साह एक ऐसी वस्तु है; जो अल्प बलवालेको भी महान् वीर और धीर बना देती है। कहाँ तो यूरोपके बड़े-बड़े राजाओंकी बड़ी भारी सेना और कहाँ अकेले नेपोलियनके इने-गिने मनुष्योंका छोटा-सा दल! केवल उत्साहके बलपर उसने सारे यूरोपको हिला दिया था। नेपोलियनका यह सिद्धान्त था कि पुरुषप्रयत्नसाध्य कोई कैसा भी कठिन कार्य क्यों न हो, उसको असाध्य मानकर छोड़ देना अपनी कायरता और मूर्खताका परिचय देना है। नेपोलियनके हृदयरूपी कोशमें असम्भव शब्दको कहीं स्थान ही नहीं था। नेपोलियनने जैसे सांसारिक विजयके लिये कोशिश की थी, वैसे ही कल्याणकी इच्छावाले भाइयोंको बहुत उत्साहके साथ भगवत्प्राप्तिके लिये तत्पर होकर साधनकी चेष्टा करनी चाहिये। क्योंकि मनुष्य-शरीर बहुत दुर्लभ है और यह भगवान् की बड़ी भारी दयासे ही मिलता है।
असंख्यकोटि जीवोंमें मनुष्य-संख्या परिमित है, इससे सिद्ध है कि मनुष्यका शरीर मिलना बहुत ही कठिन है। मनुष्योंमें भी बहुत-से नास्तिक हो जाते हैं, जो ईश्वरको भी नहीं मानते और माननेवालोंमें भी कितने ही ईश्वरकी प्राप्तिको भूलसे असम्भव समझकर उससे उपराम रहते हैं। कितने ही लोग कष्टसाध्य समझते हैं, इसलिये उत्साहके साथ साधन न करनेके कारण ईश्वरकी प्राप्तिसे वंचित रह जाते हैं। जो सुगम समझते हैं वे परमात्माकी कृपासे परमात्माको सहज ही प्राप्त कर सकते हैं।
यद्यपि हमलोग अधिकारी नहीं, किन्तु भगवान् ने जब हमलोगोंको मनुष्य-शरीर दे दिया तो फिर हमलोग अपनेको अनधिकारी भी क्यों समझें? प्रभु बड़े दयालु हैं, महापापी पुरुषोंको भी वे आत्मोद्धारके लिये मनुष्यका शरीर देकर मौका देते हैं।
‘कबहुँक करि करुना नर देही।
देत ईस बिनु हेतु सनेही॥’
(तु० रा० उ०)
इतना ही नहीं, जो प्रेमपूर्वक अनन्यभावसे भजते हैं उनको अपनी प्राप्तिके लिये वे सब प्रकारसे सहायता भी करते हैं। (देखिये गीता अध्याय १०। १० एवं ९। २२) साधनमें लगानेके लिये भगवान् उत्साह भी दिलाते हैं।
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परंतप॥
(गीता २। ३)
‘हे अर्जुन! नपुंसकताको मत प्राप्त हो, यह तेरे योग्य नहीं है। हे परंतप! तुच्छ हृदयकी दुर्बलताको त्यागकर युद्धके लिये खड़ा हो।’
इसलिये हमलोगोंको भी हृदयकी कायरता (कमजोरी)-को त्यागकर अर्जुनकी भाँति भगवान् के वचनोंमें विश्वास करके श्रद्धा और प्रेमपूर्वक भगवान् की प्राप्तिके लिये कटिबद्ध होकर कोशिश करनी चाहिये। भगवान् के अंश होनेके नाते भी हमलोगोंको अपनी कमजोरी नहीं माननी चाहिये। अग्निकी चिनगारीकी भाँति जीवात्मा परमात्माका ही अंश है (गीता १५। ७)। जैसे अग्निकी छोटी-सी भी चिनगारी वायुके बलसे सारे ब्रह्माण्डको जला सकती है ऐसे ही यह जीवात्मा सत्संगरूपी वायुके बलसे समस्त पापोंको जलाकर संसार-समुद्रको गोपदकी भाँति लाँघ सकता है। समुद्र लाँघनेके समय हनुमान् जिस प्रकार अपनी शक्तिको भूले हुए थे, वैसे ही हमलोग अपनी शक्तिको भूले हुए हैं। और जाम्बवन्तके याद दिलानेपर जैसे हनुमान् तुरंत समुद्रको लाँघ गये, वैसे ही हमलोगोंको भी महात्मा पुरुषोंके वचनोंको सुनकर संसार-समुद्रको गोपदकी भाँति लाँघनेके लिये कोशिश करनी चाहिये। सारे बंदरोंमेंसे समुद्र लाँघनेकी शक्ति केवल हनुमान् में ही थी। वैसे ही सारे जीवोंके अंदर संसार-समुद्रके लाँघनेकी शक्ति केवल मनुष्यमें ही बतलायी गयी है। जैसे श्रीरामचन्द्रजीने हनुमान् को ही पात्र समझकर अपनी अॅँगूठी दी थी, वैसे ही भगवान् ने मनुष्यको ही आत्मोद्धारका अधिकार दिया है।
ऐसे परम दुर्लभ मनुष्य-शरीरको पाकर आत्मोद्धारके लिये तन्मय होकर वैसे ही कोशिश करनी चाहिये जैसे संसारी मनुष्य अर्थ और कामके लिये तन्मय होकर चेष्टा करते हैं।
संसारके अर्थ और भोगोंमें जिनकी प्रीति है वे रात-दिन अर्थ और भोगोंका ही चिन्तन करते रहते हैं। उनकी अर्थ और भोगोंमें ही दृढ़ भावना हो रही है। कामी पुरुषोंको सारा संसार प्राय: स्त्रीमय दीखता है, यानी उनके मनमें प्राय: स्त्रीका ही चिन्तन होता रहता है। लोभी पुरुषोंकी वृत्ति अर्थमयी बन जाती है, वे जो भी कुछ कार्य करते हैं, उनमें रुपयोंके हानि-लाभको ही प्रधानता देते हैं। रुपयोंका लाभ ही उनकी दृष्टिमें लाभ है और रुपयोंकी हानि ही उनकी दृष्टिमें हानि है, क्योंकि वे अर्थके दास हैं। जब वे कोई कार्य करना चाहते हैं तो उसके पूर्व ही उनके हृदयमें यह भाव पैदा होता है कि इस कामके करनेमें हमें क्या लाभ होगा। लाभ-हानिका निश्चय करके ही वे उस कार्यमें प्रवृत्त होते हैं, नहीं तो नहीं। प्रभुके भक्तोंको इन अर्थी पुरुषोंसे भी शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। अर्थी पुरुष जिस प्रकार अर्थके लिये कार्यमें प्रवृत्त होते हैं वैसे ही प्रभुके भक्तोंको प्रभुके लिये प्रवृत्त होना चाहिये। श्रीतुलसीदासजीने भी कहा है—
कामिहि नारि पिआरि जिमि
लोभिहि प्रिय जिमि दाम।
तिमि रघुनाथ निरंतर
प्रिय लागहु मोहि राम॥
यह संसार भगवान्मय है; किंतु मनुष्यको भ्रमसे अपनी-अपनी भावनाके अनुसार नाना रूपसे दीखता है। जैसे कोई एक महान् पुरुष है, वह किसीकी दृष्टिमें महात्मा, किसीकी दृष्टिमें अभिमानी, किसीकी दृष्टिमें लोभी, किसीकी दृष्टिमें पाखण्डी और किसीकी दृष्टिमें भोगी दीखता है। अपने-अपने भावोंके अनुसार ही लोगोंको नाना प्रकारसे प्रतीति होती है।
साक्षात् भगवान् श्रीराम और श्रीकृष्ण भक्तोंको ईश्वर, स्त्रियोंको कामदेव, दुष्टोंको काल, राजाओंको वीर, माता-पिताओंको बालक और योगियोंको ब्रह्म इत्यादि रूपसे दीखते थे—
जिन्ह कें रही भावना जैसी।
प्रभु मूरति तिन्ह देखी तैसी॥
देखहिं रूप महा रनधीरा।
मनहुँ बीर रसु धरें सरीरा॥
रहे असुर छल छोनिप बेषा।
तिन्ह प्रभु प्रगट काल सम देखा॥
हरिभगतन्ह देखे दोउ भ्राता।
इष्टदेव इव सब सुख दाता॥
(तु० रामायण)
मल्लानामशनिर्नृणां नरवर:
स्त्रीणां स्मरो मूर्तिमान्
गोपानां स्वजनोऽसतां क्षितिभुजां
शास्ता स्वपित्रो: शिशु:।
मृत्युर्भोजपतेर्विराडविदुषां
तत्त्वं परं योगिनां
वृष्णीनां परदेवतेति विदितो
रङ्गं गत: साग्रज:॥
(श्रीमद्भा० १०। ४३। १७)
‘रंग-भूमिमें पहुँचनेपर बलदेवजीसहित भगवान् श्रीकृष्णचन्द्रजी मल्लोंको वज्र-जैसे, साधारण पुरुषोंको पुरुषश्रेष्ठ, स्त्रियोंको मूर्तिमान् कामदेव, गोपगणको स्वजन, दुष्ट राजाओंको शासन करनेवाले, अपने माता-पिताको बालक, कंसको साक्षात् मृत्यु, अविद्वानोंको संसारी, योगियोंको परम तत्त्व परब्रह्म और यादवोंको परम देवतारूपसे विदित हुए।’
एक युवती सुन्दरी स्त्री सिंहकी भावनामें उसका खाद्य पदार्थ है, वह उसे खानेकी दृष्टिसे देखता है, वहाँ रूप, रंग और रमणीयताका कोई मूल्य नहीं है; किंतु कामी पुरुषको वही रमणीय और सुन्दर दीखती है, वह उसके रूप-लावण्यको देखकर मुग्ध हो जाता है। वही स्त्री पुत्रको माताके रूपमें दूध पिलानेवाली, शरीरका पोषण करनेवाली और जीवनका आधार दीखती है एवं वैराग्यवान् विरक्त पुरुषको वही त्याज्यरूप और ज्ञानीको परमात्माके रूपमें प्रतीत होती है। वस्तु एक होनेपर भी अपनी-अपनी भावनाके अनुसार वह भिन्न-भिन्न रूपसे प्रतीत होती है।
इसी प्रकार यह सारा संसार वस्तुत: एक परमात्माका स्वरूप होनेपर भी भ्रमसे अपने-अपने भावनानुसार भिन्न-भिन्न रूपमें प्रतीत होता है। जिसकी जैसी भावना होती है उसको यह वैसा ही दीखता है। किसीको सत् दीखता है तो किसीको असत् तथा किसी-किसीको परमात्मामय दीखता है। परिणाम भी प्राय: भावनाके अनुसार ही देखनेमें आता है।
भूत, भविष्य, वर्तमान कालके दु:खोंका चिन्तन करनेसे मनुष्य तत्काल ही दु:खी-सा हो जाता है, सुखोंका स्मरण करनेसे सुखी-सा हो जाता है।
नित्य चेतन, आनन्दस्वरूप यह जीवात्मा भी परमात्माका अंश* होनेके कारण परमात्माका ही स्वरूप है, पर यह भूलसे अपनेको देहस्वरूप मानने लग गया है।
* ईस्वर अंस जीव अबिनासी। चेतन अमल सहज सुख रासी॥ (तु० रामायण ७।११७।२)
ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:। (गीता १५। ७)
आपने भावते भूलि पर्यो भ्रम
देह स्वरूप भयो अभिमानी।
आपने भावते चंचलता अति,
आपने भावते बुद्धि बिरानी॥
आपने भावते आप बिसारत,
आपने भावते आतमज्ञानी।
सुन्दर जैसो ही भाव है आपनो,
तैसो हि होइ गयो यह प्रानी॥
(सुन्दरविलास)
इस भूलको मिटानेके लिये सबसे उत्तम उपाय भगवान् की अनन्य भक्ति है। सर्वशक्तिमान् वासुदेवको ही अपना स्वामी मानते हुए, स्वार्थ और अभिमानको त्यागकर, श्रद्धा और प्रेमभावसे निरन्तर उसका सर्वत्र चिन्तन करना अनन्य भक्ति है। भगवान् की भक्तिके प्रभावसे सारे दु:ख, अवगुण और पापोंका अत्यन्त अभाव हो जाता है, फिर मनुष्यका अन्त:करण पवित्र हो जाता है, उसकी सारी भूलें एवं संशय मिट जाते हैं, उसको सारा संसार भगवत्-रूप दीखने लग जाता है। उसकी वाणी और संकल्प सत्य हो जाते हैं, भगवान् की भक्तिके प्रतापसे उसके लिये विष भी अमृत बन जाता है।
गरल सुधा सम अरि हित होई।
(तुलसी०रा० ७।१२०।७)
भक्त प्रह्लादने यह बात प्रत्यक्ष दिखला दी कि विष भी उनके लिये अमृत हो गया, अग्नि शीतल हो गयी, अस्त्र-शस्त्र निरर्थक हो गये। सर्पोंके विषका कुछ भी असर नहीं हुआ कहाँतक कहें, जड स्तम्भमें भी चेतनमय, सर्वशक्तिमान् भगवान् नरसिंहके रूपमें प्रत्यक्ष प्रकट हो गये। प्रह्लाद भगवान् के भक्त थे, उनका संकल्प सत्य और अन्त:करण पवित्र था। इसीसे ऐसा हुआ। यह सब उत्तम भावनाका फल है। अतएव मनुष्यको अपनी उत्तम-से-उत्तम भावना बनानेके लिये कोशिश करते रहना चाहिये। विज्ञानानन्दघन परमात्माको सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापी समझकर प्रभावसहित उसके नाम, रूप और गुणोंका निष्कामभावसे चिन्तन करना, या सारे संसारको प्रभुके अन्तर्गत देखना एवं सम्पूर्ण संसारको प्रभुमय देखना या जहाँ दृष्टि एवं मन जाय वहीं प्रभुका चिन्तन करना सबसे उत्तम भावना है। इसलिये हर समय हमलोगोंको प्रभुका ही चिन्तन करते रहना चाहिये। इस प्रकार निरन्तर चिन्तन करनेसे यह सम्पूर्ण जगत् आनन्दमय प्रभुके रूपमें प्रतीत होने लगेगा। क्योंकि वस्तुत: यह प्रभुका ही स्वरूप है। भगवान् ने भी कहा है—‘सदसच्चाहमर्जुन’ (गीता ९। १९), इसीलिये इस प्रकारका अभ्यास करनेसे प्रभुकी प्राप्ति यहीं हो सकती है। यदि अभ्यासकी कमीके कारण प्रभुकी प्राप्ति यहाँ नहीं हुई तो आगे हो सकती है, क्योंकि यह मनुष्य जैसा संकल्प करता हुआ जाता है आगे जाकर वह उसीको प्राप्त होता है। कहा भी है—
सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत अथ खलु क्रतुमय: पुरुषो यथाक्रतुरस्मिँल्लोके पुरुषो भवति तथेत: प्रेत्य भवति स क्रतुं कुर्वीत॥
(छान्दोग्य० ३। १४। १)
‘यह सारा जगत् ब्रह्मका ही स्वरूप है; क्योंकि ब्रह्मसे ही उत्पन्न हुआ है, ब्रह्ममें ही स्थित है तथा ब्रह्ममें ही लीन होता है। इस प्रकार शान्तभावसे उपासना करनी चाहिये यानी शान्तचित्तसे संसारमें ब्रह्मकी भावना करनी चाहिये। यह पुरुष निश्चय संकल्पमय है। इसलिये इस लोकमें मनुष्य जैसे संकल्पवाला होता है यानी जैसा संकल्प करता है, मरकर वह आगे जाकर वैसे ही बन जाता है (फिर वहाँ जाकर पुन:) वह वैसा ही संकल्प करता है।’
क्योंकि यह नियम है कि मनुष्य सदा जिसका चिन्तन करता है अन्तकालमें भी प्राय: उसीका चिन्तन होता है और अन्तकालमें जिस वस्तुका चिन्तन करता हुआ शरीर त्यागकर जाता है, वह उसीको प्राप्त होता है।
भगवान् ने कहा है—
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम्।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित:॥
(गीता ८। ६)
इसलिये भी मनुष्यको नित्य-निरन्तर परमात्माका ही चिन्तन करना चाहिये। नित्य-निरन्तर परमात्माका चिन्तन करनेसे परमात्माकी प्राप्ति सुलभतासे होती है। परमात्मा सर्वव्यापी होनेके कारण उनका नित्य-निरन्तर चिन्तन होना कठिन भी नहीं है। सर्वत्र परमेश्वरबुद्धि करना ही सबसे उत्तम और सद्भावना है, इसलिये जिसकी सर्वत्र परमेश्वरबुद्धि हो जाती है, उसीकी विशेष प्रशंसा की गयी है।
बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।
वासुदेव: सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभ:॥
(गीता ७। १९)
‘बहुत जन्मोंके अन्तके जन्ममें तत्त्वज्ञानको प्राप्त हुआ ज्ञानी सब कुछ वासुदेव ही है अर्थात् वासुदेवके सिवा अन्य कुछ है ही नहीं, इस प्रकार मुझको भजता है वह महात्मा अति-दुर्लभ है।’
अतएव हमलोगोंको सर्वत्र भगवत्-बुद्धि करनेके लिये प्राणपर्यन्त चेष्टा करनी चाहिये, इससे बढ़कर और कुछ भी कर्तव्य नहीं है।
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